छेड़छाड़ का इतिहास तो बहुत पुराना है. हमारे समय में कोई मोहल्ला, कोई शहर और कोई प्रदेश इसके लिए कुख्यात हुआ करते थे. लेकिन कुख्यात होना अपनी जगह था और कहीं ज्यादा कहीं कम की
मात्रा में लड़कियों से छेड़छाड़ आम बात थी. जैसे कभी कुख्यात
चंबल में पाये जाते थे तो फिर संसद में पाये जाने लगे. मगर उनके लिए विधानसभा से
लेकर ग्राम पंचायत तक एकमोडेशन हर श्रेणी में उपलब्ध तो थी ही. ऐसे में लड़कियों को
बचपन से समझाया जाता था कि सर झुका कर चलो. किसी अनजान लड़के की
तरफ आँख ऊठा कर मत देखो. दुप्पट्टे के बिना मत निकलो और न जाने क्या क्या? लड़को के लिए कोई सीख नहीं दी जाती थी घरों में. मानो चोर
पकड़ने की बजाय चोरी की रपट लिखवाने आये पीड़ित की थाने में क्लास ली जा रही हो कि
घर में कैश और जेवर मत रखो. घर में हर वक्त कोई न कोई रहे, कभी ताला लगाकर घर अकेला मत छोड़ो. जब तक इनकी क्लास चल रही है तब तक वही चोर किसी और के घर
में हाथ साफ करके इन्हीं थानेदार मास्साब से हिस्सा बाँट करने की तैयारी कर रहा
होता है.
फब्ती, सीटीबाजी, आँख मार देना, बाजू से स्कूटर या साईकिल से लड़की को छूते हुए
निकल जाना तो एकदम न के बराबर छेड़खानी माना जाता था. मानो पटवारी या कोई बाबू काम करने के १००/५० रुपये मांग रहा हो तो इसमें शिकायत क्या करना? इससे ज्यादा तो शिकायत लिखवाने और उस पर कार्यवाही करवाने
में खर्च हो जायेंगे और काम न होगा सो अलग. समाज यह मान कर चलता
था कि लड़कियाँ सड़क पर निकली हैं तो मनचले किस्म के लड़के इतना कुछ तो करेंगे ही. लड़कियों को भी लालन पालन के दौरान ऐसी मानसिकता पनपा दी
जाती थी कि वो भी इसे सामान्य सी घटना मान कर एक हल्की सी घुटन के साथ मौन सह जाती
थीं. घर आकर बतायें भी तो क्या?
हाँ, जब छेड़छाड़ का स्तर
इतना बढ़ जाता था कि लड़का रास्ता रोकने लगे, जोर जबदस्ती करने लगे, बात सहनशीलता की सीमा पार करने लगे तब जाकर लड़कियाँ किसी
तरह अम्मा को आकर या घर में बड़ा भाई हो तो उसे बताया करती थीं. भाई या पिता जी दमदार रहे तो लड़के को पकड़ कर बुलावाया जाता था. पिटाई की जाती थी और लड़की से उसको राखी बँधवा कर उससे लड़की
के पैर छुलवाये जाते थे और इस वादे के साथ छोड़ा जाता था कि अगर इसके आस पास भी नजर
आये तो हाथ पैर तुड़वा देंगे. और अगर पिता और भाई दमदार न रहे तो अगले दिन से भाई की
ड्यूटी लग जाती थी कि उसे कालेज तक छोड़ कर आये और शाम को लिवाता आये. पुलिस में इस तरह की छेड़खानी की रिपोर्ट लिखवाने का न तो
रिवाज था और न वे लिखा करते थे. पुलिस के पास ज्यादा कमाई वाले कामों से इतनी
फुरसत ही कहाँ होती थी कि छेड़छाड़ रोकने जैसी समाज सेवा करे?
