सोमवार, अप्रैल 02, 2012

शान्ताराम-एक नज़र!!

फरवरी १४, तब मैने लिखा था कि शायद १७०० पन्नों की ई बुक शान्ताराम की शुरुवात ही है- वाकई ९८८ पन्नों की पुस्तक- परन्तु ईबुक में पन्ने बढ़ जाते हैं. आज १ अप्रेल- खत्म हुई पुस्तक. मानो एक युग का अन्त हुआ. यह ४५ दिन- सुबह शाम ४५-४५ मिनट इस पुस्तक का अध्ययन चलता रहा- सप्ताहंत छोड़ कर. बस और ट्रेन में-ऑफिस जाते और आते वक्त. आस पास का कुछ ध्यान न रहता. बस, पुस्तक में मन रचा बसा रहता. लेखन की महारत ऐसी, कि लगे पुस्तक के साथ उसी जगह खड़े हैं, जहाँ घटना घट रही है. कभी कहानी में गोली चलती, तो इतनी जीवंत कि मैं कँधा किनारे कर लेता गोली से बचने के लिए. एक एक महक- एक एक दृष्य़ जीवंत- अंत तक.

कहानी का नायक लिनबाबा उर्फ शान्ताराम, उसका आस्ट्रेलिया से जेल तोड़कर भारत का सफर, प्रभाकर नामक एक भले टूरिस्ट गाईड बालक के साथ मुलाकात, मुम्बई में आजीविका के लिए गैरकानूनी कामों में जुड़ना, महाराष्ट्र में प्रभाकर के गांव की ६ माह की यात्रा, पुनः मुम्बई वापसी, दोस्तों की मण्डली, झोपड़पट्टी में जाकर रहना, वहाँ के गरीबों के लिए क्लिनिक चलाना, मुम्बई के गैंगस्टरों से जुड़ना, उनके साथ काम करना, आर्थर रोड़ जेल की यात्रा और यातना, कालरा नामक गर्लफ्रेण्ड का बनना, मैडेम जाहू के चुंगल से कालरा के कहने पर लीसा को वेश्यावृति से उबाराना, लीसा का दोस्त बन जाना और फिर फिल्मों में विदेशी एक्स्ट्रा स्पलाई करने में उसके साथ पार्टनरशीप, मुम्बई के माफिया डॉन का खास हो जाना, उसके साथ पासपोर्ट, करेन्सी का धन्धा, ड्रग्स में डूब जाना और फिर उबरना, अफगानिस्तान में पाकिस्तान के रास्ते मुजाहिद्दुन लड़ाकों को मुम्बई माफिया डॉन के साथ अस्त्र शस्त्र पहुँचाना, दोस्तों के मर्डर और मौतें, खून खाराबा, लड़ाई झगड़े, दिल से जुड़ते बेनामी रिश्ते, कुछ रिश्तों को वो नाम देना जिनसे पहले किनारा कर आया, क्रिमन्लस की जिन्दगी के अनेक पहलूओं पर नजर डालती पुस्तक पूरे समय अपने साथ बाँधे रखती है. पुस्तक में रोमांच है, रोमान्स है, एक्शन, स्टंट, क्राईम से लेकर धर्म, दर्शन, अध्यात्म सब कुछ है.

फिर भी न जाने क्यूँ-अंत तक पहुँचते हुए ऐसा लगता है कि युवाओं को जो जिन्दगी की लड़ाई की शुरुवात कर रहे हैं- उन्हें इस पुस्तक को नहीं पढ़ना चाहिये. मेरी यही व्यक्तिगत सोच है. शायद क्राईम की दुनिया का ग्लैमर किसी को भा ना जाये, यह डर लगता रहा पुस्तक खत्म करके.

अंत भी ऐसा होता कि किए की सजा भुगत रहा हो तो भी बेहतर होता किन्तु अंत एक खुला छूट गया है इतनी बड़ी पुस्तक होने के बाद भी. अंत बहुत जल्दबाजी में समेटा गया लगा- अन्यथा एक पुस्तक का उद्देश्य कि समाज को कुछ अच्छा संदेश देकर जाये, वो अवश्य पूरा किया जा सकता था.

