बचपन से नुक्कड़ वाले तिवारी साहब के घर के बाहर टंगी नेम प्लेट आकर्षित करती रही:
सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए.,एल एल बी(इला.)
आकर्षण का कारण उनका नाम 'सुन्दर' होना नहीं था बल्कि साथ में नाम के बाद लगी हुई डिग्रियाँ थी.
बी.ए., एल एल बी डिग्रियाँ होती हैं, जो पढ़कर मिलती हैं, यह तो मैं समझदार होते ही जान गया था किन्तु एल एल बी के साथ (इला.) क्या होता है, यह मैं जब कुछ और ज्यादा समझदार होने के बाद भी नहीं समझ सका तो अपनी मूर्खता प्रदर्शित हो जाने की शर्म एवं हिचक को दरकिनार करते हुए एक दिन मेरे मित्र याने उनके बेटे से पूछ ही लिया. आश्चर्यजनक रुप से उसे भी ज्ञात न था. अन्तर बस इतना था कि इसका अर्थ जानने की उसमें कभी जिज्ञासा भी नहीं जागी. अपना अपना स्वभाव होता है. कुछ जिज्ञासु तो जो नहीं लिखा होता, उसके प्रति भी सुनी सुनाई बात के आधार पर जिज्ञासा पाल लेते हैं.
वैसे उसमें जिज्ञासा न जागने का कारण मात्र इतना ही था कि उसकी अज्ञानता को लेकर उसकी घर पर साप्ताहिक पिटाई शुरु से होती रही थी, इस वजह से अपनी अज्ञानता स्व-जाहिर कर वो पिटाई का एक और मौका देने का जोखिम उठाने की ताकत खो बैठा था. न जाने कितनी जिज्ञासायें और विषय उसके बालमन में जन्म लेने के पहले ही इस पिटाई के डर से दम तोड़ देते थे. खैर, पहले तो यह घर घर की कहानी थी. वो तो भला हो कि जमाना बदला तो बच्चों की मार कुटाई रुकी. बालमन अब अनुभवीमन से बात करने की हिम्मत रखता है, समझने समझाने की कोशिश करता है. उसे हिचक नहीं होती. यह एक सकारात्मक परिवर्तन है. बच्चों को हर बात पर मारना बुरी बात है, इस बात को तो जैसे हमारे समय के माँ बाप ने सीखा ही नहीं था.
हालात ये थे कि कई बार तो सुबह सुबह पिता जी पीट चुके होते और अम्मा पूछती कि क्यूँ मारा उसे? उसने तो कुछ किया ही नहीं था. पिता जी बोलते कि नहीं किया तो क्या हुआ.दिन में तो कुछ न कुछ करेगा ही.
फिर सोचता हूँ कि मार कुटाई बुरी बात तो थी लेकिन बुरी बात समझ बहुत जल्द आ जाती है और याद भी लम्बे समय तक रहती है. कोई गाली बकने के लिए आधा शब्द भी बोले तो तुरंत समझ आ जाता है. लिख कर गाली बकने के लिए अब तो ....@#%%&#@.......आदि प्रयोग होने लगा है समझदार तो समझ ही लेते है और फिर कूद पड़ते हैं कि गाली बक रहा है. वहीं अच्छी बात में कोई यदि एक साहित्यिक पंक्ति कह जाये तो दस लोग दस तरह का मतलब लगाते रहते हैं घंटो और वो भी सही नहीं निकलता....
खैर, एक दिन उस मित्र ने जब भाँप लिया कि आज घर में कुटाई होना तय है तो उसने यह अज्ञानता भी प्रदर्शित कर ही दी. पिटना तो उतना ही था. पिटाई के बावजूद भी यह सुनते हुए कि इतना भी नहीं जानते, वो मेरे प्रश्न का जबाब ले ही आया. पता चला कि एल एल बी (इला) का मतलब एल एल बी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किये हैं. इतना भी नहीं जानते???फ़ैशन है ये-इस तरह लिखना... अव्वल तो मैं इला लिखने का उद्देश्य ही नहीं समझ पाया कि जरुरत क्या थी. एल एल बी तो एल एल बी है, चाहे इलाहाबाद से करो या जबलपुर से, काम तो ज्ञान और सेटिंग ही आना है. और फिर अगर बताने का इतना ही शौक हो आया था तो पूरा लिखने को किसने मना किया. कम से कम सब समझ तो जाते.
जाने कैसा फैशन है? मगर फैशन तो फैशन होता है इसमें जाने कैसा कब किसने माना है. वरना कौन लड़का कमर से ६ इंच नीचे खिसकी जिन्स पहनता या कौन लड़की कमर से ६ इंच उपर खिसकी टॉप पहनती. बस, फैशन है तो है!!!
फिर एक रोज एक और नेम प्लेट पर श्याम प्रसाद त्रिपाठी, बी. कॉम. (आ) देख कर मैं खुद ही समझ गया कि हो न हो, बंदे ने बी. कॉम. आजमगढ़ से किया होगा. मेरा यही ज्ञान मैने अपने उस दोस्त को भी दिया और उसने अपना ज्ञान घर में बघारा और पिता श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से फिर एक बार मरम्म्त करवा आया. ज्ञात हुआ कि (आ) मतलब आजमगढ़ नहीं आनर्स होता है. न जाने क्यूँ सब एक सा फैशन क्यूँ नहीं करते? जिसकी जो मर्जी हो, फैशन का नाम दिये करे जा रहा है. कोई सर मुड़ा लेता है, तो कोई जैल लगा कर बाल खड़े कर लेता है तो कोई पोनी बाँध कर मटकता है- शोभा देता है क्या भला यह सब, हें? मगर फैशन है तो है!!!
