बचपन में गर्मियों में छत पर सोया करते थे. देर रात तक चाँद देखते. उसमें दिखती कभी बुढ़िया की तस्वीर, कभी रुई के फाहे, कभी बर्फ के पहाड़, कभी छोटा होता चाँद और न जाने क्या क्या? एक कल्पना की उड़ान ही तो होती थी बालमन की. मेरे लिए एक खिलौना ही तो था बचपन का जिससे खेलते खेलते न जाने कब आँख लग जाती पता ही नहीं चलता.
समय के साथ साथ जमाने की हवा बदली, हम बदले और छत पर सोना बंद हुआ. फिर भी कभी मौके बेमौके, कभी खुले में बैठ आकाश को निहारना अच्छा लगता रहा. जब भी चाँद को देखता, बचपन याद आता और मन चाँद से फिर खेलने लगता. ढूंढता वही धुँधली हो चुकी तस्वीरें बचपन की जो वक्त की गर्द में न जाने कहाँ और कब दब गईं.
एक अरसा बीता, न चाँद को चैन से निहारना हुआ, न उसके साथ खेलना. कवितायें और कहानियाँ लिखने का शौक हुआ तो चाँद में महबूबा नजर आने लगी. वो खिलौना गुम ही सा हो गया जिससे कभी घंटों खेला करता था.
कल रात न जाने क्या सोच, बरामदे में कुर्सी लगाये फिर चाँद को निहारने लगा, और लौट चला उस बचपन मे. कुछ देर आनन्द लेता रहा बचपने की छत का उस खिलौने के साथ और न जाने कब मन के भीतर का कवि, उठ खड़ा हुआ और खेल बिगाड़ दिया.
बस, भाव बदले. मन बदला और जिन्दगी की कशमकश से आ जुड़ा चाँद. जो देखते हैं आस पास, वो हाबी हुआ दूर बीते बचपने पर:
कुछ पंक्तियाँ उभरी आज के हालातों पर:
चाँद
वो दुखियारी आज एक रोटी खाकर -समीर लाल ’समीर’ |
खिलौना
सोचता हूँ इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा... गरीब बच्चे का एक अकेला खिलौना भी छिन जायेगा!! -समीर लाल ’समीर’ |
यू ट्यूब पर देखें:
जो विडियो नहीं देख पा रहे हैं और मेरे यू ए ई के मित्रों के लिए:
119 टिप्पणियां:
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फैन हूँ आपका...
हर समय सर्वश्रेष्ठ की उम्मीद रहती है आपसे...
रोटी और चाँद, चाँद और खिलौना... दोनों थीम क्या बासी और जरूरत से ज्यादा दुही गई नहीं हैं ?
बस एक शब्द -मार्मिक !
चाँद खिलौना युगों युगों से चलते आ रहा है..खुली रात में चाँद को देखना सभी को अच्छा लगता है चाहे वो उम्र के किसी पड़ाव पे हो...बहुत सुंदर पंक्तियाँ प्रस्तुत की आपने...सुंदर भाव ..खूबसूरत प्रस्तुति...धन्यवाद
आईये सुनें ... अमृत वाणी ।
आचार्य जी
....सुना है, बाल कृष्ण जब चांद से खेलने की हठ किया करते थे तो जसोदा एक थाल में पानी भरकर उसमें चांद का प्रतिबिंब दिखाकर कान्हा को बहलाती थीं.... तब से आज तक चांद से कई कृष्ण और सुदामा खेल चुके हैं... चिंतित ना हों अभी सालों तक ये खिलौना बच्चों का दिल बहलाएगा।... सुंदर कविता के लिए धन्यवाद!
सुन्दर रचना और मार्मिक प्रस्तुती ,आज गरीबों के बच्चों के लिए यही चाँद एक खिलौना है ,जिसे गरीब माँ अपने बच्चों को जब चाहे खेलने को दे देती है |
सोचता हूँ
इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!! ...
bhavpoorn panktiyan .. sunder rachna jaise hamari baat kahi gai ho
मार्मिक रचना है.....
हमारे स्वार्थी मन ने चाँद का भी फायदा उठाया खूब
उम्र के साथ बदल देतें है उसका पूरा रूप
चाँद भी सोच कर होता होगा कन्फ्यूज़
दुनिया वाले दूर से कितना कर रहें हैं मिसयूज
पास आ गए तो ........????