फिर भी लेखनशैली, व्याख्या, एक एक संदर्भ पर बगैर कौतोही बरते विस्तार से विवरण तो सीख लेने लायक है. तो मिलीजुली प्रतिक्रिया यही है कि इसे एक लेखक की दृष्टि से लेखन की सीख लेने के लिए अवश्य पढ़ना चाहिये किन्तु पुनः वही भय- कहीं कोई युवा इसके प्रभाव में बहक न जाये.

Shantaram

पुस्तक पढ़ते पढ़ते-उसमें जाने अनजानों से बनते जुड़ते रिश्तों को अहसासते कुछ पंक्तियाँ यूँ भी उभरी:

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

अजनबीपन..

परिचय की ओट में

सिर छुपाये बैठा

और

उस अजनबीपन की नदिया

जिन पर बनते हैं

रिश्तों के पुल

बिलकुल

नदिया पर बने

पत्थर के पुल की तरह ..

टूट भी जाये

वो पुल...

या

तने रहें दृढ संकल्पित...

नदिया बहती रहती है

अपनी धुन में...

कल कल- छल छल!!!

जैसे कोई भी रिश्ता

अविरल..

अविचल..

और निश्छल.....

-समीर लाल ’समीर’

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76 टिप्‍पणियां:

मथुरा कलौनी ने कहा…

समीर जी आपने सही कहा। लेखक के पास कथ्‍य कम है, लेखन शैली में ही भरो
सा है। और विस्‍तार है।

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

यह पुस्तक पढ़ती रही कब तक छोड़ने का मन नहीं हुआ , पढ़ने के बाद लगा बेकार पढ़ी !

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

समीर भाई आप की अतुकान्त कविताएँ बेहतरीन होती हैं।

Arvind Mishra ने कहा…

हे मैंने सोचा आपकी लिखी है !

vijay kumar sappatti ने कहा…

कविता ने निशब्द कर रखा है ...

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

आपकी कविता बहुत सुन्दर....
दीमक एक सकारात्मक रोल में!!!!!!

पुस्तक मौका लगा तो ज़रूर पढेंगे.......क्यूंकि अब अपने बहकने के दिन तो निकल गए....

सादर
अनु

विवेक रस्तोगी ने कहा…

हमारे पास तो अब तक रखी है, अभी हिन्दी की किताबें इतने सारी कतार में हैं और कल फ़िर २-३ खरीद ली हैं, अब ये ई-बुक के लिये जल्दी ही कोई टेबलेट लेते हैं।

पर एक बात तो है जो मजा अपनी भाषा में पढने/लिखने में आता है वो मजा फ़िरंगी भाषा में नहीं है।

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

समाज के लिए प्रेरक नहीं बन सके ऐसी पुस्‍तकें चाहे कितनी ही अच्‍छी प्रकार से लिखी गयी हों, उनका वजूद लम्‍बा नहीं होता।

राजेश उत्‍साही ने कहा…

आपकी पोस्‍ट पढ़कर भवानीभाई की एक कविता याद आ रही है-
कुछ लिखकर सो
कुछ पढ़कर सो
जिस जगह पे जागा तू
उस जगह से आगे बढ़कर सो।

मुझे लगता है कम से कम यह उद्देश्‍य तो पूरा हुआ ही आपका।

पी.एस .भाकुनी ने कहा…

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!...............

अशोक सलूजा ने कहा…

सच! समीर भाई जी ....
काश!! कोई दीमक
रिश्तों के अजनबीपन को
चाट पाती!!!..
शुभकामनाएँ!

सञ्जय झा ने कहा…

अविरल..

अविचल..

और निश्छल.....

pranam.

डॉ टी एस दराल ने कहा…

पुस्तक अंडरवर्ल्ड पर आधारित लगती है . थ्रिलर तो लगेगी ही .
एक विदेशी द्वारा देसी पात्र पर लिखना दिलचस्प रहा .
बढ़िया निष्पक्ष समीक्षा .