इसी आकर्षंण के चलते मैं बचपन से ही अपने जीवन के हर माइल स्टोन को नोट करता आया और ५ वीं पास के बाद अपनी कॉपी पर लिखता रहा: समीर लाल, ५वीं पास. फिर समीर लाल, ८वीं पास, फिर समीर लाल, ११वीं पास(ग)- यहाँ ग= गणित. फैशन समझा करो, मियाँ. हम तो शुरु से ही फैशनेबल रहे हैं. कोई यह नया चस्का नहीं है.
फिर समीर लाल, बी.कॉम. (जब) याने जबलपुर और कालान्तर में समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. पर आकर यह सिलसिला थम सा गया. तब तो विजिटिंग कार्ड भी बनने लगे और नेम प्लेट भी. समीर लाल, बी.कॉम., सी.ए. लिखा देख कर मन ही मन प्रसन्न होता रहा.
समय को बीतना था सो बीता. कनाडा चले आये. फिर नेम प्लेट तो गायब हो गई मगर कार्ड छपते रहे बदल बदल कर हर नई उपलब्धि के साथ. बी. कॉम, ने अपना रंग खो दिया. फिर हुए समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.) यहाँ इं=इंडिया और यू एस तो खैर अमरीका है ही, वो तो क्या बतलाना-नहीं समझोगे तो भुगतोगे. फिर बदला समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस). फिर देखते देखते समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) अब यह क=कनाडा. खैर, यह सब जोड़ घटाव चलता रहेगा, यही सोच कर निश्चिंत बैठा था.
वक्त भी क्या क्या गुल खिलाता है- कहानी, कविता लिखने लग गये. तो इससे जुड़े लोगों से संपर्क बनना शुरु हुआ. लोग ईमेल भेजा करते हैं. मंचो पर जाना शुरु हुआ तो लोग कार्ड दिया करते हैं हमारे कार्ड में तो वही: समीर लाल, सी.ए.(इं), सी.एम.ए.(यू.एस.), पी एम पी(यू एस), पी एफ पी(क) मगर उनके कार्ड पर जाने क्या क्या? जिस कार्ड ने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया वो था:
आचार्य फलाना फलाना, बी.ए.(हि), लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार. अब इतना तो समझने ही लगे हैं कि हि मतलब हिसार नहीं, हिन्दी ही होगा मगर नाम के पहले आचार्य और बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार, यह कहाँ से और कैसे मिलेगा? वही पुरानी जिज्ञासु प्रवृति-अंगड़ाई ले उठ खड़ी हुई.
पता किया गया तो पता चला कि आचार्य के लिए कोई संस्कृत का लंबा चौड़ा कोर्स करना पड़ता है. और फिर संस्कृत, इसका तो दो पन्ने का भी कोर्स हो तो फेल हो जायें, तो बड़े बेमन से आचार्य लगाने की बात दिल से निकाल दी मगर बाकी लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार -इसका मोह बना रहा. बस, पता चल जाये किसी तरह कि इसको कैसे अपने नाम के साथ लिख सकते हैं. सबूत रहे, तो आत्म विश्वास बना रहता है. चमड़ी अभी उतनी मोटी नहीं हो पाई है वरना बहुत से मंचीय कवियों और दीगर लेखकों के संपर्क में रहा हूँ जिन्होंने नाम के आगे डॉक्टर सगर्व लगा रखा है और पीछे पी एच डी. न कोई पूछने वाला, न वो बताने को खाली हैं. पी एच डी की हो तो बतायें न!! असल पी एच डी जिसने की होती है, उससे पूछना नहीं पड़ता, वो तो खुद ही किसी न किसी बहाने बताने की फिराक में रहता है कि मैने फलाने टॉपिक पर शोध किया है. पी एच डी करते हुए वो इतनी योग्यता तो हासिल कर ही लेता कि बहाना खोज पाये अपने टॉपिक को बताने का. इसके सिवाय उस बेचारे के पास अपनी जवानी का बेरहमी से कत्ल करने की और कोई दास्तान भी तो नहीं होती.
अब तो वो मेरा प्यारा दोस्त भी जाने कहाँ गुम हो गया है वरना वो बेचारा एक कुटाई और झेल मेरे लिए अपने पिता जी श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से पूछ कर बता ही देता.
आपमें से कोई जानता है क्या कि यह नाम के बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखने के लिए कौन से कोर्स और परीक्षायें पास करनी पड़ेंगी ताकि कोई इन योग्यताओं पर प्रश्न चिन्ह न लगा पाये. कोई पूछे तो प्रमाण पत्र दिखा सकूँ वरना लिखी किताब की तो जिसकी मर्जी होती है, वो ही धज्जी उड़ा जाता है. अपनी और कईयों की पिछली छीछालेदर देखकर, किताब छपने के आधार पर नाम के बाद कवि या लेखक लिखने की ताकत मुझमें बची नहीं है. किसी के लेखन की छीछालेदर करने के लिए तो किसी प्रमाण पत्र की भी आवश्यक्ता नहीं, वो तो कोई भी कर सकता है. उसमें छीछालेदरकर्ता की योग्यता पर कोई प्रश्न नहीं करता. किसी की छीछालेदर हो, तो मजा तो आता ही है, इसमें योग्यता पर प्रश्न क्या करना?
पढ़ने से मैं नहीं डरता, यह तो आप मेरा कार्ड देख कर समझ ही गये होंगे. मगर पढ़ूँ क्या? ताकि अपने नाम के बाद लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखकर अपना जीवन धन्य करुँ. काश, कोई बता देता.
आप तो जानते होगे, बता दो, प्लीज़!!!
कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
फिर ऊँची
जान पहचान....
मिल गये
बस इसी वजह से
जाने कितने
सम्मान...
वो बेवजह
दाद पाता रहा
और
मैं
जुगनुओं की टिमटिमाहट से
अँधेरा
भगाता रहा!!
