आजकल किताबें पढ़ने में ज्यादा वक्त गुजर रहा है. शायद मूड स्विंग जैसा कुछ हो. कभी मन उचाट होता है तो न लिखने में और न पढ़ने में जी लगता है. कई बार लिखने बैठो तो ऐसा मन में लगता है कि एक कविता लिखना शुरु हो और जब उठे, तो देखा साथ कहानी भी तैयार हो गई. कभी ब्लॉग में मन रम जाता है तो कभी किताब में. कभी घूमने फिरने में तो कभी बस यूँ यूँ बिना कुछ किये खोये खोये बैठे रहने में. कभी संगीत सुनने की धुन चढ़ जाती है तो कभी सिनेमा देखने की. हर वक्त एक जैसा नहीं रहता. सब बदलता रहता है.
किताबों से यूँ तो लगाव रहा है लेकिन इतना डूब कर पढ़ने का मन बहुत समय बाद बना है जब एक के बाद एक किताब खत्म करते चल रहा हूँ. पढ़कर सीखना, कुछ लेखन की शैलियों से प्रभावित हो उन्हें आत्मसात करना, कुछ विवरणों में खो जाना मानो खुद भी उसके पात्र हो-जाने किस किस मोड़ से गुजर रहा हूँ.
कभी महसूस करता हूँ लेखक की सोच, उसकी मजबूरियाँ, उसकी फैन्टेसिज़, उसकी कल्पनाशीलता, शब्द चित्रण की कला तो कभी खीज भी जाता हूँ बेबात की बात का बतंगड़ बनते देख, दुहराव देख, गैरजरुरी विषय को जरुरत से ज्यादा तूल देते देख.
शायद मेरे लिखे को पढ़ कर भी लोग ऐसा ही कुछ सोचते हों, कौन जाने. लेकिन खुद का लिखा इस तरह से कभी पढ़ा नहीं तो जान भी नहीं पाया.
कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने से मैं खुद को हमेशा रोकता आया हूँ. शायद लिखूँ तो लिख भी पाऊँ मगर एक संकोच का घेरा है. एक दायरा सा है लेखन के विस्तार का जिसके भीतर मैं सहज महसूस करता हूँ. उसके परे जाते ही मुझे सबसे पहले वो चेहरे याद आते हैं जो मुझे जानते हैं और जो निश्चित ही मुझे पढ़ने वाले हैं. मेरे व्यक्तित्व का एक तय खाका है उनके जेहन में. मैं उन्हें तोड़ना नहीं चाहता. जो रंग भरे हैं उन्होंने मेरे व्यक्तित्व में, उसे बदरंग होते देखना मुझे फिलहाल तो मंजूर नहीं. अतः विषय और वृतांतो की व्यापकता एक सीमा रेखा के भीतर बाँधे रखती है मुझको.
हो सकता है अधिक पठन का प्रभाव इस सीमा को तोड़े. विभिन्न शैलियाँ प्रभावित करती हैं और एक से बढ़कर एक वृतांत जिन पर मैं नहीं लिख पाया, उन्हें एक सभ्यता के दायरे में विस्तार पाते देखना सुखद अनुभूति के साथ अचंभित करता है. इस मामले में हाल ही में पढ़ी ’खोया पानी’ के अनेकों वृतांतो नें खासा प्रभावित किया.
वहीं कुछ पुस्तकों में दर्ज फैन्टेसिज़ और विवरणों नें बेहद खीज भी उत्पन्न की. लगा कि कितना अनावश्यक था वह वर्णन किन्तु शायद लेखक कल्पना की उड़ान में जाकर भूल बैठा कि पाठक वर्ग उसकी नितांत व्यक्तिगत फैन्टेसिज़ से कोई साबका नहीं रखता और वो अपने जेहन में लेखक का व्यक्तित्व वैसा ही बनायेगा, जैसा वो उसे पढ़ेगा.
शायद लेखक को व्यक्तिगत रुप से जानने की वजह से इस तरह का लेखन एक भूलभुलैया जैसा वातावरण निर्मित कर देता है. एक बार लगता है कि यह वह नहीं जिसे मैं जानता हूँ. फिर लगता है कि कल्पनाशीलता की उड़ान कब बाँधी जा सकती है किसी दायरे में. फिर तुरंत ही विचार आता है कि कल्पनाशीलता का आसमान भी तो किसी न किसी धरातल का सहारा ले खड़ा होता है.
आज तो नहीं ही उड़ पाता वैसे जैसा कि देखता हूँ लोगों को रचते. शायद कल लिखने लगूँ- कल किसने देखा है.
ईंट रेता सीमेंट
जोड़ कर
खड़ा किया
एक मकान
और
वो
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा...
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
-समीर लाल ’समीर’
79 टिप्पणियां:
जब भंडार हो आसपास, तो मन तो अपने आप असमंजस में आ जाता है, कि क्या करे,
गांधी जी कहते थे, आदमी अपने भीतरी आवाज़ को कभी न दबाए, भले ही वह अकेला हो।
अब ये कल्पना की हो या वास्तविकता की, जमीं पर हो या फलक में, आनी ही चाहिए ... बाहर।
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं,
sahi kaha dada.. behatrin .
