ट्रेन पकड़ता हूँ..शहर छूटता है..फिर दिल्ली एयरपोर्ट पर..कस्टम क्लिरेंस के बाद...बस बस, लगता है कि देश ही छूट गया..मैं खुद खुद से छूट गया..अब वापसी का कोई उपाय नहीं अगली बार तक.
हवाई जहाज हवाई पट्टी पर दौड़ता है..मन जाने कितने पीछे तक लौटता है और यह हवाई पट्टी छूटी...उपर उठे जमीन से...मन से खुद की नजर में नीचे गिरे.पाताल से भी गहरे...देश छूटा और मैं अहसासता हूँ कि मैं जड़ से टूटा...सूखा पत्ता...जिसे हवा बहाये ले जा रही है..यह हवायें जो मेरी मजबूरियाँ है..उनका रुख भी तो मेरे ही हाथ ही है बदलना-फिर क्यूँ नहीं..नहीं जानता..या नहीं जानना चाहता...!
सारे दोस्त यार, बचपन की गलियाँ, आज तक के नाते रिश्ते...सूखी आँख में गीले इन्तजार की ललक लिए बुजुर्ग..न जाने किस उम्मीद को पाले..और किस उम्मीद पर जीते..हम जैसे खुदगर्ज बेवतनों से आस लगाये...और उनके हाथ है सहारा देने को हमारे बदले एक काठी की लाठी...
हर बार भारत छो़ड़ता हूँ..तो कुछ दिन पूर्व से कुछ दिन बाद तक असहज ही रहता हूँ...मानव हूँ फिर अपनी दुनिया में रम जाता हूँ..
इसी ट्रांजिशन के दौर में उपजी मनोव्यथा उजागर करती रचना:
नोट: अभी यॉर्क, यू.के. याने लन्दन से नार्थ में दो घंटे पर हूँ. ३ मई को कनाडा वापसी है. कई मित्रों को लगा कि मैं न्यूयार्क आ गया हूँ, उनसे क्षमाप्रार्थी-मेरे लिखने में कुछ कमी रह गई होगी. मुझे स्पष्ट लिखना चाहिये था.
इक
लाठी
वो
काठी
वाली....
सरदी, गरमी और बरसातें
सुख और दुख की
वे सौगातें....
हरदम ही
वो
साथ रही थी...
और
मुझे भी देख जरा लो
..
इक
मैं था
कितना अलबेला...
छोड़ के जड़ को
दूर हुआ,
था निपट अकेला...
कुछ तो थी पाने की आशा
बदलूँ
जीवन की परिभाषा...
जिससे
उनको
आस रही थी....
वो लाठी भी
कुछ कहती थी...
सब कुछ
हंसते ही सहती थी...
वो भाषा
अब समझ रहा हूँ...
जब मैं आज
उसी लाठी की..
राहों पर से
गुजर रहा हूँ....
सचमुच!!
बहुत देर तक सोया...
कुछ पाने की आशा लेकर
कितना कुछ है
मैने खोया !!!!!!
सोच रहा हूँ
समझ रहा हूँ..
मेरे ही पागलपन से तो,
वह इक नाता
छूट
गया था...
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
-समीर लाल ’समीर’
( यह रचना समर्पित है हर उस बुजुर्ग को जिनके सहारे (बेटे या बेटियाँ) उनके साथ नहीं है चाहे किसी भी मजबूरी के तहत-कुछ भी कारण उस दूरी को जस्टिफाई न कर पायेगा-सब बहाने ही होंगे एक मायने में)
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104 टिप्पणियां:
Sameer bhai,
bada hi marmik varnan kiya.anubhootiyan andar le jati hai aur vo sab sochne ko majboor karti jo hum aksar sochna nahin chaate duniyadari mein.Wish you rest of your journey comfortable and happy landing.
यादें बचपन की भली वह स्वतंत्र एहसास।
बेबस होकर देखते अपना ही इतिहास।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
समीर जी
बहुत ही भावुक करने वाली अभिव्यक्ति के लिए मुझसे कुछ कहते नहीं बन रहा है . आप अपने आप को कतई असहज महसूस न करे और विचार करे कि आप दूर रहते हुए भी ह्रदय से जमीन से जुड़े है और हर पल जड़ के समीप है . यह कटु सत्य है कि जन्मस्थान से मनुष्य का आजीवन मोह भंग नहीं होता है और स्म्रतियां मन को उद्देलित करती रहती है . आप तो काफी दूर बसे है . अभी कल ही मुझे चुनाव कार्य के लिए बाहर जाना है पर मेरा मन भी कह रहा है कि दो दिन के लिए अपना घर छोड़ना पड़ रहा है और ऐसा सोचकर थोडा दुखी हो जाता है . यह पोस्ट पढ़कर बड़ी उदासी सी आ गई है और सोचता हूँ कि यही तो समयचक्र है जो क्या नहीं करता है . आभार.
