रविवार, सितंबर 13, 2009

सपनों की दुनिया

बुजुर्ग बताते थे कि सपनों का आधार आपके दिमाग के कोने में पड़े वो विचार होते हैं जिन्हें आप पूरा होता देखना चाहते हैं किन्तु जागृत अवस्था में कुछ कर नहीं पाते. कह नहीं पाते और मूक दर्शक बने उन्हें अपने आसपास होता देखते रहते हैं. ऐसे विचार सपनों में आकर आपको झकझोरते हैं, जगाते हैं.


एक कविता, बिना किसी भूमिका के, प्रस्तुत करना चाह रहा था, इत्मिनान से पढ़ें और शायद कहीं आपको छुए/ झकझोरे, तो दाद दिजियेगा.

teartr1

 

जानता हूँ

सबके सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.

और मैं
नींद के आगोश में आते ही
अक्सर
वहाँ पहुँच जाता हूँ..
अपनी  उसी दुनिया में

जहाँ दूर दूर तक फैला
एक मरुस्थल है..
जिसके बीच से
एक गंगा बहती है...

गंगा,
जो शंकर  की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस  क्न्या के 
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..

शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..

न कोई हरीयाली
न कोई पशु न पक्षी

बस,
रेतीले टीलों के बीच
कुछ गहरी खाईयाँ हैं

और

उन्हीं खाईयों में से
एक से निकलने का
प्रयास करता मैं..

रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..

प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!

-समीर लाल ’समीर’

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97 टिप्‍पणियां:

Gyan Darpan ने कहा…

कविता बहुत बढ़िया लगी |

Arvind Mishra ने कहा…

बहुत कुछ अव्यक्त अमूर्त होने के बाद भी पीडा का अहसास दिलाती यह कविता !

वाणी गीत ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..

टिपण्णी के लिए शब्द तलाशते हार गए ..
"" अद्भुत " से ज्यादा कहने की हमारी योग्यता ही नहीं है ...!!

विवेक रस्तोगी ने कहा…

एक ठोस धरातल तक पहुँचने का, बहुत ही अच्छा।

कामोद ने कहा…

वाह वाह् वाह..

फिर से छा गये गुरू!!>>

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर ने कहा…

sapna nahi sachchai hai.narayan narayan

हेमन्त कुमार ने कहा…

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. ।
सपने भी कम सुखदायी नहीं होते । आभार ।

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

वाह समीर जी, वाह... बेहतरीन कहा है आपने... आपकी संवेदनाऒं को नमन..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

"गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.."

वाह...वाह....।
अद्भुत भाव, अभिनव प्रयोग।
हिन्दी-दिवस की शुभकामनाएँ!

ओम आर्य ने कहा…

सही है...आप जिस देश-दुनिया की बात कर रहे हैं शायद हीं वहां कोई लड़कियों के जन्म के ख्वाब देखता होगा...दाद ग्रहण कीजिये

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

मार्मिक कविता, सपने के माध्यम से यथार्थ को सामने रखने का प्रयास। बहुत ही उत्कृष्ट।

Khushdeep Sehgal ने कहा…

गुरुदेव, आप रूला सकते हैं, आज ये पता भी चला...दिल की गहराई तक असर करने वाला सपना...

seema gupta ने कहा…

शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..

भावनात्मक स्तर को स्पर्श करती पंक्तियाँ.....जैसे
जो जन्मीं ही नहीं.. सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही.. शायद इसीलिये
इन पंक्तियों मे दर्द की धार बह रही हो......
regards

समय चक्र ने कहा…

जानता हूँ
सबके सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.

बहुत सुन्दर भावः . रचना वास्तव में दाद के काबिल है . आभार

समय चक्र ने कहा…

जानता हूँ
सबके सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.

बहुत सुन्दर भावः . रचना वास्तव में दाद के काबिल है . आभार

Unknown ने कहा…

आप भी अजब हैं जो इस दुनिया को अजब कहते हैं वरना लोगों की निगाहों में तो सपनों की दुनिया ही अजब होती है।

सुन्दर रचना!

