कल रात किसी वजह से सोने में ज्यादा देर हो गई और बिना किसी वजह नींद भी जल्दी खुल गई. कुछ देर कम्प्यूटर पर विचरण और चल दिये हमेशा की तरह सुबह ६.१५ पर ऒफिस के लिए. ६.३० की ट्रेन हमेशा की तरह सही समय स्टेशन पर आई और हम सवार होकर निकल पड़े.
थोड़ी देर किताब पढ़ते रहे मनोरह श्याम जोशी जी की और न जाने कब नींद का झोंका आया और हम सो गये. पूर्व से पश्चिम तक १०० किमी में फैले इस रेल्वे ट्रैक पर मेरे दफ्तर टोरंटो डाउन टाउन के लिए पूर्व से पश्चिम की ओर ५० किमी ट्रेन से जाना होता है. दूसरी तरफ फिर ५० किमी पश्चिम की तरफ ओकविल और हेमिल्टन शहर है. मगर मेरी ट्रेन डाऊन टाऊन पहुँच कर समाप्त हो जाती है. आगे नहीं जाती सवारी लेकर.
एकाएक नींद खुली, तो देखा ट्रेन में कोई नहीं है. मैं ट्रेन की पहली मंजिल से उतर कर जल्दी से नीचे आता हूँ, वहाँ भी कोई नहीं. खिड़की के कांच से बाहर झांक कर देखता हूँ. कहीं जंगल जैसा इलाका है जिसमें ट्रेन खड़ी है. मैं दूसरी तरफ की खिड़की से झांक कर देखता हूँ. एक नहर बह रही है और कुछ नहीं. दरवाजे बंद हैं और मै एक अकेला पूरी ट्रेन में. घड़ी पर नजर डालता हूँ तो ८ बज रहे हैं जबकि मेरा स्टेशन तो ७.१५ पर आ गया होगा. बाप रे!! कितनी देर सो गया और किसी ने उतरते वक्त जगाया भी नहीं. मैं थोड़ा सा घबरा जाता हूँ. क्या पता, अब कब वापस जायेगी और पहले तो यही नहीं पता कि हूँ कहाँ?
मन में विचार आया कि अगर शाम को वापस लौटी तब? तब तक मैं बंद पड़ा रहूँगा यहाँ. फिर अगला विचार कि भूख लगी तब? याद आया कि लंच तो साथ है ही. ब्रेकफास्ट भी नहीं किया था कि ऒफिस चल कर खा लेंगे. हाँ, एक केला और ज्यूस भी है. मैं कुर्सी पर फिर बैठ जाता हूँ. भारतीय हूँ, कैसी भी स्थितियों से फट समझौता कर लेता हूँ. मैं बैग में से केला निकाल कर खाने लगा.
इस दौरान विचार करता रहा कि क्या करना चाहिये. एक बार विचार आया कि आपातकाल वाली खिड़की फोड़ कर बाहर निकल जाऊँ मगर फिर सोचा कि जाऊँगा कहाँ? ट्रेक के दोनों बाजू तो तार की ऊँची रेल लगी है. इस शरीर के साथ तो कम से कम उस पर चढ़कर पार नहीं जाया जा सकता है. हाँ शायद चार छः दिन बंद रह जायें तो शरीर उस काबिल ढ़ल जाये मगर तब ताकत नहीं रहेगी कि चढ़ पायें, अतः यह विचार खारिज कर केला खाने लगा.
सेल फोन भी साथ है मगर फोन किसे करुँ और क्या बताऊँ कि कहाँ हूँ? सोचा, अगर लम्बा फंस गये तो घर फोन कर बता देंगे. अभी तो बीबी सोई होगी, बीमारी में खाम खां परेशान होगी. उसके हिसाब से तो शाम ५ बजे तक कोई बात नहीं है, ऒफिस में होंगे. कोई मिटिंग चल रही होगी, इसलिए दिन में फोन नहीं किए होंगे.
खाते खाते केला भी खत्म. मगर हम अब भी बंद. कुछ समझ नहीं आया तो बाजू के कोच में भी टहल आया. हर तरफ भूत नाच रहे थे याने कोई नहीं. रेल्वे वालों पर गुस्सा भी आया कि यार्ड में खड़ा करने से पहले चैक क्यूँ नहीं करते. अगर कोई बेहोश हो जाये तो?? पड़ा रहे इनकी बला से.