मैं
अज्ञानी!!!
कितनी
छोटी छोटी
तरकीबें हैं
वो भी न जानी!!
-समीर लाल ’समीर’
108 टिप्पणियां:
एक नया फैशन निकला है ! जैसे मेडीकल,पी एच डी वाले अपने नाम के सामने Dr. लगाते है, इंजीनीयर लोगो ने भी अपने नाम के सामने Er. लगाना शुरू कर दिया है। चिठ्ठाजगत मे भी कुछ Er. वाले है।
-Er.आशीष श्रीवास्तव बीई(ना),एम बी ए(सी)
समीर जी
सही हाल लिखा है। कुछ ऐसा ही दुकानों पर लिखे प्रो० से भी गडबडझाला हो जाता है, जैसा आपको (इला) से हुआ था।
समीर लाल जी प्रणाम.
बात पंद्रह साल पुरानी हैं , एक शादी का निमंत्रण कार्ड आया जिस पर लिखा था हरगोविंद गिरी कंप्यूटर ओपरेटर (दिल्ली) . और उस ज़माने में शोर्ट नेम लिखने कि भी खूब परंपरा थी . खैर मैं भी जब दिल्ली में आया था तो अपना शोर्ट नेम ही इस्तेमाल करता था. लेकिन एक दिन कि घटना ने पूरा नाम लिखने के लिए मजबूर कर दिया. हुआ ये कि एक दिन किसी का फ़ोन आया और उसने मेरा नाम पूछा तो मैंने बताया कि T K GIRI और उसको सुनाई दिया P K GIRI. तब से तो में पुरे नाम पे ही आ गया.
ये समीर लाल 'समीर' की जगह समीर लाल (उ) क्यों न हुआ?
बहुत दिनों बाद एक वजनदार व्यंग्य पढ़ने को मिला वर्ना आज कल अखबार तो चलताऊ से काम चला लेते हैं।
जाने कैसा फैशन है? मगर फैशन तो फैशन होता है इसमें जाने कैसा कब किसने माना है. वरना कौन लड़का कमर से ६ इंच नीचे खिसकी जिन्स पहनता या कौन लड़की कमर से ६ इंच उपर खिसकी टॉप पहनती. बस, फैशन है तो है!!!
करारा समीर सर जी,
मैं बता सकता हूं यह सब लिखने के लिए क्या करना पड़ता है। बस समीर जी अपने जमीर की परीक्षा में फैल होना पड़ता है फिर जो जी में आये लिखों......................?
जय हो।
सर जी एक और नयका फैसन आया है। प्रेस लिखने का ... और साथ में किस किस प्रेस मंे क्या क्या पद है वह सभी कार्ड पर और नेम प्लेट के साथ गाड़ी मंे भी लिख देते है...
जय हो..?
बहुत ही रोचक अंदाज़ में डिग्रिय अपने नाम के साथ लिखने वालों की खिंचाई की है, मज़े की बात तो यह है कि अपने आप को भी नहीं छोड़ा...
वैसे यह शोर्टकट में लिखे को मैं भी नहीं समझ पाटा था... एक दिन बस के रूट का नाम लिखा था - पु.दि.रे स्टेशन.
बहुत दिनों तक सोचता रहा कि यह क्या है... उत्सुकता बढती रही, और एक दिन किसी से मालूम कर ही लिया तो पता चला... पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन... :-)
इसी तरह बसों पर लिखा देखा "न.दि.रे स्टेशन" मतलब नई दिल्ली रेलवे स्टेशन :-)
@एल एल बी तो एल एल बी है, चाहे इलाहाबाद से करो या जबलपुर से,
अजी जबलपुर ठहरी संस्कारधानी, उससे क्या मुकाबला केम्ब्रिज/ऑक्सफ़ोर्ड/इलाहाबाद/बनारस का?
@नाम के बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखने के लिए कौन से कोर्स और परीक्षायें पास करनी पड़ेंगी
डिग्री लिखने के बाद (स्व) लगा हो तो कोई नहीं पूछेगा। स्व = स्वयम्भू
आजकल तो नए और उटपटांग फैशन का ज़माना है! कुछ भी नया करने का मन करें चाहे वो कपड़े के मामले में हो या नाम के आगे या गाड़ी के नंबर प्लेट पर लिखने की बात हो! ये तो हम सब जानते हैं कि डॉ.नाम के आगे लगते हैं जिन्होंने एम बी बी एस या फिर पी एछ डी किया हो पर मुझे ये समझ में नहीं आता है आख़िर लोग इंजिनियर होने पर नाम के आगे Er.क्यूँ लगाते हैं? सिर्फ़ डॉक्टर और इंजिनियर ही एकमात्र डिग्री नहीं है तब तो लोग सभी डिग्री करने पर अपने नाम के आगे लगाते रहेंगे, क्या ये फैशन है? वैसे ही आपको भी इस बात से आश्चर्य लगा की इला क्या है? बहुत ही ज़बरदस्त और शानदार व्यंग्य किया है आपने!
कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
फिर ऊँची
जान पहचान....
मिल गये
बस इसी वजह से
जाने कितने
सम्मान...
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ! बेहद पसंद आया!
पी-एच0डी0 तो अपनी भी कम्प्लीट हो चुकी है, बस डिग्री मिलना बाकी है। अब सोचना पडेगा डॉ0 लगाने से पहले।
---------
बाबूजी, न लो इतने मज़े...
