१४ अगस्त से १८ अगस्त तक ऑस्टिन, टेक्सस की यात्रा चली.
ऑस्टिन, टेक्सस में साडू भाई रहते हैं (साधना की बहन और उनके पतिदेव). साडू भाई अच्छे पहचाने कवि हैं. संगत तो जमनी ही थी, उनके भाई भी बलिया, भारत से तशरीफ लाये हुए थे. वह भी कवि.
अह्हा!! आनन्दम आनन्दम!! की स्थिति थी हमारी. बेहतरीन महफिल जमीं.
कविताऐं तो चोर ले गया था मगर हमारा कम्प्यूटर तो हमारे पास ही था, उसी में देख देख कर पढ़े और खूब पढ़े. लगातार दो रातों को महफिल जमीं. तीनों ही तत्पर थे सुनाने को. एक दूसरे से आग्रह करें कि कुछ सुनाईये. सब समझ रहे थे कि एक सुनेंगे और पाँच सुनायेंगे मगर माहौल की बात थी, तो सुनी सुनाई गई.
ब्लॉगर टाईप माहौल बन गया. लिखने वाले भी ब्लॉगर, पढ़ने वाले भी ब्लॉगर, सुनने वाले भी ब्लॉगर. बहुत बढ़िया रहा. फिर उनके भाई साहब अपने बेटे के घर रहने चले गये और हमने ऑस्टिन घूमा. बरसाना धाम के सिवाय तो कुछ खास है नहीं वहाँ.
बरसाना धाम, ऑस्टिन |
साडू भाई का घर पहाड़ के उपर बना है. वहाँ से पहाड़, नदी सब नजर आता है. सब क्या, बस वही वही नजर आता है. इस खिड़की से देखो तो पहाड़ नदी. उस खिड़की से देखो तो पहाड़ नदी.कार से निकलो तो पहाड़ नदी. पैदल टहलो तो पहाड़ नदी. वो बार बार दिखायें और हम बार बार देखें.
दृष्य लुभावने थे मगर वही पुराने मंचीय कवि वाला हाल. माना कि कविता बहुत अच्छी लिखते हो, पढ़ते हो और फेमस भी हो मगर चार दशक से वही वही-हर बार वही कवितायें.. इस मंच से तो वही, उस मंच से तो वही, टी वी तो वहीं और अब तो ब्लॉग पर भी, फिर वही. कितनी बार वाह वाह करें भई. पका डाला पहाड़, नदी ने. मन फिल्मी स्टाईल में गाना गाने लगा-
ओ ओ ऊ ऊ..
पहाड़ और नदिया के किनारे
हम फिरते मारे मारे
कोई तो आ रे आ रे आ रे
मेरी जान बचा रे बचा रे!!!!
ओ ओ ऊ ऊ..
पहाड़ और नदिया के किनारे
ओ ओ ऊ ऊ..बह्हू बह्हू!!
अगर कभी मौका लगे तो शरद जोशी का वो ’चक्रवर्ती गीतों का अर्थशास्त्र’ वाला व्यंग्य जरुर पढ़ना-जिसमें निरंजन जी सुनाते हैं-’ओ मेरी सोनचिरैया!!’
मेजोरटी से कहोगे तो हम ही मेहनत करके टाईप करके पढ़वा देंगे.
सोचा था कि ऐसे दृष्य देख देख कर कविता वगैरह लिखेंगे वहीं कई सारी. मगर देख देख कर हालत ऐसी हुई कि दिमाग ही बंद हो गया. खुद के नाम को लिखने की नौबत आ जाती तो भी कहो पहाड़ सिंग लिख डालते- ऐसा छा गये पहाड़ दिलो दिमाग पर.
अब हम झेले हैं तो आप भी देखो कुछ फोटो पहाड़, नदी की. जानता हूँ आप कहोगे कितना मनोरम, कितना सुन्दर. अरे, पहले दिन हम भी यही कहते न थकते थे मगर कभी हलवाई से पूछना मिठाई खाने के लिए.
वैसे खातिर तवज्जो और मेहमानदारी जम के हुई ऑस्टिन में, उसका तो आनन्द ही अलग रहा. तो चलो अब सुनो हमारे साडू भाई की कविता:
89 टिप्पणियां:
आनंदम, आनंदम, आनंदम...
