कुछ दिन पहले बैठा बीते समय को टटोल रहा था. अक्सर खाली रहो, छुट्टियों की मौज हो, अपने पुराने घर, गली में लौटे हो तो ऐसा हो जाता है. बहुत स्वभाविक सी बात है. याद आया कि लोग कैसा व्यवहार कर बैठते हैं अनजाने में ही सही कि वह हमेशा के लिए दिलों दिमाग पर अंकित हो जाता है. ऐसे हादसे जब घटित होते हैं, तब हम सोचते रह जाते हैं कि कहीं किसी ने देखा तो नहीं, कहीं किसी ने सुना तो नहीं.
वाकिया-१
बहुत बचपन में, शायद ४थी या ५ वीं में रहा हूँगा. माता जी ने खीर बनाई और उस जमाने में, मोहल्ले में पहचान वालों के यहाँ इस तरह के व्यंजन बनाने पर पहुँचाने का रिवाज हुआ करता था. माँ ने आवाज लगाई और मैं घर के बाहर ही मैदान में खेल रहा था पूरा धील धूसरित, हॉफ पैन्ट भी धूल मिट्टी से रंगा और उस पर से भगवान का दिया रुप रंग. सब मिल कर कैसा लग रहा हूँगा, आप मेरी तस्वीरें देख कर अंदाज लगा लो. हमें एक डब्बे में खीर पकड़ा कर कहा गया कि वो आखिरी वाले घर में नये शर्मा जी आये हैं, उनके यहाँ दे आओ और कह देना कि 'पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उनके यहाँ से खीर भिजवाई है.'
हम भी खेलते हुए पहुँच लिए. घंटी बजाई. उनकी प्यारी सी बिटिया निकली और हमने रटा रटाया वाक्य दोहरा दिया: "पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उनके यहाँ से खीर भिजवाई है."
अंदर से उसकी मम्मी की आवाज आई: ’कौन है, पिंकी’
पिंकी ने वहीं से कहा:" वो पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उन्होंने खीर भिजवाई है. उनका नौकर लेकर आया है."
हम तो सन्न!! क्या सफाई देते. चुप्पे लौट आये, रोनी सी सूरत लिए. किसी से कुछ बता भी नहीं सकते थे. बाद में पिंकी से पहचान भी हो गई. उसने कभी इस बारे में याद नहीं दिलाया और हम भी दिखावटी भूले भंडारी ही बने रहे. मगर, वो वाक्या समय बे समय दबे पाँव आकर कचोटता जरुर है.
वाकिया-२
कुछ समय हुआ था. कार खरीद ली थी. बैंक/अन्य संस्थाओं के अधिकारियों और साहबों की सेवा में हमेशा हाजिर कर दी जाती थी, काम जो निकलवाना होता था. एक बार एक अधिकारी के रिश्तेदार को उनके घर से लेकर साहब के घर छोड़ना था, अतः उनका फोन आया, हमने कह दिया कि अभी ड्राईवर को भिजवा देते हैं. पता चला कि ड्राईवर घर चला गया है, तबीयत खराब लग रही थी. कोई रास्ता न बचा, तो हम खुद ही पहुँचाने चले गये. वैसे भी उसी तरफ कुछ काम भी था. उनके रिश्तेदार के घर पहुँच कर उनके नौकर से अंदर खबर भिजवा दी और लगे इन्तजार करने.
५ मिनट बाद भीतर से आवाज आई: ’मोहन (शायद उनके नौकर का नाम), बाहर गाड़ी में ड्राईवर को ये चाय दे आ और कह देना कि बस, पाँच मिनट में चलते हैं."
हमने सुना अनसुना तो कर दिया मगर बिना हैंडिल की कप में कार में बैठे बैठे ही चाय पी. रईसों के घर में जब कप का हैंडिल टूट जाता है तो उसे फेका नहीं जाता बल्कि नौकरों, चपरासियों और ड्राइवरों को चाय पिलवाने के लिए जतन से रख दिया जाता है.
वो मियाँ बीबी आये. नमस्ते तक करना मुनासिब न समझा. गाड़ी में, जैसी कि रिवायत है, पीछे बैठ गये. हम भी क्या समझाते, उन्हें साहब के घर छोड़ कर आगे बढ़ गये.
वाकिया-३
एक साहब के यहाँ सुबह सुबह पहुँचे. दरवाजा बंद था. घंटी बजाई. अंदर से साहब ने अपने नौकर को आवाज दी, "छोटू, देख तो रे कौन है." पीछे कहीं आंगन की तरफ से उनकी पत्नी का स्वर उठा, "अरे वो जमादार होगा. उसे बुलवाया था अभी." "छोटू, उसको कह दे कि पीछे के दरवाजे से आ जाये."
इसके पहले की छोटू दरवाजा खोलता. हमने गाड़ी स्टार्ट की और घर भाग आये. साहब का फोन आया कि आप आये नहीं. हमने कह दिया कि साहब, तबीयत खराब है. देर से नींद खुली. आधे घंटे में आते हैं और फिर गये.
ऐसे ही अनेकों बातें/ हादसे याद हैं कि पूरी किताब लिख जाये. समय समय पर सुनाता रहूँगा. बस सोचता हूँ तो लगता है कि शायद सभी के साथ किसी न किसी मोड़ पर ऐसे प्रसंग आ जाते होंगे. माना कि रुप रंग और हरकतों के चलते हमारे साथ ज्यादा आये होंगे मगर फिर भी.
विचार इसलिये कर रहा हूँ कि लोग बोलने के पहले अगर वाणी नियंत्रित करें, विचारों को यूँ ही न बाहर निकाल दें, जरा अन्य पहलु पर भी नजर डालें तो शायद ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है कि कोई आहत न हो. न किसी के दिमाग पर ऐसी बात अंकित हो जाये जो जीवन भर पोंछे न पूछे.