एकाएक कभी शहर की पुलिस अपने आपको मुस्तैद
दिखाने के लिए, चुनाव में अपनी ताकत दिखाने के लिए रोड़ शो और
रैली निकालने टाईप के अंदाज में, मजनू पकड़ अभियान चला दिया करती थी. लड़कियों के कालेज और स्कूल के आसपास से निकलते लड़को को बिना
जाने परखे पकड़ पकड़ पुलिस मारा करती, कभी लम्बे बाल वाले लड़कों के बाल बीच से काट
देती, तो कभी लम्बे चौड़े बेलबोटम का बेल काट देती. दो तीन दिन मुस्तैदी से अभियान चलता. धरपकड़ की तमाम तस्वीरों के साथ अखबार इस अभियान की खबर से
पट जाते. शहर मान लेता कि सब सेफ है इस शहर में. अभियान खत्म हो जाता और फिर ढाक के वही तीन पात. मानो चुनाव जीत लिया है, अब काहे का रोड़ शो और काहे की रैली. अगले चुनाव के पहले फिर दिखा देंगे अपनी ताकत एक बार और.
तब छेड़छाड़ को सभी छेड़छाड़ पुकारते थे और इसका
अधिकतम जीवनकाल छेड़छाड़ से शुरु होकर सहन कर जाने से आगे जाकर लड़के की पिटाई या भाई
के संग कालेज आने जाने पर आकर मुश्किल से दो चार दस दिन में समाप्त हो लेता था..फिर कोई नई छेड़छाड़, नया मनचला आ जाये तो
अलग बात..मगर कोई इसे दिल से लगाये जीवन नहीं गुजार देता
था.
आजकल की तो हर बात निराली. गरीब मजदूर साईकिल से २५ किमी चलाकर काम पर रोटी कमाने जाये
तो बेचारा गरीब मजदूर और रईस दो रोटी खाकर उसे पचाने के एक ही जगह खड़े खड़े ५ किमी
साईकिल चलाये तो वाह!! वर्क आऊट..कार्डियो..और फिटनेस फ्रीक...काम एक ही..नजरिया अलग अलग.
वही हाल छेड़छाड़ का हो लिया है. गरीब की बेटी से हो तो छेड़छाड़..इसका क्या नोटिस लेना. ये तो हमेशा से होता आया है. मगर रईसों के बीच हुआ तो सेक्सुअल हैरासमेन्ट, मुकदमा और
कम्पन्शेशन. मानो छेड़छाड़ न हो मानहानि हो गई हो..गरीब मजदूर का तो कोई मान है ही नहीं..तो पब्लिक में लतिया भी दो तो हानि कैसी? मगर वही किसी नेता, किसी नेता के बेटे
बेटी, किसी दमदार व्यवसायी के खिलाफ सच भी बोल दो तो ५
करोड़ से तो मिनिमम मानहानि का मुकदमा शुरु होता है..इससे नीचे का दायर करेंगे तो खुद की ही मानहानि करा बैठेंगे
समाज में आजकल..लोग कहेंगे बस्स!! इत्ती सी कीमत मानहानि की? मान की कीमत स्टेटस सिंबल है भले ही करमों और कारनामों की
तराजू में तौलो तो कौड़ी भर की कीमत न निकले.
सेक्सुअल हैरासमेन्ट महज हवाई जहाज में पैर टकरा
जाने से लेकर कँधे पर हाथ रख देने तक से हो सकता है और उसके आगे के करम तो वाकई
सेक्सुल हैरासमेन्ट की श्रेणी में हैं मगर कब और कैसे, यह दीगर विषय है. इस हेतु
हैरासमेन्ट का मुआवजा मांगने की भी कोई एक्सपायरी नहीं है. जितना बड़ा छेड़ने वाले का नाम, उतना बड़ा छिड़ जाने वाली के मुआवजे का दाम. सन १९८२ से १९८७ तक ये मुझे छेड़ते रहे, का दावा सन २०१७ में
३० साल बाद? फिर एक के दावे के पीछे पीछे १० और लड़कियों का
दावा..मानो कोई जेबकतरा स्टेशन पर पकड़ा गया हो और लोग
मिलकर उसे अपनी पांच साल पहले कटी जेब को याद करके लतिया रहे हों..मारो मारो..
