जिस दिन से कनाडा वापस आया हूँ, न जाने आँखे हर तरफ बस एक ही चीज खोज रही हैं-गमछा. बड़ा मिस कर रहा हूँ गमछे को.
गमछा मिस कर रहा हूँ इसलिये नहीं कि मैं पूरबिया भईया गमछा लपेटे नहाता होऊँगा या कंधे पर गमछा डाले खैनी दबाये गली गली डोलता होऊँगा बल्कि इसलिये कि इतने दिन भारत में रहे- जहाँ देखो वहीं गमछा. सफेद-और दूसरी वाली का उससे भी सफेद. क्योंकि शायद सर्फ से धुला होगा. अगर सर्फ का वो वाला विज्ञापन आज बने तो पंच लाईन होगी- भला उसका गमछा मेरे गमछे से ज्यादा सफेद कैसे.
जबलपुर में हर लड़की/ महिला जो भी सड़क पर दिख जाये वो ही चेहरे पर गमछा लपेटे, हाथों में कोहनी तक ढ़के दस्ताने पहने, सर पर टोपी, आँख पर काला चश्मा और एक डॉक्टरनुमा एप्रन पहने मिलेगी.
कल तो इतना मिस किया कि मैं गाने ही लगा-"हवा में उड़ता जाये, ये उजला गमछा मैडम का!!!
सुना था महिलाओं में एक दूसरे से ज्यादा खूबसूरत दिखने की एक इनबिल्ट होड़ की प्रवृति होती है. सुना ही क्या, महसूस भी किया है. मगर इस वेशभूषा में तो सभी एक सी दिखती हैं. रोड रोमियोज यानि सड़क छाप मनचलों की तो मानो दुकान ही बन्द हो गई. जेबकटी शाहर में एकाएक बढ़ गई. कारण पता किये तो मालूम चला कि छुट्ट्न भाई लोगों के पास कोई काम बचा नहीं तो जेबें काटा करतें हैं. बेचारों पर बड़ी दया सी आती है. कैसे छेड़ें, किसको छेड़े?
पता चले कि किसी को छेड़ दिया तो गमछा हटने पर अन्दर से ५५ वर्षीय माता जी नुमा महिला अवतरीत हो गईं या खुद ही की कोई परिचिता निकल आईं. बीबी निकल आये तब तो राम नाम सत्य ही समझो. कौन रिस्क लेगा भला ऐसे में.
छेड़ो भी, पिटो भी और अन्दर से निकली खब्बड़ कल्लो. कितनी तो जग हँसाई हो जाये.
एक दिन तो गज़ब ही हो गया. बैंक के बाहर खड़ा था. एक सुडोल (इसके अलावा तो कुछ भी दृष्टीगत नहीं था) कन्या ने आकर स्कूटी रोकी तो हावभाव देख बरबस ही नजर ठहर गई. फिर उसने अपने गमछा उतारा तो अन्दर से लड़का निकला. अब सोचिये, अगर कोई उसे छेड़ लेता तो कितना पंगा खड़ा हो जाता.
आजकल तो अगर कोई छेड़ाछाड़ी कर्म में लिप्त मिले तो जान लिजिये पक्का जुआड़ी है और ब्लाईन्ड खेलने का शौकिन.
मैं अपने आपसे प्रश्न करता रहा कि आखिर ऐसा क्या है जो एकाएक सब महिला वर्ग इतना लैस होकर सड़क पर निकलने लगा है. सुना था कि अब तो शहर की स्थितियाँ पहले से बहुत बेहतर हैं. पुलिस मुस्तैद हो गई है और अपराध भी कम हो गये हैं. प्रश्न अनुत्तरित ही बना रहा तब हार कर मैने एक महिला मित्र की शरण ली. मैने उन्हें अपनी जिज्ञासा से अवगत कराया तो वह खूब हँसीं.
कहती हैं कि आजकल भारतीय महिलाऐं अपनी ब्यूटी के प्रति बहुत जागरुक हो गई हैं. स्किन डेमेज न हो और सॉफ्ट एण्ड ग्लोयी बनी रहे, इसलिये सब इसे ढंक कर निकलती हैं.
मैने कहा , "और ये कैप?"