Meenu Khare ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.."

यथार्थ आधारित मार्मिक कविता.

अजय कुमार झा ने कहा…

आपका तो हर अंदाज़ ही जुदा है......सपने भी ....और यथार्थ भी....बहुत ही भावुक रचना....

सुशीला पुरी ने कहा…

मरुस्थल के बीच में गंगा .................क्या बात है समीर जी ! बिलकुल नये अंदाज में आये है आप , इतनी संवेदना कहाँ छुपा रखे हैं ? अद्भुत कविता के लिए हार्दिक बधाई .

ताऊ रामपुरिया ने कहा…

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..

शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..


बेहद मार्मिक और सशक्त अभिव्यक्ति. शुभकामनाएं और नमन आपको.

रामराम.

विवेक सिंह ने कहा…

"मैं जानता हूँ कि सबके सपनों की एक खास दुनिया होती है.मेरी भी है, और मैं नींद के आगोश में आते ही अक्सर अपनी उसी दुनिया में पहुँच जाता हूँ.जहाँ दूर दूर तक फैला एक मरुस्थल है.जिसके बीच से एक गंगा बहती है . गंगा,जो शंकर की जटाओं से नहीं निकली.वो उस कन्या के
आँसूओं की एक धार है जो जन्मीं ही नहीं.सांस लेने के पहले ही भ्रूण में ही उसे मार दिया गया.शायद इसीलिये गंगा के होते हुए भी वो धरती
मरुस्थल है.न कोई हरियाली है,न कोई पशु, पक्षी हैं,बस रेतीले टीलों के बीच कुछ गहरी खाईयाँ हैं और उन्हीं खाईयों में से एक से निकलने का प्रयास करता मैं. रेत में अपनी पकड़ बनाता हुआ बार बार फिसल जाता हूँ.जाने कब नींद टूटती है.मैं उस दुनिया से निकलकर इस अजब सी दुनिया में आ जाता हूँ.अब भी वही एक ठोस धरातल तक पहुँचने का प्रयास जारी है ."


बहुत अच्छे भाव हैं . इस सामग्री से हमें भी एक कविता बनाने की अनुमति प्रदान की जाय !

अनूप शुक्ल ने कहा…

कविता वाह वाह टाइप ही है मालिक इसलिये वाह वाह ही करना पड़ रहा है!

mehek ने कहा…

bahut hi marmsprashi rachana,magar ye ganga ko marne ka khwab aaj ki haqiqat hai,kanya ganga aaj bhi sanslene se pehlemaar di jaati hai.

अमिताभ मीत ने कहा…

क्या बात है सर जी. लाजवाब कर दिया है ....

अर्कजेश ने कहा…

कन्या भ्रूण हत्या की मार्मिक अभिव्यक्ति !
कविता के समापन को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर सका ।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

आशा है आपको और हम सबको भी को वो "एक ठोस धरातल" जल्द मिले |
शुभकामनाये |

सदा ने कहा…

प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!

बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति, बधाई

नीरज गोस्वामी ने कहा…

वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.

सीधे सादे शब्दों में कहूँ तो...अद्भुत रचना...वाह.
नीरज

रंजू भाटिया ने कहा…

वाह बहुत सुन्दर कविता सपनो की दुनिया भी अपनी ही होती है .अदभुत

P.N. Subramanian ने कहा…

अवचेतन में एक ठोस धरातल! की कल्पना? कभी कभी हमें भी ऐसे सपने आते हैं. हम सोच रहे थे, उन रेतीली गड्ढों से उबरने के लिए हाथ पैर मार मार कर कितने थक जाते होंगे.

रश्मि प्रभा... ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
waah

Abhishek Ojha ने कहा…

'एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.. '
अब क्या कहें इस पर !

Desk Of Kunwar Aayesnteen @ Spirtuality ने कहा…

सर्वप्रथम आपको हिंदी दिवस कि ढेड़ सारी शुभकामनायें...

प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!