जीवन की भागम भाग है यह। हम खुद ही चुने होते हैं अपना रास्ता या, चुनने को मजबूर होते हैं।
काहे सेंटी हो रहे हो ?
एक कसक को आपने बहुत ही भावभीने अंदाज़ में, शब्दों में ढ़ाला।
ऐसे मौकों पर,हमारी हालत भी ऐसी ही हो जाती है।
ओह क्लांत करती रचना -आगे की आपकी यात्रा मंगलमय हो !
कई सारे काम ऐसे होते हैं जिनको न चाहते हुए भी करना होता है । अपना देश अपनी मिट्टी को छोड़ना भी ऐसा ही काम है जिसे कोई नहीं करना चाहता लेकिन बस करना होता है । यही क्या कम है कि देश हमारे मन में जिंदा रहता है भले ही हम कहीं भी रहें ।
समीर जी,
बुजु्र्गों की स्थिति को मैंने वतन में रहते हुए इस प्रकार देखा है :-
घर की चारदीवारी में कट जाते हैं बूढ़ों के दिन
चारदीवारी में कब होती है सुबह और शाम
बूढ़े नहीं जानना चाहते हैं इसे
उन्हें डर लगता है अंशुमान-विभांशु के प्रकाश से
इससे ही होती सुबह और शाम
सुबह की रौशनी उत्साह भरती है, तिमिर अवसाद
बूढ़े परेशान हैं उत्साह-अवसाद के चक्र से
इसलिए वे चारदीवारी में कैद हैं।
चारदीवारी में बूढ़ों की स्मृतियों में कैद हैं जीवन के रंग-विरंग
जिन्हें बांट देना चाहिए
चार सोपानों में
चौथे सोपान में जी रहे हैं बूढ़े
चारदीवारी में देख रहे हैं जीवन के अक्स
चारदीवारी के उधड़ रहे प्लास्टर की तरह रही है जिंदगी उनकी।
चारदीवारी से शुरु हुआ था जीवन का संघर्ष
बड़ी जतन से रौंपे थे पौधे
जीवन की खुशियां वे पौंधों में देखते
सबको अपने कर्म करने को कहते
चारदीवारी को था अपनी नींव पर बड़ा गर्व
इसमें उन्हें पता नहीं कि कब पौधे पेड़ बन गए
पेड़ों की जड़ें चारदीवारी की नींव तक पहुंच गईं।
जड़ों ने चारदीवारी को हिला दिया
पेड़ों की शाखाएं खुले में फैल गईं
चारदीवारी में सिमट गई जिंदगी बूढ़ों की।
चारदीवारी में रखी असंतुलित टेबल से उन्होंने रिश्ता बना लिया
क्योंकि वह जो उनकी तरह हिल-डुल रही थी
टेबल पर समाया था बूढ़ों का पूरा संसार
टेबल पर फैले अखबार से होती थी सुबह
टेबल पर रखी गोलियों के खाने से वे जी रहे थे
टेबल पर कट जाती थी सब्जी
टेबल पर खा लेते थे खाना
और रात में जब नहीं आती थी नींद
तब टेबल ही सहारा होती थी
अब चारदीवारी में बूढ़ों के साथ टेबल भी हो गई है कैद।
अद्भुत दर्शन
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता...भावुक कर देती है।
हाय हाय ये मजबूरी! आपकी व्यथा ने हमारे मन को भी व्यथित कर दिया. जल्द ही सहज हो जाएँगे.
SAMEER LAAL JI NAMASKAAR,
BAHOT HI WASTAVIK BAAT/BYATHA JO MAANVIYA ROOP KA AADHAAR HAI AAPNE APNE IS LEKH ME PRADARSHIT KIYA HAI BAHOT HI SACHHI BAAT KO SACHHAYEE SE LIKHAA HAI AAPNE.. BAHOT BAHOT BADHAAYEE AAPKO
AABHAAR
ARSH
देश की मिटटी से दूर जाने का यही दुःख होता है हर बार और फिर एक उम्मीद भी होती है की अगली बार वापस आयेंगे अपने उसी घर में जहाँ के दरवाजे, दीवारे, छत , शायद हमारी राह निहार रही होगी और वो घर फिर कुछ समय के लिए एक बार बस जायेगा.....
जब मैं आज
उसी लाठी की..
राहों पर से
गुजर रहा हूँ....
सचमुच!!
बहुत देर तक सोया...
कुछ पाने की आशा लेकर
कितना कुछ है
मैने खोया !!!!!!