Maheshwari kaneri ने कहा…

.बेहतरीन भाव...

Maheshwari kaneri ने कहा…

.बेहतरीन भाव...

devendra gautam ने कहा…

टिप्पणी सारगर्वित...नज़्म जोरदार...

दिगम्बर नासवा ने कहा…

रिश्तों को अगर दीमक चाट पाती तो शीरी फरहाद, लैला मजनू के किस्से नहीं बनते ... पुस्तक का सारांश है या कुछ और ... पर रिश्तों की नमी बरकरार है ...

P.N. Subramanian ने कहा…

पुस्तक समीक्षा अच्छी रही. मुझे भी लगा कि युवाओं के लिए यह खतरनाक साबित हो सकता है. उसमें इतना सब कुछ होते हुए भी लगता है नैतिक मूल्यों का लोप है. आपकी कविता अलबत्ता बड़ी भली लगी "नदिया बहती रहती है अपनी धुन में..."

shikha varshney ने कहा…

यह पुस्तक तो कोई ब्लाक बस्टर मसला फिल्म की कहानी लग रही है.
कविता बढ़िया लगी.

Shikha Kaushik ने कहा…

ab to ye kitab padhni hi hogi ...tabhi comment karna thheek hoga .
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Shikha Kaushik ने कहा…

nice post .thanks
YE HAI MISSION LONDON OLYMPIC-LIKE THIS PAGE AND SHOW YOUR PASSION OF INDIAN HOCKEY -NO CRICKET ..NO FOOTBALL ..NOW ONLY GOAL !

सदा ने कहा…

बहुत ही अच्‍छी प्रस्‍तुति

कल 04/04/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.

आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!


... अच्छे लोग मेरा पीछा करते हैं .... ...

Dr Xitija Singh ने कहा…

किताब तो मैंने नहीं पढ़ी है समीर जी ... मगर आपकी कविता बेहद पसंद आई ... शुभकामनाएं

ghughutibasuti ने कहा…

देखिए मैंने तो पहले ही कह दिया था कि शायद मैं इस पुस्तक को न ही पढूँ. आप पढ़कर राय दीजिएगा. बचा लिया न आपने एक युवा मन को दुष्प्रभाव से! :D
आभार.
घुघूतीबासूती

rashmi ravija ने कहा…

ये किताब भी पढ़ी जाने वाली लिस्ट में थी..पर १५०० पेज वाली मैक्सिमम सीटी ने इतना थका दिया कि हिम्मत नहीं हुई....पर लोगो की प्रतिक्रिया है कि मैक्सिमम सीटी ज्यादा रोचक है..दोनों ही किताबें मुंबई की अँधेरी दुनिया के जनजीवन पर आधारित हैं.
जब १७०० वाली पढ़ ली..तो फिर १५०० पेज वाली कि क्या बात..वो भी पढ़ डालिए..

मुझे भी लेखन से कुछ दिनों का ब्रेक लेकर ढेर सारी किताबें पढनी हैं...इसे भी जरूर पढूंगी...वैसे भी पढ़ने में कोई खतरा नहीं..जिंदगी की लड़ाई तो अब समापन की ओर है..:)

संजय भास्‍कर ने कहा…

कविता बेहद पसंद आई

Anupama Tripathi ने कहा…

पुस्तक के विषय में जान कर तो ठीक लगा ...पर आपकी कविता .....गजब है ...

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Bahut khub!

रचना दीक्षित ने कहा…

पुस्तक समीक्षा बहुत संतुलित लगी पर नज़्म का जवाब नहीं.

तने रहें दृढ संकल्पित...
नदिया बहती रहती है
अपनी धुन में...
कल कल- छल छल!!!
जैसे कोई भी रिश्ता
अविरल..
अविचल..
और निश्छल.....

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

वाह बहुत उम्दा प्रस्तुति!
अब शायद 3-4 दिन किसी भी ब्लॉग पर आना न हो पाये!
उत्तराखण्ड सरकार में दायित्व पाने के लिए भाग-दौड़ में लगा हूँ!
बृहस्पतिवार-शुक्रवार को दिल्ली में ही रहूँगा!