शरद जोशी के ’चक्रवर्ती गीतों का अर्थशास्त्र’के लिये हमारा एक वोट शामिल कर लीजिये
आप की यात्रा के संस्मरण ने प्रकृति के आनंदमय कल्पनालोक में डाल दिया। आभार ।
साहित्यिक या काव्य गोष्ठियों का हाल भी ब्लाग जगत की तरह ही है समीर भाई। यहाँ पर भी अक्सर रचनाकारों को डबल रोल (वक्ता और श्रोता) करना पड़ता है।
आनन्दम। आनन्दम।।
दृश्य बहुत सुन्दर ..कविता अति सुन्दर ..आपकी नहीं ...आपके साडू की
सांसों की घुटन बे आवाज़ हो ... !!
tasverwin aur video aur video mein jo kavita hai aur post bhi bahut badhiya rahi.
कितना मनोरम, कितना सुन्दर.
कोई हलवयिया दुकनियां नहीं है मेरे -हम तो रसिक जनम जनम के !
ई सब ताल तलैया देखने के लिये उत्ती दूर चले गये। वाह वाह जी वाह! कविता हम सुनने का कोशिश किये लेकिन नेट हमारा बड़ा हेल्पिंग मोड में चल रहा है कुछ सुनाई ही नहीं दिया। वैसे जब कविता पेशे खिदमत की जाये तो मेहनत और करके टाइप करके भी डाल देनी चाहिये। बहुत लोग आवाज सुन नहीं पाते और बहुत लोग डर के मारे सुनना नहीं चाहते।
सुंदर तस्वीरें हैं। पहाड़्वासी हूं पर हलवाई नहीं हूं।
वाह !
पहाड़ !
नदियाँ !
"ब्लॉगर टाईप माहौल बन गया. लिखने वाले भी ब्लॉगर, पढ़ने वाले भी ब्लॉगर, सुनने वाले भी ब्लॉगर."
फिर तो कहियेगा एक तरह से मिनी ब्लोगर सम्मलेन ही हो गया |
खूब मजे लिए आपने, बधाई!
वाह तीन कवियों की महफ़िल, दाद पे दाद...
वाह वाह वाह ....
wah sameer kisi bhi sansamaran rochak bana daalna koi aapse seekhe.
bahut achcha laga padhkar.
क्या कहें... आप तो कवि भये और कवियों के बीच में बैठकर आनन्द लिए-दिए। जरूर इससे कॉन्फिडेन्स बढ़ गया होगा। हम तो नदी-पहाड़ ही गुनते रह गये।
ऐसा करिए कि वो परसाई जी वाला टाइप करके पढ़ा ही दीजिए। मेजॉरिटी की शर्त छोड़कर अपने मन से ही मेहनत कर डालिए। अच्छा रहेगा।
क्या चौचक लिख मारते हो जी...?
''जिधर देखो उधर वही पहाड़ वही नदी ''.....पहाड़ जी को हार्दिक बधाई .........महफ़िल में एक सुनना और 5 सुनाने वाले ही होते हैं....क्या किया जाये .
वाह.....!
क्या बात है साहब।
आनन्द आ गया,
पोस्ट पढ़कर भी और कविताएँ सुनकर भी।
बहुत-बहुत बधाई!
लाजवाब रहे साडू भाई उनकी कविता और नदी पहाड़ के दृश्य....लेकिन दो दिन तक चले कवि सम्मलेन को मात्र तीन मिनट अथ्ठाईस सेकेण्ड में निपटा देना कहाँ का इन्साफ है...???ये तो सरासर नाइंसाफी है...दुहाई है दुहाई...
नीरज
गुरुदेव, लिखने वाले भी ब्लॉगर, पढ़ने वाले भी ब्लॉगर, सुनने वाले भी ब्लॉगर...सब कुछ ब्लॉगरमयी...परम आनंद...वैसे एक दूसरे की तारीफ़ करने के लिए कही जाने वाली एक पंकित याद आ रही है..."मैं तुझे पंत कहूं, और तू मुझे निराला"...
"लगातार दो रातों को महफिल जमीं. तीनों ही तत्पर थे सुनाने को. एक दूसरे से आग्रह करें कि कुछ सुनाईये. "
तो गोया, घर वालों की नींद दो दिन हराम करके ही माने:)
शरद जोशी जी के गीत के लिए हम मेजारेटी में हैं जी!!
हमें आपकी कविता से ज्यादा आपकी ऐसे वाली ब्लॉग पोस्ट पसंद हैं.
