हम जब बड़े हो रहे थे तब हर गर्मी की छुट्टी, दीपावली-दशहरे की छुट्टी में ननिहाल या ददिहाल जाया करते थे. पूरे छुट्टी भर वहीं रहते.
नानी के घर गये तो सारे मामा-मामी, मौसी मौसा, उनके बच्चे, मम्मी के बुआ, मौसी, मामा-उनके बच्चे और जाने कितनी दूर दूर तक की रिश्तेदारी के सब लोग इक्कठा होते. वही हाल ददिहाल में चाचा चाची, बुआ और ऐसी भीड़ लगती कि मजा ही आ जाता.
फिर और भी कभी रिश्ते में शादी ब्याह पर ऐसा ही जमघट. ऐसा नहीं कि उस वक्त दोस्तों की दुनिया नहीं थी किन्तु रिश्तों की मान्यताएँ थीं, मिलना जुलना था. लोग एक दूसरे से पत्र व्यवहार बनाये रखते थे और जब भी ऐसे किसी शहर में जाना हो जहाँ कोई दूर का भी रिश्तेदार हो तो उन्हीं के साथ रुकना होता था.
यहाँ तक कि मुझे याद है मामी की बिटिया की सगी जेठानी का बेटा हमारे घर कई महिने रह कर एक परीक्षा देकर गया था.
कुछ माह पूर्व एक तस्वीर खींची थी अपने टीवी स्टैंड के पीछे तारों के मकड़जाल की. जाने कौन सा डीवीडी से निकल कर होम थियेटर के रिसीवर में फंसा है और वहाँ से टीवी मे, फिर केबल के रिसीवर के तार, सेटेलाईट रिसीवर के तार, एस विडियों के उलझे तार, रंग बिरंगे, काले, सफेद, मोटे पतले सब एक दूसरे के उपर नीचे से गुजरते प्लग पाईंट में जाकर एकलयता बनाते और दिशा पाते हुये. प्लग पाईंट से अलग अलग रिसीवर की तरफ बढ़कर सही इन्स्ट्रूमेन्ट तक जाना या इसका विपिरत मार्ग सही पहचान कराता है तार ही.
ये एक दम उन रिश्तों की तरह है, जिनके तार इधर उधर से एक दूसरे से जुड़ते ननिहाल/ददिहाल में जाकर फंसे हुये थे. उसी तरह या तो ननिहाल/ददिहाल से शुरु करो और रिश्ते तक पहुँचो या रिश्ते से शुरु करो और ननिहाल/ ददिहाल तक पहुँचों.
दोस्त के घर शादी और रिश्तेदारी में शादी के बीच तय करने की जरुरत नहीं होती थी. चाचा की साली की शादी में जाना आवश्यक था बजाय कि दोस्त की बहन की.
परसों फिर टीवी के पीछे झांकता था. नया सारा तामझाम लग गया है. होम थियेटर के सारे कनेक्शन वायरलेस और भी जाने क्या क्या. दो तीन तार मुश्किल से. बाकी सब गायब मगर सब चल वैसे ही रहा है.
फिर अपने क्म्प्यूटर को भी याद किया. एक मॉनीटर जोडने को और एक पावर वाला, बस दो ही तार दिखे जबकि है सबकुछ. बिल्ट इन कैमरा, साऊंड बॉक्स, माईक..प्रिंटर, यू एस बी, हैड सेट-सब वायर लैस. बिना तार के. कहीं नहीं जुड़ते उनके तार. खुद सोचो और जहाँ मन आये, मन ही मन जुड़ा मानो. जैसे चाहो वैसे. जब घुमाना चाहो, घुमा दो, यहाँ से वहाँ.
वही तार तो उनकी सही जगह निर्धारित करता था. उनका दायरा स्थापित करता था. उन्हें एक जुड़ाव का अहसास देता था, उन्हें अन्य सामानों की भीड़ में गुम होने से रोकते हैं. कितनी बार तो इन्हीं तारों के सहारे वो गिर कर टूट जाने से बच जाते हैं-वही गायब!!
आजकल देख रहा हूँ रिश्ते भी कुछ ऐसे ही हो गये है. बस दो तीन तारों की तरह सिमटी हुई रिश्तों की दुनिया. खुद के भाई बहन और ज्यादा से ज्यादा चाचा, मामा, मौसा, बुआ के परिवार तक. यह भी कुछ पहले की ही बात कर दी. बाकी सब वायरलैस की तरह खुद के चुने हुए मित्रों की चुनी हुई दुनिया जिनमें कोई तार नहीं होते. बस, अहसासों का एक बेतार का जुड़ाव.
किसी अमरीकन विश्वविद्यालय में शोध हुआ है कि अब बिजली के तारों को अलविदा करना होगा. सब तरंगों के माध्यम से होगा-ठीक उन अहसासों जैसा. बिजली घर के भीतर तक भी वैसे ही आयेगी.
सोच रहा हूँ, कल को ये एक दो बचे तार भी बिदा हो जायेंगे फिर तो क्या भाई बहन और क्या माँ बाप. सब रिश्ते उतने ही, जितने रखने की इच्छा हो. कोई तार का बंधन नहीं.
