रविवार, दिसंबर 20, 2009
हाय री ये दुनिया?
मौसम ठंडा है या गरम? नहीं पता. जहाँ हूँ वहाँ अच्छा लग रहा है.
अभी अभी आँख लगी थी या अभी अभी आँख खुली है, समझ नहीं पा रहा हूँ.
पूरा बदन दर्द से भरा है. दिल नहीं, बस बदन. ज्यादा काम की थकावट. १४ घंटे काम के दिन.
त्यौहारों के दिन आ रहे हैं. बड़ा दिन, नया साल. छुट्टियाँ ही छुट्टियाँ, आराम के दिन.
आराम के पहले थकान जरुरी है वरना आराम का क्या मजा?
आँख मिचमिचाता हूँ. बस, जागृत होने का प्रयास है सुप्तावस्था में.
कहाँ हूँ मैं?
है तो कोई हवाई अड्डा ही.
बिजिंग?? वेन्कूवर?? टोरंटो??
थकान सोच को बाधित कर रही है. इतना क्यूँ थकाते हैं हम खुद को? कितनी महत्वाकांक्षायें और उनके लिए यह कैसी दौड़?
आस पास देखता हूँ.
चायनीज़ खूब सारे दिख रहे हैं, शायद बिजिंग में ही हूँ मैं. आवाजें सुनता हूँ निढाल आँखे मीचें..बी डू ची..चायनीज़ में एक्सक्यूज मी. बिजिंग ही होगा और मैं अपने जहाज के इन्तजार में नींद के आगोश में चला गया होऊंगा.
अभी सोच ही रहा हूँ कि बाजू से एक ब्रिटिश एकसेन्ट में बात करता युगल निकल गया और उसके पीछे अमरीकन आवाज.
मगर यही सारी आवाजें तो वेन्कूवर और टोरंटो हवाई अड्डे पर भी सुनाई देती हैं.
कहाँ हूँ मैं?
यह क्या? पूछ रहा है कि कितने बजे फ्लाईट है अपने दोस्त से हिन्दी में!! जाने कौन है हिन्दुस्तानी या पाकिस्तानी.
यही दृष्य आये दिन वेन्कूवर और टोरंटो में भी देखता हूँ हवाई अड्डे पर.
आसपास नजर दौड़ाता हूँ. कुछ ड्रेगन आकाश से रस्सी के सहारे झूल हैं. फिर कुछ क्रिसमस ट्री सजे हैं. झालर रोशनी का सामराज्य है हर तरफ. कोई संता बने घूम रहा है.
इससे तो कतई नहीं जान सकते कि यह बिजिंग है या वेन्कूवर या टोरंटो...
कुछ आसपास सजी दुकानों पर नजर डालता हूँ..वही चायनीज़ फूड, फिर पिज्जा पिज्जा, फिर मेकडोनल्ड फिर फिर..सब एक सी ही दुकानें हर जगह..भीड़ भी एक सीमित दायरे में कुछ वैसी ही...
आखिर दिमाग पर जोर डालता हूँ..जेब में हाथ जाता है.. मेरी टिकिट और पासपोर्ट हैं.
टिकिट पर लिखा है बिजिंग से टोरंटो, फ्लाईट एयर कनाडा १०१ दोपहर १२.४७ बजे तारीख १२ दिसम्बर, २००९.
दीवार घड़ी पर नजर जाती है सुबह का १० बजा है तारीख १२ दिसम्बर, २००९.
हाथ घड़ी देखता हूँ रात का ९ बजे का समय तारीख ११ दिसम्बर, २००९.
तब मैं बिजिंग से दोपहर १२.४७ तारीख १२ दिसम्बर पर टोरंटो के लिए उड़ने वाला हूँ और १२ घंटे १० मिनट का सफर कर १२ तरीख की सुबह ही ११.५७ पर टोरंटो पहुँच जाऊंगा.
कैसी अजब दुनिया है. देख कर कुछ अंतर नहीं दिखता!!
ऐसी दुनिया किसने रची..हमने, आपने या उसने?
पूरा विश्व एक गांव हुआ जा रहा है..पहचान नहीं पाते कि यहाँ हैं कि वहाँ. सब वैश्वीकरण के इस दौर में एक दूसरे में इतना घुल मिल गये है. सबकी अपनी योग्यता है, सभी का स्वागत सभी जगहों पर हैं.
और हम हैं कभी मराठियों का जय महाराष्ट्रा तो फिर कभी तैलंगाना और विदर्भ बनाने की जुगत में लगे हैं..