बस, एक चिन्तन की आवश्यक्ता है और विवेक इस्तेमाल करने की दरकार.
आ. दिनेश राय द्विवेदी जी ने इस पोस्ट को और विस्तार दिया है एक टिप्पणी के माध्यम से. आवश्यक है कि इस पोस्ट का वो हिस्सा हो, अतएव यहाँ जोड़ा जा रहा है:
आप के ये संस्मरण बहुत कुछ कह रहे हैं। लेकिन ऊपर उदृत अंतिम हिस्से की सोच को कुछ आगे बढ़ा रहा हूँ।
वास्तविकता यह है कि हमने मनुष्य को समानता से अलग श्रेणियों के खांचों में बांट दिया है और उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। एक नौकर काम करने के लिए नौकर है, वह व्यवहार के लिए भी नौकर हो जाता है। जब कि व्यवहार के लिए उसे मनुष्य होना चाहिए। जब तक प्रत्येक मनुष्य को व्यवहारिक रूप से मनुष्य समझने की संस्कृति विकसित नहीं होती तब तक ये सारी बातें होती रहेंगी।
109 टिप्पणियां:
अरे ऐसे बाकये तो मेरे साथ हो चुके है कई बार . मेरा भी रूप रंग आपसे बीस ही है . हमारे लिए तो उन कपो मे चाय भी आई हमने बहुत बद्दुआ दी उसको और थोड़े दिन बाद उस सेठ का कत्ल हो गया लगता होगा बद्दुआ ज्यादा दे दी थी .
सोच समझकर बोलिए, ऐसा तो हम बचपन से पढ़ते आ रहे हैं पर बहुत कम लोग समय पर ऐसा कर पाते हैं। संयम करना आना चाहिए, चाहे वह वाणी का हो या किसी और तरह का!
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गुलाबी कोंपलें
सरकारी नौकरियाँ
दूसरों पर हंसना बहुत आसान है
खुद पर हंसना..
बहुत अच्छा लगा
रंग-रूप से मिलता-जुलता,
ही कुछ नाम धराया होगा।
इसीलिए तो ब्लाग जगत में,
अपना नाम छिपाया होगा।।
बिना मिले ही लोगों से,
घर को वापिस आ जाते हो।
उड़न-तश्तरी बन कर,
सबके मन पर छा जाते हो।।
रंग-रूप से मिलता-जुलता,
ही कुछ नाम धराया होगा।
इसीलिए तो ब्लाग जगत में,
अपना नाम छिपाया होगा।।
बिना मिले ही लोगों से,
घर को वापिस आ जाते हो।
उड़न-तश्तरी बन कर,
सबके मन पर छा जाते हो।।
आप ठीक कह रहे हैं, ऐसे खट्टे-मीठे किस्से सभी के साथ हुए होंगे।
ज़्यादातर तो अन्जाने में ही होने की संभावना है!
पूरा परिवार सन्न है मेरे मुंह से आपके संस्मरण का यह प्रात -प्रवचन सुन कर -बिना हैंडिल आदि के कप वगिरह डस्ट बिन के हवाले हो रहे हैं ! हे राम !
पिंकी ने वहीं से कहा:" वो पहले घर में जो लाल साहब रहते हैं, उन्होंने खीर भिजवाई है. उनका नौकर लेकर आया है." (हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हमारे हंसने पर नाराज मन होइएगा अब वाकया ही ऐसा है की हँसी आना तो लाजमी है न.....अब आ तो बहुत ज्यादा रही है ........मगर क्या करें.....)
बस सोचता हूँ तो लगता है कि शायद सभी के साथ किसी न किसी मोड़ पर ऐसे प्रसंग आ जाते होंगे.
(जी हाँ आपकी इस बता से हम भी सहमत हैं......ऐसे प्रसंग अक्सर जाने अनजाने जिन्दगी का एक हिस्सा बन जाया करते हैं......कभी कड़वाहट दे जाते हैं और कभी हंसा भी जाते हैं........जो भी है आपके संस्मरण पढ़ कर अच्छा लगा..)
Regards
अरे समीर भाई,
ऐसे वाकये नश्तर की तरह दिल मेँ चुभो रखे हैँ ! काश, लोग विवेकी बनेँ और विवेकशील व्यवहार भी करेँ -
तो ये दुनिया कितनी अच्छी लगने लगे, है ना ?
स्नेह सहित
- लावण्या
क्या बतायें गुरुजी? पहला वाक्या यानि खीर वाली पिंकी, दुसरा वाकया टूटे कप में चाय और तीसरा वाकया जमादार आया होगा. यहां तक तो पढकर हास्य रस का आनन्द आया. यानि बेहतरीन हंसी का डोज सुबह सुबह आपने पिलवाया.
पर अंत में बात वाकई गंभीर हो गई, दुनियां चलती है शक्ल सूरत से पर बहुत दिन आप शक्ल सूरत से दुनियां को बेवकुफ़ नही बना सकते. आखिर तो अक्ल ही काम आती है.
पर आपकी ये बात सही है कि बोलने के पहले विचार लोगों को अवश्य करना चाहिये.
पर सवाल ये भी है कि बोलने वाले, हो सकता है उनकी शक्ल अच्छी हो, उनमे भी बुद्धि का वो स्तर होता होगा? मुझे तो इसमे संदेह ही है.
आप तो अष्टावक्र हो गुरुदेव. इसी तरह अष्टावक्र पर भी हंसा गया था और एक दिन उसी अष्टावक्र को राजा जनक ने अपना गुरु बनाया.
बस आप तो इन अनुभवों को लिखते रहिये. क्या पता किसी को काम आ ही जायें.
रामराम.
बहुत अच्छा संस्मरण, पढ़ कर मजा आ गया.
Aapke in anubhawo ko par ke achha laga...