Shiam Tripathi ने कहा…

smaadk mhodya ji nmskaar

vi shaantaaram ke vishy meny aapki tiipdi dekhkr mn chhobhit huaa. yhaan to deepk ke neeche andhera dikha. Lekin hmen jo hmaare paas nhin hain unke gunon ko yaad karnaa chaahiye aisa mera apnaa vichaar hai . Shiam Tripathi

Vaanbhatt ने कहा…

जीवन तो नदिया सा ही होना चाहिए...निर्मल निश्छल आदि से अंत तक...पर इसके किनारे शहर बसे हैं...जो अपनी गंदगियाँ इन्ही नदियों में तिरोहित कर देते हैं...समीक्षा पसंद आई...और सारांश कविता भी...

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

यह तो भरी पूरी कहानी लगती है, आराम से बैठकर पढ़ी जायेगी।

वाणी गीत ने कहा…

रोचक कहानी है शांताराम की ....
कविता अच्छी लगी !

Nidhi ने कहा…

शांताराम के विषय में जानकारी हेतु धन्यवाद!!दीमक वाला बिम्ब अच्छा लगा .

Smart Indian ने कहा…

अच्छी लगी समीक्षा! और हम एक और पुस्तक पढने से बच भी गये!

Rajesh Kumari ने कहा…

pustak ki vivechna aur usse prerit hokar likhi kavita tatha book ko padhne ke baad uvaaon ke liye diya hua sandesh .....bahut sarahniye hain.

नीरज गोस्वामी ने कहा…

प्रभु इस किताब को न जाने कितनी बार "क्रासवर्ड" और "लैंडमार्क" की शेल्फ में से निकाला, पलटा और छोड़ दिया. इतनी मोटी भारी भरकम किताब को पढने का साहस नहीं जुटा पाया. हर महीने में तीन चार बार मुंबई से जयपुर तक की हवाई दूरी के दो घंटों के दौरान मैंने पिछले कई सालों में न जाने कितनी किताबें पढ़ डालीं लेकिन "शांताराम " मेरे साहस को हमेशा चुनौती देती रही...आज आपने जोश दिला दिया है...अब ये किताब पढके ही छोडूंगा...मुझे नहीं मालूम था इसमें रोचकता का इतना मसला भरा पड़ा है जिसके उपयोग से यश राज फिल्म वाले एक नहीं बहुत सारी ब्लाक बस्टर फ़िल्में बना सकते हैं...

नीरज

नीरज गोस्वामी ने कहा…

आप बहुत गंभीर टाइप की कविता रच दिए हैं...अगर ये शांताराम पढने के प्रताप का असर है तो हम इस किताब को नहीं न पढेंगे...वैसे हमारी सोच विवेक रस्तोगी जी से बहुत अधिक मिलती है...विदेशी किताब क्यूँ पढ़ें जब अपनी भाषा में एक से बढ़ एक किताबें मौजूद हैं...:-)))

नीरज

Indian Wedding ने कहा…

i read & like your post, this is great story !!! thanks for sharing

http://www.bigindianwedding.com

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

अच्छी चर्चा की ही पुस्तक की .... आपके लिखे अनुसार अब व्यर्थ ही होगा पढ़ना ...

कविता बहुत अच्छी लगी

तने रहें दृढ संकल्पित...

नदिया बहती रहती है

अपनी धुन में...

कल कल- छल छल!!!

जैसे कोई भी रिश्ता

अविरल..

अविचल..

और निश्छल.....

जो रिश्ते निश्छल होते हैं वो ही नदिया से बहते हैं ...

विष्णु बैरागी ने कहा…

पुस्‍तक की बात अपनी जगह। मुझे तो आपकी कविता का यह नया प्रतिमान लुभागया -

काश,
कोई दीमक,
रिश्‍तों के अजनबीपन को
चाट जाती।

यह प्रतिमान पहली ही बार नजर से गुजरा है।

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

लो जी कहानी का टोपिक बता दिया ..अपना मत भी दे दिया लेखक कौन है बताया ही नहीं .....?
अच्छा जी पुस्तक पे देख लें ....?