हद है, जाने क्या पा लेंगे!!
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
-समीर लाल 'समीर'
नोट:
बहुतेरी पोस्ट तक पहुँच नहीं पा रहा हूँ. लेपटॉप वायरस से पूरी तरह सत्यानाश हो गया. न जाने कितने आलेख गुम हो गये. नया खरीदना पड़ेगा. बहुत परेशान हूँ कि शायद कुछ डाटा मिल जाये..१५ दिन पहले तक का बेक अप है.
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
73 टिप्पणियां:
दीवारों के भी कान तो होते हमने ऐसा सुना है।
अब दीवारों पर फसल उगाते नेता ऐसा चुना है।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
दुनिया बनाने वाले काहे को दुनिया बनाई
काहे बनाए तूने माटी के पुतले...
गुपचुप तमाशा देखे सारी खुदाई
काहे को दुनिया बनाई...
गुरुदेव, बस च्यवनप्राश खाइए और पा, पा...पा, पा कीजिए...
मेरा गधा कल आपके कमेंट का इतंजार ही करता रह गया...
जय हिंद...
समीर भाई,
दादु फ़िरता चाक कुम्हार का यों दीसे संसार्।
साधु जन निश्चल भये जिनके राम अधार्॥
यही संसार है।
दीवालों पर कंडे चढे हुए देखे थे अब फ़सल भी होने लगी। नई तकनीकि के विकास के लिए आभार
nice
शायद फिर से छोटी रियासतों के दिन आनेवाले हैं , हर कोई एक दूसरे से अलग होकर स्वतंत्र ? हो जाना चाहता है
ओह अंतरद्वीपीय यात्राओं ने मित्र का का बुरा हाल कर रखा है -जेट लैगों से मुक्ति के लिए एक महीने भारत का भ्रमण रिकमेंड किया जाता है!
लैपटाप में भले वायरस हो पर
मौसम में कोई नहीं ..
दिलचस्प ..
दीवारों की फसल उगने वाले बहुतेरे हैं ...बढ़ते ही जा रहे हैं ....
जाने कितनी दीवारे होंगी अभी ....!!
दुनिया वाकई सिकुड़ गयी है.
आप ने बहुत कुछ कह दिया इस आलेख से। बधाई!
थकान और फिर आराम यही शायद दिनचर्या है और मनुष्य की नियति ......
सुन्दर
regards
लो कल्लो बात , अब आप ठहरे एलियन , आपके लिए का चीन का जापान,का अमरीका का पाकिस्तान । ओईसे भी ई सब देश में है कुछ अलग थोडबे ...अपने देश में आईये न । देखिए एक गली में पूरा बिहार बसा हुआ है तो अगले में बंगाल । हां है तो मुंबई में भी वही बस उहां के बहादुर माने चौकीदार सब बहुत शोर मचाए रहे हैं ।ओईसे ई बात आप समझ गए एक ठो एलियन हो के कि सब जगह एके टाईप का जिंदगी है /स्नेह है/और रहने का ढंग है ...काश कि इंसान भी समझ पाता । आपको पढना तो हमारे लिए कंपल्सरी सबजेक्ट है ।
bahut manan karne waali baat hai , pata nahin is kedoorgami parinaam kya honge , POORV soviyat sangh ki tarah to nahi ho jayega hamara apna BHARAT!!!!
बढ़िया सन्देश देती हुई पोस्ट!
मगर हम हिन्दुस्तानियों को इससे क्या सरोकार!
जाति, प्रान्त, भाषा के भेद से फुरसत मिले तो...!
शायद इसलिए आसमान से सीमाए नहीं दिखती..
मुझे भी बेक अप लेना चाहिए...
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
बहुत खूब, चीन के ब्रोड्बैंड पर वायरस के सिवा और मिल भी क्या सकता था, जानकार खेद है !
वो जिसे इस कृषि-प्रधान देश की मासूम जनता ने अपना रहनुमा जाना था..
सुना है दीवारों की फसल उगाता है!!!
प्रणाम स्वीकार करें
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Saaraa nichod isee me aa gaya..vibhaja karke dilon me deewaren aur dararen dono paida kar lete hain!
Aapki lekhan shailee pe comment karne jitnee qabiliyat nahee rakhtee...
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
यही सच है . ......
आह ये लैपटाप वाली खबर तो वाकई बुरी है..
दुनिया गोल है सरजी... और ग्लोबलाइज़ेशन के इस दौर में हम घूम-फिरकर वहीं पहुंच जाते हैं...