होगे तुम मेरे माता पिता मगर मैं तुमसे संबंध नहीं रखना चाहता. पत्नी भी है मगर मैं विवाह करके एक नये तार को जोड़ना नहीं चाहता अतः बिना विवाह के ही साथ रह रहा हूँ. बच्चा सेरोगेट मदर से करवा लिया है ताकि मेरे साथी का शेप न बिगड़े. फिर कैसा तार उस बच्चे से भी. उसकी अपनी दुनिया होगी. बड़े होने तक मदद कर पाये तो कर देंगे वरना उन्हें भी फॉस्टर पेरेंटस ही संभाले. मेरी आजादी में कोई तारों की उलझन नहीं होना चाहिये.
मैं कल को वाली बात ही क्यूँ कर रहा हूँ, यह सब तो लगभग होने ही लगा है और फिर बच्चों की बात तो जबरदस्ती ही करने लगा, जब समलैंगिक साथी होगा तो बच्चों की और उस तार की बात ही क्यूँ करना.
लेकिन आज होती हुई घटनाओं और बदलाव के लिए यह कहना कि शायद कल को ऐसा होने लगे वाली बात इसलिए निकल पड़ी होगी मेरे मूँह से क्यूँकि मैं अब भी पुराने ख्यालों में ही जी रहा हूँ, खूब सारे तारों के बीच उलझता सुलझता खुशी खुशी जिए जा रहा हूँ. मुझे यूँ ही उलझे रहना अच्छा लगता है मगर मेरे अकेले के चाहने से होगा क्या? तार का एक सिरा जुड़ा हो और दूसरा टूटा, तब ऐसे तार का क्या महत्व? तुम प्रगतिशील हो-जमाने के साथ साथ बदलने वाले और मैं थमा-स्थिर. तुम्हारी नजर में, बेचारा मैं.
कुछ बेतरतीबी
से
बिखरे
उलझे हुए
रिश्तों के तार
और
उनकी
गिरफ्त के बीच
मैं...
मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं...
मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो!!!
-समीर लाल 'समीर'
108 टिप्पणियां:
खूब सारे तारों के बीच उलझता सुलझता खुशी खुशी जिए जा रहा हूँ. मुझे यूँ ही उलझे रहना अच्छा लगता है मगर मेरे अकेले के चाहने से होगा क्या?
रिश्तो के इन तारो में उलझे रहने का जो मजा और ख़ुशी है वो कहीं नहीं | हमें तो इन तारों की उलझाहट के बिना जीवन नीरस लगता है |
मैने पहले भी कहा था और अब फिर से कहती हूँ कि आप किस बात को कहाँ जोड़ेंगे, हर बार आपको बिना पूरा पढ़े जान पाना मुश्किल है. इतना गजब का साईंस के विकास के साथ समाज के बदलाव के विश्लेषण को प्रदर्शीत करता लेखन, कम से कम मैने, अब तक नहीं देखा. आपको बधाई.
कैसे जुड़ती जाती हैं विचारों की श्रृंखला ...तारों के मकड़जालों से लेकर रिश्तों के तारों तक ...बेतार हो गए है ज्यादातर उपकरण ...पर दिलों के बीच रिश्ते तो बिना तारों के भी पुख्ता होते हैं ...!!
jitana aapako aapke blog se samajha hai aap jaisa samvedansheel vyakti kabhee rishto se aazad ho bhee nahee sakata .
तार गायब होते जा रहे हैं। बहुत से जाने माने रिश्ते अखरने लगे हैं। बहुत से अनजान रिश्ते दिलों को भेद रहे हैं। दुनिया बदलती है लगातार बदलती है। शायद यही जीवन का विकास है, गन्तव्य शायद छुपा है अनंत में।
... मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो!!!
sameer jee aapkee lekhanee ko salaam
रिश्तों का ये मकड़जाल ही तो जीवन है । नहीं तो क्या फर्क है जानवर में और आदमी में । आपका दर्द वही है जो हर संवेदनशील इन्सान का होता है । हम तो कैद चाहते हैं रिहाई कब चाहते हैं । मगर अब तो रिहाई ही चाहने वाली पीढ़ी सामने है । एक बिल्कुल ही नई जनरेशन जिसके लिये सब कुछ मुक्त होना चाहिये । मैंने अपने परनाना, परदादी का प्रेम पाया है किन्तु ये नई पीढ़ी । कम्प्यूटर के तारों के माध्यम से बहुत अच्छे प्रतीक गढ़े हैं । कविता हमेशा की तरह संवेदना से भरी हुई है ।कवि समीर लाल का एक नया रूप जो सामने आया है वो बहुत ही प्रभावशाली है । सच कहूं तो आपका हास्य कवि वाला रूप मुझे कभी अच्छा नहीं लगा । आप गहन व्यंग्य लिखते हैं इसलिये हास्य आपके लिये एक हल्का कार्य हो जाता है । आशा है प्राणायाम का नियम जारी होगा ।
"मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं...
मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो!!!"
वाह---वाह...!
समीर लाल जी!
इतनी मार्मिक बात को
आपने कितनी सरलता से कह दिया।
सचमुच रिश्तों के जाल ऐसे ही होते हैं।
यह प्यार के बन्धन .....
कारागार से दुखदायी नही
अपितु एक अलौकिक सुख
प्रदान करते हैं।
बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!!!
एक दम उन रिश्तों की तरह है, जिनके तार इधर उधर से एक दूसरे से जुड़ते ननिहाल/ददिहाल में जाकर फंसे हुये थे.
bhavnatamk uljhan !!
badhiya abhivyakti...
मैं कल को वाली बात ही क्यूँ कर रहा हूँ, यह सब तो लगभग होने ही लगा है और फिर बच्चों की बात तो जबरदस्ती ही करने लगा, जब समलैंगिक साथी होगा तो बच्चों की और उस तार की बात ही क्यूँ करना.