लोग बोलने के पहले अगर वाणी नियंत्रित करें, विचारों को यूँ ही न बाहर निकाल दें, जरा अन्य पहलु पर भी नजर डालें तो शायद ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है कि कोई आहत न हो. न किसी के दिमाग पर ऐसी बात अंकित हो जाये जो जीवन भर पोंछे न पूछे.
बस, एक चिन्तन की आवश्यक्ता है और विवेक इस्तेमाल करने की दरकार.
आप के ये संस्मरण बहुत कुछ कह रहे हैं। लेकिन ऊपर उदृत अंतिम हिस्से की सोच को कुछ आगे बढ़ा रहा हूँ।
वास्तविकता यह है कि हमने मनुष्य को समानता से अलग श्रेणियों के खांचों में बांट दिया है और उसी के अनुरूप व्यवहार करते हैं। एक नौकर काम करने के लिए नौकर है, वह व्यवहार के लिए भी नौकर हो जाता है। जब कि व्यवहार के लिए उसे मनुष्य होना चाहिए। जब तक प्रत्येक मनुष्य को व्यवहारिक रूप से मनुष्य समझने की संस्कृति विकसित नहीं होती तब तक ये सारी बातें होती रहेंगी।
बधाई! आप के संस्मरणों ने बहुत ही चिंतनीय विषय को आरंभ कर दिया है।
हल्की-फुल्की शुरुआत करके बात को गम्भीर सारतत्व तक ले आने के हुनर में आपका जवाब नहीं है। तथाकथित 'भद्रलोक' की क्षुद्रता भी आपने बख़ूबी उजागर की है आपने जहां 'नौकर','ड्राइवर' जैसे लोगों को मनुष्य ही नहीं समझा जाता।
अच्छा संस्मरण है . समानता के व्यवहार पर सभी को एक ही नजर से ट्रीट नही करना चाहिए . आपका जबरजस्त कारटून देख लिया है कोई देख तो नही रहा है हा हा हा
hota hai hota hai sab ke saath aisa bhihota hai:)mazedar
ऐसा मेरे साथ भी हुआ है लेकिन बिल्कुल उल्टा। मेरी वेशभूषा और शकल देखकर एक बार देखने वाले को लगता है कोई गंभीर और बड़ा आदमी आ गया है लेकिन थोड़ी देर में पोल खुलने पर स्वागत करने वाला कैसे खिसियाता है मैं बयां नहीं कर सकता। कई बार ऐसा हुआ कि धक्के खाकर निकलने जैसी स्थिति हो गई। अंतर बस इतना है कि आप अंडर एस्टीमेट हुए और मैं ओवर एस्टीमेट। :)
"ऐसी वाणी बोलिए मन का आप खोय...." बचपन में स्कूल के अध्यापक द्वारा छड़ी मार मार कर सिखाया ये दोहा फ़िर से याद आ गया...बहुत दिनों बाद आपका ज्ञान वर्धक लेख पढ़ा है...मजा आ गया...अभी भारत भूमि पर को ही कृतार्थ कर रहे हैं या विदेश के लिए उड़ गए...
नीरज
bahut sundar sir jee....accha laga padh kar...
Hasya ke sath kafi gahri baat kah di aapne.
काहे झूठ बोले रहे है इतना....जरा चश्मे में लगी अपनी तस्वीर तो देखिये .एक दो तीन.....आईला .हमें तो उल्टा ये लगता है की आपको सौरभ शुक्ला समझ कर लोग औटोग्राफ लेने के लिए उमड़ पड़ते होगे .ओर फोटो भी खिचवाते होगे ....
वैसे पिंकी के बड़े होने की कहानी का उत्सुकता से इंतज़ार है.......
ओह पिंटू! तुम अभी तक उस बात को दिल से लागा के बैठे हो.. मैं तो वो कब का भूल चुकी.. सच कहु तो उस दिन मैने तुम्हे इशारे से अपने दिल की बात की थी.. और तुम समझे नही.. मैने तुम्हे नौकर कहा था... मुझे लगा तुमने धर्मेन्द्र की पिक्चर देखी होगी.. "नौकर बीवी का" लेकिन तुम तो समझे ही नही मेरी बात को..
खैर बचपन की बात थी पिंटू.. अब भूल जाओ उसको..
तुम्हारी पिंकी
लीजिए अब तो पिंकी मैडम की भी टिपनि आ गयी... काहे दिल पे लगा के बैठे है..
वैसे बात को समझाने का आपका तरीका हमेशा की तरह लाजवाब है.. इस पर दिनेश जी की टिप्पणी ने पोस्ट को और सार्थक कर दिया है.. अनुपम!
बस, एक चिन्तन की आवश्यक्ता है और विवेक इस्तेमाल करने की दरकार।
पर अफ़सोस यही तो हम मनुष्य नही करते है ।
बस, एक चिन्तन की आवश्यक्ता है और विवेक इस्तेमाल करने की दरकार।
पर अफ़सोस यही तो हम मनुष्य नही करते है ।
एकदम सच कहा आपने...बोलने के पहले ये ज़रूर सोच लेना चाहिए की कहीं हम अपनी भाषा से दुसरे व्यक्ति को दुःख तो नहीं पहुंचा रहे हैं!और महज़ रूप रंग के आधार पर व्यक्ति को नौकर या ड्रायवर समझ लेना छोटी सोच को ही दर्शाता है!
मजा आ गया समीर जी...
ऐसे ही बहुत से वाकये हर किसी की ज़िन्दगी में आते हैं...
मीत
मन को गुदगुदाते संस्मरण.......फिर सबके साथ शेयर किया...
आपने जिस सहजता से उन वाक्यात का ज़िक्र कर दिया वह काबिले तारीफ़ है. लेकिन यह हमारी दूषित मानसिकता पर कटाक्ष है,जो " fair and lovely " पर लोगों को श्रेणियों में बाँट देती है और फ़िर हर श्रेणी के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिए उसके भी नियम तय कर देती है.