बस, ऐसा विचार आते ही गुस्सा आने लगा. गुस्सा शांत करने के लिए ज्यूस निकाल कर पीने लगा. विचार तो चालू हैं कि क्या करुँ? बेवकूफी ऐसी कि तीन पेट भरने के सामानों में से केला खा चुके, ज्यूस पीने लग गये और खाना रखा है मगर सोचो यदि एक दो दिन बंद रहना पड़ जाये कि ट्रेन आऊट ऒफ सर्विस हो गई है तब?? मुसीबत के समय के लिए कुछ तो बचा कर रखना चाहिये. मगर क्या करें इतनी दूर की सोच कहाँ? यह विचार आते ही, आधा पिया ज्यूस वापस बंद कर बैग में रख लिया.
बाथरुम में जाकर पानी चला कर भी देख लिया कि आ रहा है. वक्त मुसीबत पीने के भी काम आ जायेगा, यह सोच संतोष प्राप्त किया.
एकाएक ख्याल आया कि एमरजेन्सी बेल बजा कर देखता हूँ. शायद कहीं मेन से कनेक्ट हो. कोई सुन ले. बस, पीली पट्टी दबा दी. कोई जबाब नहीं. दो मिनट चुप खड़े रहे जबाब के इन्तजार में. फिर खिसियाहट में दबाई और वाह!! एकाएक एनाउन्समेन्ट हुआ कि डब्बा नं. २६२६ में कोई है, चैक किया जाये. जान में जान आई. ५ मिनट में ही अटेन्डेन्ट आ गया. कहने लगा आप यहाँ कैसे? मैने कहा कि भई सो गया था, अब मैं कहाँ हूँ? उसने बताया कि अभी आप पश्चिम में टोरंटो से ४५ किमी दूर ओकविल के बाहर हैं.
मैने उससे कहा कि आपको मुझे जगाना चाहिये था, अब मुझे वापस पहुँचाईये टोरंटो. मैं नहीं जानता कि कैसे पहुँचाओगे मगर यह तुम्हारी जिम्मेदारी है. वो मुस्कराता रहा. शायद मेरे मन में इतनी देर का भय गुस्सा बन कर निकल रहा है, वह समझ गया था.
मैं चिल्लाता गया, वो मुस्कराते हुए सुनता रहा. फिर कहा कि आप बैठ जाईये और हम दस मिनट बाद यहाँ से रवाना होंगे और दो स्टेशनों के स्टॉप के बाद टोरंटो डायरेक्ट जायेंगे. आपको वापस टिकिट खरीदने की भी जरुरत नहीं है, मैं टीसी से कह दूँगा. मेरी जान में जान आई और वो चला गया. दस मिनट बाद ट्रेन रवाना हुई और एक स्टेशन ’क्लार्कसन’ पर आकर रुकी. लोग चढ़ते हुए मुझे पहले से बैठा देख अजूबे की तरह से देख रहे थे कि ये पहले से यहाँ कैसे?
इतने में वो अटेन्डेन्ट भी आ गया. उसके हाथ मे दो कप कॉफी थी. एक उसके लिए और एक मेरे लिए तथा वो रेल्वे की तरफ से मुझसे मुझे हुई परेशानी के लिए माफी मांग रहा था. मैं तो मानो शरम से गड़ गया. फिर टोरंटो भी आ गया और मैं उसे धन्यवाद दे अपने ऒफिस आ गया.
सोचता हूँ कि इसी तरह सोते सोते मेरे देशवासी भी कहाँ से कहाँ तक चले आये हैं और अब कोई रास्ता ही नहीं सूझता है कि करें क्या? तो सब विधाता के हाथ छोड़ बैठे केला खा रहे हैं बिना कल की चिन्ता किये. जिस दिशा की हवा चल जायेगी, जहाँ लहर बहा कर ले जायेगी, चले जायेंगे. अभी तो केला खाओ!!
लगता है मित्रों, अब समय आ गया है कि हम जागें और पीला अलार्म बजायें. उनको सुनना ही होगा हमारी तकलीफें और देना ही होगा हमें कुछ निदान हमारी समस्याओं का. हमें ही हवाओं को और लहरों कों अपनी मंजिल की दिशा में मोड़ना होगा. अपने अधिकार की मांग करनी होगी. ठीक है आज तक हम सोते रहे, गल्ती हमारी है मगर उन्होंने भी तो हमें जगाया नहीं. बल्कि हमारी नींद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे. कैसे नहीं सुनेंगे हमारी वरना हम प्रतिकार करेंगे क्योंकि हम अब जाग गये हैं.
बुधवार, अक्तूबर 01, 2008
सुनो!! हम अब जाग गये है!!
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81 टिप्पणियां:
अच्छा लगा आपका संस्मरण पढना..