चलते-चलते बात कहे वह खरी-खरी।
देखिए भाई साहब डिग्रियों की कमी नहीं है। फ़र्जी नीम हकीम लोग भी धड़ल्ले डॉ. लगाए फ़िरते हैं। पढे लिखे लोग समझते हैं कि पीएचडी की होगी और अनपढों के लिए तो वे हैं ही डॉक्टर। एक बार हम धोखा खा चुके हैं। जो चाहे डिग्री लगा लीजिए नाम के साथ और काम पर लगिए।
अब हमारे पास डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, सीए, टीए कौनो भी डिग्री नहीं है।आपके लेख से प्रभावित होकर हम आज से नयी डिग्री Br.Lalit Sharma याने ब्लॉगर ललित शर्मा के मालिक हो गए हैं,इसका इस्तेमाल हम शान से कर सकते हैं। इस पर दुनिया की कोई भी सरकार प्रतिबंध नहीं लगा सकती। चाहें तो आप भी इस्तेमाल कर सकते हैं,पर नवोन्मेषकर्ता के रुप में क्रेडिट मुझे मिलना चाहिए।
मैंने अपने पत्रकारिता के पेशे में कई आम लोगों को कवि, साहित्यकार, पत्रकार, साहित्यकार, अनुवादक आदि बनते देखा है। इसके लिए जो कठिन रास्ता है उस पर आप काफी समय पहले ही निकल चुके हैं।
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और हां अब तक तो मैं उम्मीद कर रहा था कि आपके नाम के आगे जुड़ जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ, इसका बड़ा कारण जियोग्राफिकल है। केवल झिलाने से काम नहीं चलता। आपको झेलने के लिए सशरीर साहित्य खेमों में उपस्थिति होने पड़ेगा। सकुशल झेलकर किसी खेमे का भाग हो गए तो वे खुद ब खुद आपको यह मानद डिग्री दे देंगे। एक बड़ा साहित्यकार पहले एक नवोदित को नवोदित साहित्यकार की डिग्री देता है। इसका जिम्मा मंच संचालक को सौंपा जाता है। इसके बाद पांच सात गोष्ठियों तक नवोदित का लेबल चस्पा रहता है। दो तीन नए नवोदित आने के बाद आप केवल साहित्यकार बन जाते हैं। नवोदितों के भी नवोदित आने के बाद आप वरिष्ठ में शुमार होते हैं।
आपकी भारत यात्रा के दौरान आपने इस पीड़ा को झेलने के बजाय पोस्ट ठेलन और गृह सुख का आनन्द लिया था, बजाय गोष्ठियों में खुद को भेंट चढ़ा देने के। इस कारण आपका रास्ता थोड़ा कठिन हो गया है।
ऑनलाइन साहित्यकारों और आलोचकों की बात करूं तो आप जगदीश्वर चतुर्वेदीजी की शरण में जा सकते हैं। वे आसानी से आपको यह लेबल दे सकते हैं। बशर्ते वे आपको पढ़ते हों। उनसे लेबल लेने का एक और तरीका है कि अपनी पुस्तक की निर्मम समीक्षा उनसे करवा लें (?), उन्होंने एक बार साहित्यकार या नवोदित साहित्यकार लिख दिया तो फिर को माई का लाल आपसे यह मानद डिग्री वापस नहीं ले पाएगा।
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मेरे इस कथन को आप किसी साहित्यकार को मत दिखाइएगा... मेरा साहित्यकार बनने का सपना भ्रूणावस्था में ही खत्म हो जाएगा :)
bilkul sahi baat pakdi aaj aapne....mazaa aa gaya bhai ji....sadhuwaad
-- yogendra maudgil (P.O.E.T.)
@ ब्लॉ. ललित शर्मा जी:
इसको ऐसा लिख लूँ क्या. ...
ब्लॉ. (साला) समीर लाल
क्रेडिट भी हो गया...ला में आ की मात्रा साईलेंट...तो साल..... ब्लॉगर( साभार ललितशर्मा) समीर लाल :)
साईलेन्ट वाले अक्षर भी फैशन का ही हिस्सा हैं वरना उनकी जरुरत क्या है?
आज पूरे शबाब पर हैं :)
डाक्टरों के आगे अब एम डी के आगे डी. एम भी लिखा रहता है ...क्या मतलब है इसका ?
वे डी. एम का भी चार्ज ले सकते हैं क्या ?
नाम की भूख अपुन को भी बचपन से लाग गई थी...लगता था ,कहीं छपकर 'बदका-आदमी' बन जाएँ! जब कोई कोशिश काम नय आई तब जाकर अंतरजाल की शरण ली !
कम-से कम हम उनसे तो अच्छे हैं जिन्हें पैसे की भूख है !
वैसे ही जीवन उपाधियों से पूरा भरा हुआ है, उस पर भी नाम को लम्बा कर बैठेंगे। आप भी 'कना' लिख कर लगा लें।
Bahut badhiya Sameer ji...
Yah aakarshan bahut zabardast hai..kabhi kisi aise hi business card wale se poochiyega ki ye sab digriyan kaha bant ti hai..
vyang, hasya aur bacchon ki pitai ka satya liye hue yah aap ka lekh zabardast hai
Shailja Saksena
हा हा, दद्दा हम तो दिनेश राय जी से सहमत हैं. . . . "ये समीर लाल 'समीर' की जगह समीर लाल (उ) क्यों न हुआ?"
मजा आ गया..
और अब बूझो तो जाने.
भारतीय नागरिक, ब्ला, एम०ए०(प०प्र०र०)...
शुक्रिया ! आज एक हफ्ते बाद कोई ब्लॉग पोस्ट देखि...
हा हा ..., दिन भर की थकान उतर गयी....
@ भारतीय नागरिक - Indian Citizen :
भारतीय नागरिक, ब्ला, एम०ए०(प०प्र०र०)...
=
भारतीय नागरिक, ब्लागर, एम. ए.( पतांजलि प्रशिक्षित रक्षाकर्मी)
- ठीक बूझा??
लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार के साथ हम विचारक, चिन्तक, भी हैं और नाम के पहले सुश्री एक हज़ार आठ भी लगाते हैं! अब कोर्स कौन सा किये हैं... ये न पूछिए! इन उपाधियों को लगाने के लिए कौनो कोर्स फ़ोर्स की जरुरत नहीं है! बस मन किया और फिट कर लिए नाम के साथ!
ललित भाई ने आगे तो ब्ला. लगा लिया, लेकिन पीछे आ.मं.आ लगाना क्यों भूल गए, जो कि हर ब्लॉगर की नियति है...अब बूझो तो जाने...
गुरुदेव,
प्रतिछीछालेदारकर्ता की उपाधि भी रचनाकर्म को नया आयाम दे सकती है...
आजकल भारत में भी यू.के. की सैर की जा सकती है...यू.के. बोले तो उत्तराखंड...
जय हिंद...
साप्ताहिक पिटाई
मज़ा आ गया गुरु
समीर भाई सबसे पहले तो बी काम फ़्रोम आजमगढ़ के लिए बधाई कुबूल करें, हँसा जो दिया यार|
जोरदार व्यंग्य, इस व्यंग्य की तारीफ के लिए एक दो पंक्ति नाकाफी हैं| पर, यार आप को पता चल जाये कैसे कवि / लेखक वगैरह वगैरह बना जाता है तो इस गरीब दास को भी बता देना
यह मर्ज तो बहुत पुराना है. अभी भी ऐसे लोग मिल जायेंगें. नेम प्लेट हट गई तो विजिटिंग कार्ड पर आ गए.
********************
कभी 'यदुकुल' की यात्रा पर भी आयें !!
जो डिग्री आसानी से समझ में आ जाये, उसकी कद्र कम होती है! :)
ऐसा हो सकता है जिन्हें अपना नाम कम महत्वपूर्ण लगता हो वे उपाधियाँ लगने लगते हों .मुझे तो लगता है उपाधियाँ लगाने से अपना ही नाम लदा-फँदा सिमटा-सा रह जाता है .
अगर नाम ठीक-ठाक है तो इस सब की ज़रूरत क्या !
तभी तो अपने नाम के आगे पीछे ऐसी चीज़ें (मेरे पास भी हैं) मैं नहीं जोड़ती .
एक बात मेरी समझ में आज तक नहीं आई - रचनाकार लोग उपनाम प्रायः वह रखते हैं जो वे नहीं होते जैसे गोपालदास 'नीरज',अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' , पर आप तो पहले से समीर थे फिर दुबारा...!
Sameer Lal
Go here
http://www.writersassembly.org/
All your problems will be solved
Once you get the certification then dont forget that IT WAS ME A NON CERTIFIED BLOGGER who went out of the way to help you
बहुत ही रोचक....
वाह वाह आनन्द आ गया अच्छी पहले मै अपनी ने प्लेट पर "ब्ला' लिख कर आती हूँ।
कहाँ आपने यह सब पढवा के दिमाग घुमा दिया ...सुबह से कई सारी चीजें आगे पीछे लगा रहा हूँ :-)
यह बढ़िया रही ! भाई लोगों से सावधान , आपकी डिग्रियों में फर्जी कितनी है यह रिसर्च होगी ...
शुभकामनायें !
:-)
हा हा हा
मेरे नाम के आगे डॉ देख कर बहुत से लोग ट्रीटमेंट करने के लिए आ जाते थे. सो मैंने डॉ लिखना बंद कर दिया अब जब से प्रोफेसरशिप मिली तो लगा कि अब प्रो डॉ दो तलवार एक म्यान. भैया लोगो ने समझाया कि प्रो लिखने से लोग अदब से नाम लेंगे. लेकिन हुआ उलटा लोग मुझे झोला टाँगे मोटा चश्मा लगाए बुढऊ मास्टर समझने लगे. मैंने प्रो हटाने की बात सोचने लगा तो फिर भाई लोग सामने आ गये. बोले अजी बार बार पार्टी ना बदलो. आदमी की कोई पहचान होनी चाहिए. सो अभी तक यही पहचान धो रहा हूँ. वैसे बला.वाला सुझाव ठीक था पर खुशदीप जीकी पोस्ट देख कर सहम गया. बड़ी उलझन है. अब सोच रहा अहू कि लिखू
मात्र पवन
बहुत अच्छे। आपकी पोस्ट पढ़कर मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी साहब से जुड़ी एक मजेदार घटना याद आ गयी। एक बार एक महाशय अकबर साहब से मिलने उनके घर पहुँचे। उस समय अकबर जनानखाने में थे। उन महाशय ने अपना कार्ड अन्दर भिजवाया, उस पर उनका नाम तो छपा था साथ में 'बी0ए0' हाथ से लिखा था। अकबर को उन महाशय की यह हरकत नागवार लगी। वह बाहर नहीं आये बल्कि कार्ड के पीछे यह शेर लिखकर भेजा - शेख जी घर से न निकले और ऐसे लिख दिया, आप बी0ए0 पास हैं तो मैं भी बीवी पास हूँ।
शादी के निमन्त्रण पत्र पर भी R.S.V.P. लिखा होता है, हम तो इसे यही समझते हैं "रोये सारे विवाह पाछै"
प्रणाम
पी0एच0डी0 तो मैनें भी कर रखी है, पर नाम से पहले डॉ0 लगाने का लोभ कभी नहीं रहा, जैसा कि आप देख सकते हैं।
क्या बात...क्या बात....मजा आ गया पढ़कर.
आदरणीय समीर लाल जी
नमस्कार !
........बहुत अच्छे...वाह आनन्द आ गया
Aapko padhna hamesha achchhaa lagta
hai . Maansik tanaav door ho jaataa
hai.