ये पंक्तियाँ बेहद अच्छी लगी...
regards
bahut saar purn likha haen sameer . man ki vyathaa ko man kitna samjhtaa haen aur dimaag kitna usake ult jataa haen jindgi kaa falsafaa haen jo aapne kheecha haen
aasha haen jaldi jadi aatey rahegae taaki aap ke buzurgo ka akelapan kam hota rahe
जब हमने अपने अपने गंतव्य खूद चुने है तो फिर यह भाव क्यों है?......यह भी सत्य है कि कवि हृदय व्यक्ति अपने भावों को शब्दों में उतार सकता है....
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
बहुत ही भावुक कर दिया आज आपने. अक्सर यही वेदना तो सूखे पत्तों की होती होगी. पर शायद पत्तों मे इन्सान मे यही फ़र्क है कि हमारे पास लौट आने का आप्शन रहता है. आपके आगमन की प्रतिक्षा है.
आपकी रचनाएं अक्सर इन्सान की बेबसी को बडी ही मार्मिकता से व्यक्त करती हैं. बहुत
शुभकामनाएं.
तपस्वी!क्यों हो इतने क्लांत ?
वेदना का यह कैसा है उद्वेग....?
तश्तरी जी ये महज आपका नहीं जड़ से उखड़े हर पेड़ का किस्सा है....हमें भी अपनी मिट्टी बहुत याद आती है..
अति सुन्दर..
नहीं मिलते शब्द...
कि फिर मुझे भी देश की याद आ गयी..
परदेश में यादों की काली बदली बन के छा गयी...
~Jayant
दिल को छू लेने वाला प्रसंग शायद कभी न कभी हर कोई इस दौर से गुजरा होगा .
कुछ पाने की आशा लेकर
कितना कुछ है
मैने खोया !!!!!!
गहन मानसिक विचारों के मंथन से उपजी रचना..
भावुक कर दिया आपने.. विशिष्ट रचना पढवाने के लिये आभार
sameer ji, jiwan ki sachchai ko ujagar karta hriday sparshi lekh hai, vastav men lekh bhi apne aap men ek kavita hi hai. yah lekh har us mata pita ko chhuyegajinke bachhe unse door hain aur un bachhon ko jo is lekh ki sachai se vakif ho chuke hain.
आसमां के कुछ परिंदे अपने अरमानो के लिए,
आशियानों, तिनके के दानों और उड़ानों के लिए,
चल पड़े हैं अपने घर से, घर बनाने के लिए.
शायद ये घर भी उनका है, शायद वो घर भी उनका था,
आख़िर ये 'कल' का टुकड़ा है, आख़िर वो 'कल' का टुकड़ा था,
रो रहीं हैं वो दरख्तें जो की कल आबाद थीं,
जिसकी शाखें खुशनुमा थी जिसकी जड़ आज़ाद थीं.
कुछ तो छोड़ा है वहां पे, सब कुछ तो पा सकते नही,
लौट के वो पल दोबारा अब तो आ सकते नही.
पर,इस जहाँ के आसमां में कुछ न कुछ तो बात है,
गर उजाला दिन में न हो, तो, उजाली रात है.
'वो परिंदे' साथ न हों, ज़िन्दगी तो साथ है.
फलसफों ने आज खाई ज़िन्दगी से मात है.
सोचते हे ये परिंदे मेहमान बनके जायेंगे,
या कभी वो परिंदे मेहमान बनके आयेंगे.
कुछ परिंदे, बूढे हैं जो, सोचते रह जायेंगे,
मेहमान बनके जो गए हैं क्या वो कल फिर आयेंगे?
बड़े दिल से लिखी है आपने ये पोस्ट ! दिल को छूती हुई...
छोड़ा गाँव, शहर में आया,
आलीशान भवन बनवाया।
मिली नही शीतल सी छाया,
नाहक ही सुख-चैन गँवाया।
बूढ़ा बरगद, काका अंगद,
याद बहुत आते हैं।।
खेत-अखाड़े, हरे सिंघाड़े,
याद बहुत आते हैं।।
गम्भीर पोस्ट, जिसे आपने बहुत मार्मिक बना दिया है।
-----------
खुशियों का विज्ञान-3
ऊँट का क्लोन
वो भाषा
अब समझ रहा हूँ...
जब मैं आज
उसी लाठी की..
राहों पर से
गुजर रहा हूँ....
सत्य वचन.. आपकी यह गहरी पोस्ट पढ़ने के बाद खुद को बुजुर्ग के जूतों में महसूस कर रहा हूं..
बहुत ही मार्मिक कविता........
बहुत मार्मिक रचना है...
मन में अनायास ही एक तीस जाग उठी...
ये पंक्तियाँ बहुत सुंदर लगी...
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
मीत
जब अपना कुछ पीछे छूटता है तब मन में ऐसी उदासी सी होती है...कविता ने मन को छु लिया गध में भी एक अजीब सी कविता है..