गर्मी की रातों में बहती बयार के साथ छत पर लेटे चाँद को निहारना (रेगिस्तान में गर्मी की रातें भी बहुत ठंडी हुआ करती है )..
कितनी यादें ताजा हो गयी ...
मगर चाँद के रंग गरीब के लिए कुछ अलग होते हैं ...उनकी रोटी जैसे ....
chhat par sone ka to maza hi kuch or hai
me aaj bhi garmiyon me chhat par hi sota hun wo bat alag hai ki jab barish aa jaye rat ko ya badal chha jaye or mere or chand ke bich aa jaye to bada gussa aata hai
shukriya aap kka
सोचता हूँ
इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!! ... Bahut sundar aur marmsparshi!
सोचता हूँ इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का एक अकेला खिलौना भी छिन जायेगा!!
बहुत मार्मिक भाव हैं कविता के
आभार
बेहतरीन रचना हमें तो कल अडवांस में ही प्रसाद में मिल गयी थी.
जबरदस्त ऊपर से नीचे तक ...जैसे हमेशा होता है
सोचता हूँ
इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना छिन जायेगा
बहुत बड़ी विडम्बना है..
बेहतरीन कवितायें समीर भाई ...
दोनों ही कविताएं बहुत सुंदर हैं. पढ़कर मन को अच्छा लगा. धन्यवाद.
चांद की बात बहुत अच्छी कही |
जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
...Insaan chahe kahin bhi pahunche lekin Roti to jameen se hi mil paayegi...
Marsparshi rachna ke liye dhanyavaad
bahut sundar abhivyakti
jiska koi jabab nahin
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
आपका लेख पढ़कर ना जाने कब हमारे भी चंचल मन में बचपन की चंचलता उभर आई, अनेकोनेक खयालात समय की आंधी की तरह गुज़र गए. ऊपर से दिल को छू जाने वाली ज़बरदस्त कविता. बहुत खूब!
आप आज भावुक दिख रहे हैं... चाँद सबके लिए अलग-अलग यादें लिए होता है... बचपन में चाँद को देखकर अजीब-अजीब से ख्याल आते थे... कभी-कभी लगातार उसको देखते रहने से मन डर भी जाता था कि कहीं खिंचा न चला आये धरती पर... और चांदनी रात में छत और आँगन में लेटकर चाँद को निहारने का सुख तो आजकल के महानगर के बच्चों को वैसे भी नहीं नसीब... फिर आदमी के चाँद पर बस जाने के बाद जाने क्या होगा... तब सही कहा आपने कि गरीब बच्चों का खिलौना भी छीन जाएगा.
बहुत मार्मिक !!
waah maarmik sir....chaand aur roti...maarmik tulna hai...
ये चांद भी न बस बचपन में मामा होता है और जवानी में प्रेमिका की याद दिलाता हुआ और शादी के बाद "साला" क्योंकि अब ये अपने बच्चों का मामा जो हो जाता है।
केवल बचपन को ही याद कर सकते हैं।
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
...
बहुत भयंकर तस्वीर आने वाले कल की।
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
...
बहुत भयंकत तस्वीर आने वाले कल की।
वाह! दिल को छू लिया आपके इस चांद और रोटी ने। खिलौना एक बेहतरीन प्रस्तुति।
भालर ही इंसान चाँद पर बस जाये...पर धरती से तो रोटी और खिलौना ही नज़र आएगा....
ये चाँद भी ना जाने क्या क्या ज़ुल्म ढाता है
बचपन में मामा और जवानी में महबूब नज़र आता है
वो बचपन वाला चाँद भला कौन भूल सकता है......
आज एक रोटी खाकर
बेटा
रोते रोते
भूखा ही सो गया..
मावस की रात थी
चाँद
न जाने कहाँ
खो गया!!
" बेहद भावुक कर गयी ये पंक्तियाँ..सच.."
regards
या गर्मियों की रात को पुरवाइया जो चलें,
ठंडी सफ़ेद चादरों पे जागे देर तक,
तारों को देखते रहें छत पर पड़े हुए...
दिल ढूंढता है फिर वही फुर्सत के रात दिन...
जय हिंद...
समीर भाई!
आपकी सम्वेदनायें चाँद में बेहतरीन तरह से रिफ्लेक्ट हो रही हैं. आभार!