कविता कि ये पंक्ति तो प्रत्येक इंसान कि अभिवयक्ति कहती हुई लग रही है क्योंकि हरेक को अपने अस्तित्व को साबित करना पड़ता है इसीलिए ठोस धरातल तक तो पहुंचना ही परेगा...

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

"गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली.. "

यह तो वही गंगा है ना महाभारत वाली, जिसने अपने सात पुत्रों को नदी में बहा दिया...अब समय पुत्रियों का आया है शायद:(

बढिया कविता, मन को छू गई॥

Vineeta Yashsavi ने कहा…

उन्हीं खाईयों में से
एक से निकलने का
प्रयास करता मैं..

रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..

प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
bahut khub...

राज भाटिय़ा ने कहा…

गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..
बहुत खुब लिखा आप ने क्योकि हम मुर्ख है जो गंगा को समझ नही सके ? इसी लिये मरुस्थल है. समीर जी बहुत अच्छा लिखा, वो लोग समझ पाते जो आज कंस बने फ़िरते है,
धन्यवाद

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..

---------
सुन्दर! मुझे तो लगता है कि मेरे जाग्रत में जो चल रहा होता है - स्वप्न में भी उसी का एक्स्टेंशन होता है।
शायद बढ़िया जगूं तो बढ़िया हो पाऊं! आपका क्या सोचना है?

Lal Sant Kumar Shahdeo ने कहा…

हिन्दी दिवस की शूभकामनाऍ, समीर जी की कविता अछी लगी। अपने ब्लाग से आपके बताये अनुसार वर्ड वेरीफीकेशन हटा लिया हुँ।

Lal Sant Kumar Shahdeo ने कहा…

हिन्दी दिवस की शूभकामनाऍ, समीर जी की कविता अछी लगी। अपने ब्लाग से आपके बताये अनुसार वर्ड वेरीफीकेशन हटा लिया हुँ।

Udan Tashtari ने कहा…

ईमेल द्वारा मनीष यादव:

sir, idhar Allahabad university me blogger aur orkut banned site hain.. so aapko properly comment nahin de paa rahaa...
लेकिन आपके सपनों की दुनिया में मेरी अपनी सपनों की दुनिया दिखती हैं. जिसमे अधूरापन हमेशा झलकता हैं चाहे वह भ्रूण से होकर गुजराती हो चाहे मेरे खंडित जीवन से .....

आशा हैं ठोस धरातल एक दिन ज़रूर मिलेगा ....

भाभी को मेरा प्रणाम ... आपको तो ... :) :)

निरंतर आने का प्रयास रहेगा .......
--- मनीष

रंजना ने कहा…

अब क्या कहूँ......शब्द कुंद हो गए...

Mishra Pankaj ने कहा…

रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...

bahut hee sundar

दिगम्बर नासवा ने कहा…

रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...

maarmik .......... stabdh हूँ बहूत ही आपकी रचना पढ़ कर .......... yathart swapn है .......... naman है

Sushil Kumar ने कहा…

कविता और कहने के अंदाज दोनो निराले हैं।

निर्मला कपिला ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
सपने के माध्यम से भ्रूण हत्या पर सुन्दर रचना शुभकामनायें

शेफाली पाण्डे ने कहा…

एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..

बिलकुल झकझोर गयी है यह कविता .....
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ ....

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
आज तो शब्द मेरे साथ नहीं दे पारहे हैं आपकी तारीफ करने के लिए....

Yogesh Verma Swapn ने कहा…

wah sameer ji, rachna achchi lagi.

swapn bhi kabhi satya hote hain yaron
hans lo hansa lo bas sote sote.

