मैं उससे कहता कि यह सड़क मेरे घर जाती है- फिर सोचता कि भला सड़क भी कहीं जाती है. जाते तो हम आप हैं. एक जोरदार ठहाका लगाता और अपनी ही बेवकूफी को उस ठहाके की आवाज से बुनी चादर के नीचे छिपा देता.
फिर तो हर बेवकूफियाँ यूँ ही ठहाकों में छुपाने की मानो आदत सी हो गई. आदत भी ऐसी कि जैसे सांस लेते हों. बिना किसी प्रयास के, बस यूँ ही सहज भाव से. इधर बेवकूफी की नहीं कि उधर ठहाके लगा उठे और सोचते रहे कि इसकी आवाज में सब दब छुप गया- अब भला कौन जान पायेगा?
यूँ गर कोई समझ भी जाये तो हँस तो चुके ही है, कह लेंगे मजाक किया था.
उम्र का बहाव रुकता नहीं और तब जब आप बहते बहते दूर चले आये हों इस बहाव में तो एकाएक ख्याल आता है कि वाकई, एक मजाक ही तो किया था. अब ठहाका उठाने का मन नहीं करता. एक उदासी घेर लेती है ऐसी सोच पर. और उस उदासी की वजह सोचो- तो फिर वहीं ठहाका- बिना किसी प्रयस के- सहज ही.
कहाँ चलता है रास्ता? कहाँ जाती है सड़क? वो तो जहाँ है वहीं ठहरी होती है. हम जब चलते हैं तब भी ठहरे से. सुबह जहाँ से शुरु हों- शाम बीतते फिर उसी बिन्दु पर.
हासिल- एक दिन गुजरा हुआ. हाँ, दिन चलता है. चलते चलते गुजर जाता है- जैसे की हमारी सोच, हमारे अरमान, हमारी चाहतें. सब चलती हैं- गुजर जाती हैं. ठहर जाता हूँ मैं- जाने किस ख्याल में डूबा- उस रुके हुए रास्ते पर- सड़क कह रहा था न उसे. जो जाती थी मेरी घर तक.
वो कहता कि सड़क जाती है वहाँ जो जगह वो जानती है. अनजान मंजिलों पर तो हम उड़ कर जाते हैं सड़क के सहारे. एक अरमान थामें.
मगर सड़क जायेगी घर तक. तो मेरी सड़क क्यूँ नहीं जाती मेरे उस घर तक- जहाँ खेला था बचपन, जहाँ संजोये थे सपने- अपने खून वाले रिश्तों के साथ.
कहते हैं फिर कि वो जाती है उन जगहों पर जिसे वो जानती है.
बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहाँ मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है. मकान नहीं पहचानती सड़क- घर रहा नहीं. कई बरस हुए उसे गुजरे.
तो खो गया फिर उस रुकी सड़क के उस मोड़ पर- जहाँ से सुबह चलता हूँ और शाम फिर वहीं नजर आता हूँ इस अजब शहर में- जो खोया रहता है बारहों महिने- छुपा हुआ कोहरे की चादर में. किसी बेवकूफी को ढापने का उसका यह तरीका तो नहीं?? एक ठहाका लगाता हूँ- ये मेरा तरीका पीछा नहीं छोड़ता और रास्ता है कि चलता नहीं.
तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूँ तो पहाड़ी की ऊँचाई...जिसे छिल छिल कर बनाये छितराये चौखटे मकान...अलग अलग बेढब रंगों के...कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की..हा हा!! मेरा ठहाका फिर उठता है और यह शहर- छिपा देता है उसे भी अपनी कोहरे की चादर की परत में...और मैं गुनगुनाता हूँ अपनी ताजी गज़ल.....
