बचपन में हमारे शहर में
मेला लगा करता था और उसमें नौटंकी, नाच, दंगल आदि हुआ करते थे. दंगल में दारा सिंह,
चंदगी राम जैसे बड़े बड़े नाम आते थे और लड़ा करते थे. असल मुकाबला होता था. बहुत भीड़
लगा करती थी. तब असली घी का जमाना था, हर चीज असली हुआ करती थी. पता ही नहीं चला
कि कब असली घी से बदल कर बातें वनस्पति घी पर चली गईं और फिर सफोला और ओलिव ऑयल का
जमाना चला आया. सब कुछ फटाफट बदलता चला गया और हम देखते रह गये.
फिर भारत में टीवी आ गया.
असली दंगल नूरा कुश्ती में बदल गये. सब तय तमाम तरीके से दंगल अब स्टेजड टीवी पर
देखने लगे. ड्ब्लूडब्लूएफ पर नकली पहलवानी में लोग असली दंगल से ज्यादा रोमांच
पाने लगे और भूल गये कि हम अब भ्रम की दुनिया के वासी हो गये हैं. अब हम ब्रेड पर
भी मख्खन की जगह ओलिव ऑयल लगाने लगे हैं और एकच्यूल से वर्चयूल में बेटर नज़र आने लगे हैं.
हालांकि टीवी जब आया था
तो मात्र ३ घंटे को कृषि दर्शन, गीत माला, समाचार आदि लेकर आया था. मगर किसी भी लत
को लगाने के लिए यही तरीका तो होता है. पहले पहल दोस्त एक कश ही लगवाते हैं चरस
का. फिर चरसी आप खुद हो लेते हैं. फिर सुबह से शाम तक खुद ही नशे में डूबे रहते
हैं. उस तीन घंटे की टीवी नें सड़को से, खेल के मैदानों से, असल दुनिया से अलग कर
आज हजारों चैनलों के २४X७ के जाल में फंसा दिया है. उसी के एक्सटेशन में इन्टरनेट चरस से आगे ड्रग्स
का इन्जेक्शन बन कर ऐसा चिपक गया है कि आँखे खुलना भी बंद हो गई हैं. अब तो बच्चों
से भी बातें इन्टरनेट पर चैट से हो जाये तो ठीक वरना तो कोई और तरीका बर नजर नहीं
आता.
सपने में दिखा कि वक्त आ
रहा है जब धर परिवार में शाम को एक बार दिन भर का बुलेटिन एलेक्सा या सीरी जैसी
कोई एप १ मिनट में समराईज़ करके सुना देगी और आपको पता चल जायेगा कि कौन बीमार पड़ा,
किसे क्या खुशी मिली, कौन मर गया और कौन कितना दुखी है और कौन आपको कितना प्यार
करता है. जब से मिलना जुलना कम हुआ है, आई लव यू वाले ईमोटिकॉन कुछ ज्यादा बिकने
लगे हैं. अगले रोज आप भी एप पर ही ऑल द बेस्ट भेजते नजर आयेंगे.
आजकल मन भी जल्दी ऊब जाता
है लोगों का हर बात से, शायद यही फटाफट हो रहे परिवर्तन की वजह हो. कोई थम कर
एन्जॉय करना ही नहीं चाहता अपनी उपलब्धियों को. कल जिसकी चाह थी, उसके आज मिलते ही
अगली चाहत पंख पसार कर उड़ान भरने लगती है. लोगों का मन ड्ब्लूड्ब्लूएफ से भी भरना
ही था तो अब ये न्यूज चैनल उस गैप को भुनाने मे लगे हैं.
रोज शाम डीबेट के नाम पर
नूरा कुश्ती का आयोजन कराते हैं. हम समझते है कि देखो वो कितना बहस कर रहे हैं
हमारे लिए. वो देखो वो हार गया उस मुद्दे पर. वो देखो वो जीत गया. वो भारी पड़ गया.
वो उठ कर चला गया मगर दरअसल बात टीआरपी की है. जीतता चैनल है. हारता दर्शक याने
जनता और मुद्दा है. और पैनल पर आये बहसकर्ता और बहस कराने वाला टीवी का वो एंकर
बहस के बाद प्रेस कल्ब में जाम टकराते जश्न मनाते हैं कि अहा!! क्या बेवकूफ
बनाया!! मस्त टीआरपी मिली.
आजकल तो इन टीवी बहसों
में उत्तेजना को इतना बढ़ा देते हैं कि विभिन्न दलों के प्रवक्ता मारापीटी पर उतर
आते हैं. कौन जाने वो ड्ब्लूड्ब्लूएफ वाली स्टेज्ड मार कुटाई है या ६० और ७० के
दशक वाली दारा सिंह की असली कुश्ती?
सुना है आजकल तो प्रेस
कल्ब में ये सब जब बहस के बाद जाम टकराते हैं तो इस बात पर बहस कर रहे होते हैं कि
कल टीवी पर किस बात पर बहस करना है? विषय तय होते होते सब टुन्न हो लेते हैं इसलिए
अगले रोज बहस में आश्चर्यचकित नज़र आते हैं खुद के तय किये मुद्दे पर भी.
इस बदलती दुनिया की स्पीड
देखकर मुझे उम्मीद है कि कल को ये डीबेट भी अपना स्वरुप बदल लेंगी. पार्टियाँ
प्रवक्ताओं की जगह पहलवानों को भेजा करेंगी. टीवी स्टुडियो में कुर्सी और गोल टेबल
के बदले फाईटिंग रिंग हुआ करेगा. प्रवक्ता रुपी पहलवान एकदूसरे को पटक पटक कर मारेंगे.
टीवी एंकर एम्पायर होगा जो पहले से विजेता तय करके बैठा होगा. वो पिटने वाले को
इसलिए विजेता घोषित करेगा कि वो कितनी जबरदस्त तरीके से पिटा. पीटने वाला इसी में
खुश कि पीट दिया. जनता तो खैर हाथ मलने को बाध्य है ही सो वो भी हाथ मलेगी और फिर
सब भूल भुला कर ताली पीटने लगेगी.
चुनाव और टीवी की डीबेट
में इतना तो कॉमन है ही कि बेवकूफ जनता बनती है और बकिया शो और चुनाव पूरा होते ही
साथ में जाम खड़काते हैं और एक दूसरे के गले लग जाते है, चीयर्स बोलते हुए.
चीयर्स का मर्म अब तक कोई
नहीं जान पाया है.
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे में रविवार २२ जुलाई, २०१८ में प्रकाशित:
#Jugalbandi
#जुगलबंदी
#व्यंग्य_की_जुगलबंदी
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
4 टिप्पणियां:
राजनीती से हटकर जीवन की विसंगतियों का अवलोकन एवं समालोचन बहुत कठिन है और इसके लिए काफी चिंतन और प्रयत्न लगाते हैं।
इन विसंगतियों का बारीकी से विश्लेषण जन-सामान्य शैली में करना आपका कौशल है।
अगले लेख का ििइंतजआर
वाह! शानदार लेखन। ऐसा लगता है जैसे मुर्गे या तीतर लड़ा रहे हों, और दर्शक घर बैठे इनकी मूर्खता पर तालियाँ बजाता है। अति तो ये है कि ये जान लड़ाकर मरने मारने पर उतारू होकर पूरी ताकत से लड़ते हैं। तरस आता है इनपर 'बेवकूफ' कहींके... :)
जय। हो मान्यवर आपकी सोच की जो बिना नूरा कुश्ती के पहलवान और दर्शक सभी को चित्त कर रहीं है
... शानदार लेखन।
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