वो
जिसे इस Blogging-प्रधान देश की
मासूम Blogger-जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्ति ...सच है अब गाँवो और शरो के बीच दूरियां कम हो रही है और हम की प्रांतवाद की आग में झुलस रहे है और अपने देश का बेडा गर्क करने तुले है ... ओह कहाँ गई वो देश प्रेम की भावना और अखंड भारत का दिवास्वप्न ......लोग कब समझेंगे ये ओ आने वला समय ही गवाही देगा. आभार......
बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्ति ...सच है अब गाँवो और shaharo के बीच दूरियां कम हो रही है और हम की प्रांतवाद की आग में झुलस रहे है और अपने देश का बेडा गर्क करने तुले है ... ओह कहाँ गई वो देश प्रेम की भावना और अखंड भारत का दिवास्वप्न ......लोग कब समझेंगे ये ओ आने वला समय ही गवाही देगा. आभार......
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
sunadar... khoob...
नाम गुम जाएगा .........
लैपटाप को श्रद्धांजलि
मुआ कीड़े लगे इन वाइरस को, ब्लोगरों को भी नहीं छोड़ रहे .
सच, वसुधैव कुटुम्बकम का सही अर्थ तो अब पता चलता है....हमें भी ऐसा ही लगता है...जब स्क्रीन पर एक साथ मैं अपनी मलेशियन और ब्राजीलियन..और श्रीलंकन सहेलियों से बात करती हूँ.....सबकी बातें,समस्याएं...कमोबेश एक जैसी लगती हैं...और हम बहुत हँसते हैं...जब शेयर करते हैं कि आज तो डिनर में नूडल्स बनाए हैं....और यहाँ हम....प्रदेशों के झगडे में पड़े हैं ...दीवारों कि फसल उगा रहें हैं.
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
बहुत ही सटीक टिपण्णी समीर जी इस हालात पर.......जल्दी कंप्यूटर ले लीजिये..!
समय की रेख के इस और उस पार के दृश्य, उनसे उपजे सहज प्रश्न, जो व्याकुल और पीड़ित करते हैं, अंत में सुंदर कविता नए बिम्ब के साथ.
ये सही है की आज आप दुनिया में कहीं चले जाईये पोशाक, भाषा और भवनों से उसे उसे भले पहचान लें लेकिन वैसे पहचानना मुश्किल होता है...टोरेन्टो मैं ही मैं किसी से मिलने एक होटल में जिसमें रिशेप्शन पर गणेश जी की आदम कद बैठी मूर्ती रखी हुई थी...सरदार जी रिशेप्शन पर थे...इंडोनेसिया के जालान सुधीर मान में चौराहे पर बनी कृष्ण अर्जुन और उसके रथ में जुटे सात घोड़ों की प्रतिमा आपको भारत में होने का भ्रम देगी...अमेरिका के न्यूयार्क शहर में कई भारतीय रेस्टोरेंट आप वो खाना खिला देंगे जो भारत में एक छत के नीचे शायद ही मिलता हो...यहाँ तक की मटके वाली कुल्फी भी...और हाँ कहीं कहीं पान भी मिल जायेगा...न्यूज़ी लैंड में रात तीन बजे भी एयरपोर्ट से बाहर आते ही पंजाबी टेक्सी वाले आपको पंजाब में होने का भान करा देंगे...सच दुनिया छोटे से गाँव में बदलता जा रहा है...
ये दीवारें उगाने वाली बात आपने अपनी रचना में खूब की...ऐसी बात आप ही कर सकते हैं...जय हो...
नीरज
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Sundar aap to mujhe bhul hi gye..
Main Prashant..
Bhopal se bareilly aa gya hu..
Job lag gyi hai..
Apka ashirwad nhin mila hai..
समीर जी, आधुनिक युग ने , जिसमे विज्ञान का बड़ा हाथ है , संसार को तो छोटा और एक समान बना दिया है।
मगर इंसान ने ही खुद को दीवारों में घेर कर अलग अलग कर रखा है।
यही कारण है की एक तरफ सब कुछ सब जगह है, वहीँ दूसरी तरफ बहुत कुछ अलग भी है।
सुख समर्धि का सामान सब जगह एक जैसा है, लेकिन किसी को मिला किसी को नहीं।
इसके लिए हम ही जिम्मेदार हैं।
क्या कहूं.
अगर ये बात मासूम जनता समझ जाए तो मसला हल समझिए।
अहिंसा का सही अर्थ
उन महान यायवरों को सलाम भेजिए जिन्होंने अपने क़दमों से पूरी धरती नाप दी। आप तो जेट में सफर कर रहे हैं...फिर ये कैसी उकताहट?