आपने एक पाठक तो (नीरज जी ) तैयार कर ही लिया ...:))
(वैसे नीरज जी ऐसी पुस्तक घर में रखना भी ठीक नहीं )

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

अजनबीपन..

बहुत खूब ....

ये पंक्तियाँ तो गज़ब की लिखी हैं आपने ....

अब एक और काव्य संकलन तो आ ही जाना चाहिए ....:))

PRAN SHARMA ने कहा…

SAMEER JI ,AAPKEE KAVITA BAHUT ACHCHHEE LAGEE HAI . BADHAAEE .

PRAN SHARMA ने कहा…

SAMEER JI ,AAPKEE KAVITA BAHUT ACHCHHEE LAGEE HAI . BADHAAEE .

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

अच्छी समीक्षा है. नहीं पढेंगे अब :) :)

KAVITA ने कहा…

bahut badiya sameeksha ke baad umda kavita padhna achha laga..

Rachana ने कहा…

aapki kavita sada hi bahut sunder hoti hai rahi baat pustak ki to aapki baat sahi hai ki ant bahut hi machchha hona chahiye varna padhne ka aanand chala jata hai
saader
rachana

पश्यंती शुक्ला. ने कहा…

As always mindblowing....whenevr i come to my blog..i cudnt afford not to cum to ur Udan Tashtari....

राजेंद्र अवस्थी. ने कहा…

वाह आदरणीय,बहुत ही रोचक और सरल भाषा में आपने वो सब दिया है जो एक बुद्धिमान सजग पाठक को चाहिए....लाजवाब...

एक युग की समाप्ति होने पर मेरी मंगल कामनाएं...

मन के - मनके ने कहा…

आपकी यह पुस्तक पढने का सुअवसर तो नहीं मिला,परंतु निश्चय ही रोमांच से भरी होगी.

Abhishek Ojha ने कहा…

50 पन्नों के बाद पढ़नी बाकी रह गयी है :)

मुकेश पाण्डेय चन्दन ने कहा…

kavita bahut sundar lagi . jai ho

Bharat Bhushan ने कहा…

काश!! कोई दीमक रिश्तों के अजनबीपन को चाट पाती!!!
बहुत खूब. नई बात.

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

आज 08/04/2012 को आपका ब्लॉग नयी पुरानी हलचल पर (सुनीता शानू जी की प्रस्तुति में) लिंक किया गया हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

Sawai Singh Rajpurohit ने कहा…

आद.समीर जी
प्रणाम !
पुस्तक समीक्षा अच्छी रही और आप मेरे ब्लॉग पर निरंतर आकर बहुत उत्साहवर्धन करते हैं मेरा और आपकी पोस्ट बहुत सुन्दर हैं.
संजय जी के ब्लॉग पर भी आपकी चर्चा है!

Aruna Kapoor ने कहा…

कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

....बहुत ही सुन्दर रचना!...आभार!

Saras ने कहा…

'Shantaram'....अभी कुछ ही दिन पहले शुरू की पढनी ....इतनी सरल सीधी भाषा ...बहती हुई ...बगैर रोक टोक .....एक चलचित्र के समान.....कब ख़त्म होगी नहीं कह सकती .....खैर यह तो हुई किताब की बात ....
रिश्तों के बहाव को समझती आपकी कविता बहुत प्रभावित कर गयी ......साभार !

डॉ. जेन्नी शबनम ने कहा…

ये पुस्तक तो नहीं पढ़ी, परन्तु आपकी समीक्षा से पुस्तक के बारे में समझ में आ गया. आपकी रचना बहुत भावपूर्ण है...

काश!! कोई दीमक

रिश्तों के अजनबीपन को

चाट पाती!!!..

बहुत शुभकामनाएँ.

Coral ने कहा…

किताब तो पढ़ी नहीं सिर्फ सुना था लेकिन आपकी शैली ने प्रभावित किया !