"इससे बालों की चमक बनी रहती है!" उन्होंने मेरी जिज्ञासा शांत करते हुए बताया.
मैं उनको धन्यवाद कर चला तो आया मगर सोचता रहा कि लाख ग्लोयी तव्चा बनी रहे, बाल चमकते रहें-फायदा क्या?? जब कोई उन्हें देख ही नहीं रहा. घर वाले देखें भी तो क्या? घर वालों को तो घर वाले जैसे भी हों यूँ भी प्यारे रहते हैं. हम खुद अपने कई घर वालों के रोल मॉडल हैं. उनके लिये सुन्दरता के मापदण्ड आपकी स्किन की सॉफ्टनेस, ग्लो और बालों की चमक का कोई मायने नहीं. यह सब तो बाहर वालों के लिये हैं और उस समय आप नख से शिख तक पूरा नकाबमयी हो लेती हैं तो सब बेकार गया. फिर कहते हैं हम वेस्टनाईज हो रहे हैं.
इस वेस्टन वर्ड में तो मैने किसी को गमछा लपेटते नहीं देखा. बल्कि हमारे यहाँ से उल्टा-जैसे जैसे गरमी बढ़ती है, वैसे वैसे कपड़े छोटे और कम. सरदी का अंतिम पड़ाव में तो जिम लड़कियों से भर जाते हैं. सब गरमी की तैयारी में वापस शेप में आ जाती हैं. सरदी में तो मोटे मोटे कपड़े के अन्दर कौन मोटा कौन पतला-पता ही नहीं लगता.
२४-२५ डिग्री पर तो शार्टस/ स्लिवलेस बनियान में आने लगते हैं सड़को पर. कपड़ो की साईज और संख्या गरमी के तापमान के वक्रानुपाती.
जिसकी जैसी स्किन, ग्लो या नो ग्लो, जैसे बाल, जितनी सुन्दर, कम सुन्दर-सब सामने. कुछ भी गमछे में लिपटा नहीं.
कभी सोचता हूँ कि यहाँ सड़कें कैसी दिखेंगी अगर तापमान दिल्ली वाला पहुँच जाये यहाँ ४५ डिग्री. सड़कें समुद्री बीच बन जायेंगी शायद और हमारा घर बीच फेसिंग.
चलो, अभी तो शौकिया खुद की इच्छा से यह महिलायें पर्दा किये हैं मगर शायद यही अगर मजबूरी में करना होता तो कितनी ही आवाजें उठ खड़ी होती कि महिलाओं को प्रताड़ित किया जा रहा है. पर्दा प्रथा नहीं चलेगी और यह सब आवाजें आती भी महिला खेमे से ही. वैसे, अगर मजबूरी होती तो आना भी चाहिये. :)
खैर, अब स्किन और हेयर का तो जो हो सो हो मगर नव युवाओं को यह खुले आम सड़क के किनारे, थियेटर या रेस्टॉरेन्ट में मिलने जुलने के बहुत अवसर उपलब्ध करा रहा है. पहले एक डर रहा करता था कि कहीं कोई पहचान का न देख ले. अब गमछा अपने अन्दर वो डर भी समेट ले गया. लोग गमछा लपेटे खुले आम मिल रहे हैं. बेहूदी हरकतें सड़क के किनारे खुले आम दिखना एक आम सी बात हो गई है.
बड़ा विशाल है- कभी सुन्दरता अपने अन्दर लपेट लेता है तो कभी डर और कभी हया !!!
धन्य है गमछा महिमा!!
मंगलवार, मई 06, 2008
गमछे की लपेट में
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45 टिप्पणियां:
कमाल की गमछा महिमा है। वो, गर्मियों में लड़कियों से भर जाने वाला जिम आपके घर से कितनी दूर है। :)
गमछा महिमा बढिया लगी। हां, हर्षवर्धन जी को उन के द्वारा मांगी गई सूचना कृपया ई-मेल करना न भूलियेगा। वैसे दुआ तो हमारी भी यही है कि वहां का पारा 20-25 से ऊपर न ही जाये तो बेहतर होगा......
हर्षवर्धन जी को जानकारी विस्तार में भेज दी गई है, हा हा!!!