बिल्कुल सच कहा आपने, रिश्तों की पुरानी गर्माहट अब खत्म हो चली है, और वर्तमान का आपने जो चित्र खींचा है वो तो डराता है. पर क्या किया जाये? युग के साथ साथ सब कुछ बदलता है.
बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
रिश्तो के मकडजाल से ही होता सम्बन्धो का सन्चार,
उलझनो के शार्ट सर्किट होने से ये होते नित तार तार,
उलझनो को सुलझाओ,कनेक्शनो को सम्भालो यारो
फ़िर लो रिश्तो का मजा सब लोग मिलकरके यारो
बहुत ही वि्चारोत्तेजक लेख
शुभ कामनाये
तारों का मकड़जाल देख इधर के प्रेमजाल की यादें सक्रिय हो गयी हैं। :) :)
यकीन मानिये ये जाल रूपान्तरित हो जायेगा लेकिन खत्म नही होगा……
पता है आजकल "रिश्तेदार के पास कितना मोबाईल बैलेंस है" यह देख कर जाल बनता है ताकि वह उसी के सहारे किसी और रिश्तेदार के साथ जाल बुन सके।
नही हुआ तो जाल की अहमियत खतम :) :)
समीर जी, कविता ने दिल छू लिया...साधू!!
मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं...
मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो
अपने विचारों के तारों को बस यूँ ही बचाए रखिये....शुक्रिया एक (हमेशा) की तरह बेहतरीन पोस्ट के लिए...
आपकी इस वायरलेस रिश्तों ने तो मेरे मन के तारों को झनझना कर रख दिया। पर सच यही है कि जैसे सब कुछ वायरलेस हो रहा है वैसे ही रिश्ते भी हो रहे हैं। वो जो एक दो वायर बचे हैं बस ये देखना है कि वो कब तक बचे रहते हैं। आशा है कि शायद वे एक दो वायर तो बचे ही रहेंगे।
आजकल जो ये रिमोट चल पडे हैं ..बिना तार से जुडे होकर उन्हें संचालित करने के लिये...शायद रिशते भी कुछ उसी तरह के होते जा रहे हैं...हां जो अब भी संवेदनशील होते हैं....वे ही तारों के मकडजाल से आजादी नहीं चाहते...हम भी....
सही कहा समीर जी, खैर आप तो सही से भी ज्यादा कहते हैं कहते हैं, वायर लेस होते उपकरण ओर रिश्तों रहित होती दुनिया का लाजवाब तरीके से समझाया है, अब रिश्ते हैं ही कहाँ जैसा की मैंने कहीं पढा था शायद आपके ही ब्लॉग पे हो सकता |सारे रिश्ते अंकल और एंटी में सिमट कर रह गये!!
चारो तरफ यही था जाल,
रिश्तों का जो मकड़जाल,
आज हुआ है बुरा हाल,
किधर है रिश्ता,किधर है जाल,
बिल्कुल सच बात कही आपने आज हर आदमी बिना बंधन मतलब वायरलेस हो कर घूमना चाहता है उसे प्रेम और रिश्तों के बंधन में घुटन होती है....सब कुछ सिमट रहा है....जो सही नही है.
बहुत बढ़िया प्रसंग पर चर्चा किया आपने हमारी भी कुछ भूली बिसरी यादें ताज़ा कर दी आपने..
धन्यवाद
पढ़ कर अखरने वाला तारों का जाल प्रिय लगने लगा है.
जी बहुत बहुत धन्यवाद...
परन्तु मैंने स्पैम रोकने के लिए वर्ड वेरिफिकेशन को "yes" किया हुआ है...
परन्तु आप का शुक्रिया के आपने मुझे टिप्पणी करने लायक समझा....
आप जैसे विद्वानों कि टिप्पणियां पा कर मैं खुद को खुशनसीब समझता हूँ....
आशा है के आप इसी तरह मेरी होसला अफजाई करते रहेंगे....
आभार
श्याम सारस्वत.
सही कहा आपने -
मुझे ये कैद पसंद है
मैं रिहाई का तलबगार नहीं ।
उलझे तारों के बहाने सुलझा हुआ चिंतन ! आभार ।
जी बहुत बहुत धन्यवाद...
परन्तु मैंने स्पैम रोकने के लिए वर्ड वेरिफिकेशन को "yes" किया हुआ है...
परन्तु आप का शुक्रिया के आपने मुझे टिप्पणी करने लायक समझा....
आप जैसे विद्वानों कि टिप्पणियां पा कर मैं खुद को खुशनसीब समझता हूँ....
आशा है के आप इसी तरह मेरी होसला अफजाई करते रहेंगे....
आभार
श्याम सारस्वत.
यह सच की जिन्होनें उस दौर के रिश्तों को जिया है उसे याद करके आज भी पेट में हूक सी उठती है । संयुक्त परिवार और गर्मी की छुट्टियां ।
समय की चपेट में तो सभी आ जाते हैं । रिश्ते भी आ गये ।
बहुत ही सुंदर कविता लिखा है आपने! आपकी लेखनी को सलाम! जिस तरह से सारे तार उलझे हुए हैं ठीक उसी तरह सभी की ज़िन्दगी भी उलझी हुई होती है ! कभी ढेरों खुशियाँ आती हैं तो कभी गम का अँधेरा छाया रहता है!