@ यह नाम के बाद में लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिखने के लिए कौन से कोर्स और परीक्षायें पास करनी पड़ेंगी.
आपको कोई बताये तो हमें भी बता दीजियेगा पिलीज़ :)
क्या गज़ब आइडिया आते हैं आपको:) मजा आ गया.
हमारे यहाँ ऍफ़ आर सी एस लन्दन वाले डाक्टर से ही इलाज करते थे.... हम भी कई बोर्ड देखे हैं जिसपर लिखा होता था डबल एम् ए.... और एक महोदय थे उनके नेम प्लेट के ठीक नीचे ही लिखा था.... 'कुत्तों से सावधान'.... हर बार आते जाते पढ़ते थे उस नाम पट्ट को... बढ़िया..... मेरा कार्ड भी बनवा दीजिये...
अरुण चन्द्र रॉय
एम् ए अंग्रेजी, एम् ए हिंदी, एम् ए (ट्रांसलेशन स्टडीज़), एम् बी ए (फाइनांस), पी जी डिप्लोमा इन मॉस काम एंड जर्नलिज्म आदि आदि
श्रीमान एकदम अनूठा व्यंग लिखा है और कविता ने उसे बेहतरीन एक्सप्लेन किया है .शुकिया
श्रीमान एकदम अनूठा व्यंग लिखा है और कविता ने बेहतरीन एक्सप्लेन किया है .शुक्रिया
आपका स्वागत है "नयी पुरानी हलचल" पर...यहाँ आपके ब्लॉग की कल होगी हलचल...
नयी-पुरानी हलचल
समीर लाल: ए.द.न.वि.न.सो.वा.ध.दा.पो.के.ले.
समझे? नहीं समझे ना...समझेंगे भी कैसे? इसके लिए अतिरिक्त बुद्धि चाहिए. नीचे देखें और समझें.
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समीर लाल:एक दम नए विषय नयी सोच वाली धमाके दार पोस्ट के लेखक
यह सब वह "माल" हैं जिनका दिमाग बाद में कूरियर से भेजा जाता है। मैनें भी एक सज्जन की परिचय-तश्तरी पर लिखा देखा था, बी.ए., एम.ए., एल.एल.बी.।
अरे मेरे भोले पंछी जब बी.ए. किया तब ही ना एम.ए. किया होगा पर नहीं लोगों पर अपनी "लियाकत" जो थोपनी होती है।
निर्मला जी,
ब्ला. हिंदी में ही लिखवाएं, अंग्रेजी में पता नहीं लोग क्या-क्या पढने लग जाएंगे :-)
समीर लाल समीर ... (भाई) कैसा रहेगा ....
यहाँ मिड्ल ईस्ट में तो बहुत कॉमन है ... कुछ भी लिखना नाम के आगे ...
अमेरिका और कनाडा में नेम प्लेट लगाने का चलन नहीं है लेकिन यहाँ है। इसके अतिरिक्त पुरस्कार और सम्मान लेने का भी यह मोह है कि इसके लिए कुछ भी करेगा। फिर सभी जगह प्रदर्शित भी करेंगे। आत्म प्रदर्शन मनुष्य की एक भूख है, शायद इससे बहुत ही कम लोग बचे होते हैं।
जय हो दददा ... वैसे लोग भेजे है ... जैसे ही कुछ पता चलता है ... बताता हूँ !
बहुत ही सुंदर व्यंग्य रचना है ये तो समीर जी। बधाई। मन गद गद हो गया।
हंस हंस लोट पोट हो गया...
रंजन मोहनोत (टि)
अब ये न पूछना की ये 'टि' क्या है?
और लोग बला माने यह कम था जो हम स्वयं अपने को ब्ला/ बला कहने लगें?
आप तो रचना जी की सलाह मान सर्टिफाइड लेखक,आदि आदि बन जाइए.
घुघूती बासूती
मजेदार व्यंग्य |
itna dhar dar vyang hai ki shayad hi koi iski dhr se bach sakega .aap vyang bahut rochak tarike se likhte hain aapki lekhni ko naman
saader
rachana
लो हम क्या लगायें नाम के आगे !
अभिषेक ओझा, (इं.)
इं: इंसान. कैसा रहेगा? ज्यादा भारी तो नहीं है ?
हम आपकी कालीफिकेसन समझता हूं=
बी.काम-जब, सी.ए.-तब और सी.एम.ए - अब :)
हमारे एक मज़ाकिया रिश्तेदार G.G.M.P. लिखा करते थे ... धड़ल्ले से होम्योपैथिक डॉकररी किया करते थे ।
G.G.M.P बोले तो घिसट घिसट कर मैट्रिक पास !
हम अपने जमाने में जब तक एम.एस.सी नहीं किए थे, तब तक स्नातक विज्ञान (बी.एस.सी.) (प्र)लिखते थे, प्र. = प्रतिष्ठा (Hons)
और जब एम.एस.सी. कर लिए तो लिखते थे, स्नातकोत्तर विज्ञान (बि.वि.)
नहीं समझे ...?
:)
बि.वि. = बिहार विश्वविद्यालय।
देश,काल और परिस्थिति की दुहाई इसीलिए दी जाती है!
naya vishay ...nayi post ....aur bilkul hi fit diya hai aapne title
mast aur samj bhari post
jai ho gurudev
बहुत रोचक तरीके से आपने अपनी बात रखी ...
किसी के लेखन की छीछालेदर करने के लिए तो किसी प्रमाण पत्र की भी आवश्यक्ता नहीं, वो तो कोई भी कर सकता है. उसमें छीछालेदरकर्ता की योग्यता पर कोई प्रश्न नहीं करता..
पता चले तो हमें भी बताइयेगा ...शायद कुछ ज्ञान अर्जित करलें ..
और
मैं
जुगनुओं की टिमटिमाहट से
अँधेरा
भगाता रहा!!