गरमी मे गमछा महिमा .. क्या कहने आपकी सोच हमेशा हटकर निराली शानदार होती है . आपकी पोस्ट पढ़कर बहुत अच्छा लगा. आभार
फिर तो हमारा छोटा सा कस्बा ही ठीक है.
कम से कम हसीनाओं के दीदार तो हो जाया करते हैं.
पर यहां की जिमें बड़ी खराब हैं जी कोई नहीं आती वहां.
इसलिए हमें जिम पसंद ही नहीं.
भाई, साफ क्यों नहीं कहते कि सालों बाद तो अपने शहर की महिला(ओं) को छेड़ने का अवसर मिलता है पर इस बार जब विदेश से अपने शहर आये तो गमछे के कारण मौका ही नहीं मिला। बेड़ा गर्क हो गमछे का।
वाह ये गमछा महिमा तो बड़े कमाल की है..
आह क्या बात है दिल खुश हो गया।
भई वाह वाह
दिल्ली तक में गमछे कहां मिलते हैं आसानी से।
मैं तो अपने लिए गमछे आगरा से मंगाता हूं। एकाध फिलिम में शाहरुख या करीना गमछों का प्रयोग कर लें, तो गमछे नये बच्चों में भी चलने लगेंगे। डिजाइनर गमछों का विषय भी महत्वपूर्ण है, इस विषय पर चिंतन होना चाहिए।
मामला गडबड है,
badi hi dhasun post hai:);)gamcha kahani bahut rang layi hai.
ह्यूस्टन की गरमी का यही तो मजा है बारह महीने चकाचक :-)
वैसे गमछा केंद्रित पोस्ट बढ़िया रही, मन प्रसन्न हो गया |
यह भी खूब कही ।
गमछे वालों को नहीं,गमछे को ही नंगा कर दिया ।
शुक्र है कि यहाँ " गमछे के भीतर क्या है, गमछे के भीतर..." नहीं दिख रहा है ।
दद्दू, गमछे से पूरब वालों की अस्मिता नत्थी है ।
इसलिये गमछे को रहने दो ...गमछा ना उठाओ..गमछा जो उठ गया तो.... चलिये, छोड़िये ।
पोस्टिया बड़ी चौंचक है ।
सही है,जमाये रहिये.
-आलोक पुराणिक जी के अंडर ट्रेनी (काकेश)
क्या बात है....कहां से शुरू कहां खत्म किया है....पूरे पोस्ट में लग रहा था अच्छा अच्छा तो साहब ये कहना चाह रहे हैं...साहेब वो कहना चाह रहे हैं...लेकिन अंत में आकर वो बात कह दी है जो शायद गमछआ पर लिखने के पहले आई होगी....वो ये कि देखो तो महिलाओं को खुद तो पूरा शरीर ढक ले...यही घर से कोई कह दे कि जरा बडे बुजुर्गों के सामने पर्दा कर लिया करो तो...भीतर की नारी जाग जाएगी.....क्या गहराई से चीजों को पकड़तें हैं...लाजबाव....उम्दा
समीर भाई,
गमछा पर ऐसा समग्र चिंतन किसी ने नहीं किया था. भइया, ई गमछा ससुरा इतनी संभावनाएं समेटे बैठा है, किसे पता था? ई गमछे और पर्दा प्रथा के पुनरूत्थान के संबंधों की जांच के लिए एक कमिटी का गठन अति आवश्यक है.
बहुत मस्त और बहुत ज़बरदस्त.
आपकी बात पढ कर अपनी एक बात याद आ गई..
अभी मेरे एक मित्र नये-नये अमेरिका गये हैं(Ohio).. मैंने उनसे यूं ही मजाक में पूछा की कोई गोरी छोरी पसंद आयी या नहीं.. उनका जबाब ता सभी पसंद आ गई है, आजकल यहां गर्मी चल रही है सो तुम हालात समझ सकते होगे.. ;)
गमछा गाथा में आपकी चुटकिया पढ कर बस आज का दिन बन गया....:)
***राजीव रंजन प्रसाद
आप की पोस्ट पढ़ कर एक जबलपुर वाली हसीना की प्रतिक्रिया....