किसी ने देखा हो या न देखा हो. हम तो फ्लैश बैक में जाकर देख आए. पहले तो बहुत हँसी आई. लेकिन अंत में बहुत सही बात कह दी आपने !
hmmmm the moral of the story was good..... :) :)
शुरू के वाकये पढ़ कर हँसी आई पर आख़िर में जो लिखा है वह विचारणीय है ..होता है अक्सर कई बार लोग बिना विचारे देखे कुछ भी कह देते हैं ...
हा हा हा मजा आ गया । पहले कभी एक सीरियाल देखा था जिसका एक पात्र बार बार कहता था ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है । आपके साथ भी तो वैसा ही हो रहा है । आपने वो वाला किससा तो छुपा लिया जब आप आदरणीय भाभीजी के साथ कहीं गये थे और किसीने कह दिया था कि ... । अच्छा वो बताने वाला किस्सा नहीं है क्षमा करें मैं तो बता ही देता ।
ये तो हुई मजाक की बात पर सत्य ये है कि समीर जी आपका गद्य बहुत जियादह कसा हुआ होता है । उस पर आपका व्यंग्य तो क्या कहने । आशा है आदरणीय पिताजी का स्वास्थ्य अब बेहतर होगा ।
क्या केने क्या केने, ये कार्टून तो विकट हसीन है जी, कहां से बनवाया। हमहूं बनवायेंगे अपना।
bahut achchhe bhaiji. udaan badi lambi bharwa di is baar UDANTASHTARI ko.......... gazab kya kalpnashakti hai.....bas isi ke to KAYAL hain ham.
द्विवेदी जी कहते हैं कि हर बात में "सकारात्मक" होना चाहिये, इसलिये आपको शुक्रगुज़ार होना चाहिये कि आपको टूटे कप में ही सही चाय तो पीने मिली, कहीं आपसे उनकी कार पर कपड़ा मारने को कह देते तो? :) :)
सुनाते रहिए, आपका पूरा परिचय तो मिल जाएगा। अरे भाई कोई भी काम छोटा बडा थोडे होता है। अब ड्राइवरी करते रहे हो तो ड्राइवर ही तो कहा जाएगा न उस दौरान।
छुपाने से मर्ज बढता है जी।
सुंदर है। मजा आ रहा है। और लिखिएगा।
शक्ल वक्ल तो आप हमारी देख ही चुके हैं... क्या कहें शक्ल के नोकरपन में कम ही हमारे सामने टिक सकते हैं। हमें तो पत्नी के साथ चलते देख लोगों का खूब गलतफहमी होने की गुजाइश बनी रहती है, ड्राइवर समझे जाने की संभावना दस में आठ रहती है।
घर के सारे टूटे कप हम ही इस्तेमाल करते हैं
समीर भाई
ज़िन्दगी के आस पास बिखरे छोटे छोटे पलों को खूबसूरत अंदाज से पियोया है आपने. ऐसे किस्से सब के साथ होते रहते हैं पर सब में वो कला नही जो आपकी तरह सुन्दरता के साथ परोसे. आपका कहता सत्य वचन है ....सोच समझ कर , वाणी पर नियंत्रण रख कर बोलना चाहिए.....
भइया कभी हमार ब्लोग्वो पर भी आयें न............आप हमारे ब्लॉग पर हमेशा आयेंगे ऐसन तो हम अपना अधिकार समझते हैं और आपके आने से बहुत सी टिप्पणियाँ आपे आप ही आ जाती हैं
वाकई मे ऐसे प्रसंग अक्सर जाने अनजाने जीवन का एक हिस्सा बन जाया करते हैं,जो कि आगे चलकर भविष्य में बहुत कुछ सोचने पर विवश कर देते हैं.
हम लोगों को भी अपनी संकीर्णता का विचार छोड़कर सबके साथ खुले दिल से आत्मीयता का व्यवहार करना चाहिए.
समीर जी,आपकी पोस्ट पढ कर आप बीती भी याद हो आई।सच है कई बार सामने वाला कुछ ऐसा व्यवाहर कर जाता है कि भीतर तक तकलीफ होती है।यह बात अलग है कि सामने वाला अनजानें में ऐसा कर जाता है।
दिनेश जी की बात से पूर्णत: सहमत हूँ।
दिनेश जी की टिप्पणी से पूरी तरह सहमत हूँ.
'आप के संस्मरणों ने बहुत ही चिंतनीय विषय को आरंभ कर दिया है।'
उन की टिप्पणी में पोस्ट की गंभीरता समझ आ जाती है.
और--आप के संस्मरण पर इतना सब कुछ पहले ही लिखा जा चुका है अब क्या कहें?
ऐसे खट्टे-मीठे किस्से सभी के साथ हुए होंगे...
आप इन अनुभवों को लिखते रहिये...
समानता के व्यवहार पर सभी को एक ही नजर से ट्रीट नही करना चाहिए.....सही बात कह दी...
