दफ्तर से घर लौट रहा हूँ. स्टेशन पर ट्रेन से उतरता हूँ. गाड़ी करीब ५ मिनट की पैदल दूरी पर खुले आसमान के नीचे पार्क की हुई है. थोड़ी दूर पार्क करके इस ५ मिनट के पैदल चलने से एक मानसिक संतोष मिलता है कि ऐसे तो पैदल चलना नहीं हो पाता, दिन भर भी तो दफ्तर में अपनी सीट में धंसे बैठे ही रहते हैं, कम से कम इसी बहाने चल लें. नहीं से हाँ भला. सेहत के लिये अच्छा होगा. दिल के एक कोने में खुद को हँसी भी आती है कि भला ५ मिनट सुबह और ५ मिनट शाम पैदल चलने से इस काया पर क्या असर होने वाला है मगर खुद को साबित करने के लिये उस हँसी को उसी कोने में दमित कर देता हूँ, जहाँ से वो उठी थी. सब मन का ही खेला है. अच्छा लगता है.
जब कार पास में खड़ी करता था, तब मन को समझाता था कि चलो, इसी बहाने शरीर को आराम मिलेगा. सुबह सोचता कि दिन भर तो खटना ही है और शाम सोचता कि दिन भर खट कर आ रहे हैं. अच्छा है पास में पार्क की. व्यक्ति हर हालत में अपना किया सार्थक साबित कर ही लेता है. अच्छा लगता है.
आज जब स्टेशन पर उतरा तो एकाएक बारिश शुरु हो गई. वहीं वेटिंग एरिया में रुक कर बारिश रुकने की प्रतिक्षा करने लगा. छाता आज लेकर नहीं निकला था और इस बारिश का देखिये. रोज छाता लेकर निकलता हूँ, तब महारानी गायब रहती हैं. आज एक दिन लेकर नहीं निकला तो कैसी बेशरमी से झमाझम बरस रही हैं. मानो मुँह चिढा रही हो.
कोई बच्चा तो हूँ नहीं कि बारिश की इस अल्हड़ता पर खुश हो लूँ. स्वीकार कर लूँ उसका नेह निमंत्रण. लगूँ भीगने. नाचूँ दोनों हाथ फेलाकर. माँ कितना भी चिल्लाये, अनसुना कर दूँ कि तबीयत खराब हो जायेगी. बस बरसात में उभर आए छोटी छोटी छ्पोरों के पानी में छपाक छपाक करुँ , आज पास खड़ी लड़कियों को छींटों से भिगाऊं और कागज की नाँव बना कर बहाने लगूँ. मैंढ़क पकड़ कर शीशी में रख लूँ. लिजलिजे से केंचुऐं पकड़ लूँ , वो पहाड़ के नीचे वाले बड़े नाले में से आलपिन से गोला बना कर मछली अटकाने के लिये.
हम्म!! ये सब तो बच्चे करते हैं. मैं तो बड़ा हूँ. पानी रुक जाने पर ही पोखरे बचाते हुए धीरे धीरे संभल कर कार तक जाऊँगा. कल फिर से तो दफ्तर जाना है. वो दफ्तर वाले थोड़ी न समझेंगे कि बारिश देखकर मैं बच्चा बन गया और लगा था भीगने. न, मैं नहीं भीगने वाला.
बहुत गुस्सा आ रहा है बारिश पर, बादलों पर, मौसम पर. क्यूँ मुझे बच्चा बनाने पर तुले हैं. वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब. इसलिये यह विचार त्याग कर सोचने लगता हूँ कि कैसे जान लेते हैं ये कि आज मैं छतरी नहीं लाया. दिन भर बरस लेते, कम से कम मेरे आने के समय तो ५ मिनट चैन से रह लेते. मगर इन्हें इतनी समझ हो, तब न! मैं भी किन मूर्खों को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ.
फिर अपनी खीझ उतार कर चुपचाप बारिश रुकने का इन्तजार कर रही भीड़ का हिस्सा बन जाता हूँ. यूँ भी तो ज्यादा जिंदगी भीड़ का हिस्सा बने ही तो गुजर रही है सबकी. जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं. तब आप अपने मन की नहीं करते जो भी करते हैं या तटस्थ भीड़ शामिल रहते हैं, वो ही तो भीड़ की मानसिकता कहलाती है. उस वक्त तो सब जायज लगता है.