"ओह यू ओल्ड मेन क्या गमछा गमछा लिखता है? स्कार्फ लिखने में जोर आता क्या? गमछा...ओह नो वेरी मिडिल क्लास अप्रोच...जो स्किन हम दिन में धूप से बचाता वो ही रात में दिखाता....तुम नहीं समझेगा.... हम भी कनाडा की गर्ल्स के माफिक घूम सकता लेकिन तब तुम जैसे बुढ्ढा लोगों का क्या होगा..मालूम? बी.पी हाई... और दोष हम को देखा...इंडिया यू नो वेरी बैकवर्ड कंट्री स्किन दिखाओ तो प्रॉब्लम ना दिखाओ तो प्रॉब्लम..कूल रहने का मेन..चिल."
नीरज
गरमी में सुकून देने वाला "गमछापूर्ण" लेख… :) वैसे छेड़ने के शौकीन तो हम भी हैं, लेकिन सिर्फ़ तान और राग :)
गमछा महिमा में आपने हमारे दिल के दर्द को बस थोड़ा ही समेटा, अरे इस पर तो पुराण लिखा जा सकता है.. .
पुणे में भी यही हाल है, यहाँ आने के पहले बहुत सुना था कि बहुत कॉलेज हैं और लडकियां तो.... पर यहाँ आया तो पता चला कि सब गमछा महाराज ने छुपा रखा है, गमछा महाराज कि स्तुति करनी पड़ेगी अब तो...
भगवान् करे आपकी ख़बर उन तक भी पहुचे कि उस सुन्दरता का क्या फायदा जब देखने वाला ही ना हो :-)
गमछे में लपेट लपेट मारा है आपने..व्यंग्य और हास्य के इस समागम को पढ कर आनंद आ गया..
***राजीव रंजन प्रसाद
अगर आप बिन बुलाये हमारे घर पंहुच जायें तो गर्मी में हमे गमछा-बनियान में पा सकते हैं।
गौरांगी (फिरंगी) महिला और हिन्दुस्तानी देसी पुरुष के परिधान में न्यूनता संस्कृति का अंग है!
इन कन्यायो को जागरूक बने रहने दे साहब ..हम जैसे dermato logist को वरना कौन पूछेगा ....वैसे आप जब से गए है रोजाना इस मुए "भारत " को किसी ने किसी बहाने याद करते रहते है ...वैसे वहां लड़की कैसे छेड़ते है ,उम्मीद है कभी किसी पोस्ट मे पढने को मिलेगा.......पर आप को पढ़ना मेरी आदत मे शुमार हो गया है .कृपया "भारत प्रेम "बनाये रखे........
बहुत उस्ताद हो गुरू। गमछे से डरते भी हो और लिखते भी हो। जरा यहाँ भारत भूमि पर रहते हुए लिख कर देखते।
saadhu..saadhu...
जो नीरज गोस्वामीजी ने लिखा है
वह
डिट्टो
मज़ेदार लेख..पढ़ कर आनंद आया
समीर भाई,
सच !
महिलाओँ का इस तरह मुँह ढाँपकर स्कूटर चलाना ये नया शौक लगता है -
आज की महिलाएँ आज़ाद हो गईँ हैँ सोच मेँ और पहनावे मेँ भी -
अच्छा लिखा है -
लगता है अब गमछे पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ेगा.. खासकर लड़कियों को इससे उत्पति उत्पाद से दूर रहना होगा
समीर जी,हमे तो लुट लिया मिल के गमछे वालो ने छुपे छुपे गालो ने काले काले बालो ने, हर्षवर्धन जी जिम जाने की क्या जरुरत जिम के रास्ते पर भी काफ़ी कुछ दिख जाये गा,परियो के देश मे हमारे समीर जी
बहुत बढ़िया
जो राकेश खंडेलवालजी ने लिखा है
वह
डिट्टो :D
सच कहा आपने वह त्वचा ही क्या, वह बाल ही क्या जिन्हें कोई देख न पाए.....इस गमछा विरोध में हम आपके साथ है ....... गमछा हाय ! हाय !
कमाल की गमछा महिमा है। वो, गर्मियों में लड़कियों से भर जाने वाला जिम आपके घर से कितनी दूर है। :)
Shall I translate Hindi to English by using any translator website. If so please, inform me. I would like to read your articles. It seems ,it is to be read.