Amit K Sagar ने कहा…

सचमुच! एक दम ठीक कहा है आपने!
और कविता...बहुत खूब. बस पढ़ते ही बना. जारी रहें

---
क्या आप हैं उल्टा तीर के लेखक-लेखिका? होने वाली इक क्रांति- विजिट करें- http://ultateer.blogspot.com/

Vinay ने कहा…

हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ। कविता बहुत सुन्दर है।

डॉ टी एस दराल ने कहा…

समीर जी, आपने कविता के माध्यम से एक बहुत ही गंभीर विषय को उठाया है. बहुत ही संवेदना पूर्ण अभिव्यक्ति भी है. लेकिन टिप्पणियों में एक दो को छोड़कर, किसी में भी वाह वाह के सिवाय कोई रचनात्मक बात नहीं कही गई है. आज जहाँ देश में मेल फिमेल की बिगड़ती रेशो चिंता का विषय बनी हुई है हम सब के लिए, वहीँ क्या ब्लोगिंग जगत में ये मात्र मनोरंजन का साधन रह गई है. कुछ गहरा चिंतन भी होना चाहिए. भ्रूण हत्या क्यों ?
क्या कारण हैं? क्या समाधान है ? ये सवाल हैं जिसका ज़वाब सरकार के साथ साथ जनता को भी ढूंढ़ना चाहिए.

Nipun Pandey ने कहा…

रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..

बहुत सुन्दर समीर जी ,
बहुत गहरे भाव लिए हुए कविता ...

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

ये कविता न कही जाये सच्चाई है जिन्दगी की कोई इसी से लड़ रहा है कोई इसी से मजे ले रहा है।

डा० अमर कुमार ने कहा…


कविता के भाव अमूर्त तो नहीं,
स्पष्टतः पर अप्रतिम है, जस्ट मैचलेस !
जो, परोक्ष रूप से समाज के कर्णधारों को मुँह चिढ़ा रही है ।

MUMBAI TIGER मुम्बई टाईगर ने कहा…

एक गंगा बहती है... गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.. सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही.. शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है.. न कोई हरीयाली

-------------------
समीरभाई, बहुत ही उमुन्दा बात कविता के रुप मे पढने को मिली। वर्तमान मे समाजिक खाका जिस तरह गडबाया हुआ है, भ्रम सा हो रहा है कि आजका मानव २१ सदी का है या दानव युग का ? भ्रुण हत्या। यह हिन्सा पुरी दुनिया को असन्तुलित कर खत्म करने मे सक्षम है।

वैश्विक सन्तुलन को बनाए रखने के लिए पुरुष और स्त्री दोनो ही अपना मुल्य है। अपनी अस्मिता है। एक दुसरे के बिना दोनो ही अधुरे है। इसलिए एक के अस्तित्व को नकारने का अर्थ है सृष्टी के सन्तुलन को ही नकारना। नारी शोषण का एक आधूनिक वैज्ञानिक तरीका है भ्रुण हत्या। समाज की विकृत मानसिकता ने कन्याओ को जन्म लेने के अधिकार से ही वन्चित कर दिया है

बहुत आभार की आपने सामाजिक कुरितियो को खुली फटकार लगाई।

आपका



पहेली - 7 का हल, श्री रतन सिंहजी शेखावतजी का परिचय
हॉ मै हिदी हू भारत माता की बिन्दी हू
हिंदी दिवस है मै दकियानूसी वाली बात नहीं करुगा

Alpana Verma ने कहा…

कविता गंभीर विषय लिए है.
'गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है'

-गंगा के होते हुए भी मरुस्थल रह जाना भूमि की विवशता है..' यह पंक्तियाँ आप की कविता की सबसे सशक्त पंक्तियाँ हैं.

Pt. D.K. Sharma "Vatsa" ने कहा…

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..
शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..

स्वपन के माध्यम से यथार्थ का चित्रण करती हुई मार्मिक रचना!!!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

बहोत खूब --
कविता और स्वप्न दोनों
बहुत पसंद आये समीर भाई :)

हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें

Prem ने कहा…

आज बहुत दिनों बाद आपका ब्लॉग खोला ,सारी रचनाएँ इस महीने की पढ़ डाली ,एक महीने पहले आप हूस्टन गए होते ,तो हम भी कोशिश कर सकते थे आप से मिलने की ,चलो फिर कभी । सपने का अंदाजे बयां बढ़िया है ,भारत की यह संकुचित विचारधारा कभी तो बदलेगी ।

Mansoor ali Hashmi ने कहा…

प्रेरणा दायी स्वप्न, सुन्दर अदायगी!