अपनी गलती कौन मानता है कि छाता लेकर निकलते तो इन्तजार न करना पड़ता. मुझे तो सारी गलती बारिश, बादल और मौसम की ही लगती है. अच्छा लग रहा है अपनी खीझ उतार कर.
बस, इसी अच्छा लगने की तलाश में हर जतन जारी है.
पता नहीं क्यूँ, कार में बैठते ही मैथिली की यह कजरी झूम झूम के गाने का मन करने लगा, सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है:
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूँदिया बरिसन लागे न.....
आप भी सुनिये न!! विश्वास जानिये, अच्छा लगेगा!!!
गुरुवार, सितंबर 27, 2007
बड़ा अच्छा लगता है!!
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43 टिप्पणियां:
बहुत अच्छा लगा।
बाहर की प्रकृति से अंदर की प्रकृति की लयताल मिलाने की चाहत, फिर अपने अलग वजूद के गुम हो जाने की कसक...ऊपर से माटी की भाषा में यह कजरी। समीर भाई क्या गजब ढाते हैं आप। उठाकर गुजरे वक्त में जा पटकते हैं। नॉस्टैल्जिक बना देते हैं।
वाह. बहुत बढिया
बारिश की बूँदों का सुंदर चित्रण किया है आपने। आज हम भी सिएटल की वर्षा में भीगे हैं अतः महसूस कर पा रहे हैं आपके भावों को, गहराई से। बाकी मैथली गाना तो बढ़िया हइऐ है।
क्या बात है! ऐसे मनोभावों में तथा मौसम में तो कई कविताएं लिखी जा सकती है. लिखी क्या?
वैसे आपकी बात सोलह आने सही है की अपना समर्थक खुद को बना लेते है. संतोष मिलता है.
समीर जी मज़ा आ गया, लगा जैसे बौछारों में भीग ही गए .... कभी कभी बच्चे भी बन जाया कीजिये, कहे जो कहे दुनिया ...
मैं आज के हिंद का युवा हूँ,
मुझे आज के हिंद पर नाज़ है,
हिन्दी है मेरे हिंद की धड़कन,
सुनो हिन्दी मेरी आवाज़ है.
www.sajeevsarathie.blogspot.com
www.dekhasuna.blogspot.com
www.hindyugm.com
9871123997
सस्नेह -
सजीव सारथी
भाई दिव्य है.. मज़ा आ गया शुक्रिया
आसपास की छोटी-छोटी चीजों में बड़े बड़े मजे छिपे हैं, जिसने यह समझ लिया, उसे तो अच्छा सा ही लगता है और जी ये चश्मा कहां से लिया। बड़ा मारू टाइप है।
यह सही में ब्लॉग पोस्ट है. जो मन में है, वही हू बहू पोस्ट में उतरता है. वही कजरी में!
ये सारे साहित्यकार साहिय की बजाय ब्लॉग लिखें तो बार बार परिमार्जन से जो मिलावट आ जाती है - वह न आये और लेखन इतना बढ़िया हो जैसे यह पोस्ट.
बहुत अच्छा. धन्यवाद.
आपका लिखा हुआ हमें पढना अच्छा लगता है :) बदरी की यह तान सुनना अच्छा लगता है :)
शुक्रिया आपका इतना प्यारा गाना सुनाने के लिए ..मैंने पहले कभी नही सुना था :)
खास...मुझे भी स्टेशन से उतरने के बाद कोई पार्क मिल जाता ??
समीर जी
नमस्कार
आज सोचा कि एक लेख पढ़ कर पहले उसी की समीक्षा की जाए , फिर अगली रचना पढ़ी जाए । नहीं तो सारा समय पढ़ने में खत्म और घर के कामों का समय शुरू ।
"वैसे मन के एक कोने में यह भी लग रहा है कि फिर से बच्चा बन जाने में मजा तो बहुत आयेगा. मगर अब कहाँ संभव यह सब."
इन्सान के लिए कुछ भी करना असंभव नहीं
सच मानिए बच्चा बन कर जो आनन्द आता है उसका वर्णन करना आसान नहीं । एक बार रबर की नकली छिपकली लेकर अचानक डरा दीजिए और देखिए माहौल । हाँ अगर कोई बुरा माने तो सीधे कान पकड़ कर माफ़ी माँग लीजिए। क्या फर्क पड़ता है।
शरारताकाँक्षी
मीनाक्षी
आपका अनुभव पढ कर अच्छा लगा..