बहुत ही ज़ोरदार संस्मरण सुनाए सर जी। इस पर हमें भी हमारे मौसेरे भाई अरविंद दुबे के साथ आपका घटित वो वाक़िया याद आ गया जिसमें उन्होंने आपको क्राइस्ट चर्च स्कूल के साइकिल स्टैण्ड का ...............हटाइए हम नहीं बताते। हा हा हा ।
आप भी ना, बहुत हँसाते हो और बात बहुत गाम्भिर्य से ओतप्रोत होती है।
समीर जी पोस्ट को चाहे व्यंग का रंग चढ़ाया गया हो लेकिन आप खुद इस बात को मान रहे हैं कि वो घाव आज भी ताजा हो जाते हैं। मतलब उन घावों का इलाज नहीं हुआ। हम आप की व्यथा समझ रहे हैं। द्विवेदी जी ने जो कहा वो तो सच है ही, लेकिन एक बात और भी कही जा सकती है।
हम दुनिया को नहीं बदल सकते लेकिन खुद को तो बदल सकते हैं।
मैं खुद को अमीरों में तो नहीं गिनती लेकिन टूटे हैंडिल के कप मेरे यहां भी कम ही फ़ेकें जाते है जब तक पूरी तरह से न टूट जाएं। आप को जान कर आश्चर्य होगा कि हमारी नौकरानी हमें तो टूटे हैन्डिल के कप में चाय देती है और खुद नये कप में पीती है। क्या करें बनाने वाली भी वही और परोसने वाली भी वही, हमें कप को पूरी हथैलियों में घेर कर पकड़ने की आदत है इस लिए हम भी कुछ नहीं कहते…:)
समीर जी, हम सब ऐसे ही घाव ले कर जी रहे हैं कोई किसी कारण से तो कोई किसी कारण से। लेकिन आप देख लिजिएगा कि अब आप ने कह दिया न तो अब आप को ये घाव उतना परेशान नहीं करेगें। आमीन
बहुत मज़ेदार किस्से सुनाये आपने. हमें तो ३ नम्बर वाला किस्सा सबसे अच्छा लगा :) वैसे हम अनुराग जी की बात से भी सहमत हैं.
दिलचस्प है आपकी शैली। सत्य है। ऐसा सत्य जिससे हमारा भी कई बार सामना हुआ है।
बहुत जबर्दस्त अनुभव ! हास्य तो ठीक है परन्तु कितना अच्छा होता कि टूटे कप वाले भी यह पोस्ट पढ़ रहे होते तो चुल्लू भर पानी की खोज कर रहे होते।
घुघूती बासूती
समीर जी, मित्रों के अनुभब जितना अधिक पढते हैं उतना ही लगता है कि दुनियाँ वाकई में गोल है, अपने धुरी पर घूमफिरकर वापस वही आ जाता है, जिससे हरेक को वह अनुभव हो जो उसके मित्र को हुआ है.
मुझे तो एकाध बार स्टेज से उठा दिया गया था जब दिखने में एकदम बच्चा लगता था -- जब कि मैं था आमंत्रित मुख्य अथिथि.
सस्नेह -- शास्त्री
अच्छा संस्मरण है . समानता के व्यवहार पर सभी को एक ही नजर से ट्रीट नही करना चाहिए .
पर अंत में बात वाकई गंभीर हो गई, दुनियां चलती है शक्ल सूरत से पर बहुत दिन आप शक्ल सूरत से दुनियां को बेवकुफ़ नही बना सकते. आखिर तो अक्ल ही काम आती है.
अब तक 50 टिप्पणीकर्ताओं में से किसी का ध्यान इस बात पर नही आया कि आपने तीसरे वाकये में यह लाइन >>नहीं जाता बल्कि नौकरों, चपरासियों और ड्राइवरों को चाय पिलाने के लिए जतन से अलग रख दिया जाता है<< गलती से डाल दी है, यह लाइन दूसरे वाकये की है. किसीने बताया नहीं!!
सोचता हूँ कितना "ध्यान" से पढते होंगें. :):) हे हे हे....
खैर, ये वाकये बडे मजेदार लगे. और भी सुनाइएगा, मजे से पढेंगे. :)
समीर जी,
एक बड़ी ही कोमन बात को प्रभावशाली ढंग से लिखा. सभी के साथ होते हैं ऐसे वाकये.
Sameer bhai.
This is the best quality of a writer. First You have made us laugh no doubt.But At last you have made us serious to think it over also. Your sense of humour is commendable. you have satired on mentality of our society very beautifully. Your stories are message oriented.Badhaai ho.
आप को क्या बताऊ बस दुखती रगों पे
अंगुली रख दी आपने जी
इस आलेख के आगे लिखने की इजाज़त दे दो भईया जी !
ऐसे भी लोग हैं जिन्हें ईश्वर ने गोरा और सुन्दर बनाया पर बचपन से बुढापे तक नौकर बनकर रहना पडा ,ड्राइवर बनकर रहना पडा या जमादार बनकर रहना पडा .
मेरे विचार से कोई गलती से हमें नौकर आदि समझ ले तो इसमें बुरा न मानना चाहिए , वो लोग भी आदमी ही हैं !
भाई साहब.... मैंने लिखा और आपने पढ़कर सराहा, इसके लिए आपका धन्यवाद।.... आपकी रचना बेहतरीन है।... आगे भी इसी तरह बात होती रहे, तो अच्छा लगेगा।.... apana-pahar.blogspot.com
समीर जी,
मजाक-मजाक मे बहुत गम्भीर बात कही है।आगे मेरे ब्लॊग पर----- अनजाने मे
सच ऐसे वाक्या जाने अनजाने घट जाते है।
पंकज बेंगाणी- आरिजनल मास्साब
आपके द्वारा निकाली गई भूल सुधार ली गई है. अगर ऐसी भूल करने पर ही आप आते हैं, तो ईश्वर करे, मुझसे यह भूल बार बार होये और कोई खोज न पाये. :)
लोग बोलने के पहले अगर वाणी नियंत्रित करें, विचारों को यूँ ही न बाहर निकाल दें, जरा अन्य पहलु पर भी नजर डालें तो शायद ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है कि कोई आहत न हो.-उडनतश्तरी।
यदि ये हुनर आए तो सभी समीरलालजी की तरह छोटी टिप्पणी से गहरी घात करने लगेंगे। बहुत बेबाकी से अपनी बात रखी जो शायद बहुत कम लोग हिम्मत जुटा पाते। आपको नमन।
हंसी तो नही आयी पर विचार करने पर विवस जरूर कर दिया है ।
आपकी यह पोस्ट, प्रख्यात कवि श्री माणक वर्मा की कविता का गद्य स्वरूप है-हास्य से शुरु होकर परिहास से होते हुए व्यंग्य के स्टाप पर तनिक विश्राम कर, करुणा पर ठहराव। सब कुछ ऐसा कि हंसते-हंसते रोना आ जाए।
सचमुच में ह्रदयस्पर्शी।
तीसरे में तो आप बच निकले. आपने सही लिखा है की ऐसी घटनाएँ मानस पटल पर हमेशा के लिए अंकित रहती हैं. अब विवेक की बात क्या किया जावे. बहुत मजा भी आया. आभार.