प्रेरणा स्वरूप ही ये शेर हो गया है…जो ग़ज़ल बनने को मचल रहा है:-

सच भी सपने की तरह एक मरुस्थल निकला
अपनी ही आँखो से जाकर के कहीं जल निकला।

नोट:- ग़ज़ल लेखक आमन्त्रित है, इस पर आगे बढ़ने के लिये ताकि ठोस धरातल की तलाश मे समीर जी की मदद की जा सके।

काश! बवालजी, सुबीरजी, नीरजजी तक भी यह पैगाम पहुंचे!

-मन्सूर अली हाशमी

Udan Tashtari ने कहा…

ईमेल द्वारा प्रेषित:

"प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!! "
बहुत ही सुंदर एवं सार्थक कविता है. सपने हर कोई देखता है और देखने भी चाहिए ,लेकिन वास्तविक धरातल को बिना भूले . बहुत बहुत बधाई !

दिनेश कुमार माली

shama ने कहा…

विवेक जी रचना का ' उगम' स्थल यहाँ पाया ..तो यहाँ टिप्पणी दे रही हूँ ...वहाँ comment box भी नही दिखा ..
खैर , पढ़ते समय आँखें नम हुईं ..न जाने क्या ,क्या याद आता रहा ..

http://shamasansmaran.blogspot.com

http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com

Renu Sharma ने कहा…

namaskar ji ,
bahut shukriya .
apani maa ka blog hi khol diya hai
ve kavitayen likhti hain .

Renu Sharma ने कहा…

ek kanya ko bachane ke liye aapaki muhim sapane main bhi jari hai , uske liye hajaron shubhakanchhayen.
iishavar registaan ko jaldi se hara-bhara kar de aisi aasha hai.
renu...

दर्पण साह ने कहा…

Have a happy and prosperous 'Hindi Day' !

:)

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में

पर समीर भाई, सपने की उस घिनौनी दुनिया के बहुत से छीटें तो इस दुनिया मैं भी पड़ चुके हैं, और ऐसा करने और करवाने लोग कुम्भतीर्थ-स्थलों माफिक प्रसिद्व के प्रासादों में निवास कर रहे हैं और सुख लूट रहे हैं, ऐसे प्रसिद्व प्रासाद कब वैसे मरुस्थल बनेगें, जैसा सपने में देखा था........... शायद कभी नहीं......., क्योंकि वो सपना था और ये हकीकत ...........

सुन्दर रचना पर हार्दिक आभार.

चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com

रामकृष्ण गौतम ने कहा…

Fantastic sir. I am Speechless!

pallavi trivedi ने कहा…

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..

प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!

man kasaila sa ho jata hai sachmuch. ye prayaas kab safal honge.ummeed hai jald hi thos dharatal mil jayega.

मोहन वशिष्‍ठ ने कहा…

साहब जी बहुत बेहतरीन कविता कुछ शब्‍द ही नहीं है बोलने के लिए बेहतरीन

शरद कोकास ने कहा…

समीर भाई यह है समकालीन कविता का शिल्प । बहुत बढ़िया कविता है । कुछ prepositions हटा देने से शिल्प और निखर जायेगा । कथ्य पर अभी बात नहीं करूंगा , ज़रा जल्दी में हूँ लेकिन रात को ज़रूर बात करूंगा -शरद कोकास

Ashish Khandelwal ने कहा…

बहुत सुंदर कविता .. हैपी ब्लॉगिंग

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.

waah! bahut hi khoobsoorat panktiyan hain........ waaqai mein meri bhi hai....... sapnon ki khaas duniya jahan sirf main aur mere sapne hi hote hain...... main khela karta hoon un sapnon se.... sapnon mein .... baadlon ko khilona bana ke..... aur chabata hoon ....chane.... samajh ke aasman ke taaron ko....
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!
par jab neend toot jaati hai..... tab na baadalon ka khilona hota hai na hi taaron ke chane.... aur waapas aa jata hoon apne dharatal pe.... sukh-dukh ki duniya mein.....
par prayaas jaari hai..... ek kheloonga baadlon ke saath bhi aur chabaunga taaron ke chane bhi...... shayad wahi mera thos dharatal hoga........