सही कहा आपने.. अब समय आ गया है की पीले अलार्म को दबा ही दिया जाये..
मगर यहाँ भी भारतीयपना दिखा जाते हैं..
सोचते हैं की सबसे पहले कौन दबाता है?
इन्तजार में हैं.. लखनवी नवाब की तरह..
पहले आप,पहले आप कहते हुए..
ये तो बडा रोचक अनुभव रहा समीर भाई ..और रेल्वे कर्मचारी पीला बटन दबाते आ भी गया और कोफी भी लाया !!
केनेडीयन व्यव्स्था पर गर्व हो रहा है हमेँ तो ..और अब अगली बार सेल फोन पे अलार्म लगा लिया कीजिये ..
ताकि आपके उतरने की सूचना बजाते हुए बजने लगे ..
जागो सोनेवालोँ सुनो ये कहानी :)
- लावण्या
गान्धी जी को याद करते-करते आपका यह विचारोत्तेजक लेख पढ़ना दिन की अच्छी शुरुआत दे गया। ...साधुवाद।
आज गान्धी जयन्ती है... राष्ट्रपिता को नमन्।
कहाँ है पीला बटन? बहुत देर हो गई खोजते, मिल ही नहीं रहा।
बहुत ही रोचक पोस्ट और रोचक घटना, चित्रण भी अच्छा किया है। यहाँ मुम्बई मे तो अगर आप नहीं उतरना चाहते तो भी ठेल ठाल कर आप को उतार ही देंगे......और आप टापते रह जाएंगे.....सा्ला आदमी लोग है कि शैतान लोग....नहीं उतरना बोला तो भी उतार दिया.....उपर से बोलता भी है दूसरा ट्रेन पीछे आ रहेली है...चढ जाना....। और अगर टीसी ने पकड लिया और आप ने कहा कि सो गया था इसलिये आगे वाले स्टेशन पर आ गया तो वो पहले तो मानेगा ही नहीं कि आप सो गये थे....उपर से बोलेगा क्या ये सोने का जगह है....फिर अगर मान भी गया थोडी देर में तो कहेगा .....ठीक है निकालो पचास...... पावती नहीं मिलेगी पहले ही बोलता हूँ , पावती मंगता है तो ढाई सौ भरो और हाँ....कल से जागते रहना:)
अपना संस्मरण सुनाने के साथ ही कितनी बड़ी और अच्छी नसीहत डाली आपने | काश हम अब भी जाग जायें और पीला अलार्म दबा दे |
यह पढ़ कर बहुत ही अच्छा लगा - और खासकर जिस सहजता से आप ने पीले बटन की बात कर डाली। जब दिनेशजी को पीले बटन का पता बतलाईयेगा तो मुझे भी यह सूचना भेजने की कृपा करियेगा।
पीले बटन का तो पता नही हाँ लेकिन कुछ लोग पीले बम दबाकर कोशिश कर रहे हैं शायद कुछ लोग जाग जायें। कमाल इस बात का है कि आरक्षण के मुद्दे को लेकर तबाही मचा दी थी लोगों ने लेकिन लगता है लोगों के जान की कीमत आरक्षण के मुकाबले कुछ भी नही।
सर देशवासियों में और आपमें फर्क है .
केला हम भी भी खाते है और आप भी.
ट्रेन में हम भी बंद होते है और आप भी.
पिला बट्टन हम भी दबाते है और आप भी
पर उस पीले बटन को दबाने के बाद एस् देस में कोई नहीं आता
काश हम सब जाग जायें ! बहुत बढ़िया समीर भाई !
बटन तो अपने यहां बहुत है समीर जी - पीले, नीले, लाल, हरे, नारंगी। बल्कि इतने कि सर चक्करा जाए। गिनती ही गडबडा जाए। पर दबते ही नहीं और जब दबते हैं तो सारे एक साथ। उस वक्त उनका शोर इतना होता है कि पांच साल तक अपने लोग उस शोर में ही किसी सहयोगी के आने का इंतजार करने लगते हैं कि शायद अब आये कि शायद अब आये हमें अंधेरी गुफ़ा से बाहर निकालने वाला। खैर आप तो बच निकले। पर जान लें ये निकलना अंतिम नहीं। अभी न जाने कितनी बार आपको पीला बटन और दबाना पड सकता है।
जो सोवत है सो खोवत है ..अब जागने की वेला आ गई है ..पर यहाँ तो सब सोये हैं जगाये कौन ? पीला बटन शायद मिटटी खा खा के मटमैला हो चुका है जो अब किसी को नज़र नही आता है ...आपने इस तरह से जो बात समझाने की कोशिश की है वह तारीफे काबिल है .रोचक लगा आपका यह यात्रा वर्णन :) एक सलाह ...अब आप सोयेंगे या नही यह तो पता नही .पर खाने का समान एक्स्ट्रा पैक करे जरुर :)
आप की इस राय से पुरा इत्तेफ़ाक है कि अब हमे जागना चाहिये मगर जाग पायेंगे कहना कठिन लगता है॥
great post sameer
सच है, अलार्म बजाने का ही समय है. बहुत मजेदार अनुभव रहा.