जब भी कवि मन, आकाश में झांकता हैं तो चाँद ही प्रतिध्वनित होता है. चन्दा मामा से शुरु हुई बात, चाँद मे प्रेयसी को ढूढ्ने तक जाती है. गांधींवादीयों को चाँद में चरखा कातती बुढिया दिखती है, तो आज के प्रेमी युगल कहते हैं कि "कल नौ बजे तुम चाँद को देखना! मै भी देखूंगा. और इस तरह हमारी नज़र चाँद पर मिल जायेगी!!"
हमारे ब्लोग की चौथी माहगिरह (साल गिरह का सब्र हम चाँदमारों में नहीं है!!) पर, 12 जून को हमने भी चाँद को बुलाया है....
समीर भाई! इस टिप्पणी को ही न्यौते की मान्यता प्रदान करें!! आपका इंतज़ार रहेगा...
आज एक रोटी खाकर
बेटा
रोते रोते
भूखा ही सो गया..
मावस की रात थी
चाँद
न जाने कहाँ
खो गया!!
ऐ चाँद ! तू भी क्या सितम ढाता है !
भरी जवानी में बचपन याद दिलाता है !!
achhi post par..lekin praveen shah ji ka prashn mera bhi hai ..
सर चाँद की महिमा, भी है बहुत खूब.
बचपन में दिखता है मामा. और जवानी में महबूब.
आपकी रचनाओं की बेहद प्रशंसक हूँ|
लगता है कि आपका और मेरा बचपन बहुत साम्य रखता है|आज भी जब पूरा घर बंद कमरों में सुख की नींद लेता है मेरा बाबरा मन छत पर आकाश में न जाने क्यों चाँद मेंअपना बचपन ं खोजता है |
अच्छी रचना के लियेबधाई|
आपकी रचनाओं की बेहद प्रशंसक हूँ|
लगता है कि आपका और मेरा बचपन बहुत साम्य रखता है|आज भी जब पूरा घर बंद कमरों में सुख की नींद लेता है मेरा बाबरा मन छत पर आकाश में न जाने क्यों चाँद मेंअपना बचपन ं खोजता है |
अच्छी रचना के लियेबधाई|
भईय्या आप बहुत बढिया लिखते हैं???
सोचता हूँ
इन्सान
जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा ...
इंसान जहाँ एक औट तरक्की के नये आयाम पा रहा है ... वहीं बहुत सी छोटी छोटी खुशियों से महरूम भी हो रहा है ... विज्ञान और सभ्यता में झूलते हुवे संवेदनाएँ ख़त्म होती जा रहा है ...
और बहुत बहुत शुक्रिया समीर भाई ... कविता सुन रहा हूँ ... और आपकी आवाज़ की संवेदना को महसूस कर पा रहा हूँ ...
सोचता हूँ इस जाम्बवान रुपी समीर जी का दिल कितना कोमल है.
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !
सोचता हूँ
इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!
क्या बात कह दी Sir ji ! Hats off.
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
मार्मिक प्रस्तुति...
"सोचता हूँ इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा... गरीब बच्चे का एक अकेला खिलौना भी छिन जायेगा!!"
क्या बात कह दी...........जवाब नहीं आपका !!
मै आपका पाठक हूँ और आपके शानदार लेखन का प्रसंशक भी. पहली बार कमेन्ट कर रहा हूँ वो इसलिए की मुझे आपसे इससे बेहतर रचना की अपेक्षा है .हमे चाँद और रोटी तथा चाँद और खिलौना से आगे सोचने की जरुरत है.
मन को छूती पोस्ट....
बहुत बहुत सुन्दर....
sir..sir...kayal thi ..ab ghayal hoon :)
बचपन में चाँद बड़ा प्यारा लगता है ... और दिमाग में कई तरह की कल्पनाये जन्म लेती है ... मेरी समझ से चाँद पर बसने में अभी काफी अरसा लगेगा ... बहुत ही विचारणीय पोस्ट...आभार
जिसने जैसा चाहा चाँद उसे वैसा लगा...किसी का खिलौना...किसी की रोटी तो किसी की महबूबा की सूरत...
जगजीत सिंह की वो ग़ज़ल सुनने का मन हो आया..."हम तो हैं परदेस में.... देस में निकल होगा चाँद'....परदेस में भी चाँद तो जरूर निकलता होगा पर शायद नीम की डाली पर नहीं अटकता होगा..:)
बहुत सुन्दर मार्मिक रचनाएं है।
सुन्दरतम्॥
चाँद तो चाँद ही होता है, वह सिर्फ दूर से लोगों को बहलाता है, कमबख्त कभी भी पास नहीं आता है।
--------
ब्लॉगवाणी माहौल खराब कर रहा है?
