बुजुर्ग बताते थे कि सपनों का आधार आपके दिमाग के कोने में पड़े वो विचार होते हैं जिन्हें आप पूरा होता देखना चाहते हैं किन्तु जागृत अवस्था में कुछ कर नहीं पाते. कह नहीं पाते और मूक दर्शक बने उन्हें अपने आसपास होता देखते रहते हैं. ऐसे विचार सपनों में आकर आपको झकझोरते हैं, जगाते हैं.
एक कविता, बिना किसी भूमिका के, प्रस्तुत करना चाह रहा था, इत्मिनान से पढ़ें और शायद कहीं आपको छुए/ झकझोरे, तो दाद दिजियेगा.
जानता हूँ
सबके सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.
और मैं
नींद के आगोश में आते ही
अक्सर
वहाँ पहुँच जाता हूँ..
अपनी उसी दुनिया में
जहाँ दूर दूर तक फैला
एक मरुस्थल है..
जिसके बीच से
एक गंगा बहती है...
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..
शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..
न कोई हरीयाली
न कोई पशु न पक्षी
बस,
रेतीले टीलों के बीच
कुछ गहरी खाईयाँ हैं
और
उन्हीं खाईयों में से
एक से निकलने का
प्रयास करता मैं..
रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
-समीर लाल ’समीर’
97 टिप्पणियां:
कविता बहुत बढ़िया लगी |
बहुत कुछ अव्यक्त अमूर्त होने के बाद भी पीडा का अहसास दिलाती यह कविता !
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
टिपण्णी के लिए शब्द तलाशते हार गए ..
"" अद्भुत " से ज्यादा कहने की हमारी योग्यता ही नहीं है ...!!
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का, बहुत ही अच्छा।
वाह वाह् वाह..
फिर से छा गये गुरू!!>>
sapna nahi sachchai hai.narayan narayan
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. ।
सपने भी कम सुखदायी नहीं होते । आभार ।
वाह समीर जी, वाह... बेहतरीन कहा है आपने... आपकी संवेदनाऒं को नमन..
"गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.."
वाह...वाह....।
अद्भुत भाव, अभिनव प्रयोग।
हिन्दी-दिवस की शुभकामनाएँ!
सही है...आप जिस देश-दुनिया की बात कर रहे हैं शायद हीं वहां कोई लड़कियों के जन्म के ख्वाब देखता होगा...दाद ग्रहण कीजिये
मार्मिक कविता, सपने के माध्यम से यथार्थ को सामने रखने का प्रयास। बहुत ही उत्कृष्ट।
गुरुदेव, आप रूला सकते हैं, आज ये पता भी चला...दिल की गहराई तक असर करने वाला सपना...
शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..
भावनात्मक स्तर को स्पर्श करती पंक्तियाँ.....जैसे
जो जन्मीं ही नहीं.. सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही.. शायद इसीलिये
इन पंक्तियों मे दर्द की धार बह रही हो......
regards
जानता हूँ
सबके सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.
बहुत सुन्दर भावः . रचना वास्तव में दाद के काबिल है . आभार
जानता हूँ
सबके सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.
बहुत सुन्दर भावः . रचना वास्तव में दाद के काबिल है . आभार
आप भी अजब हैं जो इस दुनिया को अजब कहते हैं वरना लोगों की निगाहों में तो सपनों की दुनिया ही अजब होती है।
सुन्दर रचना!
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.."
यथार्थ आधारित मार्मिक कविता.
आपका तो हर अंदाज़ ही जुदा है......सपने भी ....और यथार्थ भी....बहुत ही भावुक रचना....
मरुस्थल के बीच में गंगा .................क्या बात है समीर जी ! बिलकुल नये अंदाज में आये है आप , इतनी संवेदना कहाँ छुपा रखे हैं ? अद्भुत कविता के लिए हार्दिक बधाई .
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..
शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..
बेहद मार्मिक और सशक्त अभिव्यक्ति. शुभकामनाएं और नमन आपको.
रामराम.