बहुत अच्छा लिखते हैं आप। घटनाओं, संवेदनाओं की सशक्त पकड़। बस लिखते कम हैं!
आपका संस्मरण दिल को छू गया.हम अक्सर अपने जीवन में ऐसा व्यवहार कर जाते हैं दूसरों की भावनाओं का ध्यान रखे बिना.मुझे इस बात का संतोष है मेरे घर में कभी किसी को नौकर जानकर दरवाजे से लौटाया नहीं गया और न ही कभी ड्राईवर को टूटे कप में चाय दी गई .दूसरों की भावनाओं का ख्याल रखना सिखाया गया .सफाई वालों को भी हम चाचा कहते थे .पर हो सकता है मेरे व्यवहार से भी कभी किसी को पीड़ा पहुँची हो और उसने मुझे बताया न हो जैसे आपने पिंकी को नहीं बताया .
क्या भाई, अपने ऐसे मज़ाक उडाने के लिए एक आप ही रह गए थे?
shukriya sameer ji,
achchha laga apke gujre palon se roobaroo ho kar.
aur aaj subah-subah bade dino ke baad apni rachna pe apki tippani padh kar bhi achchha laga tha.
Thanks.
आपके लेख ने हँसाया भी और सच्चाई से भी रूबरू कराया ......लेकिन ऐसा नही होना चाहिए
10000 टिप्पणियों के लिये बधाई...
पहला किस्सा इतना गलत नहीं है, क्योंकि पिंकी की बालसुलभ टिप्पणी को benefit of Doubt दिया जा सकता है. कम उम्र की जमा पूंजी ही क्या है अनुभव में, मात्र जिस परिवेष से आयी होगी वहां का चलन होगा मात्र.
मगर बाद के दोनों किस्सों में संवेदनाओं के बोथरे स्वरूप के दर्षन होते है. टूटे कप वाली बात बडी मार्मिक है, जो हर काल में , हर स्थान पर सत्य है. मेरे यहां भी(दुर्भाग्य से).
अतः ज़रूरी है कि विवेकपूर्ण समझ और वाणी पर नियंत्रण . कोशिश की है अभी तक कि किसी को भी हर्ट ना करूं. मगर भुगता भी क्योंकि जो देखे वो पूंछ मरोड कर चला जाता है. पिछले साल सिंग मारने की acting कीए तो कुछ दोस्तों को नागवार गुज़रा, नाराज़ हो कर बैठ गये.
वैसे यहां भी कुछ टिप्पणीयां संयम के दायरे से बाहर है.
दिनेश जी की टिप्पणी से मै पूरी तरह सहमत हूँ.लेकिन यह सब होता क्यो है? समझ नही आता, मे जब भारत मओ नोकरी करत था, तो एक दिन फ़ोन आया की घर आओ,लेकिन मेरे स्वाभव से सभी परिचत थे, ना गुलामी करता थ ना किसी को करने देता, उस दिन उस ओफ़्फ़िसर का बुरा समय था, सो मे चला गया, उस ने बिना देखे नोकर को कहा उसे मेरा स्कुटर दे तो ओर बोलो उसे ठीक करा लाये.
मै तो लडने गया था, लेकिन स्कूटर तो मेरे पास था नही, ओर दुसरा कोई देता नही था कि कही तोड ना दे, बस हम ने स्कूटर पकडा ओर किक मारने ही वाले थे, कि पिछे से आवाज आई अरे नही लुडका कर ले जाओ, हम ने बिना पीछे मुडे, अगले मोड तक उसे ले गये, वहा हमे हमारा दोस्त मिल गया, ओर फ़िर जब स्कूटर शाम को ५,६ घंटे बाद उन्हे मिला तो , उस के हाल देख कर पुरा परिवार सर पकड के बेठ गया,
हम ने कहा सर कल फ़िर आऊ.....
यादो की भुलभुलैया मे हम भी अभी तक़ भटक की ही रहे हैं,आज दिन-रात की व्य्स्तता क बाद देर रात अपनी यादो के खज़ाने का एक नगीन पोस्ट करने के बाद पहली पोस्ट आपकी पढ रहा हूं।शानदार लिखा आपने।और हां आपका ये आईडिया चुरा कर मै भी कुछ किस्से सुनाऊंगा,अगर आपकी ईजाज़त मिलेगी तो।
ये वाकये काफ़ी पहचाने हुए लग रहे हैं (सिवाय इसके कि कार-वार तो नहीं है)। अपने पास भी एक लंबी लिस्ट है ...