आप भी मेरी तरह चंदा मामा को निहारने लगे.....
इतना पूछना हैं कि आप भी उल्टा लटकते हैं कि चंदा मामा सीधे सीधे नज़र आ जाते हैं??
आज एक रोटी खाकर
बेटा
रोते रोते
भूखा ही सो गया..
मावस की रात थी
चाँद
न जाने कहाँ
खो गया!!
काफी अच्छा लगा..
दोनों हो क्षणिकाएं मार्मिक ।
अद्भुत ।
चाँद न जाने कितनी लोरियों का हीरो रहा है ।
भाव में उतराती, डुबकी लगाती और फिर हौले से समा जाती कविता ।
अमावस के दिन हम भी मजदूरन की बेटे की रोटी तलाशेंगे आपकी कविता में ।
समीर बाबू... आप त अइसहीं बहुमुखी प्रतिभा के आदमी हैं... इसीलिए आपसे एक्सपेक्टेसन भी बहुत रहता है... चाँद को रोटी देखाई देने वाला परतीक हो सकता है पुराना हो,लेकिन नया तौर पर इस्तेमाल होने से नया लगता है...गरीब अऊर भूखा आदमी के साथ मिलकर पुराना हो गया है… जो भी है अच्छा है!!
समीर जी ,
रचना मन को छूती है इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि चांद ,बच्चा और रोटी का symbol पुराना है या नया .आप की रचना आप की संवेदनाओं को
व्यक्त करती है और ऐसी संवेदनाएं हर किसी में नहीं होतीं .
समीर जी ,
रचना मन को छूती है इस से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि चांद ,बच्चा और रोटी का symbol पुराना है या नया .आप की रचना आप की संवेदनाओं को
व्यक्त करती है और ऐसी संवेदनाएं हर किसी में नहीं होतीं .
चांद-तारों से मैंने तो खूब बातें की है। नवारूण भट्टाचार्य जी की एक कविता में चांद-तारों का जिक्र बहुत ही खूबसूरती से हुआ है।
शायद भाव कुछ इस तरह से है-
चांद-तारों को गिन-गिनकर मैं सीख लूंगा जीवन का गणित।
आपकी रचना बहुत ही अच्छी है।
बहुत सुन्दर...
सोचता हूँ इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा... गरीब बच्चे का एक अकेला खिलौना भी छिन जायेगा!!
बहुत खूब..
जबलपुर के नाम ने आप के ब्लॉग पे ध्यान आकर्षित किया. आप बहोत अच्छा लिखते है. यह पोस्ट पढके लगा कितने बरस बीत गए छत पे सोये हुए, चाँद मे बुढ़ि अम्मा को बुनाई करते देखते हुए. कुछ चीज़े बचपन से जोड़ती है आपने याद दिलाया की चाँद उनमे से एक है.
बहुत सुंदर पोस्ट.
आभार
शिवा
सोचता हूँ
इन्सान
जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
बहुत प्यारी सोच है आपकी...
बहुत ही बढ़िया रहा आपका यह संस्मरण!
--
रचना तो बहुत ही बेजोड़ है!
इंसान जब चांद पर बस जाएगा तब पृथ्वी चांद बन जाएगी। गरीब बच्चों के खिलौने कभी नहीं छिनते क्योंकि वे प्रकृति की हर चीज से ही खेलते हैं ये सब तो अमीरों के बच्चों के साथ हैं जो हरपल नये खिलौनों के लिए मचलते हैं। बहुत सशक्त रचना।
उम्र के हर पड़ाव पर चाँद से रिश्ता बदल जाता है, कवितायें बहुत मार्मिक हैं....
लेखन के लिए शुभकामनाये.......
कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन.... :(
विडिओ तो गज़ब बना है....
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति...हालाँकि चाँद और रोटी की तुलना कई जगह पढ़ चुकी हूँ....एक नई बात थी इसमें.. अगर इंसान चाँद पर बस जाएगा तो गरीब बच्चे का एक अकेला खिलौना भी छिन जाएगा...
हमेशा अच्छा लिखने की कसम खा ली है क्या...कभी-कभी हमारी तरह भी लिखा कीजिये...बेकार सा...