"हर तरफ भूत नाच रहे थे याने कोई नहीं. "
हां..हां. मैं ही तो नाच रहा था गुरुदेव वहाँ पर .. ! और आप पहचाने नही आपके
लिए काफी भी तो मैं ही लेकर आया था ! आप चिंता मत किया करो मैं हूँ ना , आपके साथ !
आप तो सो जाया करो बाक़ी सब मुझ पर छोड़ करो ! क्योंकि ...अब भूतनाथ जाग गया है !
बेहतरीन व्यंग के साथ सटीक चोट ! धन्यवाद !
समीर जी आपने परसाई जी की याद दिला दी । सच कहूं तो आपके व्यंग्य में जिस चीज की उम्मीद में रख्ता था वो पूरे फार्म में आज ही देखने को मिली इन पंक्तियों में
सोचता हूँ कि इसी तरह सोते सोते मेरे देशवासी भी कहाँ से कहाँ तक चले आये हैं और अब कोई रास्ता ही नहीं सूझता है कि करें क्या? तो सब विधाता के हाथ छोड़ बैठे केला खा रहे हैं बिना कल की चिन्ता किये. जिस दिशा की हवा चल जायेगी, जहाँ लहर बहा कर ले जायेगी, चले जायेंगे. अभी तो केला खाओ!!
लगता है मित्रों, अब समय आ गया है कि हम जागें और पीला अलार्म बजायें. उनको सुनना ही होगा हमारी तकलीफें और देना ही होगा हमें कुछ निदान हमारी समस्याओं का. हमें ही हवाओं को और लहरों कों अपनी मंजिल की दिशा में मोड़ना होगा. अपने अधिकार की मांग करनी होगी. ठीक है आज तक हम सोते रहे, गल्ती हमारी है मगर उन्होंने भी तो हमें जगाया नहीं. बल्कि हमारी नींद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे. कैसे नहीं सुनेंगे हमारी वरना हम प्रतिकार करेंगे क्योंकि हम अब जाग गये हैं.
"ठीक है आज तक हम सोते रहे, गल्ती हमारी है मगर उन्होंने भी तो हमें जगाया नहीं. बल्कि हमारी नींद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे. कैसे नहीं सुनेंगे हमारी वरना हम प्रतिकार करेंगे क्योंकि हम अब जाग गये हैं."
बहुत शानदार और धारदार व्यंग ! काश आपकी सलाह को सब मान ले तो यहाँ भी ट्रेन में काफी मिल सकती है ! प्रणाम !
हाँ, एक केला और ज्यूस भी है. मैं कुर्सी पर फिर बैठ जाता हूँ. भारतीय हूँ, कैसी भी स्थितियों से फट समझौता कर लेता हूँ. मैं बैग में से केला निकाल कर खाने लगा.
बहुत बेहतरीन व्यंग और साथ में हिदायत भी !
भाई साहब आपने भी क्या जोरदार व्यंग लिखा है व्यवस्था पर ! मजा आगया ! इच्छा होती है आपके चरण छूलूं ! पर आप बहुत दूर बैठे हैं और वहाँ आना महँगा पड़ जायेगा ! :) फिलहाल आप तिवारीसाहब का दिल से सलाम कबूल कीजिये ! बहुत मजा आया ! और खासकर आपका केला और जूस वाला तो कमाल है ! ये भूत महाराज कहीं अपने भूतनाथ तो नही थे ? :)
बहुत ही जबरदस्त पोस्ट. रोचक अंदाज में गहरी बात कह दी आपने.g
इधर तो जनता केला खाये जा रही है, जिन्हें केला नसीब नहीं है उन्हें "धर्म" की अफ़ीम सुंघाई जा रही है… देश चला जा रहा है अपनी रफ़्तार से एक विशाल गढ्ढे की ओर…
पीला बटन दबाना होगा.
जिम्मेदार सरकारें ऐसे बटन की व्यवस्था करती है. यहाँ कहाँ है? यहाँ तो शंखनाद करना होगा.