वैसे ही सेक्सुअल हरासमेन्ट का एक मुकदमा दर्ज होते ही..कितने सारे और लोग निकल कर
आ जाते है कि हाँ हाँ, इसने मुझे भी छेड़ा था १९९२-९४ के टाईम फ्रेम में, जब मैं किचन में पानी लेने गई थी और इसने मुझे पीछे से आकर मेरे
कँधे पर थपथपा कर पानी मांग लिया था. पूछा गया कि आपने उस समय ३० साल पहले इसकी
शिकायत दर्ज क्यूँ न कराई तो एक बोली कि उस समय मुझे समझ ही न आया कि ये छेड़छाड़ है. उस समय तो इसी की बदौलत इन्होंने अपनी फिल्म में मुझे काम
दिया तो कमाई हो रही थी. अब जब उम्र गुजरी तो कमाई रुकी तो सोचने को समय
मिला ओह!! इसने तो मुझे छेड़ा था और कमाई का अब जरिया भी
क्या है. मानो जिन्दगी भर दो नम्बरी काम करते रहे और जब
बुढ़ापा आया तो साधु बनकर ज्ञान बांटने लगे कि दो नम्बर के
काम करना बुरी बात है. दूसरी कह रही है कि वो पहली वाली ने जब मुकदमा दायर किया तब
मैने दिमाग पर जोर डाला तो मुझे भी इसकी छेड़छाड़ याद आई तो मैने भी मुकदमा दायर कर
दिया. तीसरी कहती है कि मैने तो इस मुकदमे को देख कर
जाना कि इसे छेड़छाड़ कहते हैं तो मैने भी लगा दिया.
ऐसा नहीं कि मैं सेक्सुअल हैरासमेन्ट का विरोध
नहीं करता और ऐसा भी नहीं कि लड़कियों के द्वारा इस तरह के हैरासमेन्ट के खिलाफ
आवाज उठाने की हिम्मत को मैं सलाम नहीं करता मगर एकाएक इस तरह से जब इतने पुराने
पुराने वाकिये एक ही व्यक्ति के खिलाफ एक ही समय में निकलते हैं और फिर चेन
रिएक्शन की तरह दूसरे नामी के खिलाफ..फिर तीसरे के खिलाफ..मानो एक दौर आ गया हो जब
हर सेलीब्रेटी और नामी पैसे वाला इसकी चपेट में आये जा रहा हो..तब सोचना मजबूरी हो
जाती है.
कभी कभी तो ऐसे मुकदमे डरा देते हैं कि कहीं कभी
हम सेलीब्रेटी या बड़े वाले देश के सेनेटर वगैरह हो लिए तो स्कूल के समय की कोई बाल
सखी आकर मुकदमा न दायर कर दे कि टीप रेस (आईस पाईस) खेलते समय ये मेरे साथ एक ही पेड़ की ओट में आकर छिप लिये थे..और फिर बाकी की बाल सखियाँ आयें और मुकदमा लगायें कि मेरे
साथ चट्टान की पीछे छिपे थे तो कोई इस बात का ही मुकदमा लगा जाये कि सबको छेड़ा और
हम छिड़ने को तैयार थे तो भी न छेड़ा..मुझे इग्नोर करके मुझे हीन भावना से ग्रसित
करने के लिए इन पर ५ करोड़ का मुकदमा..
नया जमाना नई सोच. कौन जाने कब कौन किस छेड़छाड़ में धरा जाये..
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के दैनिक
सुबह सवेरे के दिसम्बर १८, २०१७ के अंक में प्रकाशित:
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2 टिप्पणियां:
छेड़-छाड़ का मनोविज्ञान मज़ेदार रहा वर्णित किया समीर जी,
म.प्र. के लड़के बड़े सीधे-सरल हुआ करते थे उस ज़माने में (घामड़ नहीं ),अब कहाँ है छुट्टी बच्चों को कि आईस-पाईस खेलें .
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ’चापलूसी की जबरदस्त प्रतिभा : ब्लॉग बुलेटिन’ में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...
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