विकसित देश विकसित कहलाता
ही इसलिए है कि वहाँ साधन सम्पन्नता होती है. लोगों के पास विविध रोजगार के अवसर
होते हैं.बताते हैं विकसित देशों में भी जिस घर में स्वीमिंग पूल होता है, उसका
जलवा अलग होता है. उसमें रहने वालों के ठाठ बाट अलग होते हैं.
चार साल पहले देश में एक
फकीर निकला और जुट गया देश के विकास में. वादा जो किया था, वो उसको निभाता चला गया.
देश में विकास का करिश्मा ऐसा दिखा कि उस फकीर के शासन के चार साल बाद एक ऐसा देश
जहाँ ७० साल से विनाश के सिवाय कुछ भी न हुआ था, वहाँ आज एक ऐसा विकसित राष्ट्र है,
जहाँ हर नुक्कड़ पर रोजगार हैं और हर गली गली और मोहल्ला मोहल्ला स्वीमिंग पूल बन
गये हैं. हर जगह तैरने की सुविधा और हर तरफ तैराक हैं.
ओलंपिक खेल मिथ्या है.
वहाँ के तैराक मानव निर्मित तरणताल में तैर कर एक दूसरे को हराने में और एक दूसरे
से जीतने में लगे हैं. कोई स्वर्ण जीत कर खुश है और कोई रजत पाकर भी नाखुश. कोई
कास्य चमका रहा है तो कोई अपने न चयनित होने पर गुर्रा रहा है. ओलंपिक भारतीय
राजनित का दर्पण है. हर जीतने वाला सोचता है कि उसने जो कर दिखाया वो पिछले कई
दशकों में न हुआ.
इस बार गरमी भरपूर पड़ी.
जितने लोग गरमी से मरना चाहिये थे, उससे ज्यादा मर गये. यह पिछले ७० सालों की नाकामी
का नतीजा है ऐसा बताया गया और अगले चुनाव तक बताया जाता रहेगा. गरमी में टार उखड़
गये, तो जहाँ सड़कें थीं वहाँ भी गढ्ढे बन गये हैं. जहाँ इस वजह से गढ्ढे न बन
पाये, वहाँ सप्रयास शोचालयों के नाम से हफ्ते भर में ८ लाख शोचालयों के कीर्तिमान
के नाम पर ८ लाख गढ्ढे बना दिये गये.
फिर बारिश भी होने लगी.
बारिश में लोग पकोड़े खाते हैं और चूँकि माननीय ने पकोड़े छानने को राष्ट्रीय रोजगार
योजना का शिरोमणी घोषित किया हुआ है, तो बेरोजगार हर नुक्कड़ पर पकोड़े की दुकान खोल
कर रोजगार प्राप्त करने लगे. याने विकसित देशों की तर्ज पर रोजगार के अवसर गली गली
ऊग आये.
बारिश होने लगी तो रुकने
का नाम नहीं ले रही. गढ्ढे पानी से भरने लगे, जिन्हें स्वीमिंग पूल के रुप में
गरीब जनता को साहब का तोहफा माना जाना चाहिये और उसमें तैर तैर का तैराकी में
महारात हासिल करना चाहिये. मजबूरी में सही, देश तैराकों का देश बन जायेगा. फिर
ओलम्पिक में भी झंड़ा फहरा ही लेंगे.
मगर ये क्या? जल्द ही
बारिश के चलते बाढ़ आ गई. हाहाकार मचने लगा. पकोड़ा रोजगार नुक्कड़ से बह कर नाली में
चला गया और उसी में समा गया. कर्जा चढ़ा सो अलग. अब इसका ठीकरा भी कहीं तो फोड़ना ही
है अतः वजह पाई कि देश पिछले ७० साल से नालियों और निस्तार के साधनों में
प्लास्टिक भरता रहा है, तो हर तरफ बाढ़ का सा माहौल हो गया है. हमने तो विकास किया
है. यह पिछले वालों की ७० साल की मक्कारी है और आप मात्र ४ सालों में कैसे आशा कर
सकते हैं कि इसे निपटा दिया जायेगा?
घंसु आज पान के ठेले पर
तिवारी जी को बता रहे हैं कि उसने कहीं सुना है कि साहब आजकल चीन से एक ऐसी टेक्नोलॉजी
की बात करने बार बार आ जा रहे हैं, जिसे डिजिटल इंडिया के अजेंडा आईटम में भी रखा
गया है. इससे २०२२ तक देश में डिजिटल मीटर स्विच से तय किया जायेगा कि कितनी बारिश
चाहिये और बाकी की बारिश पड़ोसी राष्ट्रों को बेच दी जायेगी. फिर बाढ़ की समस्या
खत्म और बारिश से कमाई अलग से चालू.
घंसु आगे बोले कि सुना तो
मैने यह भी है कि उसी में एक स्विच सूरज की हीट कंट्रोल करने के लिए भी लगवा रहे
हैं ताकि गरमी की उचित मात्रा भी तय की जा सके मगर उसको बनने में जरा समय लगेगा और
बताते है कि वो शायद २०२६ तक तैयार हो जायेगा. राष्ट्र निर्माण में समय लगता है,
जब खुद करना होता है तब.
याने बारिश वाली
टेक्नोलॉजी से २०१९ का और सूरज वाली टेक्नोलॉजी से २०२४ का चुनाव तो जीत ही लेंगे,
तिवारी जी हँसते हुए घंसु से पूछ रहे हैं कि इतनी लम्बी लम्बी कहाँ से फेंकना सीख
लिए हो बे तुम?
घंसु मुस्कराते हुए
तिवारी जी को बोल रहे हैं कि वो जब मंच से फेंकते हैं तब तो आप उनसे नहीं पूछते.
हम तो चलो आपसे मसखरी में फेंक रहे हैं मगर सच बतायें तो चार साल में फेंकने में
ही तो देश ने महारत हासिल की है और विकास के नाम पर दिखाने को है ही क्या?
तिवारी जी आज पहली बार
घंसु से सहमत दिखे.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित
दैनिक सुबह सवेरे में रविवार ८ जुलाई, २०१८:
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