"मैं जानता हूँ कि सबके सपनों की एक खास दुनिया होती है.मेरी भी है, और मैं नींद के आगोश में आते ही अक्सर अपनी उसी दुनिया में पहुँच जाता हूँ.जहाँ दूर दूर तक फैला एक मरुस्थल है.जिसके बीच से एक गंगा बहती है . गंगा,जो शंकर की जटाओं से नहीं निकली.वो उस कन्या के
आँसूओं की एक धार है जो जन्मीं ही नहीं.सांस लेने के पहले ही भ्रूण में ही उसे मार दिया गया.शायद इसीलिये गंगा के होते हुए भी वो धरती
मरुस्थल है.न कोई हरियाली है,न कोई पशु, पक्षी हैं,बस रेतीले टीलों के बीच कुछ गहरी खाईयाँ हैं और उन्हीं खाईयों में से एक से निकलने का प्रयास करता मैं. रेत में अपनी पकड़ बनाता हुआ बार बार फिसल जाता हूँ.जाने कब नींद टूटती है.मैं उस दुनिया से निकलकर इस अजब सी दुनिया में आ जाता हूँ.अब भी वही एक ठोस धरातल तक पहुँचने का प्रयास जारी है ."
बहुत अच्छे भाव हैं . इस सामग्री से हमें भी एक कविता बनाने की अनुमति प्रदान की जाय !
कविता वाह वाह टाइप ही है मालिक इसलिये वाह वाह ही करना पड़ रहा है!
bahut hi marmsprashi rachana,magar ye ganga ko marne ka khwab aaj ki haqiqat hai,kanya ganga aaj bhi sanslene se pehlemaar di jaati hai.
क्या बात है सर जी. लाजवाब कर दिया है ....
कन्या भ्रूण हत्या की मार्मिक अभिव्यक्ति !
कविता के समापन को पूरी तरह आत्मसात नहीं कर सका ।
आशा है आपको और हम सबको भी को वो "एक ठोस धरातल" जल्द मिले |
शुभकामनाये |
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति, बधाई
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.
सीधे सादे शब्दों में कहूँ तो...अद्भुत रचना...वाह.
नीरज
वाह बहुत सुन्दर कविता सपनो की दुनिया भी अपनी ही होती है .अदभुत
अवचेतन में एक ठोस धरातल! की कल्पना? कभी कभी हमें भी ऐसे सपने आते हैं. हम सोच रहे थे, उन रेतीली गड्ढों से उबरने के लिए हाथ पैर मार मार कर कितने थक जाते होंगे.
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
waah
'एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.. '
अब क्या कहें इस पर !
सर्वप्रथम आपको हिंदी दिवस कि ढेड़ सारी शुभकामनायें...
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
कविता कि ये पंक्ति तो प्रत्येक इंसान कि अभिवयक्ति कहती हुई लग रही है क्योंकि हरेक को अपने अस्तित्व को साबित करना पड़ता है इसीलिए ठोस धरातल तक तो पहुंचना ही परेगा...
"गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली.. "
यह तो वही गंगा है ना महाभारत वाली, जिसने अपने सात पुत्रों को नदी में बहा दिया...अब समय पुत्रियों का आया है शायद:(
बढिया कविता, मन को छू गई॥
उन्हीं खाईयों में से
एक से निकलने का
प्रयास करता मैं..
रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
bahut khub...
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..
बहुत खुब लिखा आप ने क्योकि हम मुर्ख है जो गंगा को समझ नही सके ? इसी लिये मरुस्थल है. समीर जी बहुत अच्छा लिखा, वो लोग समझ पाते जो आज कंस बने फ़िरते है,
धन्यवाद
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..
---------
सुन्दर! मुझे तो लगता है कि मेरे जाग्रत में जो चल रहा होता है - स्वप्न में भी उसी का एक्स्टेंशन होता है।
शायद बढ़िया जगूं तो बढ़िया हो पाऊं! आपका क्या सोचना है?
हिन्दी दिवस की शूभकामनाऍ, समीर जी की कविता अछी लगी। अपने ब्लाग से आपके बताये अनुसार वर्ड वेरीफीकेशन हटा लिया हुँ।
हिन्दी दिवस की शूभकामनाऍ, समीर जी की कविता अछी लगी। अपने ब्लाग से आपके बताये अनुसार वर्ड वेरीफीकेशन हटा लिया हुँ।
ईमेल द्वारा मनीष यादव:
sir, idhar Allahabad university me blogger aur orkut banned site hain.. so aapko properly comment nahin de paa rahaa...