तसवीरें सुन्दर हैं. फ़िल्मी गीत सुन्दरतम है. पोस्ट गजब है.
बढ़िया दिखाया भैया; "ऑस्टिन पॉवर"
पहाड नदियाँ आपके साढू जी की कविता और आपकी तस्वीरे सभी सुन्दर हैं शरद जोशी जी के गीतों के लिये हमारी भी वोट शामिल कर लें आभार
" sameerbhai , bahut hi acchi post rahi hai ..drasy bhi manoramy hai ...aur acchi kavita ke liye aapko aur aapke saadhubhai ko salam aur badhai "
----- eksacchai {AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
ऑस्टिन का तो पता नहीं, पर भारत में तो पहाड़ और पहाड़ी नदियाँ इतनी खूबसूरत है की कितना ही देखते रहें, दिल नहीं भरता. वैसे फोटो में तो सुन्दर ही दिख रही हैं.
आज के व्यवसायिक युग में लोग भी वही खरीदते हैं, जो ज्यादा बिकता है. यही हाल कविता का भी है.
वैसे क्या उधम मचा होगा जब मिल बैठे होंगे कवि तीन.बधाई
मनोहर, मनोरम, रमणीय.
सैर का पूरा आनंद लिया गया होगा.
SAMEER BHAI ......... SAANDOO BHAI KI KAVITA TO NAHI SUN SAKE PAR AAPKE VARNAN SE SAMAJH GAYE .... KAVITA BHI JAANDAAR HOGI. PHOTO TO BAHOOT HI MANORAM HAIN .... JAGAH SUNDAR DIKHTI HAI ..... VAISE NAHI BHI HAI TO AAPKE LEKH NE SUNDAR BANA DI HAI ...
कितनी बार वाह वाह करें भई. पका डाला पहाड़, नदी ने. मन फिल्मी स्टाईल में गाना गाने लगा-
ओ ओ ऊ ऊ..
पहाड़ और नदिया के किनारे
हम फिरते मारे मारे
कोई तो आ रे आ रे आ रे
मेरी जान बचा रे बचा रे!!!!
ओ ओ ऊ ऊ..
पहाड़ और नदिया के किनारे
ओ ओ ऊ ऊ..बह्हू बह्हू!!
साढू भाई के बारे मे यह लिखकर आपने एक बात तो सिद्ध कर ही दी कि लगता है आप भाभीजी से बिल्कुल भी नही डरते आजकल? लगता है छुट का कुछ बेजा फ़ायदा लिया जारहा है?:) भाटिया जी से संपर्क करना पडॆगा. :)
और जिस अंदाज मे आपने साढू भाई की कविता सुनने का आदेश दिया है ( तो चलो अब सुनो हमारे साडू भाई की कविता: ) तो ब्लागरों से तो डरने की कोई बात ही नही है. :) तो अब भैया क्या करें ऐसी दादागिरी है तो चुपचाप सुन ही लेते हैं.:)
रामराम.
सुंदर तस्वीरें हैं। आभार ।
बढ़िया खातिरनवाज़ी हुई होगी आपकी तो साडू भाई के यहाँ?
वैसे कवियों के लिए तो सुनना सुनाना ही सबसे ज़्यादा आनन्द की बात होती है.
बढ़िया दृश्य!!
यहां तो कवि पलायन वाली बात हो गयी...हा हा हा!!!.
तस्वींरे सुन्दर है. आभार.
पहाड़ ने सर घुमा दिया गोल-गोल :)
सुन तो हम भी नहीं पाए अभी. शाम को सुनता हूँ.
समीर जी आनंद आया वृतांत पढकर
sundar chitr
manmohak varnan
vidio men jo poem sunvayi aapne, wo bahut sundar lagi.
aabhaar
sundar nazaron ke liye sadhuvaad
आज तो हम इन्फीरियारिटी कॉम्प्लेक्स के पीड़ित हो गये हैं। आप इतनी सुन्दर कवितायें लिखते हैं। उधर अजदक को देखा तो अजब-गजब फोटो सविता बनाते हैं। सुकुल को देख लगता है उनके जैसी हममें ऊर्जा है ही नहीं।
ले लीजिये जी - बधाई ले लीजिये। पर हम थोड़े सबड्यूड से हो गये हैं! :(
Waah !! Drishy aur kavita ,dono hi Lajawaab !!