ओर हाँ
आपकी किताब मुझे कल मिली ....आप अपने वादे के पक्के है ..तहे दिल से शुक्रिया....
सच है समीर जी जीवन की इस आपाधापी में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे ना चाहते हुए भी हमें मजबूरी मे छोड़ कर आगे बढना होता है। इस दर्द को आपकी यह रचना बखूबी अभिव्यक्त करती है।्बहुत सुन्दर रचना है।बधाई।
main paas hota....to apna kandha deta....thoda-sa ro lene bhi deta...
ham jahaan bhi hain....darasal bebas hi hain....sach.....!!
Dil chhu gaye apke shabda...
बहुत भावुक कर देने वाला लिखा है ..शायद इतने दिन साथ रह कर फिर से दूर जाने का दर्द उभर आया है इन पंक्तियों में ...दिल से लिखी दिल को छु जाने वाली पोस्ट है ...
आपकी किताब का इन्तजार जारी है
यह पोस्ट बहुत सोचने को मज्बूर करती है । और मै ज्यादा सोचने वालों मे नही हू ।
बहुत भावुक कर देने वाली पोस्ट.
छूट ही तो जाता है सब लेकिन कर क्या सकते हैं? हाँ, एहसास होना ही इस बात का सुबूत है कि अभी भी जुड़े हुए हैं.
समीर भाई..............मैं समझ सकता हूँ ..............इस विछोह का दुःख.............आपका दर्द..............
अक्सर ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ भी...पर ये तो जीवन है..............हाथ में कुछ नहीं होता इंसान के............
आपकी बहुत ही भावोक पोस्ट......गहरे उतर गयी
गाँव छोड़ने के बाद देश की राजधानी दिल्ली आकर जब मैंने अपनी जड़ की कमी महसूस की थी तो को समझा तब एक कविता लिखी थी...
टूटना अपनी जड़ों से
शाख का
और फिर पकड़ लेना अपनी जमीन
एक नई जमीन
हो सकता है
हो उसकी मजबूरी
लेकिन ये भी सच है कि
अपनी जड़ों से टूटना
है आज अनिवार्य
दुनिया से कदम मिलकर चलने के लिए
लेकिन ये भी सच है कि
कोई भुला नहीं सकता
अपनी जड़ों को
न ही मिटा सकता कोई
अपने लोगों को- अपने अतीत को!
बस महसूस कर रहा.. मैं
आज मेरे शब्द गौण हैं !
आदरणीय समीर जी .
हर बार , आप ने जब भी लिखा , कुछ अलग ही लिखा .
एक बार फिर आपने उन सारे अनिवासियों की पीड़ा हम तक पहुँचाई है जो अपने माँ- बाप और स्वजनों को छोड़ कर आपकी तरह अपनों की शीतल छाँव में आने को सदैव लालायित रहते हैं, आते हैं अपनी प्यास बुझाते हैं फिर अपनी कर्म स्थली को वापस चले जाते हैं लेकिन हर बार फिर से अपने वतन आने का संकल्प लेकर. .....सच कहा है आपने कि ...< लगता है कि देश ही छूट गया..मैं खुद खुद से छूट गया..अब वापसी का कोई उपाय नहीं अगली बार तक. > .. और .. < मैं अहसासता हूँ कि मैं जड़ से टूटा...सूखा पत्ता...जिसे हवा बहाये ले जा रही है..यह हवायें जो मेरी मजबूरियाँ है..उनका रुख भी तो मेरे ही हाथ ही है बदलना-फिर क्यूँ नहीं..नहीं जानता..>...
.. यहाँ एक बात तो तय हो जाती है कि जिसमें इतनी संवेदनाएँ हों अपनों के लिए , अपने देश के लिए तो फिर वह कभी भावनात्मक रूप से पत्ते कि तरह विलग हो ही नहीं सकता ,
मुझे ख़ुशी हो रही है आपकी भावनाएँ जानकर और आपके भावों को नमन करने की इच्छा भी...
आपने प्रस्तुत कविता की भूमिका ही इतनी भावनात्मक लिखी है कि उसके बाद स्वमेव रचना में चार चाँद लग गए प्रतीत हो रहे हैं. रचना "मैं अभागा!! जड़ से टूटा!! " और भूमिका का मिलाजुला प्रभाव बेहद मार्मिक बन पड़ा है.
- विजय तिवारी " किसलय "
wah, bas yahi kahaa jaa sakta he aapki is rachna ke liye..
vakai marmikta har shbd aour uske artho se bahar nikal kar bahti hui kisi shant si nadiya ki tarah lagti he jo antarman tak jaa paithti he..aour tab koi kankar usme halchal peda kar deta he jiska aavartan felta to he kintu kinaare aakar khatm nahi hota.........