लेकिन आपके सपनों की दुनिया में मेरी अपनी सपनों की दुनिया दिखती हैं. जिसमे अधूरापन हमेशा झलकता हैं चाहे वह भ्रूण से होकर गुजराती हो चाहे मेरे खंडित जीवन से .....
आशा हैं ठोस धरातल एक दिन ज़रूर मिलेगा ....
भाभी को मेरा प्रणाम ... आपको तो ... :) :)
निरंतर आने का प्रयास रहेगा .......
--- मनीष
अब क्या कहूँ......शब्द कुंद हो गए...
रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
bahut hee sundar
रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
maarmik .......... stabdh हूँ बहूत ही आपकी रचना पढ़ कर .......... yathart swapn है .......... naman है
कविता और कहने के अंदाज दोनो निराले हैं।
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
सपने के माध्यम से भ्रूण हत्या पर सुन्दर रचना शुभकामनायें
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
बिलकुल झकझोर गयी है यह कविता .....
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ ....
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
आज तो शब्द मेरे साथ नहीं दे पारहे हैं आपकी तारीफ करने के लिए....
wah sameer ji, rachna achchi lagi.
swapn bhi kabhi satya hote hain yaron
hans lo hansa lo bas sote sote.
सचमुच! एक दम ठीक कहा है आपने!
और कविता...बहुत खूब. बस पढ़ते ही बना. जारी रहें
---
क्या आप हैं उल्टा तीर के लेखक-लेखिका? होने वाली इक क्रांति- विजिट करें- http://ultateer.blogspot.com/
हिन्दी दिवस की शुभकामनाएँ। कविता बहुत सुन्दर है।
समीर जी, आपने कविता के माध्यम से एक बहुत ही गंभीर विषय को उठाया है. बहुत ही संवेदना पूर्ण अभिव्यक्ति भी है. लेकिन टिप्पणियों में एक दो को छोड़कर, किसी में भी वाह वाह के सिवाय कोई रचनात्मक बात नहीं कही गई है. आज जहाँ देश में मेल फिमेल की बिगड़ती रेशो चिंता का विषय बनी हुई है हम सब के लिए, वहीँ क्या ब्लोगिंग जगत में ये मात्र मनोरंजन का साधन रह गई है. कुछ गहरा चिंतन भी होना चाहिए. भ्रूण हत्या क्यों ?
क्या कारण हैं? क्या समाधान है ? ये सवाल हैं जिसका ज़वाब सरकार के साथ साथ जनता को भी ढूंढ़ना चाहिए.
रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..
बहुत सुन्दर समीर जी ,
बहुत गहरे भाव लिए हुए कविता ...
ये कविता न कही जाये सच्चाई है जिन्दगी की कोई इसी से लड़ रहा है कोई इसी से मजे ले रहा है।
कविता के भाव अमूर्त तो नहीं,
स्पष्टतः पर अप्रतिम है, जस्ट मैचलेस !
जो, परोक्ष रूप से समाज के कर्णधारों को मुँह चिढ़ा रही है ।
एक गंगा बहती है... गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं.. सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही.. शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है.. न कोई हरीयाली
-------------------
समीरभाई, बहुत ही उमुन्दा बात कविता के रुप मे पढने को मिली। वर्तमान मे समाजिक खाका जिस तरह गडबाया हुआ है, भ्रम सा हो रहा है कि आजका मानव २१ सदी का है या दानव युग का ? भ्रुण हत्या। यह हिन्सा पुरी दुनिया को असन्तुलित कर खत्म करने मे सक्षम है।
वैश्विक सन्तुलन को बनाए रखने के लिए पुरुष और स्त्री दोनो ही अपना मुल्य है। अपनी अस्मिता है। एक दुसरे के बिना दोनो ही अधुरे है। इसलिए एक के अस्तित्व को नकारने का अर्थ है सृष्टी के सन्तुलन को ही नकारना। नारी शोषण का एक आधूनिक वैज्ञानिक तरीका है भ्रुण हत्या। समाज की विकृत मानसिकता ने कन्याओ को जन्म लेने के अधिकार से ही वन्चित कर दिया है
बहुत आभार की आपने सामाजिक कुरितियो को खुली फटकार लगाई।
आपका
पहेली - 7 का हल, श्री रतन सिंहजी शेखावतजी का परिचय
हॉ मै हिदी हू भारत माता की बिन्दी हू
हिंदी दिवस है मै दकियानूसी वाली बात नहीं करुगा
कविता गंभीर विषय लिए है.
'गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है'
-गंगा के होते हुए भी मरुस्थल रह जाना भूमि की विवशता है..' यह पंक्तियाँ आप की कविता की सबसे सशक्त पंक्तियाँ हैं.
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..
शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है..
स्वपन के माध्यम से यथार्थ का चित्रण करती हुई मार्मिक रचना!!!
बहोत खूब --
कविता और स्वप्न दोनों
बहुत पसंद आये समीर भाई :)
हिन्दी हर भारतीय का गौरव है
उज्जवल भविष्य के लिए प्रयास जारी रहें
आज बहुत दिनों बाद आपका ब्लॉग खोला ,सारी रचनाएँ इस महीने की पढ़ डाली ,एक महीने पहले आप हूस्टन गए होते ,तो हम भी कोशिश कर सकते थे आप से मिलने की ,चलो फिर कभी । सपने का अंदाजे बयां बढ़िया है ,भारत की यह संकुचित विचारधारा कभी तो बदलेगी ।
प्रेरणा दायी स्वप्न, सुन्दर अदायगी!
प्रेरणा स्वरूप ही ये शेर हो गया है…जो ग़ज़ल बनने को मचल रहा है:-
सच भी सपने की तरह एक मरुस्थल निकला
अपनी ही आँखो से जाकर के कहीं जल निकला।
नोट:- ग़ज़ल लेखक आमन्त्रित है, इस पर आगे बढ़ने के लिये ताकि ठोस धरातल की तलाश मे समीर जी की मदद की जा सके।
काश! बवालजी, सुबीरजी, नीरजजी तक भी यह पैगाम पहुंचे!
-मन्सूर अली हाशमी
ईमेल द्वारा प्रेषित:
"प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!! "
बहुत ही सुंदर एवं सार्थक कविता है. सपने हर कोई देखता है और देखने भी चाहिए ,लेकिन वास्तविक धरातल को बिना भूले . बहुत बहुत बधाई !
दिनेश कुमार माली
विवेक जी रचना का ' उगम' स्थल यहाँ पाया ..तो यहाँ टिप्पणी दे रही हूँ ...वहाँ comment box भी नही दिखा ..
खैर , पढ़ते समय आँखें नम हुईं ..न जाने क्या ,क्या याद आता रहा ..
http://shamasansmaran.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
namaskar ji ,
bahut shukriya .
apani maa ka blog hi khol diya hai
ve kavitayen likhti hain .
ek kanya ko bachane ke liye aapaki muhim sapane main bhi jari hai , uske liye hajaron shubhakanchhayen.
iishavar registaan ko jaldi se hara-bhara kar de aisi aasha hai.
renu...
Have a happy and prosperous 'Hindi Day' !
:)
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
पर समीर भाई, सपने की उस घिनौनी दुनिया के बहुत से छीटें तो इस दुनिया मैं भी पड़ चुके हैं, और ऐसा करने और करवाने लोग कुम्भतीर्थ-स्थलों माफिक प्रसिद्व के प्रासादों में निवास कर रहे हैं और सुख लूट रहे हैं, ऐसे प्रसिद्व प्रासाद कब वैसे मरुस्थल बनेगें, जैसा सपने में देखा था........... शायद कभी नहीं......., क्योंकि वो सपना था और ये हकीकत ...........
सुन्दर रचना पर हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
जयपुर
www.cmgupta.blogspot.com
Fantastic sir. I am Speechless!
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं..
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
man kasaila sa ho jata hai sachmuch. ye prayaas kab safal honge.ummeed hai jald hi thos dharatal mil jayega.
साहब जी बहुत बेहतरीन कविता कुछ शब्द ही नहीं है बोलने के लिए बेहतरीन
समीर भाई यह है समकालीन कविता का शिल्प । बहुत बढ़िया कविता है । कुछ prepositions हटा देने से शिल्प और निखर जायेगा । कथ्य पर अभी बात नहीं करूंगा , ज़रा जल्दी में हूँ लेकिन रात को ज़रूर बात करूंगा -शरद कोकास
बहुत सुंदर कविता .. हैपी ब्लॉगिंग
सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.
waah! bahut hi khoobsoorat panktiyan hain........ waaqai mein meri bhi hai....... sapnon ki khaas duniya jahan sirf main aur mere sapne hi hote hain...... main khela karta hoon un sapnon se.... sapnon mein .... baadlon ko khilona bana ke..... aur chabata hoon ....chane.... samajh ke aasman ke taaron ko....