Rajput ने कहा…

अब अगर कोई रामायण पढ़कर रावण या महाभारत को पड़कर दुर्योधन बने तो उसमे लेखक की क्या गलती है .
हाँ , अगर पुस्तक का अंत एन दोनों ग्रंथो की भांति हो तो युवाओ के लिए सीख होती . सुन्दर विवेचना

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

अच्छी समीक्षा ...
सुन्दर रचना ...

मेरा मन पंछी सा ने कहा…

पुस्तक की समीक्षा रोचक है..
आपकी ये कविता भी बहुत ही बेहतरीन है...

प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ' ने कहा…

सुन्दर अभिव्यक्ति.....

Yashwant R. B. Mathur ने कहा…

बहुत अच्छा लगा सर!


सादर

Surendra shukla" Bhramar"5 ने कहा…

टूट भी जाये

वो पुल...

या

तने रहें दृढ संकल्पित...

नदिया बहती रहती है

अपनी धुन में...
आदरणीय समीर जी बहुत सुन्दर वक्तव्य लेख और कविता
जय श्री राधे
भ्रमर ५

Dinesh pareek ने कहा…

आपकी सभी प्रस्तुतियां संग्रहणीय हैं। .बेहतरीन पोस्ट .
मेरा मनोबल बढ़ाने के लिए के लिए
अपना कीमती समय निकाल कर मेरी नई पोस्ट मेरा नसीब जरुर आये
दिनेश पारीक
http://dineshpareek19.blogspot.in/2012/04/blog-post.html

nanditta ने कहा…

mae bhii isa baat se samat huun ,ki aap kii sabhii rachanaaye sangrahaniiy hae.

देवांशु निगम ने कहा…

रोचक है पुस्तक!!!! और उतनी ही आपकी विवेचना!!!!

div ने कहा…

माफ़ी चाहूंगी आप के ब्लॉग मे आप की रचनाओ के लिए नहीं अपने लिए सहयोग के लिए आई हूँ | मैं जागरण जगंशन मे लिखती हूँ | वहाँ से किसी ने मेरी रचना चुरा के अपने ब्लॉग मे पोस्ट किया है और वहाँ आप का कमेन्ट भी पढ़ा |मैंने उन महाशय के ब्लॉग मे कमेन्ट तो किया है मगर वो जब चोरी कर सकते है तो कमेन्ट को भी डिलीट कर सकते है |मेरा मकसद सिर्फ उस चोर के चेहरे से नकाब उठाने का है | आप से सहयोग की उम्मीद है | लिंक दे रही हूँ अपना भी और उन चोर महाशय का भी, इन्होने एक नहीं मेरी चार रचनाओ को अपने नाम से अपने ब्लॉग मे पोस्ट किया है
http://div81.jagranjunction.com/author/div81/page/4/


http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.in/2011/03/blog-post_557.html

vikram7 ने कहा…

rochak vivechana ke saath behatariin kavita.

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

बहुत सुंदर कविता प्रभाव शाली समीक्षा,..अच्छी लगी,...समीर जी

MY RECENT POST...काव्यान्जलि ...:गजल...

Manish ने कहा…

समीर भैया!! युवा पीढ़ी को लेकर जो भी आपने इशारा किया.. उससे मैं १००% सहमत हूँ.. साहित्य से कुछ कुछ एक सोच बन जाती है, एक नजरिया बन जाता है जीने का.. पहले सिनेमा की चकाचौंध थी अब वह धीरे धीरे साहित्य में उतरती जा रही है..
बाजार ग्राहक और व्यापारी... मूल्य अब सिर्फ डॉलर है. दोस्तों में सिर्फ इसी की चर्चा होती है.. मूल्य की वह समझ अब खत्म हो रही है..
फिलहाल बहते जाना है.. बहुत कुछ शायद अभी बाकी है..

Monika Jain ने कहा…

bahut sundar kavita

sm ने कहा…

पुस्तक मौका लगा तो ज़रूर पढेंगे

Asha Joglekar ने कहा…

समीक्षा पढ कर तो पुस्तक पढने का मन है और हमें बहकने का भटकने का डर भी नही ।