उड़नतश्तरी उड़ गयी छोड़ के अपना देस
बहुत ही मार्मिक रचना।
sameer jee,
bahut bhavuk post likh dee, sach kahun to mujhe chitthi aayee hai geet kaa pikcharaaijeshan yaad aa raha tha, kaash ki aap yahan par hote, magar kehte hain na ki takdeer jahan na le jaaye.
आपके कवि हृदय को मेरा नमन ,बहुत अच्छी रचना .
कौन कहता है जड़ से टूटे जी। आप तो बड़े बरगद के पेड़ है। उसकी जटायें भी जड़ बनती जाती हैं। मन छोटा न करें।
बहुत भावुक पोस्ट समीर जी..
समीर भाई,
आपको फिर ब्लोगेरिया के रग मे आज बहुत लम्बे समय के बाद पाया। आपकी यह पोस्ट उद्देशय युक्त लगी। साथ ही आपकी कविता मर्मस्पर्शी भावनाओ से सरोबर थी- आभार्
चलिये समीर बाबू,कम- अज- कम आपको अपने माटी की याद तो आ रही है! यही वह जज़्बा है जो आदमी को अपनी ज़मीन से जोड़े रखता है और टूटने से बचाता है वर्ना आज का आदमी दुनिया की चौंध में इतना गुम हो जाता है कि सब कुछ निकल जाने पर ही उसे होश आता है। विदाई की भावभीनी भूमि पर रची इस कविता का कथ्य बहुत मर्मस्पर्शी है।-अक्षर जब शब्द बनते हैं
Mera man bhee aksar ghar chhodate huye aisa hee ho jaataa hai.
समीर भाई ,
आपका पुनरागमन सुख शाँति पूर्ण तथा बहुत आनँदादायक रहे
यही ईश्वर से प्रार्थना है -
आपका लिखा और कविता दोनोँ ही बहुत पसँद आये -भारता माँ से ये नेह नाता कभी
भी नष्ट ना होगा ..
स -स्नेह,
- लावण्या
समीर भाई, न जाने क्या बात है? आप की बहुत सी रचनाएँ पढ़ी हैं। बहुत नहीं भी पढ़ी होंगी। जितनी आज तक पढ़ी हैं उन में आज की रचना सब से बेहतरीन है। उस में रवानी है, लय है जो कहीं टूटती नहीं है। सच बात तो यह है कि यह दिल से निकली आवाज है जिस में आप के दिल की धड़कन स्पष्ट सुनाई देती है, धक धक धक ....
समीर भाई आप कंही से नही टूटे,बल्कि सैकड़ों लोगो के दिल से जुड़ गये हैं।इतना प्यार इतना मान इतना सम्मान जो आपको मिला है वो किसी तक़दीर वाले को ही नसीब होता है।और फ़िर आप कनाडा जाकर भी तो रहते भारत मे ही हैं।सभी ब्लागर-भाई अगर बजरंग बली की तरह सीना चीरेंगे तो आप ही नज़र आयेंगे।
समीर जी
जो कविता आपने आज लगे है उसका दर्द समझने के लिए अभी हमारे पास chamta नहीं है kyoki हमें कभी अपनों से दूर नहीं रहना पड़ा है बस के बार होली में बाहर रहना पड़ा था तब मन कैसा कैसा हो रहा था बता नहीं सकता
वीनस केसरी
जिंदगी की यही रीत है ...आखिर जो कुछ भी है ...है तो जिंदगी का एक हिस्सा ...कभी हम खुद बनाते हैं रास्ते ...तो कभी मंजिल हमें खीच ले जाती है उन रास्तों पर
आज तक के नाते रिश्ते...सूखी आँख में गीले इन्तजार की ललक लिए बुजुर्ग..न जाने किस उम्मीद को पाले..
कुछ कह नहीं पा रहा। बस महसूस कर पा रहा हूं।
मेरे एक रिश्तेदार बीस साल तक अमरीका रहे, बाद में सरकारी सेवा से रिटायर होने तक दिल्ली, अब वे अपनी मां को बहुत मिस करते हैं। और बचपन में अपने पिता से जुड़ी पचासों बातें सैकड़ों बार मुझे सुना चुके हैं। उनका पुत्र भी सितम्बर में अमरीका जाएगा। पढ़ने। कहानी दोहराई जा रही है। पता नहीं क्या महसूस कर रहा हूं...