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!
par jab neend toot jaati hai..... tab na baadalon ka khilona hota hai na hi taaron ke chane.... aur waapas aa jata hoon apne dharatal pe.... sukh-dukh ki duniya mein.....
par prayaas jaari hai..... ek kheloonga baadlon ke saath bhi aur chabaunga taaron ke chane bhi...... shayad wahi mera thos dharatal hoga........
Sameerlalji........ apko naman ...... is kavita ne....... andar ke kavi ko..... jaga hi diya....... saari thakaan utar gayi.......
Dhanyawaad......
सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.
waah! bahut hi khoobsoorat panktiyan hain........ waaqai mein meri bhi hai....... sapnon ki khaas duniya jahan sirf main aur mere sapne hi hote hain...... main khela karta hoon un sapnon se.... sapnon mein .... baadlon ko khilona bana ke..... aur chabata hoon ....chane.... samajh ke aasman ke taaron ko....
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!
par jab neend toot jaati hai..... tab na baadalon ka khilona hota hai na hi taaron ke chane.... aur waapas aa jata hoon apne dharatal pe.... sukh-dukh ki duniya mein.....
par prayaas jaari hai..... ek din kheloonga baadlon ke saath bhi aur chabaunga taaron ke chane bhi...... shayad wahi mera thos dharatal hoga........
Sameerlalji........ apko naman ...... is kavita ne....... andar ke kavi ko..... jaga hi diya....... saari thakaan utar gayi.......
Dhanyawaad......
सपनों की
एक खास दुनिया होती है..
मेरी भी है.
waah! bahut hi khoobsoorat panktiyan hain........ waaqai mein meri bhi hai....... sapnon ki khaas duniya jahan sirf main aur mere sapne hi hote hain...... main khela karta hoon un sapnon se.... sapnon mein .... baadlon ko khilona bana ke..... aur chabata hoon ....chane.... samajh ke aasman ke taaron ko....
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!
par jab neend toot jaati hai..... tab na baadalon ka khilona hota hai na hi taaron ke chane.... aur waapas aa jata hoon apne dharatal pe.... sukh-dukh ki duniya mein.....
par prayaas jaari hai..... ek din kheloonga baadlon ke saath bhi aur chabaunga taaron ke chane bhi...... shayad wahi mera thos dharatal hoga........
Sameerlalji........ apko naman ...... is kavita ne....... andar ke kavi ko..... jaga hi diya....... saari thakaan utar gayi.......
Dhanyawaad......
बहुत बेहतरीन कविता दिल से निकली हुई।
आ जाता हूँ मैं.. प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का
इस धरातल का पाने में जिदंग़ी यूँ ही बीतती जाती है।
"रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ..."
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है, भाई.
.
.
.
"जो जन्मीं ही नहीं.. सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही.. शायद इसीलिये
गंगा के होते हुए भी
वो धरती
मरुस्थल है.. न कोई हरीयाली
न कोई पशु न पक्षी बस,"
आदरणीय समीर जी,
बिल्कुल सत्य स्वप्न है...
यह चेतावनी भी है...
जिस समाज या परिवार में कन्या भ्रूण हत्या होगी/होती रहेगी देर सबेर मरुस्थल में बदल जायेगा वो... वहां वाकई नहीं रहेगी कोई हरियाली...
बहुत बहुत बढिया कविता हैं|
लेख के सुरू के लाईने भी बहुत बढीया हैं, पढ कर खूद को पाने लगते हैं :)
वैसे मैने आपके कई कविता कंप्युटर मे भी सेव किये हैं जैसे वो "ये उड़ के चला तो है घर जाने को ’समीर;
हवा ये पश्चिम को जाये तो फिर क्या होगा."
:)
सच कहा है हमारे बडों ने की सपनो का आधार हमारे आस-पास की घटनाएं ही है. यह बात अलग है की सभी इतेने संवेदनशील नहीं होते की सपनों में भी वास्तविकता को ही देखे. आपने समकालीन वास्तविकता को अपनी कविता द्वारा बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया है. अभिनन्दन.
uff, maarmik/ jabardast/
bahut badhiya ,,sayad aur kahne ke layak hi nahi hu..........plz.mujhe bataye ki tippdi hindi me kaise de sakta hu.............