समीरजी, इन किस्सों को सुनकर तो मजा आया लेकिन अपने कुछ हसीनों की गलियों के चक्कर लगाने वाले किस्से भी तो सुनाईये वरना नयी पीढी को डू और डोंट्स कैसे पता चलेंगे :-)
हम एक बार फ़ंसते फ़ंसते बचे। जिस लडकी का ट्यूशन के रास्ते में अपनी साईकिल से पीछा करते थे, उसकी छोटी बहन हमारी छोटी बहन की क्लासमेट निकली। एक बार छोटी बहन ने कहा कि चलो हमारी सहेली के घर से कुछ किताबें उठानी हैं। हम उसी मोहल्ले में पंहुचे तो थोडा डर लगा लेकिन मन में कहा कि कितने घर होते हैं एक मोहल्ले में। घर पर आंटी से भी बात हुयी, जैसे ही चलने को कहा तो उन्होने कहा कि बेटा ऐसे कैसे चाय तो पीकर जाओ। फ़िर आवाज लगाई, "मिली" देखो चाय बनी कि नहीं। "मिली" सुनते ही हमारी आवाज हलक में अटक गयी और अगले ही पल "मिली" ट्रे में चाय लेकर कमरे में घुसती है। वो हमें और हम उसे देखते हैं, हमको लगा कि बस बेटा आज तो पिटाई पक्की लेकिन लडकी समझदार निकली कुछ भी नहीं कहा।
अलबत्ता अब सोचते हैं तो लगता है कि एकदम लडकी देखने वाला कार्यक्रम था। लडकी सहमी से चाय ट्रे में लेकर आ रही है, काश हम उसी समय हाँ भी कर देते :-)
"ऐसे ही अनेकों बातें/ हादसे याद हैं कि पूरी किताब लिख जाये. समय समय पर सुनाता रहूँगा."
वायदा याद रखियेगा.
१०००० टिप्पणी प्राप्त करने पर आपको लाखो बधाई . ज्ञान जी के द्वारा यह पता चला इसलिए ज्ञान जी को साधुबाद . ईश्वर आपको इसी तरह स्नेह देता रहे और आपकी लेखनी हमें प्रेरणा देती रहे
( क्षमाप्रार्थी हूँ ... आपकी टिप्पणी का उत्तर देने के लिए कोई और उपयुक्त स्थान न मिलने के कारन यहाँ दे रहा हूँ )
आपकी बात सही है लेकिन मेन्टेनेन्स के लिए आख़िर सरकार को किसी किरायेदार का ( यानि इन फ़िल्म वालों ) का मुंह क्यो ताकना पड़ता है ? क्या इन धरोहरों की मेन्टेनेन्स के लिए ख़ुद के खजाने में से धन उपलब्ध नही कराया जा सकता ? हमें यह नही भूलना चाहिए कि यह इमारतें हमारे इतिहास की धरोहर हैं , कोई आम मकान नही कि जिसके किराये पर हम इनकी टूट फ़ुट ठीक करवाते फिरे .....! इनको पहुँचा छोटा सा नुक्सान भी काफी भरी पड़ सकता है !
शेष अन्यथा न लें ...यह मेरी निजी राय है ! आपकी टिप्पणी के लिए आभारी हूँ !
कौन देखे क्या क्या किसने देखा कहीं देखा तो नहीं यह देखने का खेल भी कितना अजीब है
हर छुपी छेज को देखने की है तमन्ना है हर -एक को जो देख पाया इसको उसका नसीब है
कौन देखे क्या क्या किसने देखा कहीं देखा तो नहीं यह देखने का खेल भी कितना अजीब है
हर छुपी छेज को देखने की है तमन्ना है हर -एक को जो देख पाया इसको उसका नसीब है
भारतीय समाज मनुष्य को खानों में बाँटने का इतना अभ्यस्त हो गया है कि केवल खन ही शेष बचते हैं। ये ऐसे चित्र हैं, जो केवल वाक् शूल ही नहीं अपितु हमारे भीतर निहित वर्गभेद के खोखले अहंकार को भी दिखाते हैं।
बहुत देर से खोला.....इतनी टिप्पणियां मिल चुकी हैं.....हर तरह की बातें भी हो चुकी.....पर मुझे आपके लिखे पर विश्वास नहीं हो रहा है....काल्पनिक संस्मरण भी इतने सजीव तरीके से कैसे लिख लेते हैं आप ?
समीरजी!
सबसे पहले तो देर से पहुचने के लिये माफी चाहता हु ।
@ "विचार इसलिये कर रहा हूँ कि लोग बोलने के पहले अगर वाणी नियंत्रित करें, विचारों को यूँ ही न बाहर निकाल दें, जरा अन्य पहलु पर भी नजर डालें तो>>>>>>> ।
सोचना विचारना शब्द अगर मानव पर लागु हो जाये तो फिर आदमी के जिवन मे यादे शेष नही रह पायेगी। फिर इन्शान ओर कम्प्युटर मे अन्तर क्या होगा। इन्शान के जिवन का कुछ हिस्सा घटित घटनाओ कि यादो से बितता है यह प्राकृतिक लक्षण है। जिनकी विरासत मे घटित घटनाओ कि यादे नही, या शेष नही वैसे व्यक्ती को कुछ समय के लिये मानसिक तकलिफे रहती है। इसलिये आप इस बात को शुरु रहने दे कि लोग भुल से कुछ ऐसा करे कि हमारे लिये भी आपकी तरह खट्टी- मिठ्ठ यादो कि विरासत का कुनबा भरे।
समीर भाई,
सच कहा आपने कि
"विचार इसलिये कर रहा हूँ कि लोग बोलने के पहले अगर वाणी नियंत्रित करें, विचारों को यूँ ही न बाहर निकाल दें, जरा अन्य पहलु पर भी नजर डालें तो शायद ऐसी स्थितियों से बचा जा सकता है कि कोई आहत न हो. न किसी के दिमाग पर ऐसी बात अंकित हो जाये जो जीवन भर पोंछे न पूछे.
बस, एक चिन्तन की आवश्यक्ता है और विवेक इस्तेमाल करने की दरकार"
ऊपर वाले ने इन्सान को बोलने की ताकत दे कर सर्वश्रेष्ठ जीव तो बना दिया पर हालत उस बन्दर की तरह है, जिसके हाथ उस्तरा है.
चन्द्र मोहन गुप्त
ये वाकये तो लगभग सभी के जिन्दगी के हिस्से होंगे ....वैसे आपने खुद का मजाक बनाया अच्छा लगा .....आपकी उड़न तस्तरी सफलता पूर्वक उड़ती रहे , हमारी सुभकामनाये है .