अच्छा लगा आपका संस्मरण पढकर। साथ ही एक अच्छी सीख भी दे डाली।
बहुत शानदार पोस्ट है. एक दम धाँसू....
लेकिन समीर भाई, 'बटनीय व्यवस्था' कहाँ है? शायद ख़ुद ही तैयार करनी पड़ेगी. लेकिन कोई बात नहीं. शुरू से शुरू करते हैं.
हमको भी नींद से जगाने का शुक्रिया,आज से दबाते रहेंगे पीला बटन ।
जागते रहिये ज़माने को जगाते रहिये !
रात क्या दिन में भी अब गश्त लगाते रहिये !!
hum log dunia main kahi bhi jaye so jaate hai.aapko to pila baten mil gaya .hum to abhi so hi rahe hai.aur jag bhi gaye to apne yahan to atean-baten ka koi chakker hai hi nahi.
क्या केने क्या केने।
itna kuchh kha-pee gaye. samjha sehat ka raaj.
इस मजेदार संस्मरण ने वर्षों पहले के कलकत्ते की लोकल ट्रेनों की याद फिर ताजा कर दी। ठसाठस भरी लोकलों में भी एक दूसरे के कंधे से सिर टकराते, हटाए जाने के बावजूद फिर उसी अवस्था में लौटते बंगाली भद्र जनों की नींद आस-पास खड़े लोगों के मनोरंजन का सबब बनती थीं। पर सोने वाला निश्चिंत रहता था अपनी उतरने वाली जगह को लेकर। क्योंकी "वह हुजुम उतारता नहीं, उतरवा देता था"।
आप नही जानते की ये पोस्ट पढ़कर मुझे कितनी खुशी हुई है.. आप शायद ये भी नही जानते होंगे की आपके जागने से आप कई लोगो को भी जगाएँगे..
जानकार खुशी हुई की आप जाग गये है उमीद है अब बाकी लोग भी जागेंगे.. पीला बटन भी मिल ही जाएगा..
वह भाई आप ख़ुद तो डिब्बे में सो गए है और खिसियाकर
देशवासियो को जाग जाने की अच्छी खासी नसीहत पोस्ट
में डाली है तो इसको कहते है पहले ......फ़िर सीनाजोरी.
ये भी रहा कि आपकी इमरजेंसी कानल पर अटेंडेंट आ गया
भले माहुष ने आपको काफी भी सर्व कराई यदि आप अपने
देश कि बोगी में फंस गए होते तो शायद कई दिन आपको बोगी
में गुजरने पड़ते और आपका लंच बॉक्स और केला आखिर
कितने दिनों तक आपके भरी भरकम शरीर को साथ देते . हा
हा हा भाई यह पोस्ट हमेशा याद रहेगी केले के साथ जाग
जाने की बढ़िया अपील वो भी गाँधी जयंती अवसर पर......
कुछ कुछ ऐसा ही अनुभव अनुपम खेर मंचित किसी नाटक में था उन दिनों जब वे दूरदर्शन के किसी नाटक में ,बेहद डरावना ...नाम याद नही आ रहा ...
जो हम पूछना चाह रहे थे...वो गुरूजी(द्विवेदीजी) ने पहले ही पूछ लिया
जवाब का इंतजार है
फिलहाल तो इसी भ्रम में हैं कि सही वाला बटन कौन सा है
बेहतरीन संस्मरण के लिए बधाई
समीर भाई
ठीक है आज तक हम सोते रहे, गल्ती हमारी है मगर उन्होंने भी तो हमें जगाया नहीं. बल्कि हमारी नींद की आड़ में अपना उल्लू सीधा करते रहे. कैसे नहीं सुनेंगे हमारी वरना हम प्रतिकार करेंगे क्योंकि हम अब जाग गये हैं.
हमको जागना ही होगा हमारे न जागने का परिणाम था की हम गुलाम थे वो जो गोल फ्रेम के चश्मे के भीतर से जाग रही आंखों ने न जगाया होता तो सच हम आज भी ............!
समीर भाई
गांधी के लिए भारत भारतीयता भारतवासी और आज के लोगों के लिए भारत भारतीयता भारतवासी एक विपरीत सा दृश्य है कभी गौर किया आपने यदि नहीं तो इस टिप्पणी को देखिए:-"मगर यहाँ भी भारतीयपना दिखा जाते हैं.." मन आहत हुआ मेरा कोई बात नहीं भारतीयता की परिभाषा pd ने जैसी भी समझी हो कम अज कम गांधी ने भारत को इस निगाह से नही देखा था !