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
वाकई हालात ऐसे ही होगये हैं.
वैसे आप लेपटोप को च्यवनप्राश क्युं नही खिलाते? बुढापे मे वायरस के इंफ़ेक्शन से बचाने का सटीक उपाय है.:)
रामराम.
क्या घुमा घुमा कर मारा है समीर भाई ......... दीवारों की फसल ही उग रही है अपने देश में तो .......... लगता है फिर से छोटे छोटे देश बनने की तियारी है ........ गहरे सोचने की बात है
एक टाइम जोने से दुसरे की यात्रा इंसान को फिलोसोफिकल बना ही देती है !
समीर जी, हमारे नेताऒ ने ऐसे बीज बो रखे हैं ,.....कि देर सबेर हम सभी को वो फसल काटनी ही पड़ेगी....।
आज यह सब देख कर गाँधी जी, सरदार पटेल और देश के लिए फाँसी पर चड़ने वाले शहीदों की आत्मा रो रही होगी....।
अपने देश की राजनिति और नेताओ को देख कर हम सब सिर्फ रो ही सकते है......
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Bas Yahi tasveer hai yahan tamaam.
aapki post ka asal arth ant me samajh aata hai. sahi likha hai aapne ki aaj deewaron ki phasal ug rahi hai.
"आराम के पहले थकान जरुरी है "....
जैसे तूफ़ान के पहले शांति :)
इस दुनिया में भी क्या घनचक्कर है, १२ बजे से निकलो और ११-३० बजे पहुंचो :)
सरियलिस्टिक लेख है क्या ??
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Sameer ji,
bahut sundar ---chand shabdon men hee aapane desh ke karnadharon ka asalee chehara samane kar diya---
HemantKumar
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Kya baat kahi......sach..
बहुत ही बढि़या आलेख।
दीवारे ही दीवारे खींच रही है अब ....किसी न किसी बात का बहाना ले कर ..बाकी दुनिया वाकई गोल है बस देखने का नजरिया चाहिए .दुआ है आपका लेपटाप वायरस की गिरफ्त से जल्दी मुक्त हो
समीर जी नया कयो खरीद रहे है, पहले इसे ही ठीक कर ले एक बार से नही दो तीन बार इसे सी फ़ार मेट करे, ओर जब सब कुछ मिट जाये तो दोबार से इंस्टाल कर ले, ओर सब से पहले कोई अच्छा से एंटी वायरस से चेक करे, अगर कोई मदद चाहिये तो लिखे मेरे बच्चे पुरी मदद करेगे आप की, हां अगर ज्यादा खर्च होता हो तो सोचे, जेसे मैरा लेपटाप बिमार हुआ, तो उस के साथ साथ मैने अन्य चीजे भी देखी की बेटरी भी नयी लेनी है, जो १०० € की रिप्येर के १५० फ़िर पुराने का पुराना, तो मैने उसे १२१ € का उसे ईवे मै बेच दिया ओर फ़िर १००+१५०+१२१ बाकी हम ने जेब से डाल कर नया ४९९ € मै नया ले लिया.
अभी तो देश मै यह नेता जगह जगह दिवारे बना रहे है सिर्फ़ अपने लाभ के लिये जनता को चाहिये इन्हे वोट की जगह जुते मारे
आप कुछ भी कह लें भले ही दुनिया नेट पर एक हो जाये परंतु कुछ लोगों के लिये तो भाषा से ऊपर कुछ भी नहीं है।
अभी तो पता नहीं क्या क्या अविष्कार होने बाकी हैं - ट्रांसमीशन, टाईम मशीन इत्यादि।
.
.
.
"सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!"
और हमें ही यह फसल काटनी है!
अति सुन्दर,
आभार!
समीर जी ,
चलिए कुछ दिन आप भी सुमन जी के " nice " से काम चलाइए .....!!
"दीवारों की फसल" बेहतरीन प्रयोग । काफी अच्छा लगा ।
'कैसी अजब दुनिया है. देख कर कुछ अंतर नहीं दिखता!!'
Sach hai yahi haal yahan hai..sab ek se lagte hain...
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Yahi aaj ke bharat ka sach hai...kahin telangana hai to kahin gorkhaland...etc..etc...
dukhad!
-----------Laptop bigad gya??hope for the best!
वाकई बहुत कुछ कह गए आप...ये विश्वीकरण में हम कहाँ हैं पता नहीं...शायद अपने अपने प्रान्तों में,जातियों में,समुदायों में....