हाँ नहीं तो...!!
बहुत अच्छी कविताएं... एक एक शब्द मोती की तरह....
बहुत खूब
ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति सर... बचपन के चाँद से फिर मिलना अच्छा लगा...
गुलज़ार साहब कि एक त्रिवेणी याद आ गयी -
"मां ने जिस चांद सी दुल्हन की दुआ दी थी मुझे
आज की रात वह फ़ुटपाथ से देखा मैंने
रात भर रोटी नज़र आया है वो चांद मुझे"
सुनकर दुगना आनन्द आया.
आदरणीय समीर जी... यह पोस्ट बहुत अच्छी लगी.... जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
इन पंक्तियों ने दिल को हिला दिया....
ये चाँद तो बहुत प्यारा है अंकल जी...मजेदार !!
जिन्दगी मे क्रष्ण पक्ष कुछ ज्यादा ही लम्बा दिखता है
जिन्दगी मे क्रष्ण पक्ष कुछ ज्यादा ही लम्बा दिखता है
प्रशंसनीय ।
achhi post. bachpan ki yad aa gai............
दोनों कविताएं प्रसंशनीय हैं,बधाई!
बहुत अच्छी और मार्मिक....
मेरा शनि अमावस्या पर लेख जरुर पढे।आप की प्रतिक्रिया का इंतजार रहेगा ....आभार
http://ruma-power.blogspot.com/
Is baar sachmuch hi bhavuk hua.
भावुक करती रचनायें.
बहुत खूब समीर जी आपकी आवाज़ में दोनों कवितायेँ सुनी ......!!
आपकी आवाज़ में कशिश है .....
sach me navjaat sa chaand se khelta man kahan kavi man se ja uljha? kitna acchha to soch raha tha...na jana kaha.n ameeri garibi ke chand me fans gaya apka chaand?
man ko chhune wali kaita.
abbhaar.
सोचता हूँ
इन्सान
जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!! ---काश कि इसे हम सभी रोक पाते---
सोचता हूँ इन्सान जब चाँद पर बस जायेगा... गरीब बच्चे का एक अकेला खिलौना भी छिन जायेगा!!
वाह क्या बात लिखी आपने
चाँद को देखना हमेशा मन को भाता है... कविता ने भावुक कर दिया...यू टयूब पर भी आपकी आवाज़ में कविता सुन कर भाव और गहरा असर छोडते है...
गरीब बच्चे का खिलौना चाँद
बहुत सुन्दर
और फिर आपका स्वर यानि चाँद तो चाँद उसमें भी चार चाँद
बहुत सुंदर और प्रभावशाली
सोचता हूँ
इन्सान
जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
gehri baat keh di aapne.
सोचता हूँ
इन्सान
जब चाँद पर बस जायेगा...
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
भाई समीर जी, बच्चों के खिलौने, न कोई छीन सका न कोई छीन सकेगा......... चाँद पर बसे ये खुदगर्ज़ इन्सान तो भी गरीब रहेगा तो धरती पर ही..........., प्रक्रति चाँद को फिर भी खिलौना बना कर ही रखेगी गरीबों के लिए , शायद यही सच है.................,
उत्कृष्ट रचना और सोंच के लिए आप हार्दिक बधाई के हकदार हैं............
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
bachpan aankho ke samne ghoom gaya. aankhe geelee karne ka shukriya.
aaj bhi dil kahta hai...chanda mama mere dwaar aana
एक शब्द में कहूँ तो ..."लाजवाब"...
नीरज
sir ji bachpan yaad kara diya aap ki post ne
Baujee, aanand hi aanand!
Jai ho!
wahwa....
मार्मिक भाव !
हर बार की तरह ही इस बार भी एक लाजवाब कविता...सचमुच आपने बचपन की याद दिला दी सर
गरीब बच्चे का
एक अकेला खिलौना भी
छिन जायेगा!!
Khoobsoorat..
Khushi hui padh kar
दिल को छू गयी! बहुत ही सुन्दर और लाजवाब!
It is really nice to read your site. I'll be visiting it more often. By the way, even I am a Hindi writer and a published poet. You can read some of my poems here- http://souravroy.com/poems/
वाह भी निकली आह भी निकली.. अरे हाँ खिलौना कहीं ना जाएगा सर.. जब चाँद पर होंगे तो धरती चाँद से बड़ी और चमकीली दिखेगी.. और जो चाँद पर जायेंगे वो गरीब क्या होंगे भला??? :)
समीर जी, सुन्दर प्रस्तुति के लिये बधाई.....