अनवरत शुभ कामनाओं के साथ
मुकुल
"
वह तो आप कनाडा में थे ,तो पीला बटन मौजूद था ..... बजाने के बाद आपको काफी भी मिली। इंडिया में एक तो पीला बटन होता नहीं .... मिल भी जाए तो यहां रहनेवालों को इस बटन को दबाने से कुछ मिलता नहीं है..... बहुत अधिक दवाब बनाने पर जान तक गंवानी पड़ती है। आपके आह्वान पर इतना रिस्क लेते हुए कौन आगे बढ़ेगा , यह देखनेवाली बात होगी।
achchi post. aapki neend/train ki tarah anteem chor tak padh dali.
हे राम! हे राम! हे राम!
भारत मे ऎसा कीसी के साथ होता तो पहले तो पकड कर कहते कूछ जेब भरो तब यहां से जाने देंगे।
आप कहते हैं तो बटन दबा ही दीया है।
पर बटन पर तो लीखा है "अपनी टिप्प्णी को प्रकाशित करें"
[मै लोगईन कर के कमेंट दे रहा हूं तो नही हो रहा है। ईस लीये नाम और पता से कमेंट कर रहा हूं]
आप हम तो जाग गए हैं समीर जी पर वे कब जागेंगे ? यहाँ तो इतनी देर में इनकाउन्टर तक हो जाय कि यह आतंकवादी यार्ड में पड़े ट्रेन में बम फिट कर रहा था .फर्क देखिये आपकी भूल पर भी आपको समान से काफी पेश की गयी !
vah sir maja aa gaya, sochta hun pili button ki khoj me nikal hi jaun, par kya karu. yaha to usake liye bhi ek lambli ladai ladni hogi, dhnyabad,
समीर जी..आप आप ही हैं...गज़ब की लेखन शैली...कहाँ की बात कहाँ ले जाते हैं और गहरी बात कितनी आसानी से कह जाते हैं...आप को पढ़के ये जानना कितना आसन हो जाता है की आप इतने महान क्यूँ हैं?
नीरज
जाग गये अच्छा लिया। अब करवट बदल के सो न जईयो।
समीर जी आप बिलकुल सही कह रहें हैं।
आप का हर लेख प्रेरणा देता है।
bahut achhi saarthak
वाह वाह बहुत अच्छा लेख
आपने घटना का बहुत सटीक चित्रण किया है.
बहुत शानदार
चर्चगेट की किसी गाड़ी में जो कारखाना जाने वाली होती, तो आपको मजा आ जाता। आपका लंच पैक स्ट्रीट अर्चिन्स चर्चगेट में उतार चुके होते। और स्टाफ को डांटने का जोखिम लिया होता तो आपको अपनी हड्डियां गिननी पड़ती शायद!
वैसे यह सही है कि मुसीबत में फंसने पर सबसे पहले भक्षणीय पदार्थ याद आता है! :)
बिना चिंता के केला खाने में जो सुख है वह किसी और चीज़ में नहीं.
अरे विलायती फूफा जी मैं तो यही सोच कर मस्त हो रहा हूँ कि गुस्से में आप का चेहरा कैसा लगता होगा. एक गुस्से वाली फोटो भी बगल-पट्टी में लगा दीजिये. ताकि आपके डर से सभी टाइम पर टिपियाते रहें.
समीर जी, यदि यह सत्य घटना है तो आप बहुत भाग्यशाली हैं।जो आप को रेलवे वालों ने काफी पिलाई।अगर यही घटना यहाँ घटती तो.....।सोच कर ही भय लगता है।
लेकिन इस रोचक प्रसंग के जरिए जो संदेश आपनें दिया वह बहुत प्रशंसनीय है।्बहुत बढिया व रोचक ढंग से लिखा है।वैसे तो हमेशा ही बढिया लिखते हैं। लेकिन यह बहुत बढिया है,बधाई स्वीकारें।
आपको तो पीला अलार्म दबाने के बाद हेल्प मिल गई थी यहाँ लोग अलार्म ही नहीं सुनते.
समीर जी , क्या कहे ये "पीला बटन" तो सबसे पहले हमारे दिल-दिमाग के switch बोर्ड पर जो लगा है, उसे दबाने का फर्ज बनता है..!! फ़िर और कहीं. वैसे पीले बटन की व्यवस्था , व्यवस्था में हर जगह उपलब्ध है और इसे अनेक कर्मठ जागरूक लोगों ने दबा कर सिद्ध किया है..जरुरत हमारे जैसे रिमोट धारी लोगों के जागने की है. पीला बटन दबायें क्योंकि यह कह रहे हैं....समीर भाई "लाल" जी.
bahut choti ghatna ko bade vyapak sandarbhon mein prabhavshali dhang sey likha hai.