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
Behatreen kavita.Lap top ka vairas jld nikalvaiye.shubhakamnayen
Poonam
saare lekh ka nichod.
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!
behatareen.
आप और हम ग्लोबल विश्व में जी रहे हैं और दुसरे लोग...इसी विश्व को बर्बाद करने पे तुले हैं ...
सीमाओं से परे एक बहुत ही संवेदनशील पोस्ट.... और हम यहाँ अपने ही देश में सीमाओं को बाँट रहे हैं.....
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.....
सादर
महफूज़...
सीमाओं से परे एक बहुत ही संवेदनशील पोस्ट.... और हम यहाँ अपने ही देश में सीमाओं को बाँट रहे हैं.....
बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.....
सादर
महफूज़...
पढ़कर रफ़ी साब का एक गीत याद आ गया"ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है"...
दीवारों की फसल उगाने वाले बिम्ब ने मन मोह लिया सरकार! बड़े दिनों बाद इतनी सशक्त क्षणिका पढ़ने को मिली,,,बेधती हुई!
दादा
प्रणाम
काश हमारे देश में भी वो दिन आये जब मालूम ही ना पड़े कौन किस स्टेट का है
हमारी पहचान 'विभिन्नता' को हमारी कमजोरी बना दिया इन राजनीतिज्ञों और स्वार्थी लोगो ने ,जो हमारे देश का खूबसूरत पहलू था उसे विकृत कर दिया
पीड़ा होती है सब देख कर ,पर.......
वो सुबह कभी तो आएगी
जब भाषाएँ ,जातियां इस मुल्क की सुन्दरता न जाएगी वापस
और कोई इन्हें 'मोहरों 'की तरह यूज़ नही कर पायेगा
आप इण्डिया आयेंगे और कहेंगे
''ये राजस्थान है ,नही कश्मीर है ,अरे नही शायद
केरल ,आन्ध्र में हूँ
ओ हो पता ही नही चल रहा भारत में हूँ या केनेडा में
है ना ? ऐसा दिन आएगा हमारे जीता जी
अपनी आँखों से देख पाएंगे हम ये सब
'ये नेता ' चुनता कौन है जो दीवारों पर अलगाव वाद की फसलें उगा रहे हैं ?
कुल्हाडी हमी तो मार रहे है कई सालों से अपने ही पैरों पर
दोषी किसे ठहराएँ?नेता अपना काम पूरी 'ईमानदारी'से कर रहे हैं
चुक तो हमी से हो रही है भैयाजी ............
पहले हम सिर्फ घर परिवार और अपने समाज की चिंता करते थे ab pure vishava की so duniya to choti ho gayi है पर ab sambandh bhi chote hote jaa rahe हैं kisi ko kisi की padi ही कहाँ है. ab to pyar mohabbat और bhai chare के sivay baaki हर chiiz ugegi
बापरे! कहां कहां जाते हैं आप। हमारी दुनियां तो धूमनगंज थाने से शिवकुटी तक सीमित है! :(
दिवारो कि फसल वाह क्या बात कही है । आप के भी दिल मे बटवारे का दर्द है । यही तो है जडो से जुडे होने की पहचान ।
यही तो हमारे देश की विडंबना है की अखंडता के ख्वाब देखने वाले के वंशज देश को खंड करने पर तुले है..
हद है, जाने क्या पा लेंगे !
बढ़िया !
बडी मस्त लिखा है...
नदी के घाट पर यदि ये लोग बस जायें
तो सारे लोग इक-इक बूंद पाने को तरस जायें
गनीमत है कि मौसम इन्के हाथों में नहीं वरना
ये सारे बादल इनके अपने खेतों में बरस जायें..
गुलाल का गाना याद आ गया- ओ री दुनिया!
लैपटॉप को अश्रुपूर्ण श्रद्धांजलि.. इंतजार रहेगा आपके फॉर्म में लौटने का।
Ye jo aap post likhne ke baad triveni type msg. likhte hai ....hamko sabse zyada yahi pasand aate hai
वो
जिसे इस कृषि-प्रधान देश की
मासूम जनता ने
अपना रहनुमा जाना था..
सुना है
दीवारों की फसल उगाता है!!!
बहुत अच्छा लगा आपक यह बात कहने का तरीका.
ठंठ तो यहाँ भी बहुत है
बहुत अच्छा लगा...
हद है, जाने क्या पा लेंगे!!
पा कुछ न लेंगे जी, सब वोट बैंक और कुर्सी का मोह है! :)
एक टिप्पणी भेजें