इसी का दूसरा पक्ष है कि अब रिश्ते बंधन नहीं पैदा करते।
फिर कार्डलैस माउस भी सीपीयू से कहता होगा
जाइए आप कहां जाएंगे... :)
"आजकल देख रहा हूँ रिश्ते भी कुछ ऐसे ही हो गये है. बस दो तीन तारों की तरह सिमटी हुई रिश्तों की दुनिया. खुद के भाई बहन और ज्यादा से ज्यादा चाचा, मामा, मौसा, बुआ के परिवार तक. यह भी कुछ पहले की ही बात कर दी. बाकी सब वायरलैस की तरह खुद के चुने हुए मित्रों की चुनी हुई दुनिया जिनमें कोई तार नहीं होते. बस, अहसासों का एक बेतार का जुड़ाव."
सहस्त्र प्रणाम स्वीकार करें
गुरुदेव, आप जिस ज़माने की बात कर रहे हैं, तब रिश्ते प्यार करने के लिए होते थे और चीज़ें इस्तेमाल करने के लिए...आज ठीक उलटा हो गया है...भौतिक चीज़ों से दीवानगी की हद तक प्यार और रिश्तों का बस खुदगर्जीं के लिए ही इस्तेमाल...और आप जो तारों के जाल का जिक्र कर रहे हैं...मैं उसे सांप-सीढ़ी के खेल के तौर पर देखता हूं...जहां रिश्तों को आगे करने वाली एक भी सीढ़ी नहीं बची...बस तारों की शक्ल में सांप ही सांप रह गए हैं...मौका मिलते ही एक-दूसरे को डसने के लिए तैयार...
रिश्तों की उलझन का सुखद अहसास|
सच कहूं तो कभी कभी मुझे भी उलझन होती है जब माता-पिता किसी 'रिश्तेदार' से मिलते हैं- इनको पहचानते हो..अरे ये फलाने के वो के वो हैं...अरे इनको नहीं जानते हम तो बचपन में इनके साथ खूब खेले हैं.....तुम लोग ना अब तो किसी को पहचानते ही नही हो :(
वैसे ताली दोनों हाथो से बजती है, है ना...
भावुक कर दिया आपने | इन तारों में बंधे रहने का
मजा ही अलग है | अब तो जमाना आ रहा है की
माता-पिता समय ले कर अपने बच्चे से मिलने जायेंगे
आपका लेखन ऐसा है , जिसपे मै कमेन्ट करने की क़ाबिलियत नहीं रखती ...
मेरे blog पे सितारे बिखरने वालें हैं ...कभी नज़रे इनायत करें ...इल्तिजा भर है , जानती हूँ , आपके समय की पाबंदियां ...केवल रहनुमाई चाहती हूँ . .
सादर
क्षमा
आदरणीय ! उलझे तारों की उपमा रिश्तों से करना गजब की कल्पनशीलता है.तारों की तरह ही कभी कभी रिश्तों में भी गाँठ पड़ जाती है किन्तु प्रयत्न करने पर सुलझ भी जाती है. इस सशक्त रचना ने एक बार फिर आपकी लेखनी का कायल किया. इसी प्रकार की रचनाएं ब्लॉग जगत को गौरवान्वित करेंगी.
क्या बात है। बिल्कुल सही लिखा है। उलझे हुए तार को रिश्तों से जोड़ कर एक नई कहानी कह दी। लेकिन अगर तार उलझे हों तो सुलझाना ज़रूरी होता है पर रिश्तों की उलझन आज भी अच्छी लगती है।
आलेख की प्रारम्भिक पंक्तियाँ,बचपन की याद दिला गयीं,..क्या दिन थे वो भी....पूरे साल हम गर्मी छुट्टियों का इंतज़ार करते थे कि सारे बिछडे भाई बहनों से मिलना होगा....धीरे धीरे वक़्त बदलता गया और रिश्तों के धागे सिमटते गए...सच, पता नहीं आने वाले वक़्त में रिश्ते का एक भी तार बचता है या नहीं...बहुत ही भावपूर्ण पोस्ट
उलझते तार...तार विहीन कनेक्शन...
सब को रिश्तों से जोड़ कर देखना Naya nazraeeya laga..,आज के परिवेश में रिश्तों कि नयी बदलती परिभाषा कविता के माध्यम से भी मिली...
Very good comparison between wire & relations. wireless instrument is good but relations without wire in going very bad.
मेरे घर परिवेश में तो अब भी मकड़जाल है और कभी कभी इस सबसे दूर भागने का मन करता है - वैराज्ञ का!
जाने क्या सही है- जन्म/मरण/बन्धन/मोक्ष/वैराज्ञ?
सोचने को मसाला दिया आपने, धन्यवाद!
सारे तार एक दुसरे से उलझे.. अच्छी कलाकारी चाहिये सभी को संभालने के लिये..
aaj ke bhautik,kritrim khoye rishton ki sahi abhivyakti.......pahle. har ladaai ke baad bhi ek pyaar tha,ab paisa hai
अपको भी बधाई....
आज आप के पास कितना पेसा है, कितनी पावर है आज के रिशते यह देख कर बनते है, भावनाओ ओर खुन को देख कर नही, ओर आज यह सब तारे उलझ गई है, जिन का एक सिरा दुसरी जगह फ़िट नही होता कटा कटा सा है,
बिलकुल हम भी वेसे ही बनते जा रहे है, प्यार तो है लेकिन मिलावटी, दिखावे के रुप मे...ओर दिल दुखता है
धन्यवाद इस से ज्यादा लिख नही पाऊंगा
इन तारो मे कुछ तारे खास होती है जो उन सभी तारो मे उलझाये रहती है ...... तारो से मुझे भी मुक्ति नही चाहिये ........कुछ रिश्ते बिना तार भी जुडे होते है!