उस पीले बटन को दबाना तो वो हर कोई चाहता है
जो शिकार है
मगर शिकारी ने उस पीले बटन के ऊपर भी जाल फैला रक्खा है की आओ बेटा कभी न कभी तो बौरावगे गरूर
ये तब के लिए है
आपका वीनस केसरी
सच पूछें तो दिल से आवाज़ आई कि लिखूं कि
आप महान हैं। बहुत बढ़िया ढंग से इस बात को समझाया है आपने अपने संस्मरण के साथ। मजा आगया। पहले हंसी आई शर्मिंदगी वाले प्रकरण पर फिर हंसे होठ वापिस अपनी मुद्रा में आगए। आपने इंजन का काम किया है देखिए कितने डिब्बे आपके साथ-साथ चल दिए।
बढिया व्यंग । समय आगया है कि हम पीला बटन दबायें । नही है तो अपना बनाकर दबाये सुनना ही पडेगा उन्हें ।
आपके सोने की बात से मुझे अपने बडे भैया के सोने की याद आ गई । उन्हें घर पहुंच कर दीदी को ससुराल पहुंचाने जाना था और वे ट्रेन में सो गये आगे निकल गये । घर ही नही पहुंचे, तो दीदी को क्या छोडते । हारकर पिताजी को ही जाना पडा था ।
समीर जी मजा आ गया, सोचो अगर भारत मे होते तो?????
अब भारत बाले जागे तो ही बात हे, अभी तक तो जहा पहुचे हे वह बिलकुल गलत रास्ता हे.अच्छा जी आप अपना प्रोगरम भी बताये कब आ रहे हे.ओर आप कॊ धर्म पत्नि का क्या हाल हे
धन्यवाद
sameer ji
badhaaiyaan
बहुत बढ़िया समीर भाई....
बात से बात निकलती चली जाती है आपकी लेखनी से ...मगर हमें कहानी सुनते हुए कभी झपकी नहीं आती...तब तक जब तक यह न जान लें कि इससे क्या सीख मिली...
और सीख तो आखिर में ही मिलती है न...
सो आपकी कथा भी पूरी पढ़ी...
शानदार-सार्थक पोस्ट
Aapke likhneke baareme mai kya kahun? Lekin aaj harwaqt wo geet yaad aata hai," Pyarkee raah dikha duniyako, roke jo nafratkee aandhee, tum mehee koyee hoga gautam, tum mehee koyee hogaa gandhee"...Jab Jagruti banee...kahan gaye wo din, jinhe swarajya aur surajya bananekee dhun thee, kahan gaye wo log? Ye to ham heeme kaheen hain...
पीला बटन ढूंढ़ने की कोशिश करनेवाले यहां बहुत कम हैं। हर दूसरे पखवाड़े एक धमाका हो रहा है, उड़ीसा समेत कितनी जगहों पर ईसाइयों पर अत्याचार हो रहा है। पर हमारी नींद नहीं टूटती और टूटेगी भी तो करेंगे क्या?
जाग जाएँ? हुम्म! सदियों पुरानी नींद है, आसानी से कहाँ टूटेगी!! :)
वैसे, आप यूँ न सो जाया कीजिए! घर से नींद पूरी करके निकलना चाहिए, मार्ग में सोना खतरनाक हो सकता है जब अकेले सफ़र कर रहे हों! ;) बाकी रही लोकेशन की बात तो आप GPS वाला मोबाइल ले लीजिए, कहीं खो गए तो कम से कम जान तो सकेंगे कि कहाँ पर हैं!! ;)
क्या ये सही बात है? आपने बहुत मजेदार तरीके से लिखा है.. "मुसीबत के समय के लिए कुछ तो बचा कर रखना चाहिये. मगर क्या करें इतनी दूर की सोच कहाँ? यह विचार आते ही, आधा पिया ज्यूस वापस बंद कर बैग में रख लिया".. दिमाग में उमड़ते विचारों को आपने एकदम सजीव कर दिया..
एक बार मैं भी एसे है रेल में सो गया दिल्ली से जोधपुर जा रहा था. जोधपुर आया तो में गहरी नींद में था... एक पुलिस वाले ने जगाया और कहा गाड़ी यार्ड में जा रही है.. उतर जाऒ.. है न हमारी पुलिस बेहतर? इसलिये हमारे यहां पीला बटन भी नहीं होता :)
बड़ा रोचक संस्मरण रहा ये भी।
padhte padhte hamare man mein bhi darr jam gaya tha,hush aakhir darwaza khula to sahi train ka,thik hi likha hai udanji aapne ab samay pila button dabane ka aagaya hai.baskaun dabayega?
kash! sabi log jag jate.