च्वांग्त्सु को सपना आया कि वह तितली है. जागा तो पाया कि वह तो च्वांग्त्सु है! फिर उसे एक नायाब खयाल आया कि हक़ीकत मे वह तितली ही है, जो च्वंग्त्सु होने का सपना देख रहा है.....और वह बुद्ध हो गया.
सपना क़ुदरत् की सब से बड़ी नैमत है.
"सब से खतरनाक होता है सपने का मर जाना ...."हमारे समय के एक बड़े कवि ने कहा था.
पर इस कविता ने सिखाया है कि सपने मर नही सकते. किसी भी क़ीमत पर नहीं.
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
भ्रूण में ही..
आपकी रचनाए हास्य बोध से अक्सर पुलकित कर जाती है....पर इस रचना ने बता दिया है कि संवेदना बिना रचनात्मकता नहीं आ सकती...
सर जी क्या बात है..फ़्रायड जैसी शुरुआत की और राममोहन राय जैसी बात कह गये...भावुक होने के अलावा और कोई रास्ता भी नही है हमारे पास..इसे पढ़ने के बाद...
और हाँ आपकी इन पंक्तियों से मेरा भी उतना ही इत्तफ़ाक़ है..
प्रयास अब भी वही जारी है...
एक ठोस धरातल तक पहुँचने का!!
ठोस धरातल पर नीन्द अच्छी आती है और सपने भी अच्छी नीन्द मे ही आते हैं । आपका आशय स्पष्ट है इस कविता मे ।सुन्दर शिल्प है इस कविता का ।बधाई
यही सपना तो बहुत से लोगों को दिखता है
लोग देख कर भी आँख मूद लेते हैं
आप इसे देखते हैं
मह्सूस करते हैं
साधुवाद
सरजी परेशान मत होइये। आपको देखकर तो दूसरे अपनी परेशानी भगाते हैं, आप ही परेशान हो गये, तो क्या होगा।
jai ho achchh laga
bahut sundar sapna hai jo sapne mein jeeta aor wahin khatam ho jata hai, aor phir sapano ki duniya se laut wastavikta mein aa jata hai.
bahut badhiya likha hai
समीर जी आपकी कविता मर्म भरी है.मुझे बहुत ही अच्छी लगी. आँखों में आंसू तैरने लगे. दरअसल मुझे सिर्फ एक कन्या ही है.
मै उपरवाले से दुआ करता हु आपके पर्यसो को सफलता मिले और आपको ठोस धरातल मिले जहा भ्रूण हत्या न हो. जो एक सपना नहीं हकीकत हो.
गंगा,
जो शंकर की जटाओं से
नहीं निकली..
वो है
एक उस क्न्या के
आँसूओं की धार
जो जन्मीं ही नहीं..
सांस लेने के पहले
उसे मार दिया गया..
हर बार की तरह आपकी ये पोस्ट भी अद्भुत है। दिल खुश होता है उडनतशतरी पर सवार होकर
sरेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ... ameerji
wah ..bahut hi gahri v samvedansheel hai ye kavita ....wah wahh
pareshan hona achchhi baat nahi hai
जाने कब नींद टूटती है...
उस दूनिया से निकल
इस अजब सी दुनिया में
आ जाता हूँ मैं.. ।
बहुत सुंदर।
आपकी कविता
सपनों की दुनिया
बहुत अच्छी है
एक से निकलने का
प्रयास करता मैं..
रेत में अपनी
पकड़ बनाता
बार बार
फिसल जाता हूँ...
wah sameerrji...wah..
ret mein apni pakad banata bar bar fisal jata hun...wah...kitni gehri baat....le jati hai kis kis ore ...safal kavya rachna hai ye jsmen panktiyon ke bahut se arth bar bar padhne per aapko aur aur gehre tak le jate hai..sammerji ki kavitaein v unki sabdavli bilkul sidhi sadi bol chal wali hai ..magr bahut gejhre artho tak le jati hai yehi enki khoobi hai...
प्रतीकात्मक गहरी चोट , स्वप्न में भी कहीं यथार्थ परिलक्षित होता है
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