"जब आप आप नहीं होते बस एक भीड़ होते हैं." कितनी बड़ी बड़ी बातें कितनी सरलता से कह देते हैंं आप. शायद इसिलिये आपको पढ़ना बड़ा अच्छा लगता है. :)
सुंदर!!
यह सही है कि हम अपनी बात को अपने सामने ही सही साबित करने के लिए तर्क ढूंढ ही लेते हैं।
बस ज़रुरत इसी बात की है कि हम अपने अंदर छिपे बच्चे को कभी न मरने दें!!
वाह बहुत बढिया लिखा
ये तो आपने सही कहा कि हमें दूसरों पर गल्तियाँ थोपने की और उन उनमें ही कमियाँ निकालने की आदत होती है हम इंसानियत से मजबूर जो हैं,किन्तु एक बात सच है कि आपने बहुत सुन्दर तरीके से अपने भावों की गंगा बहाई है, जिसमें हम सब पाठकगण गोते लगाये बिना नहीं रह सकते ये मेरा दावा है और दावे सच भी होते हैं क्यों सही कहा ना? कोई शक? तभी तो आप ढ़ेर सारी बधाई के पात्र हैं , तो बधाई स्वीकारें देर किस बात की है ?
तो फिर याद रखियेगा अगली बार ऐसा मौका आये तो चूकियेगा नहीं फिर देखियेगा सब आपके साथ बारिश में कूद पडेगें...
चलो आप के साथ कनाडा की बारिश का मज़ा लिया.
लोकगीतों का अपना मजा ही कुछ और है, बहुत बढ़िया लगा।
लगे हाथ आप जरा इस गीत को सुनिये देखिये कितना आनन्द आयेगा, हाँ सुनते समय पूरी तल्लीनता से सुनें।
एक बात तो कहनी रह गई, मुझे बारिश में भीगने का इतना शौक है कि कई बार हम दोनों में निक झोंक हो जाती है। सौभाग्य से मैं बारिश में भीगने से कभी बीमार नहीं हुआ।
मेरा मानना है जो युवा बारिश में भीगने से डरता है तन से युवा भले ही हो,मन से वृद्ध हो चुका है; और जो वृद्ध बारिश में भीगने से नहीं डरता वह तन मन दोनों से युवा होता है।
आप अपने को किस श्रेणी में रखते हैं? :) :)
(स्माईली दो लगाये हैं)
कनाडा की बारिश और उसपर ये कजरी ।और लिखने का अंदाज । भाई वाह क्या कहने।
और हाँ आपकी नयी फोटो क्या इश्टाइल है।
यह आपका ब्लाग है या जीवन की पाठशाला.
खूब हँसों, फिर जरुरत पर गंभीर रहो, अपना भूतकाल मत भूलो, थोड़ा रो लो, नाचो, गाओ, खुश हो जाओ, तरक्की करो, विवाद मत करो, अन्य लोगों की प्रशंसा करो-एक सफल और समरद्ध जीवन के सारे गुर तो यहाँ पर हैं .
जिस तरह हमें है, उसी तरह आने वाली पीढ़ियाँ भी नाज करेंगी आपके ब्लाग पर. यह मेरा निश्चित विश्वास है.
आज मैं भी आपको साधुवाद कहता हूँ, समीर भाई.
-खालिद
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूँदिया बरिसन लागे न.....मैथिली की कजरी से जोड़कर अपनी बातों को बड़ी ही ख़ूबसूरती के साथ
प्रस्तूत किया है,अच्छा लगा। बधाईयाँ...../
भई मै तो आपकी तोन्द वाली बात मे ही अटक गया। जल्दी इससे पीछा छुडाए नही तो मै 'समीर जी और उनका व्यापक प्रसार' नामक नया ब्लाँग शुरू कर दूँगा।
बहुत सुंदर.....
हमारी जबलपुरिया ठाठ वाले संस्मरण की फरमाइश भी जल्दी ही पूरी कर दीजिएगा ।
फोटवा भी धांसू लगा लिया है आपने :)
आपके लिए जीतू भाई ने कुछ समय पहले कुछ टिप्स लिखे थे:
http://www.jitu.info/merapanna/?p=664
कमाल की लेखनी है आपकी, मनोभावों को कैसे सुन्दर तरीके से बयां करते हैं।
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पिछली कमेंट ज्ञानदत्त जी की पोस्ट पर थी, गलती से यहाँ प्रकाशित हो गई।
बडा अच्छा लगता है!! आपका ब्लॉग पढना..