Pintu Bhaiya, kya khoob joda aapne naye daur ke taron ko un purani duniya ke tarone se. Aaj to mausa mausi mama mami peeshi peeshemashai sab UNCLE AUNTY ho gain hai - jaise hotel ka khana - kuchh bhi mangao swad ek jaisa, apka lekh bahut khoob, han ek aur baat aap itne sunaina-dhari hain to kaale chashme ke peechhe kyon unhe chhoopate hain???
MADS
अजी! हम जैसे लोग तो आप से बेतार ही जुड़ गए!!
वक्त के घूमते पहिये को न कोई रोक पाया है, न रोक पायेगा.
वक्त के सांचे में खुद को ही ढालना पड़ता है. अफ़सोस यही सच है, और कड़वा भी.
फिर भी इंसानियत के तार तो जुड़े ही रहने चाहिए.
आपसे पूर्ण सहमती है.
वक़्त के नब्ज़ को पकडा ही नहीं, दाब भी दिया है जोर से...लेकिन समीर जी...वो दिन भी दूर नहीं कि एक बटन दबाया और साड़ी इमोशनल और फिजिकल जरूरतें पूरीं. क्या करें...विकास इसे हिन् कहते हैं और हमें विकास कि राह को हमेशा पकडे रहना है...
सही कहा आपने, जिंदगी तारों का एक मकडजाल बन कर ही तो रह गयी है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
तार और रिश्ते, सुन कर अजीब लगता है लेकिन पढ़कर मन उदास हो गया. विकास की जो कीमत हम चुका रहे हैं और आगे चुकायेंगे, सोचकर भय लगता है. बहुत कुछ खराब हो जाने के बावजूद, अपने देश में अब भी बहुत कुछ बचा हुआ है. आपको देर से ईद, नवरात्र, दशहरा और एडवांस में दीपावली की बधाई.
तार से बेतार हो रही दुनिया और रिश्तों की धाँसू तुलना की है आपने. सब बेतार हो रहा है... ज़माना ही बेतार हो रहा है.....
आज भी जब हम बच्चों को अपनों के रिश्ते समझाते है तो उन्हें तारों का मकड़जाल ही लगता है! और वे इतने उलझ जाते हैं कि रिश्ते रिस्ते रह जाते हैं:)
मोहन वशिष्ठ जी ईमेल द्वारा:
श्रीमान समीर जी नमस्कार
मैं आपका लिखा तारों का मकड़जाल!! पढा बहुत ही अच्छा लगा और आज के समाज की सच्चाई बयां करता हुआ लेख है साथ में जो कविता लिखी है उसके तो क्या कहने। मेरे कंप्यूटर पर ब्लागों को बंद करने के कारण मैं किसी का ब्लाग नहीं खोल सकता हूं अत: मैं चाहता हूं कि आप इस कमेंट को मेरी ओर से चस्पा कर दिजीए और जो भी पढे कृप्या अपनी पोस्ट मुझे मेल कर दिया करें ताकि जब तक संभव हो सके मैं आप सभी के साथ जुडा रहूं। धन्यवाद
मोहन वशिष्ठ
मोहन का मन वाले
http://mohankaman.blogspot.com/
बिल्कुल सही कहा आपने! धीरे धीरे रिश्ते सिमटते जा रहे हैं। तारों का मकड़जाल न होते हुए भी कम्प्यूटर के विभिन्न अवयवों के रिश्ते तो अब भी कायम हैं किन्तु इन्सानी रिश्ते समाप्त होते जा रहे हैं।
क्या ही बात कह गए महाराज। वाह वाह वाह। कहाँ से कहाँ जोड़े दिल के तार। बस इसीलिए तो ज़माना पागल है, आपका मित्र और आपका अपना बनने और बने रहने के लिए। आप कतई आज़ाद न किए जाएँगे जी, मुहब्बती तारों के इस मकड़जाल से। चल, कत्ती न दूँ। हा हा। याद आया कुछ ?
एक तार हमारा भी आपके साथ जुड़ा हुआ है ।
मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं.
वे बहुत ही खुशनसीब होते हैं, जो इन रिश्तों के तार में उलझे रहते हैं, आपकी लेखनी का आभार
समीर जी बहुत खूब लिखा है. साह है जो रिश्ते पहले आपस में गुंथे थे अब अलग हो गये हैं. आज ही हम रिश्तेदारों को कितना मान दे पाते हैं? आज के बच्चे तो और भी ज़्यादा एकल परिवार त्क ही सीमित हो गये हैं.बहुत सुन्दर.
ek behtreen lekh likha hai jo rishton ke prati hamari aastha ko pradarshit karta hai.........aaj bhi hum jude rahana chahte hain magar phir wo hi baat aati hai kiek taar yadi toota ho to aap kaise jude rah payenge.......bahut hi sundar aur sargarbhit lekh hai.........badhayi
बिलकुल सही बात कही है आपने , लेख पढ़कर आखे नाम हो आई , आदमी इस दौर में इतना तेज चल रहा है की सारे संस्कार भूलता जा रहा है. आज भी मेरे गाँव में मट्रिक का एक्साम देने के लिए बच्चे आते है और पूरा एक एक महीना बिता कर जाते है , मेरी दादी उन बच्चों को खाना बना कर खिलाती थी , आज दादी नहीं है , आपके लेख ने दादी की याद दिला दी.