गज़ल जरा डूब कर सुनना तो सुनाई देगी इसी कोलाज़ की झंकार धड़कन धड़कन:
भले हों दूरियाँ कितनी कभी घर छोड़ मत देना
हैं जो ये खून के रिश्ते , उन्हें तुम तोड़ मत देना
उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की
खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना
गमकती खुशबू कमरे में उतरती है झरोखे से
वो डाली मोंगरे वाली कभी तुम तोड़ मत देना
बरसती खुशियाँ तुम पर हों रहो हर हाल में हँसते
मिले कोई दुख का मारा तो नज़र को मोड़ मत देना
पड़ी है नीचे सीढ़ी के पिता की वो छड़ी अब भी
सहारा उनकी यादों का कहीं तुम तोड़ मत देना
-समीर लाल ’समीर’
68 टिप्पणियां:
वाह ..दिल की बात दिल तक पहुंची है ,
बरसती खुशियाँ तुम पर हों रहो हर हाल में हँसते
मिले कोई दुख का मारा तो नज़र को मोड़ मत देना.....
komal ehasas ki sundar rachna!
कहाँ से कहां पहुँचा दिया आपने !
स्मृतियों का यह कुहासा, वर्तमान पर अपना माया-जाल डाल देता है .
कोहरे की चादर में छिपा कितना कुछ...!
सुन्दर ग़ज़ल!
वाह बहुत बढ़िया ...कोहरा है या यादों की चादर ..
अति सुंदर रचना.
Aapke lekhan pe tippanee de sakun is qabil apne aap ko nahee samajhtee!
कहाँ है वो राह जो तुम तक पहुँचती है....
दिल को छूकर निकल गयी गज़ल.....
और दिल अटका है वहीँ...उसी सड़क पर....
सादर
अनु
बड़ी सुंदर ग़ज़ल है समीर जी.. पढ़वाने का शुक्रिया...
सहारा उनकी यादों का कहीं तुम तोड़ मत देना .. भावमय करते शब्दों का संगम यह अभिव्यक्ति ... आभार
हर उम्र के लिए ...कुछ न कुछ सीखने के लिए यहाँ उपलब्द है...,.
गहराई और एहसासों से भरा सब .....
आभार!
शुभकामनाएँ!
मुझे नहीं पता की किन भावों को मन में समेट कर यह लिखा है आपने.. पर पढते वक्त आखें नम हो आयीं, भले ही कुछ व्यक्तिहत कारणों से ही सही.
मकानों में रहते बहुत साल गुजर गए.. अब घर याद आता है मुझे. पता नहीं कौन सा रास्ता ले जा पायेगा मुझे मेरे घर तक.. कोई रास्ता है भी ऐसा या नहीं- ये भी नहीं पता. पर जो भी हो, घर याद आता है मुझे.
कृपया !मेरी टिप्पणी स्पैम से निकालें!
खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना.......lazabab hai.
एक हासिल दिल साथ चलता है, बात गाँठ बाँध ली है।
सच में कभी - कभी घर भी गुजर जाता है .....(
कहाँ से लेकर चले थे और कहाँ पहुंचा दिया? घर और मकान के अंतर को यदि हम स्वीकार कर ले तो फिर एक ही घर में दीवारें न खिंचे और वो तो न भी खिंचे जो अंतर में खड़ी कर रहे हें दीवार वो किसने देखी है ? पिता की छड़ी कोई नहीं देखता, उनकी संपत्ति दिखाई देती है उसके हिस्से में भागीदारी उनके पुत्र या पुत्री होने का प्रतीक है और क्योंकि छड़ी अब काम नहीं देगी पिता के सहारे के अहसास अब किसी को जरूरत नहीं रही.
बताते हैं कि सड़क के उस मुहाने पर जहाँ मेरा घर होता था, अब एक मकान रहता है. मकान नहीं पहचानती सड़क- घर रहा नहीं. कई बरस हुए उसे गुजरे.
उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की
खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना
जख्म हरे कर दिए ! बहुत समय बाद आना हुआ लेकिन आकर अच्छा लगा !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (09-06-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
अब क्या कहे. आपके लिखे के शैदाई है .. शैदाई सही शब्द है क्या ? शायद . पर इस बार की गज़ल ने आँख में नमी ला दी .. कहीं कुछ रुका हुआ है समीर जी...वापस मुडकर देखता हूँ.