Jai Sai Ram
@ Kirtish Bhatt jI : आपसे एक आग्रह.. एक कार्टून बना ही डालिये इस पर भी.. :)
फेयर एंड हैण्डसम [ :-)] - सादर मनीष
"एक दिन तो गज़ब ही हो गया. बैंक के बाहर खड़ा था. एक सुडोल (इसके अलावा तो कुछ भी दृष्टीगत नहीं था) कन्या ने आकर स्कूटी रोकी तो हावभाव देख बरबस ही नजर ठहर गई. फिर उसने अपने गमछा उतारा तो अन्दर से लड़का निकला. "
हा हा हा हा हा हा .....क्या खूब लिखा . वास्तव में ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी . खूब हँसे थे उस दिन ..तब मैं ब्लागिया संसार से दूर था .
" जो हो सो हो मगर नव युवाओं को यह खुले आम सड़क के किनारे, थियेटर या रेस्टॉरेन्ट में मिलने जुलने के बहुत अवसर उपलब्ध करा रहा है. पहले एक डर रहा करता था कि कहीं कोई पहचान का न देख ले."
बिलकुल खरी सोच है . आजकल की नवयौवनाएं इसी डर की वजह से फिल्म देखते हुए भी बेनकाब नहीं होना चाहती .
बहुत दिन बाद आपके शब्द देखे . इतने दिनों में आपने काफी कुछ लिख डाला है ....
"एक दिन तो गज़ब ही हो गया. बैंक के बाहर खड़ा था. एक सुडोल (इसके अलावा तो कुछ भी दृष्टीगत नहीं था) कन्या ने आकर स्कूटी रोकी तो हावभाव देख बरबस ही नजर ठहर गई. फिर उसने अपने गमछा उतारा तो अन्दर से लड़का निकला. "
हा हा हा हा हा हा .....क्या खूब लिखा . वास्तव में ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी . खूब हँसे थे उस दिन ..तब मैं ब्लागिया संसार से दूर था .
" जो हो सो हो मगर नव युवाओं को यह खुले आम सड़क के किनारे, थियेटर या रेस्टॉरेन्ट में मिलने जुलने के बहुत अवसर उपलब्ध करा रहा है. पहले एक डर रहा करता था कि कहीं कोई पहचान का न देख ले."
बिलकुल खरी सोच है . आजकल की नवयौवनाएं इसी डर की वजह से फिल्म देखते हुए भी बेनकाब नहीं होना चाहती .
बहुत दिन बाद आपके शब्द देखे . इतने दिनों में आपने काफी कुछ लिख डाला है ....
हाय रे किसी का गमछा !
Kya baat hai badde.
Sanskrut ke zamaano kee yaad dilaa dee. dhatu "gum" pe gachh kaa tadka.
Sher arz hai-
vo naqaab utha rahe hain, zara dekhna sambhal ke !
kaheen khaaq ho na jaana, aie nigaahe shouq jalke !!
- Bavaal
gamachha sanskrit ka yadi yehi vikas raha to sanskriti ke rachhakon ko badi khusi ho rahi hogi.
समीरलाल जी
बहुत अच्छी गमछा चर्चा कर दी आपने। आम चीजों और आम भाषा को व्यंग्य और हास्य में जिसे गूँथना आ गया वास्तव में उसका लिखा लोकप्रिय हो जाता है। गमछे पर इतनी टिप्पणियाँ इसका परिचायक है।
कितना अंतर आ गया है समय के साथ .......... बचनेश ने कभी लिखा था -
घर सास के आगे लजीली बहू रहे घूँघट काढ़े जो आठौ घड़ी।
लघु बालकों आगे न खोलती आनन वाणी रहे मुख में ही पड़ी।
गति और कहें क्या स्वकन्त के तीर गहे गहे जाती हैं लाज गड़ी।
पर नैन नचाके वही कुँजड़े से बिसाहती केला बजार खडी।।
-(परिहास, पृ०-३०)वचनेश
very witty
gamche ka kya kehna aji jabalpur mein kai to sirf chehra dhakti hein
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