बहुत सुंदर , मजा तो आप सब कवियो को खुब आया होगा... लेकिन जो मेरे जेसे होगे जिन्हे कविता का अर्थ भी समझ नही आता उन बेचारो का क्या हाल हुया होगा समीर जी, एक कवि हो तो भुगत भी ले जब कवियो का जमबाडा हो तो.....
बहुत सुंदर लगा आप का लेख ओर विडियो.
धन्यवाद
वाह ...बढ़िया दृश्य हैं ....पहाड़ के दृश्य सदा ही नयनाभिराम होते हैं ..चाहे कुमाऊँ के हो चाहे यहाँ के ...
aap kawi hai nadi, pahad to aap ki jeb aur dimag me har waqt rahte hai isliye aap in se bor ho gaye par itna bhi kharab nahi hai prkrti ka yah uphar..aap ki yatra padh kar hamari yatra bhi ho gai, badhai....kirti rana
बहुत बढ़िया महफिल जमाई आपने तो ...चित्र सोने पर सुहागा बहुत बढ़िया रहा यह भी शुक्रिया
बेहतरीन विवरण ,सुन्दर तस्वीरें और एक अच्छी पोस्ट।
ओस्टीन कभी जाना नहीं हुआ है -- आपके संग घूम लिए और bonus में कविता भी !!
सुन्दर मनोरम द्रश्यावली तथा बढिया आलेख के लिए आभार समीर भाई --
आगे कहाँ घूमना होगा ?
स्नेह आपको व सौ. साधना भाभी जी को
- लावण्या
पहली बात तो ई कि...ई भौजी का फ़ोटो ...ई आप जान बूझ कर लगाते हैं न...काहे से उनके बिना काही की मह्फ़िल जी..साढू जी भी कवि हैं...ब्लोग्गर है कि नहीं..इसका मतलब हिंदी ब्लोग जगत में..दूसरे ग्रह के प्राणियों का इंटरेस्ट बढता ही जा रहा है...बताइये फ़िर भी लोग कहते हैं..हिंदी ब्लोग्गिंग ..खैर छोडिये...बकिया सब कमाल है..हमेशा की तरह..
BEHTAREEN ! Sama bandh diya ji vaaaaah !
आपके यात्रा संस्मरण से हम भी लाभवन्तित हो रहे हॆ.
फोटो बहुत सुन्दर है आपने भी बहुत मजे लिये है साढु भाई के यहा ।
खूबसूरत तस्वीरें ...
gazab ka yaatra sansmaran hai.
चलिए आप भी पकते हैं किसी बात से :)
Anandam anandam bahut badhiya. Kawita to hume bhee bahut achchee lagee. Nadi pahad bhee.
वाह बहुत ख़ूबसूरत जगह है और आपने बड़े ही सुंदर रूप से विस्तार किया है! तस्वीरें देखकर तो अभी जाने का मन कर रहा है! खूब मज़े किए होंगे आपने!
सुन्दर तस्वीरें, सुन्दर कविता...
ऑस्टिन में वृंदावन लाल वर्मा जी की बेटी शकुन
और दामाद गिरीश जौहरी भी रहते हैं.
सुन्दर तस्वीरें, सुन्दर कविता...
ऑस्टिन में वृंदावन लाल वर्मा जी की बेटी शकुन
और दामाद गिरीश जौहरी भी रहते हैं.
shyam je srivastav ki kavita PARICHAY bahut achchhi lagi . khastaur par wo ansh.......pehchano ki buniyado par ek rish banaye .jiska koi nam na ho koi subah na ho koi shyam na ho . wah wah wah
बार बार नदी पहाड़ पढ़ के हमें बचपन का एक खेल याद आ गया ! उस खेल का नाम भी था नदी पहाड़! वैसे एक बात कहे....द्रश्य सचमुच मनोरम है! घर के बाहर टूटे फूटे मकान दूकान देखने से से तो बेहतर है बार बार नदी पहाड़ देखना!
तरह तरह की कविताएं ब्लॉग जगत पर पढ़ने के बाद पुरानी कविताओं से मन उब जाता है..दिल नए की इच्छा करता है।
बहुत सही लिखा है आपने !
कविता छाप ही देते तो अच्छा रहता!