बहुत बढिया गजल !!
कोहरा तो हमेशा से ही पीछा कर रहा है हम सब को घेरने का.....लेकिन जैसे जैसे उम्र बढती है.. उस का एहसास ज्यादा ही होनें लगता है...स्वानुभव है...
सचमुच सुनाई दी इस कोलाज़ की झंकार धड़कन धड़कन... कोमल अहसास से भरी सुन्दर गज़ल... आभार
हमें मालूम फ़्रिस्को में बड़ी है व्यस्तता लेकिन
उसे निन्यानवे के फ़ेर से तुम जोड़ मत देना
हमें मालूम फ़्रिस्को में बड़ी है व्यस्तता लेकिन
उसे निन्यानवे के फ़ेर से तुम जोड़ मत देना
भोगा गया यथार्थ हो जैसे, जिंदगी का फलसफा भी, और अपने वतन की यादें.... बहुत मर्मिक..
Bahut hi shandar.Ektarfa behatarin.
सुन्दर भावो को रचना में सजाया है आपने.....
एक खूबसूरत सी प्रस्तुति |
पुश्तैनी यादों की बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति|
यादों के खजाने की अति सुन्दर अभिव्यक्ति |
उड़न तश्तरी ...कोहरे के आगोश में
सुज्ञ जी के सौजन्य से
बरसती खुशियाँ तुम पर हों रहो हर हाल में हँसते
मिले कोई दुख का मारा तो नज़र को मोड़ मत देना
अर्थपूर्ण , अनुकरणीय विचार लिए पंक्तियाँ
सतीश जी,
कोहरे का सौजन्य तो स्वयं शीत 'समीर' का है। :)
भले हों दूरियाँ कितनी कभी घर छोड़ मत देना
हैं जो ये खून के रिश्ते, उन्हें तुम तोड़ मत देना
bahut sundar bhavapoorn prastuti . abhar
भले हों दूरियाँ कितनी कभी घर छोड़ मत देना
हैं जो ये खून के रिश्ते, उन्हें तुम तोड़ मत देना
bahut sundar bhavapoorn prastuti . abhar
भले हों दूरियाँ कितनी कभी घर छोड़ मत देना
हैं जो ये खून के रिश्ते , उन्हें तुम तोड़ मत देना... वाह
sameer ji bahut achhi prastuti hai ,bilkul sateek
mere bhi blog par padharen.
bahut achhi prastuti hai Sameer ji ,bilkul sateek
mere bhi blog par padharen
रूला दिया समीर भाई।
कौन है जो पढ़ना शुरू करे और डूब न जाय!
उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की
खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना...
संमीर भाई ... आप हम सभी उस गुल्लक को ले के ही ती चले थे अपनी यादों के संदूक में ... वो कभी नहीं फूटने वाली ...
मेरे घर के आँगन,वो हँसी आज भी हैं
सबका साथ बैठा कर ,गप्पे मारना आज भी हैं
घर की दीवारों में ,बसते हैं सबके प्राण आज भी
मिल बैठ कर ,सुखदुख बांटना आज भी हैं ||....अनु
आपकी ग़ज़ल दिल को छू गयी...आपा-धाँपी में बहुत दूर निकल गये हैं हम...और ये सड़कें तो खुद तो कभी मंजिल पे पहुंचतीं नहीं...हमें गुमराह और कर रक्खा है...
इन उम्र से लम्बी सडकों को मंजिल पे पहुंचते देखा नहीं...
बस दौड़तीं फिरतीं रहतीं हैं हमने तो ठहरते देखा नहीं...
गद्य और गज़ल दोनों बहुत ही सुंदर ! हम ही चलते हैं लेकिन पूछते यही हैं कि यह सड़क कहाँ जा रही है?
हर शेर उम्दा है लेकिन इसके कोमल अहसास तो वाह!
waah!!! kavita kii tarah lekh aur kavita kii tarah kavita!! bahut khoob! :)
लगता है सेन फ्रांसिस्को में आपका मन नहीं लग रहा है.