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ ...
कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
फिर ऊँची
जान पहचान....
मिल गये
बस इसी वजह से
जाने कितने
सम्मान...
बहुत गहरी बात कही आपने.....
रोचक पोस्ट.....
ब्लॉग पर तो ब्लॉग परिचय चलेगा समीरलाल (उत) या ज्ञानदत्त (माह) :)
@ नाम के बाद लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार.
एलिमेन्ट्री..., इसके लिए पढ़ना नहीं बल्कि लिखना पड़ता है, सिर्फ लिखना, बिना देर के लिख लीजिए, काम बन जाएगा.
वाह वाह समीर जी
आपकी तारिफ करते मुंह नहीं थकता। गजब है आपकी लेखनी।
shandar post
समसामयिक और सार्थक अभिव्यक्ति के लिये समीर जी को मुबारकबाद्।
बढ़िया व्यंग्य....
बहुत ही रोचक्…………मज़ा आ गया।
ब्लॉग जगत में आप आज जिस मुकाम पे पहुँच चुके हैं वहाँ आप खुद अपने नाम से "लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार." जोड़ सकते हैं ... बधाई !
बहुत ही बढ़िया पोस्ट !
बहुत सही कहा है आपने....भावनाओं के प्रवाह के वजूद को कोई क्या डिग्री दे।...लाजवाब।
साहित्यकार और तथाकथित प्रमाणित साहित्यकार के सन्दर्भ में यथार्थ के धरातल पर आप द्वारा लिखा गया सार्थक और मजेदार व्यंग्य लेख बहुत ही सामयिक और आकर्षक है |
कविता तो बहुत ही जानदार और प्रभावशाली है |
'आपकी लेखनी ही आपकी पहचान है '
बढिया मजेदार लिखा है .. मेरे पास ज्योतिष का एक भी सर्टिफिकेट नहीं .. पर मैं ज्योतिषी लिख सकती हूं .. वैसे ही आप अपने नाम के बाद लेखक, समीक्षक, अनुवादक, कवि एवं साहित्यकार लिख सकते हैं .. कोई पूछताछ नहीं होगी .. हमारा ब्लॉग इसका जीवंत प्रमाण है .. और हाथ कंगन को आरसी क्या ??
@खुशदीप सहगल .. ये आ.मं.आ क्या है ??
बहुत खूबसूरती से बयान किया है. समीर जी इस ब्लॉग जगत मैं भी बड़ी डिग्री बंट रही हैं जैसे (ब ब) (छ ब) और ऐसी डिग्री बाँटने वाली संस्थाएं भी खुल रही हैं. मैंने भी खुद से एक डिग्री ले ली एस एम् मासूम (सन. जौ ब ए) क्यों कि सुना है एस एम् मासूम ( ब ब) कि डिग्री लेने के लिए एक किलो बटर कुछ नक़ल किए हुए लेख़ और कविताओं के साथ भेजना पड़ता है और यह अपने बस कि बात नहीं.
एस एम् मासूम (सन.जौ ब ए)
बहुत ही रोचक और सटीक व्यंग...मजा आ गया..आभार
अच्छा व्यंग्य...बहुत ख़्ूब...प्लीज मेरे भी ब्लॉग को भी पढ़िए ना! यक़ीन है आप निराश नहीं होंगे और ज़रूर फॉलो करेंगे। आप जैसे कददावर लोगों से ही प्रोत्साहित होने की अपेक्षा रहती है।
आप हर बार कुछ ऐसा लिखते है कि मन प्रफुल्लित हो जाता है,आप तो स्वयं सरस्वती पुत्र है आप को किसी शैक्षिक प्रमाण पत्र की आवश्यकता नही, आप जो जी चाहे अपने नाम के पीछे लगा सकते है, किन्तु मेरा तो यही मानना है कि "समीर" ही सही रहेगा...
बाल न गिरने देने की गारंटी देने वाला मशहूर तेल बनाने वाले एक सज्जनके यहां दिल्लीमें छापा पड़ा तो वहां एक बोरा पत्र मिले जो कह रहे थे कि अबे तेरा ते लगा के गंजे हो गए. ये सज्जन अपने नाम से पहले डॉ. लिखते बिना किसी डिग्री के. परित्यक्ता पत्नी भी अलग से इसी तरह की डॉ. बनी मिली. अब कोइ करे भी तो क्या.
साहित्यकार (स्व.)...स्वर्गीय नहीं...स्वनामधन्य...अपनी ढपली जहाँ खुद बजाने का रिवाज़ हो...वहां ये सब तो चलता ही रहेगा...बाहर हाल विसिटिंग कार्ड और बायोडाटा में फर्क तो होना ही चाहिए...नेमप्लेट पर चाहे जो छपवा लीजिये...
बहुत ही बढ़िया वयंग्य है,खैर ये फैशन अब ज्यादा नहीं बचा है,
साभार- विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
:) मजा आ गया चाट पकौड़ी सी तीखी मीठी……।
लगे हाथ ये भी पूछ लेते दो्स्तों से कि सर्टिफ़ाइड लेग्पुल्लर की डिग्री पाने के लिए कौन सा एक्जाम पास करना होता है?
बेहतरीन व्यंग , मज़ा आ गया.
आगे से काम न चला पीछे लगा लिया,
'डिग्री' का एक हर्फ़ भी शोहरत दिला गया,
'इ' जब लगा तो आदमी 'इंसान' बन गया!
जो 'निर्मला' थी उसको 'बला' वो बना गया !!
http://aatm-manthan.com
भाई समीर लाल जी! आपके आलेख का अंदाज़ निराला है. बात अपने आसपास के किसी भी बिंदु से शुरू होती है और ज़ात से कायनात का एक चक्कर लगाती हुई अंत में एक नज़्म पर समाप्त होती है. इस बीच सामाजिक सांस्कृतिक जीवन की दिलचस्प झलकियां मिलती रहती हैं. मेरे खयाल से इसे गद्य की एक अलग विधा के रूप में नामित किया जाना चाहिए.