भाई समीर जी,
आपकी निम्न अभिव्यक्ति
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
लगता है एक ऐसे सच की स्वीकारोक्ति है , जिस पर आप की आत्मा पश्चाताप तो करना चाहती है, पर मानवीय मन की कमजोरियां वैसा करने नहीं देती, जैसा की निम्न पंक्तियों से उजागर होता है :
हर बार भारत छो़ड़ता हूँ..तो कुछ दिन पूर्व से कुछ दिन बाद तक असहज ही रहता हूँ...मानव हूँ फिर अपनी दुनिया में रम जाता हूँ..
यही नहीं,
कुछ कर डालने की तमन्ना भी कि
कुछ तो थी पाने की आशा
बदलूँ
जीवन की परिभाषा...
पर शायद उसमें नाकामी ही हासिल है तभी तो कहना पड़ा कि
सचमुच!!
बहुत देर तक सोया...
कुछ पाने की आशा लेकर
कितना कुछ है
मैने खोया !!!!!!
जीवन के उतार-चढाव, खोने-पाने, जीत-हार, मकसद और उसे हासिल करने के तरीके आदि का बखूबी चित्रण ही नहीं बल्कि सच की स्वीकारोक्ति भी की है.
इस बेहतरीन रचना पर मेरा आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
मर्मस्पर्शी कविता!
aapaki kawita ke liye bahuton ne bahut kuchh kaha hai. mrer paas naya kuchh bhi kahane ke liye nahin bacha hai. main lekin usake upar ke oast ke wishay men kahana chaahungi.-usamen ek paira hai --sookhi aankhon men gila intajaar liye...ye panktiyaan kawita se kam mamshparshi nahin hain.
हालात पे, हवाओं पे, दिशाओं पे हमारा नियंत्रण कहा ? अजीब लाचारी की हालत में पाते है कभी हम खुद को. ऐसे में अहमद नदीम कासमी
का यह शे'र बड़ी सान्तवना प्रदान करता है :-
जब भी आई मेरे हाथो में रुतो की बागें,
बर्फ को धूप तो सहरा को घटा दे दूंगा.
-मंसूर अली हाश्मी
बिखरे परिवार के सभी लोग इसी दर्द को महसूस करते हैं... बुज़ुर्ग भी और संतान भी.
आप जड़ से कहाँ टूटे हैं भाई, आपका दिल यहाँ बसता है. कई ऐसे हैं जो यहाँ होकर भी यहाँ नहीं हैं.
बहुत ही मर्मस्पर्शी कविता...भावुक करने वाली!
कलियों की मुहब्बत लिए फिरते हैं भंवर सारे
शम्मा की मोहब्बत में परवाना जां निसारे
न शिकवा न शिकायत ,कभी उफ़ तक न किया
जिसने प्यार न किया उसने यार न जिया
धरती की मोहब्बत में ,बरसता है आसमां
हर वक्त किए साया, रहता है मेहरबाँ
धरती ने भी कभी इंकार ना किया
जिसने प्यार ना किया उसने यार ना जिया
krupya
ise prem farrukhabadi tk phuncha deejiye
कलियों की मुहब्बत लिए फिरते हैं भंवर सारे
शम्मा की मोहब्बत में परवाना जां निसारे
न शिकवा न शिकायत ,कभी उफ़ तक न किया
जिसने प्यार न किया उसने यार न जिया
धरती की मोहब्बत में ,बरसता है आसमां
हर वक्त किए साया, रहता है मेहरबाँ
धरती ने भी कभी इंकार ना किया
जिसने प्यार ना किया उसने यार ना जिया
krupya
Prem Farrukhabadi tk pahuncha deejiye
आपकी पीडा समझ में आती है...इसे शमशान वैराग्य के समकक्ष रख सकते हैं...मजबूरी में घर से दूर रहना भी पीडा दायक है...मैं जब भी जयपुर से वापस खोपोली आता हूँ तब मुझे वो ही अनुभूति होती है जो आपको घर छोड़ते हुए हुई...
कविता आपकी अद्भुत है.
नीरज
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया
ह्रदय को स्पर्श करती हुई रचना......
ओह! अपनों से दूर जान कितना कष्टकारी होता है। पर क्रूर नियति इतना कब सोचती है? ऐसे में कुछ सुखद है तो ये कि जुड़कर रहना मानव स्वभाव है अतः वह नई जगह पर भी देर-सवेर अपनत्व कायम कर लेता है।
अजीब-सा मन लिये जा रहा हूँ पोस्ट और इस अद्भुत कविता पढ़ने के बाद...
"सूखी आँख में गीले इन्तजार ..."
एक पंक्ति या पूरा काव्य ?
सलाम आपको
बेहद मर्मस्पर्शी एवं भावुक कर देने वाला आलेख ।
जय हो! जड़ से जुड़े रहें।
आप हमेशा ही अच्छा लिखते हैं, मैंने मां के ऊपर आपकी कविता किसी अन्य ब्लाग में पढ़ी थी, बहुत खूबसूरत थी.