इतनी टिप्पणियों के बाद अपनी टिप्पणी कोई मायने नहीं रखती, लेकिन पोस्ट इतनी दमदार है कि बिना लिखे रहा नहीं जा रहा। मन की गहराई में उतर गयी आपकी यह पोस्ट। ज्यादा लिखने की आवश्यकता नहीं। बस यूं ही लिखते रहें।
ekdam sach...
समीर भाई,आपकी पोस्ट का हर शब्द ,हर अहसास मन में ऐसे घुल मिल कर इसे बहा गया कि ,कुछ बचा ही नहीं कहने को.........
एकदम भावुक कर रुला गयी यह पोस्ट....
ham to dhum ketu hai so taro ke bare me nahi janate . akasar chamakan fir gayab ho jana hame yahi bhata hai bhai . tare vahi roj tange rahate hai so pasand nahi :)baki post padhege tab kuch aur kahenge :0
रिश्तो के तार के माध्यम से अपने अपने काफी कुछ अपने विचार रखे . समय बदलने के साथ साथ आज के व्यस्त समय में रिस्तो के माइने भी बदल गए है या बदल रहे है . .... बहुत ही विचारणीय उम्दा पोस्ट. आभार.
’यूँ ही उलझे रहना अच्छा लगता है...’
रिश्ते है तो उलझन है बिल्कुल।
पर समय के अंतर को पाटने की भूख तारों को हटाना चहती है।
समीर भाई आप भी सिध्ध हस्त हैं
आपकी कथा के शीर्षक से पहले तो आसमान वाले तारों का ध्यान आया :)
फिर,
यहां आकर ,
इलैक्ट्रिक के तारों को
उलझे देखा और इंसानी रिश्तों के
तानों - बानों में
मन उलझ कर
अतीत की स्मृतियों में खो गया -
कविता भी सशक्त लगी --
आज के परीप्रेक्षेय में जो कहा
ये कथा ने समाज का सच सामने रख दिया
&
suddenly reminded me of this Shammi kapoor song :
" तेरी जुल्फों से
रिहाई तो नहीं माँगी थी ,
कैद माँगी थी ,
रिहाई तो नहीं माँगी थी "
सादर, स - स्नेह,
- लावण्या
electronic wires ka rishto ke saath connection....padhkar achcha laga.... par hamne aisa kuch nahi dekha.....nuclear family mein hi rahi hoon.....Nani ke ghar jaate they to ye sab seen dekhne ko milte they
तारों के मकडजाल के बहाने आपने जो वर्तमान की तस्वीर खीँची है, उससे तो मन में भय का संचार होने लगा है!!!
काश कि रिश्तों की ये उलझाहट यूँ ही बनी रहे!!!!
.
.
.
समीर जी,
सहमत हूं...आजकल रिश्ते सिमटते जा रहे हैं...चाह कर भी नहीं निभा पाता कोई भी... वक्त ही ऐसा है...
लेकिन नये और अनूठे रिश्ते बन भी तो रहे हैं...अब देखिये हम ही लोग...आपको आपके कुछ रिश्तेदारों से ज्यादा ही जानते...और मानते हैं...
जीवन में एक ही चीज है जो हर हाल में हो कर रहेगी...वह है परिवर्तन...बस नहीं चलता इस पर किसी का...
एक बात और कहूंगा जो मेरे पिता अक्सर कहते हैं...कि हर पिछली पीढ़ी अपने बाद वाली पीढ़ी को जरूर कहती है...हमारे समय में लोग... रिश्ते निभाते थे...दोस्ती निभाते थे...ईमानदार थे...मटिरियलिस्टिक कम थे...बड़ों को इज्जत बख्शते थे...वगैरा...वगैरा...पर हकीकत में कुछ फर्क नहीं होता है दोनों पीढियों मे...हर पीढ़ी मे श्रवण कुमार भी होते हैं...और औरंगजेब भी...
धन्यवाद!
ऐसी बेतार होती दुनिया में तो भारत की ज़िम्मेदरियां और भी बढ़ जाऐंगी...
तब तो जनसंख्या की कमी से दो-चार होते हुए बाकी सब देश भारत की तरफ मुंह बाए लार टपकाते बैठा करेंगे ललचाती नज़रें लिए कि -'प्लीज़ कुछ लोग हमारे यहां भी भेज दो भई...भगवान तुम्हारा भला करेगा'
रिमोट के जमाने में तो टी वी के पास भी कोई नहीं जाता।
याद कीजिए..गोला घुमा कर भागती पिक्चर को स्थिर करना। ब्राइटनेस घटाना बढ़ाना. . कितने सारे स्पर्श और दृश्य सुख ! सब समाप्त हो गए। है ना..
टी वी परिवार का एक सदस्य सा लगता था। जतन से कढ़ाईदार कपड़े से ओढ़ा कर रखा जाता था ...
रिश्तों को टी.बी. बीमारी लग गई है। रिमोट कंट्रोल. .
बिजली भी बिन तार आएगी तो कँटिया कनेक्सन की संभावनाएँ भी समाप्त।..
.अधिक नहीं, नहीं तो एक पोस्ट ही बन जाएगी। आजकल ये बीमारी मुझे पकड़ने लगी है।
bahut achcha saman bandha hai, bahut gahrai se soch vichar kar ek poori kavita hi hai saari rachna. aur aaj ki sachai samete hue, sameer ji bahut khoob, badhaai.
"मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं... मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो!!!"
बेहतरीन पोस्ट,बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!!!
तारों का यह मकड़जाल घर बाहर सभी जगह तो घेरे रहता है ।
कभी कभी तो लगता है, हम इन इन्हीं तार के वज़ह से वज़ूद में हैं ।
पर यह मानव मन कितने अदृश्य डोर से भी तो बँधा हुआ है,
जिसका प्लग पॉइंट विधना भी नहीं जानता ।
अच्छी पोस्ट !
बड़ी मार्मिक पोस्ट है।
तार भले ही उलझते होंगे, मगर एक रिश्ता कायम रहता था.
अब सभी बेतार याने वायरलेस है, मगर उन रिश्तों की गर्माहट नहीं.
आपका लेखन सुपर है. बहुत भाव पूर्ण पोस्ट.
muze bhee pasand hai ye kaid aur ye rishton ke tar bhee jo rishton se shur uhokar nanihal ya dadihal tak pahunchte hain. in ulze sawalon ko sulzata hua sunder lekh.
muze bhee pasand hai ye kaid aur ye rishton ke tar bhee jo rishton se shur uhokar nanihal ya dadihal tak pahunchte hain. in ulze sawalon ko sulzata hua sunder lekh.
Bijli ke Taaron se dil ke taaron tak..kya baat hai Sameer Sahab..!!
Rishon ke taaron mein ab sirf taar hai 'CURRENT' nahi !!!!
Nazar se door to bas dil se door....
कितने भी उलझे होते थे ये तार पर गाहे-बगाहे, महीने दो महीने मे हम इन्हे सुलझाने का प्रयास इन्हे अलग करके करते थे और सुलझा कर फिर से लगा देते थे. पर उस तार का क्या करे जो दिखेगा ही नही और फिर उलझ जायेगा तो ----
तार और रिश्ते...खूब लिखा है आपने दोनों को आपस में जोड़कर! भले ही वायर लेस का ज़माना आ गया है मगर रिश्ते वायर लेस नहीं होना चाहिए!
रिश्तों के तार
और
उनकी
गिरफ्त के बीच
मैं...
मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं...
मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो!!!
आपने तो शायद सब के दिल की बात कह दी लाजवाब रचना है बधाई और 100 टिप्पणी के पार का आँखाडा पाने के हकदार भी हैं जिस के लिये एडवाँस मे बधाई
टूटे हुवे रिश्तों की त्रासदी से उपजी गहरी रचना है समीर भाई .......... सच में रिश्तों में कैद रहना भी कितना सुखद होता है ....... मर्म्स्पर्शीय लिखा है .........
कहीं सुना था कि ...
जहाँ न पहुंचे रवि
वहां पहुंचे कवि...
यह पंक्तियाँ शायद कुछ इसी तरह कि रचनाओं के लिए कही गयी होंगी |
अभूतपूर्व रचना
दिल जीत आपने महोदय |
कोटिशः साधुवाद एवं हार्दिक बधाई |
जय हो ...
खूब सारे तारों के बीच उलझता सुलझता खुशी खुशी जिए जा रहा हूँ. मुझे यूँ ही उलझे रहना अच्छा लगता है मगर मेरे अकेले के चाहने से होगा क्या? तार का एक सिरा जुड़ा हो और दूसरा टूटा, तब ऐसे तार का क्या महत्व? तुम प्रगतिशील हो-जमाने के साथ साथ बदलने वाले और मैं थमा-स्थिर. तुम्हारी नजर में, बेचारा मैं.
कुछ बेतरतीबी
से
बिखरे
उलझे हुए
रिश्तों के तार
और
उनकी
गिरफ्त के बीच
मैं...
समीर जी (जी नहीं चाचा जी कहना आवश्यक सा लगता है). मैं भी बहुत सारे रिश्तो के तारों में उलझा हुआ हूँ. कुछ तार अन्प्लग हो जाते हैं तब आज़ादी क्षणिक सुख देती है मगर तकलीफ स्थायी मालूम पड़ता है. चलिए बेतार (वायरलेस) के माध्यम से एक तार अब आप तक भी जा पहुंचा है.
आपको प्रणाम!
ज़िन्दगी हमें अपने माध्यम से बहोत कुछ सिखाती है, आवश्यकता है उसे समझने की और सीखने की. आपमें वो हुनर है जो तारो के माध्यम से ही इतनी बड़ी बात सीख ली और हमें भी सिखा दी.
धन्यवाद
http://rajdarbaar.blogspot.com/
समीर जी ,
आपको पढना ही अपने आप में पूरी दुनिया का ज्ञान हो जाना है |
कहाँ से कहाँ आप तार जोड़ देते हैं, बेतार के भी तार खींच डालते हैं कि अब शब्द ही नहीं हैं मेरे पास बोलने के लिए |
इस बार तो कमाल ही कर दिया
मैं सोच नहीं पा रहा था कि बात कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी और फिर भी इतनी जुडी हुई | भौतिक परिवेश हो या समाज या फिर कुछ भी, जीवन का अर्थ सबमे छुपा हुआ है बस आप यूँ ही खोज के समझाते रहिये |
कितनी बार तो इन्हीं तारों के सहारे वो गिर कर टूट जाने से बच जाते हैं-वही गायब!!