’चक्रवर्ती गीतों का अर्थशास्त्र’ हम भी वोट दे रहे हैं |:)
समीर भाई, आदर्णीया भाभीजी का ज़िक्र है, साढ़ू भाई का ज़िक्र है लेकिन सालीजी का नही ? अब मै तो भई लेट कमर हूँ , मुझे कुछ पता भी नही !! वैसे कविता से ऊबिये मत वरना मै जल्दी ही आप्को मेरी ताज़ा कविता " एक कवि की ऊबकथा " भेज दूंगा । वैसे कितने सरल हृदय हैं आप स्थितियों को स्वीकार तो रहे है वरना मेरे कई कवि मित्र (मंच वाले और प्रिंट मीडिया वाले दोनो ) अभी भी इस गुमान मे जी रहे है कि उन्होने जो रच दिया सो रच दिया आगे कुछ नही रचेंगे । लेकिन हमारे एक बुजुर्ग कह गये है.. जो रचेगा वही बचेगा । शुभकामनायें ।-शरद कोकास ( आपकी मेल की प्रतीक्षा है }
..अजी हलवाई भले ही खुद ना खाये मिठाई..मगर बनाता तो रहता है एक से एक..सो आप भी लिख डालते कविता..और ठेल देते प्रशंसकों की जानिब..और शरद जोशी जी के व्यंग्य से सबका तार्रुफ़ कब करा रहे हैं?
YATRA BHEE KARWATE HAIN AUR KAVITA
BHEE SUNAATE HAIN AAP,YE BHAIYA
AAPKA HEE KAMAAL HAI.
'सब समझ रहे थे कि एक सुनेंगे और पाँच सुनायेंगे'-
बिलकुल कवियों और गायकों का यही हाल होता है बाकि जो न गाते न लिखते और उन्हें सुनना पड़ता है उनके भी दिल से कोई पूछे!ही ही ही!
-
कितनी बार वाह वाह करें भई. पका डाला पहाड़, नदी ने.--हा हाहा!
मजेदार प्रस्तुति..लुभावने चित्र..
'बरसाना 'अमेरिका में देखा वाह!
-शरद जोशी का वो ’चक्रवर्ती गीतों का अर्थशास्त्र’ --आप ही पढ़वा दिजीये कहीं से ---मेहनत कर के --अन्यथा हमने यहाँकहाँ मिलेगा पढने को ?
-पहाड़ -नदी- यात्रा वृत्तांत -पढ़वाने के लिए धन्यवाद.
विविध रंगों वाला बहुत लंबा चौडा कैनवास जैसा ब्लॉग है आपका ..... काफ़ी दिलचस्प भी है ... अक्सर आता हूँ यहाँ और हर बार एक नया रंग लिए मिलता है ......
और मेरे ब्लॉग पर आकर लगातार हौसला बढ़ाने के लिए आपको सादर धन्यवाद ....
साडू भाई की कविता की कविता अच्छी लगी |
बहुत सुन्दर, दृश्य, फोटोग्राफी और कविता...
अति सुन्दर प्रस्तुति..
सही है जी, पर फोटू ज़रा कम लगाए। क्या फोटू ज्यादा नहीं लिए यात्रा के दौरान?
.....इस मंच से तो वही, उस मंच से तो वही, टी वी तो वहीं और अब तो ब्लॉग पर भी, फिर वही. कितनी बार वाह वाह करें भई. पका डाला पहाड़, नदी ने.....
बाईगॉड इस लाइन से झलकता है आपका दर्द। वाकई लग रहा था कि पक्क गए गुरूजी। लेकिन अच्छी लगी पेशकश आपकी रात के इतने बजे भी हंसी आगई।
आपके अन्दर ही सारी प्रकृति समाई हुई है. इसलिए आप इतने स्मार्ट हैं.
आपके अन्दर ही सारी प्रकृति समाई हुई है... इसलिए आप इतने स्मार्ट हैं..
आपके अन्दर ही सारी प्रकृति समाई हुई है... इसलिए आप इतने स्मार्ट हैं..
समीर जी,
यात्रा के साथ-साथ आप ने कवि गोष्ठी का भी आनन्द लिया....दृश्य बहुत सुन्दर ..कविता अति सुन्दर ...रचना के साथ-साथ जानकारी के लिये धन्यवाद...
वैसे तो अब लिखने के लायक कुछ बचा नहीं. पर आपकी कविता मजेदार रही. इसलिए भी कि एक कवि खुद दुसरे कवि से बचने कि कोशिश में परेशां हो रहा है. फोटो तो मस्त है ही.