सुंदर भाव...सुंदर अभिव्यक्ति पा रहें हैं आपकी लेखनी से ।
सच्ची ,सीधी बात ।सरल शब्दों में मार्मिक उदगार ।
....बहुत मर्मस्पर्शी रचना !.... बहुत सुंदर !!!
जैसे भूख कभी बासी नहीं होती, जैसे माँ का प्यार और बचपन की ललक कभी आउट ऑफ़ फ़ैशन नहीं होती, उसी तरह ये थीमें भी कभी भी अति को प्राप्त नहीं हो सकतीं - बशर्ते प्रस्तुतीकरण आप जितना सशक्त और मार्मिक हो।
अब ये और कहना है कि चाँद में महबूबा दिखने के बाद बुद्धि का जब और विकास हुआ - तो वैज्ञानिक कह उठा कि "कैसे चाँद कह दूँ अपनी महबूबा के चेहरे को? ऊँच-ऊँच पत्थर है, बीच-बीच खाई है!"
अन्त में : आपकी रचना पर हमारी बधाई है।
चाँद बचपन की तमाम यादों से तो जुड़ा ही होता है किन्तु आज भी गर्मी की रातों में छत पर लेटे हुए चाँद को निहारना बड़ा सुकून भरी अनुभूति है ... मार्मिक रचना ..
is rachna ko sunana bahut sukhad anubhav raha bahut bahut dhanywaad kano main ras gholne ke liye
ashok jamnani
मर्मस्पर्शी कवितायेँ, सुन्दर
चांद ने कहा सूरज से
तुम मुझे सुरक्षा दो
या सुखा दो
वरना ये मेरा अंग अंग तोड़ देंगे
और सारा पानी निचोड़ लेंगे
ये अपने कदम अंतरिक्ष में बढ़ाना चाहते हैं
पृथ्वी के साथ साथ मुझे भी सड़ाना चाहते हैं
जो अब तक मुझे दूर से साला
‘अपने बच्चों का मामा‘ कहते थे
और पत्नी के चेहरे से करते थे तुलना
हे सूरज,
मुझे इनसे नहीं मिलना जुलना
धरा ने इन्हें सब कुछ दिया है
इनका घर भर दिया है
लेकिन इनकी लिप्सा पूरी नहीं होती
ये प्लाॅट काटना चाहते हैं
धरती को तो बांट दिया है
मुझे भी बांटना चाहते हैं
अभी से सौदे बाजी होने लगी है
कई देशों में बाजी लगी है
कौन मार ले जाए बाजी पता नहीं
इससे पहले तू कुछ कर तो सही
संभावना इस बात की ज्यादा है कि
चीन वहाँ खिलौने बनाने की फैक्ट्री बना देगा
और खिलौनों पर सील लगी आयेगी
["Made by China@Moon"
संवैधानिक चेतावनी : पृथ्वी और चाँद पर के गुरुत्वाकर्षण बल में अंतर होने के कारण खिलौनों की Expiry date ठीक ठीक निर्धारित नहीं की जा सकती।]
bilku sahi kaha aapne ...bachpan ki bhi yad dila di or rachnayen to nikharkar aayi han inko sunna or bhi acha laga bahut2 badhai..
वाकई जिस एंगल से देखा आपने काबिल-ए-तारीफ़ है,
chand ko jitna niharo har baar alag hi nazar atta hai,bahut hi marmik,khas kar dusri rachana.
har roj chand hamse door hota ja raha hai..... sunder kavita hai.
अभी-अभी गाँव से लौटा हूँ. कृष्ण पक्ष में चाँद तो नहीं दिखा पर तारे खूब दिखे... अद्भुत रातें बीती. ये पोस्ट पढ़ते हुए अनायास ही उनमें खो गया.
बहुत ही मार्मिक
बहुत सुन्दर और भावुक रचना समीर जी....
छू गयी मन को...किसी ने कहा है..
`माँ ने एक चाँद सी दुल्हन की दुआएं दी थी
रात भर रोटी नज़र आया है वो चाँद मुझे....
बहुत खूब समीर जी! ऐसी रचनाओं पर तो दिल से वाह-वाह निकलती हुई मस्तिष्क में जगह बना लेती है। हृदय स्पर्शी रचना।
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