हर दिल की बात आपने कही
आपके एक-एक शब्द हैं सही
ये दुनिया पहले ऐसी थी नहीं
ये तो वक्त की आंधी में है बही
अगर जड़ो से जुडाव है तो फिर वापिस आयेंगे जाने वाले
ऐसा ही होता है. पर ऐसा क्यों होता है? पर ऐसा अगर न होता तो क्या होता? इस दुनिया के बहुत सारे ओर-छोर अनजाने रह जाते. और हम? हमारी स्थिति तब कुएं के उस मेढक जैसी होती जिसकी नजर में दुनिया बस 3 मीटर के व्यास में सिमटी होती है. आज मनुष्य जो कुछ भी है वह शायद यही कुछ 'मन के जाने कैसा-कैसा होने' का ही तो नतीजा है. लिहाजा मन को छोटा न करें बन्धु. चरैवेति-चरैवेति.....
ये जज्बा ही तो हमें अपनी पहचान दिलाता है .कहते हैं बीता हुआ पल वापस नहीं आता , सिर्फ यादें रह जाती हैं , कुछ खट्टी कुछ मीठी कुछ तीखी कुछ नमकीन और इनके बीच ये जीवन रूपी नौका बहता रहती है . वैसे जीवन सिर्फ यहाँ और अभी है , न पहले न बाद , जो बीत गया वो कल था जो आया नहीं वो भविष्य है.
bachpan में एक dharavaahik पे एक title song आता था
wo याद aa रहा है :
एक प्यारा gaon \
jisme peepal कि chhaon
chhaon में aasiyan था
एक chhota सा makan था
उस gaon को
उस ghani chhaon को
छोड़ कर
शहर के हो गए
bhiD में खो गए
chhaon chhooTati है तो यूँ lagna vilkul jaayaj है sameer जी.
वह बहुत खूब लिखा है आपने बहुत ही मर्म स्पर्शी रचना है। बधाई हो।
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
......रोजी रोटी की जुगाड़ में अपनी मिटटी से जुदा हुए हम जैसे लोगों के मन की संवेदना व्यक्त कर दी आपने.
मैं अहसासता हूँ कि मैं जड़ से टूटा...सूखा पत्ता...जिसे हवा बहाये ले जा रही है..यह हवायें जो मेरी मजबूरियाँ है..उनका रुख भी तो मेरे ही हाथ ही है बदलना-फिर क्यूँ नहीं..
मैं मानता हूं कि इससे बेहतर अभिव्यक्ति नही हो सकती थी उस एहसासात की जो घर से, अपनी जडों से दूर होने की पीडा को बयां करता है.
achcha likha hai aapne ..jad se ukhadne ka malaal vyakti ko sari zindagi rah rah kar saalta hai.
आप सौभाग्यशाली हैं कि आपको यह जड टूटने के लिए ही सही मिली तो, बहुतों को तो वह भी नसीब नहीं होती।
मजाक का बुरा तो नहीं माने।
-----------
मॉं की गरिमा का सवाल है
प्रकाश का रहस्य खोजने वाला वैज्ञानिक
जड से टूटने की तकलीफ़ को बहुत वास्तविक अभिव्यक्ति दी है आपने, सम्वेदन्शील व्यक्ति को यह गहनता से मह्सूस होती है ।
जाते समय तकलीफ़ ज्यादा होती है फ़िर आदमी सामान्य हो जाता है ।
इस रचना के लिये बधाई !
sameer ji
main kya kahun , ise padhkar to aankhen bheeg gayi saheb .. man aur tan dono hi disturb ho gaye hai .. main kuch aur nahi kahna chahunga .. bus ...
vijay
http://poemsofvijay.blogspot.com
समीरजी! यही तो हमारे जीवन की सच्चाई है!.... हम आगे बढतें चले जाते है, पीछे जो छूट रहा है उसके साथ भी जुड़े रहना चाहतें है!.... बचपन को हमने पीछे छोड़ दिया है... लेकिन क्या हमारी यादों में रसे -बसे बचपन का साथ हम छोड़ चुके है?... नहीं!
.... एक दिल को छू लेने वाली रचना का उदगम हुआ है!....
धन्यवाद समीरजी!...केनेडा का प्रोग्राम जरुर बनाउंगी, वादा रहा!......
... इसबार जर्मनी, स्वीटज़रलैंड, पैरिस, लन्दन.... वगैरा जगहों का प्रोग्राम बना हुआ है!....आप जब भी भारत आए...अवश्य सूचित करें!..... फिर एक बार धन्यवाद!
कविता के बारे में तो कुछ नहीं कहूंगा समीर जी. लेकिन इस दौर में जहां अपने शहर के लिए लोग उपेक्षा भाव रखते हैं, आपने बहुत अच्छे गद्य में भावनाओं का इजहार किया है.