Sameerlalji........ apko naman ...... is kavita ne....... andar ke kavi ko..... jaga hi diya....... saari thakaan utar gayi.......

Dhanyawaad......

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.

waah! bahut hi khoobsoorat panktiyan hain........ waaqai mein meri bhi hai....... sapnon ki khaas duniya jahan sirf main aur mere sapne hi hote hain...... main khela karta hoon un sapnon se.... sapnon mein .... baadlon ko khilona bana ke..... aur chabata hoon ....chane.... samajh ke aasman ke taaron ko....
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!
par jab neend toot jaati hai..... tab na baadalon ka khilona hota hai na hi taaron ke chane.... aur waapas aa jata hoon apne dharatal pe.... sukh-dukh ki duniya mein.....
par prayaas jaari hai..... ek din kheloonga baadlon ke saath bhi aur chabaunga taaron ke chane bhi...... shayad wahi mera thos dharatal hoga........

Sameerlalji........ apko naman ...... is kavita ne....... andar ke kavi ko..... jaga hi diya....... saari thakaan utar gayi.......

Dhanyawaad......

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.

waah! bahut hi khoobsoorat panktiyan hain........ waaqai mein meri bhi hai....... sapnon ki khaas duniya jahan sirf main aur mere sapne hi hote hain...... main khela karta hoon un sapnon se.... sapnon mein .... baadlon ko khilona bana ke..... aur chabata hoon ....chane.... samajh ke aasman ke taaron ko....
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!
par jab neend toot jaati hai..... tab na baadalon ka khilona hota hai na hi taaron ke chane.... aur waapas aa jata hoon apne dharatal pe.... sukh-dukh ki duniya mein.....
par prayaas jaari hai..... ek din kheloonga baadlon ke saath bhi aur chabaunga taaron ke chane bhi...... shayad wahi mera thos dharatal hoga........

Sameerlalji........ apko naman ...... is kavita ne....... andar ke kavi ko..... jaga hi diya....... saari thakaan utar gayi.......

Dhanyawaad......

सुशील छौक्कर ने कहा…

बहुत बेहतरीन कविता दिल से निकली हुई।
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का

इस धरातल का पाने में जिदंग़ी यूँ ही बीतती जाती है।

Kajal Kumar ने कहा…

"रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ..."
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है, भाई.

प्रवीण ने कहा…

.
.
.
"जो जन्मीं ही नहीं.. सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही.. शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है.. न कोई हरीयाली
न कोई पशु न पक्षी बस,"

आदरणीय समीर जी,

बिल्कुल सत्य स्वप्न है...
यह चेतावनी भी है...
जिस समाज या परिवार में कन्या भ्रूण हत्या होगी/होती रहेगी देर सबेर मरुस्थल में बदल जायेगा वो... वहां वाकई नहीं रहेगी कोई हरियाली...

कुन्नू सिंह ने कहा…

बहुत बहुत बढिया कविता हैं|

लेख के सुरू के लाईने भी बहुत बढीया हैं, पढ कर खूद को पाने लगते हैं :)

वैसे मैने आपके कई कविता कंप्युटर मे भी सेव किये हैं जैसे वो "ये उड़ के चला तो है घर जाने को ’समीर;
हवा ये पश्चिम को जाये तो फिर क्या होगा."

:)

बेनामी ने कहा…

सच कहा है हमारे बडों ने की सपनो का आधार हमारे आस-पास की घटनाएं ही है. यह बात अलग है की सभी इतेने संवेदनशील नहीं होते की सपनों में भी वास्तविकता को ही देखे. आपने समकालीन वास्तविकता को अपनी कविता द्वारा बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है. अभिनन्दन.

अमिताभ श्रीवास्तव ने कहा…

uff, maarmik/ jabardast/

Madhur ने कहा…

bahut badhiya ,,sayad aur kahne ke layak hi nahi hu..........plz.mujhe bataye ki tippdi hindi me kaise de sakta hu.............