दिल का दर्द खूबसूरती से उंडेल दिया है आपने.
हमें बताया गया था कि कई जगह तो इतना कोहरा और धुंध हो जाती है कि सूरज के दर्शन नहीं हो पाते.
समुन्द्र और पहाड़ियां.. हाँ... वो काले पानी जैसा टापू
कितनी शील मछलियाँ थी फिशरमन वार्फ पर..बाप रे बाप....नाचती,कूदती शोर मचाती.
अंतिम पंक्तियाँ ग़ज़ल की बेहतरीन और उतना ही खूबसूरत पोस्ट..
Sir ji ........
aapki rachna or ghajal padhakar hamare dil me dard aa gaya ,aapke dil ki haalat ka andaja lagana jara mushakil hai.
शानदार रचना है सर
हिन्दी दुनिया ब्लॉग (नया ब्लॉग)
तो कुछ कदमों पर समुन्दर है और पलटता हूँ तो पहाड़ी की ऊँचाई...जिसे छिल छिल कर बनाये छितराये चौखटे मकान...अलग अलग बेढब रंगों के...कहते हैं यह सुन्दरता है सेन फ्रान्सिसको की..हा हा!!
याद दिला दी सैन-फ्रांसिस्को की ।
गज़ल तो कमाल की
आंखें डबडबा गईं ।
काफी दिनों बाद आपके ब्लॉग पर आया ... वही पुराने अंदाज़ में लिपटी सनी पोस्ट. मोगरे की खुशबू बिखर गयी हरसू इस शेर को पढने के बाद---
गमकती खुशबू कमरे में उतरती है झरोखे से
वो डाली मोंगरे वाली कभी तुम तोड़ मत देना
bahut acchi lagi sameer ji
भाव विभोर करने वाली प्रस्तुति है .उम्दा लिखा है .
उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की
खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना
बहुत संवेदनशील रचना ....
कुछ-न-कुछ लगातार टूट रहा है, छूट रहा है...
कुछ-न-कुछ लगातार टूट रहा है, छूट रहा है...
कुछ-न-कुछ लगातार टूट रहा है, छूट रहा है...
कुछ-न-कुछ लगातार टूट रहा है, छूट रहा है...
बहुत ही भावना पूर्ण प्रस्तुति जिसके इर्द -गिर्द सत्य मंडरा रहा है |
saras gazal.
बचपन की यादों में डूबी सुंदर प्रस्तुति ...
उसी घर के ही आँगन में बसी है याद बचपन की
खज़ाना बंद गुल्लक का कभी तुम फोड़ मत देना
खूबसूरत गजल
wah jahan tak ja rahi hai rah ..bas wahi tak..bas wahi tak hai hamari thah..aabhar
प्रभु ये कैनेडा से आपकी दूरी कहीं आपके मिजाज़ को संजीदा न बना दे...बहुत फिलासफिकल बातें करने लगे हैं आप...अरे ठहाका लगा कर गम बुलाइए और अपने रंग में लौट आईये...बहरहाल आपकी ग़ज़ल का गुल्लक वाला शेर...उफ़ यूँ माँ टाइप का है...बधाई स्वीकारिये...दोनों हाथों से...
नीरज
राकेश जी का टिप्पणी में दिया शेर काबिले गौर है.
पड़ी है नीचे सीढ़ी के पिता की वो छड़ी अब भी
सहारा उनकी यादों का कहीं तुम तोड़ मत देना
wah bahut khoob chhadi ka sunder prayog bahut sunder bhav
rachana
बड़ी सुंदर ग़ज़ल है समीर जी
सुंदर भाव सुंदर प्रस्तुति.
बहुत ही भावना पूर्ण प्रस्तुति
काश कोई सड़क वापस जहाँ हम चाहे वही जा सकती ..उदास होने के भी नियम होते हैं शायद ..बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट और यह शेर..........
बरसती खुशियाँ तुम पर हों रहो हर हाल में हँसते
मिले कोई दुख का मारा तो नज़र को मोड़ मत देना
खूबसूरत...
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