इस पंक्ति का अर्थ समझने लगता हूँ तो रिश्तों के तारो का मोल समझ में आता है |
प्रगतिशील होकर भी जो समाज और रिश्तों का महत्व न समझे वो बेचारा है |
सच कहा आपने
मुझे ये कैद
पसंद है..
मैं रिहाई का
तलबगार नहीं...
मुझ पर रहम करो..
मुझे आजाद मत करो!!!
आपकी पोस्ट पर टिप्पणी करने जब भी जाती हूँ मेरा नंबर ८० और १०० के बीच में ही रहता है |अब मुझे समझ में आया कि कितनी अपनी सी लगने वाली पोस्ट होती है जहाँ सारे तार गुथम गुथा होकर साथ में रहने का संदेस दे जाते है |अब तो अगर माँ बाप के पास भी जाना है तो पहले सारी सुविधाए देखि जायेगी फिर टिकिट बुक कि जायेगी |समय कि आंधी में सारे रिश्तो के तार अलग हो गये |
उन्होंने तो दी थी हमे
घने दरख्तों कि छाया
जिसमे हम भरपूर
फले भी फूले भी
हम है अभी से आतंकित
आशंकित
क्योकि हमनेही दी है
इन्हें
बोगन बेलिया और
मनी प्लांट कि छाया |
abhar
वायरलेस रिश्ते, उलझन तो यहां भी होती है, हां दूर जाना आसान होता है।
जिंदगी ऐसी ही है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
रिश्ते नाते तार तार हो गए इस ज़माने में . अब बेतार रहे तो अच्छा होगा .
तारों के माध्यम से प्रकट आपका दर्शन पसंद आया।
कितनी सुन्दरता से आपने रिश्तों को तारों से जोड़ा है. पसंद आया आलेख और आपकी सोच.
sarthak lekhan... chetas ke saare taar jhakjhor gaye aap.... taar hi zindagi mein humari jagah nirdhaarit kartaaa hai... humara dayaraa aur humari pehchaan nirdhaarit karta hai.... so true....:)
aur vo choti si kavita..."मैं रिहाई का
तलबगार नहीं "ekdam sateek chot karti hai...
sarthak lekhan... chetas ke saare taar jhakjhor gaye aap.... taar hi zindagi mein humari jagah nirdhaarit kartaaa hai... humara dayaraa aur humari pehchaan nirdhaarit karta hai.... so true....:)
aur vo choti si kavita..."मैं रिहाई का
तलबगार नहीं "ekdam sateek chot karti hai...
एक ऐसी रचना जो सीधे दिल से लिखी गयी.....
मैं रिहाई का तलब गार नहीं......
क्या खूबसूरत एहसास है....
bhai sahab, aap bhut gazab ka dil se likhte hain. maza aata hai aapko padh kar.
चारो तरफ यही था जाल,
रिश्तों का जो मकड़जाल,
आज हुआ है बुरा हाल,
किधर है रिश्ता,किधर है जाल,
बहुत सही कहा।
गजब का मकडजाल है जो सोचने पर विवश करता है।
मुझे ये कैद पसंद है
मैं रिहाई का तलबगार नहीं ।
सशक्त चिंतन।
हैप्पी ब्लागिंग।
bahut shaandar aur gajab ka likh hai. dhanyavad.
ये रिश्तों के तारों का जोड घटाव वाकी लाजवाब लगा, नमन आपको.
आपकी लेखनी को प्रणाम। जबरदस्त मकडजाल है ये।
इन तारों के बिना जीवन अपना मज़ा खो देता है, पर कभी कभी ऐसा भी होता है के कुछ तारों को हम चाहकर भी नहीं तोड़ पाते...
"तार से बेतार हो रही दुनिया और रिश्तों की धाँसू तुलना की है आपने. सब बेतार हो रहा है... ज़माना ही बेतार हो रहा है....."
फिर भी उलझे रहना चाहते हो दोस्त. मुझे भी सिखाओ इस वाहियात दुनिया से जुड़े रहने का गुर.... मैं तो एक ज़माने से रूठा बैठा हूं.
कविता बेह्द अच्छी है.
पर सोचने की बात यह भी है कि तार होते हैं तो वह सिर्फ़ बाईडॉयरेक्शनल कम्यूनिकेशन होता है - यानि कि एक ही दिशा में आना जाना। अब जब तार के माध्यम को हटा दिया गया है और बेतार वाला सिस्टम है तो तरंगें कहीं भी स्वछंद विचरने को आज़ाद हैं, मल्टीडॉयरेक्शनल कम्यूनिकेशन होगा, रिश्तों की संभावनाएँ बढ़ेंगी, नहीं? :)
मैं और मेरी तन्हाई बाते करते हैं कि ऐसा होगा वैसा होगा . जो चाहोगे वैसा ही होगा . मनोविचारों का बेतार का तार तो कबसे जुड़ा हुआ है . चाहत का बहुत बड़ा सम्बन्ध है कि आपकी जिन्दगी में क्या होगा . वैसे बिना तारों के बिजली अगर घर में आने लगे तो हिंदुस्तान में अच्छा होगा
पहले लोग दिल से तार जोड़ा करते थे अब दिल ही नहीं रहे तो तार कहाँ से रहेंगे...बहुत अच्छी पोस्ट लगी मुझे ये आपकी...
नीरज
amazing analisis of relationship. Sab kuch wireless ho gaya hai... bahut sundar lekh ki hum sochane par majboor huye.
एक टिप्पणी भेजें