अजेय ने कहा…

च्वांग्त्सु को सपना आया कि वह तितली है. जागा तो पाया कि वह तो च्वांग्त्सु है! फिर उसे एक नायाब खयाल आया कि हक़ीकत मे वह तितली ही है, जो च्वंग्त्सु होने का सपना देख रहा है.....और वह बुद्ध हो गया.
सपना क़ुदरत् की सब से बड़ी नैमत है.
"सब से खतरनाक होता है सपने का मर जाना ...."हमारे समय के एक बड़े कवि ने कहा था.
पर इस कविता ने सिखाया है कि सपने मर नही सकते. किसी भी क़ीमत पर नहीं.

प्रकाश पाखी ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..
आपकी रचनाए हास्य बोध से अक्सर पुलकित कर जाती है....पर इस रचना ने बता दिया है कि संवेदना बिना रचनात्मकता नहीं आ सकती...

अपूर्व ने कहा…

सर जी क्या बात है..फ़्रायड जैसी शुरुआत की और राममोहन राय जैसी बात कह गये...भावुक होने के अलावा और कोई रास्ता भी नही है हमारे पास..इसे पढ़ने के बाद...
और हाँ आपकी इन पंक्तियों से मेरा भी उतना ही इत्तफ़ाक़ है..
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!

शरद कोकास ने कहा…

ठोस धरातल पर नीन्द अच्छी आती है और सपने भी अच्छी नीन्द मे ही आते हैं । आपका आशय स्पष्ट है इस कविता मे ।सुन्दर शिल्प है इस कविता का ।बधाई

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

यही सपना तो बहुत से लोगों को दिखता है
लोग देख कर भी आँख मूद लेते हैं
आप इसे देखते हैं
मह्सूस करते हैं


साधुवाद

ALOK PURANIK ने कहा…

सरजी परेशान मत होइये। आपको देखकर तो दूसरे अपनी परेशानी भगाते हैं, आप ही परेशान हो गये, तो क्या होगा।

Girish Kumar Billore ने कहा…

jai ho achchh laga

"Nira" ने कहा…

bahut sundar sapna hai jo sapne mein jeeta aor wahin khatam ho jata hai, aor phir sapano ki duniya se laut wastavikta mein aa jata hai.

bahut badhiya likha hai

रविंद्र "रवी" ने कहा…

समीर जी आपकी कविता मर्म भरी है.मुझे बहुत ही अच्छी लगी. आँखों में आंसू तैरने लगे. दरअसल मुझे सिर्फ एक कन्या ही है.
मै उपरवाले से दुआ करता हु आपके पर्यसो को सफलता मिले और आपको ठोस धरातल मिले जहा भ्रूण हत्या न हो. जो एक सपना नहीं हकीकत हो.

Kulwant Happy ने कहा…

गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..

सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..

हर बार की तरह आपकी ये पोस्ट भी अद्भुत है। दिल खुश होता है उडनतशतरी पर सवार होकर

Unknown ने कहा…

sरेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ... ameerji
wah ..bahut hi gahri v samvedansheel hai ye kavita ....wah wahh

दीपक "तिवारी साहब" ने कहा…

pareshan hona achchhi baat nahi hai

मियां जी..जरा सुनो! ने कहा…

जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. ।

बहुत सुंदर।

चाहत ने कहा…

आपकी कविता
सपनों की दुनिया
बहुत अच्छी है

Unknown ने कहा…

एक से निकलने का
प्रयास करता मैं..

रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
wah sameerrji...wah..
ret mein apni pakad banata bar bar fisal jata hun...wah...kitni gehri baat....le jati hai kis kis ore ...safal kavya rachna hai ye jsmen panktiyon ke bahut se arth bar bar padhne per aapko aur aur gehre tak le jate hai..sammerji ki kavitaein v unki sabdavli bilkul sidhi sadi bol chal wali hai ..magr bahut gejhre artho tak le jati hai yehi enki khoobi hai...

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

प्रतीकात्मक गहरी चोट , स्वप्न में भी कहीं यथार्थ परिलक्षित होता है