मजा आ गया पढकर, लेकिन पसीना भी छूट गया. मै तो डर जाता
साधुवाद..
(.आपकी ही कि टिप्पणी को कॉपी करके चेंप दिया है)
प्रणाम सर, अपने एकदम सही फ़रमाया अब हमारे जागने और अलार्म बजाने का समय आ गया है. कब तक हम समस्याओं को भगवान भरोसे छोड़ते रहेंगे. अब समय आ गया है की इस मानसिकता का त्याग करे और समस्याओं से निपटने के उपाय खोजे जाय. सर इस समय आलोक पुराणिक सर हमारी बिज़नस की क्लास ले रहे हैं. आप कैसे है सर..
Sameerji, Kya khoob kaha aapne. Sachmuch hum sirf doosron se he ye apeksha karte hain ki pahle wo kuchh kare aur khud kuchh karne ko taiyyar nahin hote. Haan vyavstha ko kosne mein peeche nahin rahte. Akhir samaaj hamin jaise logon se to banta hai. Aapka blog bahut pasand aata hai
यह सोना तो पीतल में बदल गया सोते सोते. खैर आप लौट कर सही सलामत वापस आ गए अपनी रोमांचक यात्रा पूरी कर के, यह जानकर खुशी हुई. यह भी अपनी ही तरह का अनुभव है.
शानदार विवरण. अच्छा लगा पढकर.
समीर जी, काफी बड़ी बातें कह गए आप. ख़ास बात ये है, कि देश के बहार रहते हुए भी आप इस कदर देश के बारे में सोचते हैं. ये वाकई तारीफ़ के काबिल है.
बहुत सुखद अनुभव होता है. प्रशंसनीय कदम.
आपका आभार.
नीरज
apki tippani ke liye danyawad.apka blog bahut hi rochak hai.
dr. jaya anand
आपको संस्मरणों का सरताज कहना पड़ेगा। लगा मैं भी आपका सहयात्री हूँ। लिखते रहिए हम पढ़ते रहेंगे।
bahut sunder rachana sir
phele to apka guidance comment ki shkal me milta raha
kya naraj he sir
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charan sparsh
regards
भारत में युग निर्माण वालो का नारा है " हम सुधरे जग सुधरा " परन्तु यहाँ पर समस्या यह है की सारा जग एक -दूसरे को सुधारने के प्रयत्नों में लगा है | जिस लोक तंत्र को अमरीका ने प्रत्यक्ष युद्ध से पाया और इंग्लॅण्ड men jisane परिपक्व होने में लगभग 350 वर्ष लिए वही हम बिना किसी सिद्धांत के मेहनत के पाना चाहते हैं |
1.... समीरजी उधार की सासों से जिंदगी नही जी जासकती | हमारा लोकतंत्र का आधार उधार का है |
2....जड़ों से कट कर बिरवा अपना मूल गुन - धर्म खो देता है |
इस विषय पर टिप्पणी से काम नही चलेग ; अपनी बात कहने और आप की चिंता को विस्तार देने के लिए पूरा पूरा लेख क्या पोथन्ना चाहिए | कनाडा में बैठ कर यहाँ का पीले बटन को खोज रहेंहैं ;अच्छा लगा किआप अपनी जड़ों से अभी भी जुडें हैं और उस जुडाव को महसूस एवं अभिव्यक्त करने में कोई ग्लानि -शर्म नही अनुभव करते हैं |
अपनो का
' कबीरा ,अन्यो नास्ति '
आप सोये भी तो क्या सोये … बस 50 मिनट। कुछ देर और सो लिये होते तो काहे ये नौबत आती।
फालतू मे इतना टेंशन ले लिया आपने ……
बताइये केले को भी रौद दिया…
भारत का भी यही हाल है हम यह सोचते हैं कि ज़रा और सो ले तो अपनी कट जायेगी बाकी जो पैदा होंगे वो जाने …
बहुत अच्छा …:)
मैं तो एक बार लिफ्ट में फँस गया था. बटन पर बटन दबाता रहा, किसी भाई के कान पे जून नहीं रेंगी.
काश इस मुसीबत से निकले ज्ञान से हम सब जाग जाएँ !
मुंबई में जो कुछ हुआ उसके लिया बहुत दुखी हूँ. मन हल्का करने के लिए यहाँ चला आया हूँ.
आपकी रचना पढ़ी, मन कुछ हल्का हुआ. मेरी बधाई स्वीकार करें
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