ख़ुद का मजाक उड़ाने का माद्दा सबमें नहीं होता, आपमें है.
ise hi to zindagi kehte hain jab haadse ho jaye wo bhi aise jin par hum hansnaa chahte ho ya sabko hansaanaa.
bahut hi achha lekh hai aapne sachhai pesh ki hai kis tarah se insaan ka insaan ke prati nazariya badalta jaa raha hai. vicharniya vishay hai.
समयचक्र: चिठ्ठी चर्चा : चिठ्ठी लेकर आया हूँ कोई देख तो नही रहा हैबहुत अच्छा जी
आपके चिठ्ठे की चर्चा चिठ्ठीचर्चा "समयचक्र" में
महेन्द्र मिश्र
LAL SAHIB ZINDGI KI SACHCHAI HAI AISE VAKYE KABHI NA KABHI SAB KE SAATH HOTE HAIN, AAP SABKE SAAMNE LAAYE PADHKAR ACHCHA LAGA, LEKH KE NEECHE JO TIPPNI HAI BILKUL SAHI HAI.
बिल्कुल जनाब, ऐसे कई प्रसंग हैं जो हर किसी की ज़िन्दगी में आते ही रहते हैं...
कई ऐसी बातें हैं जो कभी याद आ जाए तो रत को नींद तक नही आती.
बचपन ऐसे कई वाकये हुए जो न तो बताये ही बनते हैं न छुपाये ही. कभी फुर्सत में जरूर बाटूंगा.
सोचता हूं अपने मन की बात को कितने साधारण और प्रभावी तरीके से आप रख देते हैं। पत्नी के अभाव में पति के हालात पर आपने पहले लिखा था। आज तक मानस पटल पर अक्षरश है। आपकी लेखनी सहज, सरल, सौम्य और प्रभावी है। बार बार ब्लॉग पर आने का मन करता है। hats off for U.
समीर भाई,
वाकई जैसे आपने मेरे दिल की ही बात कह डाली
मेरे साथ भी कई ऐसे ही वाकिए हुए जो आपका लेख पढ़ते ही ताज़ा हो गए
" अरे प्रकाश भाई आपकी अलबम में तो बहुत अच्छी फोटो कलैक्शन है अरे आपकी और भाभी जी की तस्वीर तो बहुत ही अच्छी है। भाभी जी भी बहुत सुंदर है।" इससे पहले मैं कुछ कह पाता मेरे घर आए दोस्त ने मेरी बहन को मेरी धर्मपत्नि का संबोधन दे डाला और मुझे स्थिति स्पष्ट करने का मौका ही नहीं दिया जब मैने ज़ोर लगाकर अपने दोस्त को कहा कि वो मेरी धर्मपत्नि नहीं मेरी धर्मबहन है तो उसे आत्मग्लानि का शिकार होना पड़ा। ऐसे कई किस्से और भी हैं लेकिन शायद टिप्पणी करने के लिए ज़्यादा हो जाएगा। आपका लेख फिर से और लेखों की तरह अच्छा लगा। और सभी को यही सलाह देता है कि भौइया तोल-मोल के बोल।
भाई मज़ा आ गया आपके मजेदार अनुभव पढ़कर.
एक सच्ची पोस्ट...। साधुवाद।
गजब लिखा है. पहले हंसाया...फिर सोचने को मजबूर कर दिया. मुझे तो यह काल्पनिक किस्से लगते हैं मगर आपने किस्सागोही बहुत सुन्दरता से की है.
टूटे कप मे चाय और प्लास्टिक बैग मे बासी खाना देते हुए कई बार देखा लेकिन हिम्मत न हुई कि कह सके कि ऐसा क्यों किया जाता है?? लेकिन बच्चों की हिम्मत की दाद देते हैं जो ऐसा होते देख छोटे बड़े का लिहाज़ भूल कर बहस पर उतर आते हैं..काश कि आपके वाक्यों मे छिपे सन्देश को जीवन मे लागू हो सके...
ತುಂಬ ಸುಂದರ
---ಬವಾಲಿನ್
अहो हे काय लाल साहेब ? मस्त सांगीतलाय तुमि
wah ji aake vakiye hame bhi hila dulaa gaye bachpan ki aur
आज इस मजेदार और अच्छा संदेश लिये रचना पर शायद मेरी १०० वीं टिप्पणी है. बधाई.
Sameer ji ,
ye poora kissa padhkar to bahut maza aa gaya ..
aise kisse to bahut hote hai , jeevan me aur sach hi kuch na kuch yaad chod jaate hai ..
aapko shivraatri ki shubkaamnaayen ..
Maine bhi kuch likha hai @ www.poemsofvijay.blogspot.com par, pls padhiyenga aur apne comments ke dwara utsaah badhayen..
बहुत अच्छा लगा
Dinesh ji ki baat se puri tarah sahmat hoon.Vaise is prakar ke mapdandon ko apnane me hum bhartiya maahir hain.
kya bat hai...
pinki ne bhi tippani kar hi di....
वाकई, ऐसे वाकये किसी ना किसी मोड़ पर होते ही हैं, अब का करें, हम आगे बढ़ जाते हैं, आप भी आगे बढ़ गए, काहे टेन्शन लेते हैं! :)
मेरे ससुर श्री को मैं, शादी से पहले निरा गुंडा लगता था...---:)
रंगरूप में कुछ नही होता अपनी अपनी किस्मत होती है । कुछ लोगों के साथ ये अक्सर होता है और कुछ के साथ कभी नही ।
बहुत अच्छा संस्मरण लगा किन्तु, लोगों को सोच-समझकर बोलना चाहिए , ये नहीं कि जबान खोली और जो मन में आया कह दिया...
"insan ka insan se ho bhai chara", ye paigam dil ko andar tak tak choo gaya. sadhuwad.
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