हमेशा की तरह दिलचस्प और प्रभावित करने वाला पोस्ट. बधाई!
---देवेंद्र गौतम
मजा आ गया पढ़कर...
हंसी के फव्वारे
व्यंग बहुत बढ़िया है..सप्ताहिक पिटाई वाली बात बहुत मजेदार लगी :)पर सच्ची है यह बिलकुल
चचा, बहुत झन्नाटेदार था ये। वैसे हमसे नाराज-वाराज चल रहे हैं क्या...हमरी गली आना नहीं होता। नाराज वाराज हो तो बताय दो हमका।
रोचक अंदाज़ पसंद आया
Sahi likha hai apne Sir...ajkal to yah faishon ho gaya hai....lekin ek mere patidev hain(hemant Kumar)ki vo D.Phill.,ki digrii lene ke bad bhi kahin apne nam ke age nahin likhte....apni kisi kitab men bhi unhone nahi likha....ye to vyakti ki apni apni soch hai....
Poonam
इसे कहते है व्यंग्य की मार , अच्छा लगा पढ़ करनये नये प्रयोग करते रहिये , शुभकामनायें
बचपन में लोगों के नाम के आगे (डी.लिट.)लिखा देखकर ऐसा ही सोचा करता था !
"ये समीर लाल 'समीर' की जगह समीर लाल (उ) क्यों न हुआ?"
करारा व्यंग्य......
बेहद रोचक शैली मन लगा गयी ...सादर !
अगर आप अपने नाम को इस तरह लिखा करे ---"समीर लाल 'समीर' धन्य भये" ...
तो शायद आगे पीछे कुछ लगाने की जरुरत न रहें ,और कुछ और पढ़ना न पड़े|
बात बात में आपने अच्छी पड़ताल कर डाली।
"द सर्टीफाइड साहित्यकार- (हि)!!!"
बहुत ही लाजवाब व्यंग्य..........
पहले इस तीखे कटाक्ष को झेल लें फिर सोचे...'द सर्टीफाइड साहित्यकार बनने की....
कविता लाजवाब जिसकी अंतिम पंक्तियाँ अपने मन की कहती सी लगती हैं...
धारदार व्यंग्य ..
आप ही अनुमान लगायें अपने डिग्री का :
समीर लाल (ब)
फिर एक रोज एक और नेम प्लेट पर श्याम प्रसाद त्रिपाठी, बी. कॉम. (आ) देख कर मैं खुद ही समझ गया कि हो न हो, बंदे ने बी. कॉम. आजमगढ़ से किया होगा. मेरा यही ज्ञान मैने अपने उस दोस्त को भी दिया और उसने अपना ज्ञान घर में बघारा और पिता श्री सुन्दर लाल तिवारी, बी.ए., एल एल बी(इला.) से फिर एक बार मरम्म्त करवा आया. ज्ञात हुआ कि (आ) मतलब आजमगढ़ नहीं आनर्स होता है. न जाने क्यूँ सब एक सा फैशन क्यूँ नहीं करते? जिसकी जो मर्जी हो, फैशन का नाम दिये करे जा रहा है. कोई सर मुड़ा लेता है, तो कोई जैल लगा कर बाल खड़े कर लेता है तो कोई पोनी बाँध कर मटकता है- शोभा देता है क्या भला यह सब, हें? मगर फैशन है तो है!!!
hahahahah
mastt!!!!!!!!!!
mazaa aa gaya....
ha waise "ila" ka matlab us mahapurush ki nazar me "e la=english language" ho sakta hai....
hahahah
लगता है आजकर कहीं बिजी हैं। या फिर सर्टीफाइड साहित्यकार बनने की कोशिश तो नहीं चल रही... ?
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ब्लॉग समीक्षा की 20वीं कड़ी...
आई साइबोर्ग, नैतिकता की धज्जियाँ...
आनन्द आ गया। आभार आपका। वैसे ललित जी का सुझाव पसन्द आया ब्ला0 का ।
सब बढ़िया रहा लेकिन ये बताइए आ से आज़मगढ़ ही क्यों याद आया आ से आगरा क्यों नही? डॉन लोगों से पहचान तो नही हो गयी है न!! :) :)
बहुत ही धारदार और जानदार व्यंग्य |नेमप्लेट लगाने और उसपर अपनी डिग्रियों को लिखने का प्रचलन कभी स्टेट्स सिम्बल हुआ करता था और मझोले शहरों में काफी अहमियत थी इसकी |यहाँ तक तो ठीक है |हमारे एक परिचित साहित्यकार ,अनुवादक ,कवि ,कहानीकार ,बाल साहित्य लेखक और जितनी भी विधाए है लेखन क्षेत्र में ,उनके रचयिता अपनी नेम प्लेट में इन सबके साथ प्रतीक्षित? फोन और फोन का चित्र भी बनवा लेते थे ,क्योकि उस जमाने में टेलीफोन लगने में काफी समय लगता था |
बच्चो की कुटाई करना तो पहले के दिनों में माँ बाप का जन्म सिद्ध अधिकार था मानो ?
इससे मिलता जुलता ही मैंने भी कुछ लिखा है समय हो तो कृपया पढ़े|
http://shobhanaonline.blogspot.com/
बिल्कुल सही कहा आपने..ये फैशन के नए दौर है नया है ये जमाना..समीर साहब शुक्रिया..
Pooja Goswami to me
कुछ
स्व प्रचार
कुछ शब्द
निराधार...
बहुत अच्छा व्यंग्य ....शुभकामनाएं...
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