पढ़के अच्छा लगा की बलिया-गोरखपुर इकट्ठा हो गये. आप ठहरे खानदानी कवि, कविता विरासत में मिली है. लेकिन पूर्वांचल वाला मिजाज, उसने सब गुड़-गोबर कर दिया. पूरब वालों को पहाड़ कहे रास आएगा! उन्हें तो मैदान, खेत, हाट-बाज़ार दिखने चाहियें.
आपके यात्रा वृत्तांत पढ कर अपना मन भी हिलोरे लेने लगता है।
{ Treasurer-S, T }
मेरा भी एक वोट चक्रवर्ती गीतों का अर्थशास्त्र, के लिए। चित्र तो वाकई बहुत खूबसूरत हैं।
समीर भाई ,अति आनन्दम.
अपन को तो यहां बैठे बैठे ही टेक्सस औस्टिन की सैर हो गयी. कविता नुमा गीत और गीत नुमा कविता !! वाह वाह !!
आपके साढू भाई भी छा गये.
हम सिर्फ नेट पर आनन्द पा गये.
समीर भाई ,अति आनन्दम.
अपन को तो यहां बैठे बैठे ही टेक्सस औस्टिन की सैर हो गयी. कविता नुमा गीत और गीत नुमा कविता !! वाह वाह !!
आपके साढू भाई भी छा गये.
हम सिर्फ नेट पर आनन्द पा गये.
उन्होंने इतनी खातिरदारी की. आपको घुमाया और आप? नदी पहाड़ कर रहे हैं. :)
सुन्दर यात्रा-संस्मरण ।
साभार
’चक्रवर्ती गीतों का अर्थशास्त्र’ main majoo-riy + 1(main bhi)// waise manchiya kavi ka you tube main bhi ullekh dena tha.
Wahan bhi paaye jaate hain....
...ek kavi ki hazaar rachnaayein,
ya ek kavi ki ek rachna hazaar baar !!
वहाँ से पहाड़, नदी सब नजर आता है. सब क्या, बस वही वही नजर आता है.
"yaar tumhein 'it's differnet' ke alawa bhi kuch aata hai?"
-Pankaj kapoor, Jaaved zafari.
आपको देखकर कभी कभी जलन होती है कि कितना घूमते है आप...(- touchwood) हमारी तो घुमक्क्ड जिग्यासा उफ़ान मार रही है अब...घर जा रहे है अगले हफ़्ते.....
आपके ब्लॉग पर आना प्रसन्नतादायी रहा......बिना लाग-लपेट के इतना अच्छा लिखने के लिए बधाई.....आपके रिपोर्ताज ने मन मोह लिया...
सिर्फ पहचान की बुनियादों पर
एक रिश्ता बनायें
जिसका कोई नाम न हो
सुबह न हो
शाम न हो
अतीत से वर्तमान की कोई
पहचान न हो
न कोई शिकायत हो
न कोई चाह हो
न कोई मंजिल हो
न कोई राह हो
साँसों की घुटन
बेआवाज हो
न कोई पर्दा हो
न कोई साज़ हो
अनदेखे दर्दों के धागे
गठबंधन के प्रतीक हो
कांपते होंठ
झिलमिलाती आँखें
अनजाने परिचय के
गीत हों ....
अच्छी कविता सुनवाने का आभार ....
एक से नजारे देख देख कर मन उब जाता है ...ऐसा ही कुछ हमारे साथ भी हुआ था ...हर समर वेकेशन में पहाड़ पर जा कर मन भर गया तो समंदर की गहराईयों ने अपने पास बुलाया ....कानों में कहा आओ और मेरी लहरों संग भी खेल कर देखों ज़रा ....कविता यहाँ भी बस्ती है मेरे भीतर ....
Sir,
Thanks a lot for your well wishes. Kindly pay a visit to my main blog and please do express yourself there.
Thanks once again.
Regards.
Shivam Misra
aankhen apki darshan hamen ho rahe hain aur hamen kya chaiye. badhai!!
bahut badhiya sir......... aur foto bahut achchi hain....
sansmaran padh ke maza aa gaya.......
हा हा बचपन में खेला जाने वाला खेल याद आ गया।
नीली स्याही कोरा कागज़ नदी चाहिए के पहाड़।
वाह वाह बहुत बेहतरीन लेख।
जबरदस्त पोस्ट।
bahut hi badhiya,
AAj pahli baar ye blog padh raha hu
bahut achi posting
TYanks Sameer jee
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