यात्रा मंगलमय हो साब जी
बहुत ही भावुक............दिल को छूने वाली रचना है...........हमारी ऑंखें नम कर दीं आपने।
सोच रहा हूँ
समझ रहा हूँ..
मेरे ही पागलपन से तो,
वह इक नाता
छूट
गया था...
वो
डाली
एक पेड़ से टूटी..
मैं
जड़ से ही
टूट गया था....
वाह....जी...समीर जी ...बहोत गहरी सोच है आपकी.....!१
लन्दन की सैर मुबारक हो......!!
You write soo lively ...kinda ..live telicast :))
interesting !!!
यात्रा मंगलमय हो...
Sameer ji
aapki lekhni mein jaadoo hai. ati sundar.badhaai.
इतनी मार्मिक कविता पढ़कर मन भीग गया
इस दौरान सारे बुजुर्ग जिनके मे संपर्क मे आई चलचित्र की भाँति
आँखो के समक्ष लाठी टेकते हुए खड़े हो गये वो मेरे दादा ,मेरे नाना ,मेरे ससुर और चाहे वो
आँखो के शिविर के सारे बुजुर्ग हो |
अपने मानवता के हर रंग को बहुत गहरे से महसुस किया है
आभार
जो छूटा वो भी सच है जहा जाना है वो भी हकीकत है ..न ये भूल सकते हैं न वो छोड़ सकते हैं
जो छूटा वो भी सच है जहा जाना है वो भी हकीकत है ..न ये भूल सकते हैं न वो छोड़ सकते हैं
हर बार भारत छो़ड़ता हूँ..तो कुछ दिन पूर्व से कुछ दिन बाद तक असहज ही रहता हूँ...मानव हूँ फिर अपनी दुनिया में रम जाता हूँ..
HAR KISI KE SAATH YAHI HOTA HAI JAB VAH VAPAS APANI KARM BHUMI KE LIYE NIKALATA HAI.
बहुत याद आते हो आप.हम भी कहाँ भूल पा रहे हैं.
Bahut marmik rachna likhi hai.
sach me bhut dard hota hai,
apni jado se toot jane ka.
ma ki lori chhotti,dard rahta
matrabhoomi chhoot jane ka.
lathi tootke banti kisi ka sahara
magar dard kisi ke rooth jane ka.
hum ro bhi to nahi sakte hai yanha,
kyonki dar hai ksi aankh ke footh jane ka ...
- mukesh pandey "chandan"
Aapke lekhan me takat hai. Aapki kalam hila kar rakh deti he.
समीर जी
आपकी मन:स्थिति और पीड़ा मैं समझता हूं। फिर भी यदि आप उन अभागे व्यक्तियों की ओर नज़र उठाएं तो पीड़ा समाप्त तो नहीं हो पाएगी लेकिन आपकी पीड़ा की गहनता की तीव्रता कम अवश्य हो जाएगी।
मेरे जैसे वतन से कितने ही लोग देखेंगे जिनका भारत केवल नक़शे तक ही सीमित है, जिनका विशाल भारत बैड, घर की चार दीवारियों तक या फिर घर के बाहर १००-१५० गज़ की ज़मीन तक अपने लड़खड़ाते पैरों से नापते हुए थक कर किसी बैंच को ऐसे ढूंढते है जैसे छोड़े हुए शहर में अपना खोया हुआ घर ढूंढ रहे हों।
पुराने दोस्तों, छोटे बड़े रिश्तेदारों, वही गलियां और कूचे, जहाज़ की और एयर पोर्ट जैसी कल्पना - बस
रात के सन्नाटे में तकिये की नमी बनाए रखती हैं।
आपके इस मार्मिक आलेख को पढ़कर ख़ुशी भी होती है कि आप नसीब वाले हैं। ईश्वर आपको स्वस्थ रखें,
समय समय पर अपने देश की माटी को माथे पर
लगाते रहें और खुश रहें।
हां, आपके बिना ही बताए मैंने अपने ब्लाग के साइडबार पर 'बिखरे मोती' के चित्र का शिवान प्रकाशन से लिंक लगा दिया है। आशा है आप इसका बुरा नहीं मानेंगे।
अपने देश की मिट्टी में जो खुशबू है,कहीं ओर कहां।
रचना बहुत अच्छी लगी।
bahuta din abaad aayaa aaap ke blog par.. lekin har baar achcha lagata hai.. aap ko padh kar..
Bahut marmik post jo rula gayi vahi ahsas hota gaya jab ham bhi apne maa paa ko bilkhta chor aate han or khud bhi dukh par kabu nahi kar pate..udas mat hoiye....hamari bhi kuch to majburiyan han jo ham bahar han...
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