डेश बोर्ड, रिपोर्ट
कार्ड, पॉवर पाईन्ट डेक, स्कोर कार्ड की तरह ही न जाने कितने नाम हैं, जो कारपोरेट वर्ल्ड से
निकल कर पॉवरफुल सरकारी दुनिया में राजनिति चमकाने के लिए आ समाये. इनको बनाना,
इनको दिखाना, इनके बारे में बताना ही अपने आप में इतना भव्य हो गया कि जिन कामों
को दर्शाने के लिए यह सारे आईटम कारपोरेट वर्ल्ड में बनाये जाते हैं, वो यहाँ
नगण्य होकर रह गये.
फलाने मंत्रालय का
प्रेजेन्टेशन, सरकार का १०० दिन का रिपोर्ट कार्ड, स्मार्ट सिटी परियोजना का
डेशबोर्ड, फलाने मंत्री का स्कोर कार्ड तो खूब सुनाई पड़े और दिखे मगर कार्य क्या
हुए, विकास का क्या हुआ? वो ही न तो दिखाई दिया और न सुनाई पड़ा. धीरे धीरे इन
प्रेजेन्टेशनों की ऐसी धज्जी उड़ी कि विकास और क्या किया दिखाने की बजाये, पिछले ७०
सालों में क्या नहीं हुआ, वो दिखाने में ही मगन हो लिए. अब तो स्कोर कार्ड और रिपोर्ट
कार्ड के नाम पर पिछली सरकारों की नाकामियों की रिपोर्ट ही आती है. इनसे पूछो कि
चलो उन्होंने कुछ नहीं किया मगर तुमने क्या किया वो तो बताओ? इस पर वो कहते हैं कि
हमने इतनी रिपोर्टें बना डाली वो ही क्या कम है?
प्रेजेन्टेशन और
मार्केटिंग का जमाना है, फिर वो भले दूसरों की नाकामियों का ही क्यूँ न हो? जब खुद
से बड़ी रेखा न खींची जा सके तो दूसरे की खिंची हुई रेखा को पोंछ कर छोटा करने के
सिवाय और विकल्प भी क्या है, खुद को बड़ा दिखाने के लिए? अब तो हद यहाँ तक हो ली है
कि पोंछ कर छोटा करना भी बड़ा दिख पाने के लिए काफी नहीं है क्यूँकि कुछ दिखाने को
है ही नहीं, तो पूरा मिटा ही देने की कोशिश है. खुद उनके वरिष्ट कह गये कि कॉपी
में कुछ लिखा हो, तब तो नम्बर दूँ.
ऐसा माना जाने लगा है कि अगर
कुछ किया भी हो तो भी बिना प्रजेन्टेशन के लिए आजकल नहीं दिख पाता. इस चपेट में हम
लेखक वर्ग भी हैं. अखबार में छप भी गये तो संतोष नहीं है. हमें तो लगता है कि कैसे
सबको बतायें कि अखबार में छप लिए हैं. फिर अखबार की कटिंग फेसबुक पर, ईमेल से,
ट्वीटर पर, व्हाटसएप के सारे ग्रुपों पर, फेसबुक मेसेन्जर से, टेक्स्ट मैसेज से और
फिर ब्लॉग पोस्ट से. पढ़ने वाला थक जाये मगर हम बताते बताते नहीं थकते. हमारा बस
चले तो उसी अखबार में एक विज्ञापन भी लगवा दें कि देखो, हम फलाने पेज पर छपे हैं.
सरकारों का बस चल जाता है तो लगवाती भी हैं विज्ञापन कि देखो, हमने फलाँ जगह यह
किया, वो किया.
सोच की चरम देखो कि
फेसबुक पर लगाने के बाद भी यह चैन नहीं कि सारे मित्र देख ही लेंगे अतः उनको टैग
भी कर डालते हैं और ऊपर से छुईमुई सा मिज़ाज ऐसा कि कोई मित्र मना करे कि हमें टैग
मत किया करो, हम यूँ ही देख लेते हैं तुम्हारे पोस्ट, तो उसको ब्लॉक ही कर मारे कि
हटो!! हमें नहीं रखनी तुमसे दोस्ती. वही तो होता है वहाँ भी कि वो बोगस विडिओ भेजें
और आप उसका ओरिजनल विडिओ लगा कर बता दो कि तुमने बोगस डॉक्टर्ड विडिओ लगाया है.
बस!! आप देशद्रोही हैं और पाकिस्तान जा कर बस जाईये के कमेन्ट के साथ आप ब्लॉक!!
वैसे सच बतायें तो अखबार
में छ्प जाने से बड़े लेखक हो जाने की फील आ जाती है. जैसे की कोई सांसद सत्ता पक्ष
का मंत्री बन गया हो वरना तो होते तो निर्दलीय सांसद भी हैं. हैं भी कि नहीं कोई
जान ही नहीं पाता. मगर फिर भी निर्दलीय के सांसद होने और अनछपे के लेखक होने से
इंकार तो नहीं ही किया जा सकता है.
फिर सत्ता पक्ष का मंत्री
अपना चार छः गाड़ियों का असला लेकर सिक्यूरीटी के साथ लाल बत्ती और सायरन बजाते न
चले तो कौन जानेगा कि मंत्री जी जा रहे हैं. शायद यही सोच कर हम भी हर संभव दरवाजे
की घंटी बजाते हैं कि लोगों को पता तो चले कि हम अब वरिष्ट लेखक हो गये हैं.
देखो!! हम आज के अखबार
में छपे हैं.
-समीर लाल ’समीर’
जबलपुर के पल पल इंडिया में जुलाई ११, २०१८ को
प्रकाशित:
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