वाह समीर जी़
अभी कल शाम ही कार्यालय से घर जाते हुये बारिश में भीगा था और आज आपकी यह पोस्ट पढ़ने को मिल गयी। वैसे इस तरह बारिश में भीगने का भी अपना ही मज़ा है।
बदरा उमरी घुमरी घन गरजे
बूदिया ब्ररिसन लागे ना
लोकगीतो मे जो बात सहज कही जा सकती है वह और कही कहा
आपका पूरा ब्लाग पढ गया
बधाई
अतुल
प्रस्तुति बहुत आकर्षक बन पडी है।
दीपक भारतदीप
आलेख की प्रस्तुति बहुत आकर्षक बन पडी है।
दीपक भारतदीप
कजरी और आपका लेख दोनों पसन्द आयें।
लेख और उस पर सोने का सुहागा - कजरी। कई बार सुनी, हर बार वैसा ही आनंद आया।
मगर खुद को साबित करने के लिये उस हँसी को उसी कोने में दमित कर देता हूँ, जहाँ से वो उठी थी. सब मन का ही खेला है. अच्छा लगता है.
सीट पर बैठे बैठे थोड़ा सा नाच भी लेता हूँ, कोई देख नहीं रहा. अच्छा लग रहा है.
वाह लालाजी बहुत सुंदर....बधाई
हँसी भी खूब आ रही है ...पर सह मानिये..
अच्छा लग रहा है
सच मे बहुत अच्छा लगता है, और उस पे वो लोकगीत बहुत मस्त लगा।
शुक्रिया इस कजरी को हम तक पहुँचाने के लिए!
हमेशा की तरह दिलचस्प लिखा है आपने। अपने आसपास की छोटी-छोटी बातों, अनुभूतियों को गुन-बिन कर उन्हें सुन्दर पोस्ट के रूप में परोसने की आपका कला पर बार-बार मुग्ध हो जाता हूँ।
मेरी मातृभाषा मैथिली की लोकप्रिय कजरी को सुनाने के लिए विशेष आभार।
कनाडा मे बारिश मे कजरी का भरपूर आनंद वो भी नाचने क़ी उमंग साथ लिए हुए | मन क़ी सुंदर भावनाओ क़ी सुंदर प्रस्तुति आपने सहज ढंग क़ी है | आप सराहना के पात्र है |
वाह !
एकदम समयानुकूल लेख पढ है आपका!
यहाँ भी चार दिन से वर्षा रानी गुवाहाटी पर कुछ ऐसे ही मेहरबान है ! जिसके परिणाम स्वरूप मौसम बड़ा जी सुहावना हो गया है, ठंडक भी बढ़ गयी है!
पर अचानक मौसम की यह अंगराई भी हमें रास नहीं आ रही है!
कारण?
दो दिन में घर शिफ़्ट करना है...किराए के मकान से आई आई टी के मकान में गृहस्थी फिर से सजानी है ...अगर यू ही बरसात होती रही तो यह काम कैसे निपटेगा?
पर मेरी व्यथा ये वर्षा रानी समझे तब ना !
आपका लेख बहुत अच्छा है बहुत पसंद आया!
लिखते रहिए,
हम आनंद लेते रहेंगे...
मेरे अन्दर छिपा इक बच्चा
बढा होने से डरता है
आज लौटा जो पलभर को बचपन में
तो अच्छा लगता है
आपके लिखने का तो मैं
कायल था हमेशा ही
आज जो देखा है आइना
तो अच्छा लगता है
संजय गुलाटी मुसाफिर
kishan ne kaha hai..........
mughe this website bahut hi pasand hai
Chutkule
husband - (high court main )- jaj sahab ham apne wife ko talak dena chahte hain.
wife(high court main )- jaj sahab mera pati bahut hi nikamma aur ghatiya insan hai.
jaj - "o" kaise ?
wife -jaj sahab hamse sara village happy hai aur mera hausband kahta hai ki main khrab hun.aur talak dena chahta hai
Thanks,
Kishan .................
"sayar"
aapse daily milne ki Ek AADAT si ho gai hai.na milne par DIL main ghabrahat si ho gai hai. aisa nahi ki gam ham par nahi hai, Lekin gam main bhi "MUSKURANE" ki aadat si ho gai hai.
Kishan Kumar (9312322933)
For rani and khusabu
Delhi
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