हां सर ....मन को काबू कर पाना आसान नहीं है...जब बड़े बड़े दिग्गज इसे काबू नहीं कर पाए तो हम भला कैसे कर सकते हैं...खैर किताबें पढ़ने का शौक भी काफी सराहनीय है... लगे रहिए सर
जब तक मन इसमें रमा रहे...धन्यवाद
न जाने कितनों के मन की बात कह दी, अपने से ईमानदार होते तो लगभग सब यही कहते और लिखते।
परिंदे भी नहीं रहते पराए आशियानों में,
अपनी तो उम्र गुज़री किराए के मकानों में...
जय हिंद...
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं....
घर बनाने में सिर्फ ईंट पत्थर गारे नहीं होते
प्यार ख्याल शोखी बचपन नोकझोंक ना हो
तो घर नहीं मकान होता है
जो खंडहर सा दिखता है
आडम्बर में जड़े चेहरे
कंकाल से लगते हैं
सब एक दूसरे से ही डरते हैं
और बचाव का रास्ता ढूंढते हैं !
सरजी जिसने घर बनाया वही इसका मर्म जनता है। और ये आज कल आपको मेरी वाली लत कैसे एकाएक लग गई। सेम टू सेम।
बधाई-आज दैनिक हिन्दुस्तान में आपका आलेख देखा, मन प्रसन्न हो गया।
भाई, हमें भी कुछ दवाई दे दो !किताबें अटी पड़ीं हैं,धूल आ रही है पर पढ़ने में उकताहट होती है,मन नहीं करता !
फिलहाल आप पढते रहें और हमें उसका रस पिलाते रहें !
अच्छी विचारोत्तेजक व भावनात्मक प्रस्तुती ...मन की आवाज ही सच्ची होती है..बांकी सब तो बनावटी है...
मन पर जोर नहीं है, इसकी जो रुचि होती है वही काम कराता है।
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
प्रयास से क्या संभव नहीं. उत्सुकता हो रही है. शुभकामनाएँ.
ek rachnaasheel vyakti ke antarman kee sashakt abhivyakti...
ईंट रेता सीमेंट
जोड़ कर
खड़ा किया
एक मकान
और
वो
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा...
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
क्या किया जाए .. भौतिक सफलता को ही आज सबकुछ मान लिया जा रहा है !!
कल को देखना क्या भला। आपकी रचनाधर्मिता है तो उज्वल ही होगा।
फंतासियों को सहेज कर रखना चाहिये। उनको उल्टो-पल्टो तो सही निकलती हैं!
बहुत सुंदर अच्छा लगा पढ़कर !
achchha likha hai ...soch aur kalpna sheelta ka aar paar kya koi paa saka hai ...lekhni ka to seedha seedha sambandh hai ...
नियमित दो घँटे पढ़ने का क्रम बना लीजिये,
मन ताज़ा रहेगा... बशर्ते कि आप एकाँत में पढ़ रहे हों ।
सही राय दे रहे हैं, अनुमोदित कर देना भाई जी !
अरे ! मैं सोचती थी कि ऐसा केवल मेरे साथ होता है पर..........आपके साथ भी?कभी लगातार लिखती हूँ.कभी कई दिनों तक एक भी नही.मानवीय स्वभाव हर धरातल पर एक सा है.हा हा हा
मेरा दादा एकदम मेरे जैसा.हा हा
इतनी किताबें ! किताबों का बहुत शौक रहा है मुझे भी किन्तु काफी समय से नही पढ़ रही.एक समय था जब बिना पढे नींद नही आती थी...जाने क्यों खुद से दूर भागने लगते है कभी कभी. आपको पढ़ती हूँ जैसे खुद से खुद की बात कर रही हूँ.यकीन मानेंगे?
अरे मकान भी सपने होते जा रहे हैं आज कल. कीमते आसमान छू रही है.एक तो मकान बनाना ही मुश्किल फिर...मकान को घर बनाते बनाते कब उम्र निकल गई पता ही नही चला.जिस घर को बनाने में उम्र लगा दी....देखा...चूजे पूर्ण परिंदों में तब्दील हो उड़ चुके हैं और....देखते रहे ..क्यों ,किस लिए बीता दी उम्र यूँ ही.हा हा हा शब्दों के जादूगर...आजकल अधूरा अधूरा सा लिखने लगे हो..जैसे कहीं कुछ रह गया लिखने से.मुझे लगता है भाई.क्या करूं? ऐसिच ही हूँ मैं तो.
बहुत सुन्दर आपकी प्रभाव कारी लेखनी का राज़ पता चला ...ये बात तो सच है की आप जब कुछ लेख लेखन की शैलियों को पढकर सच में प्रभावित हो जाते है तो धीरे से वो शैली आत्मसात करने लगते है
‘ऐसा मन में लगता है कि एक कविता लिखना शुरु हो और जब उठे, तो देखा साथ कहानी भी तैयार हो गई. कभी ब्लॉग में मन रम जाता है तो कभी किताब में. कभी घूमने फिरने में तो कभी बस यूँ यूँ बिना कुछ किये खोये खोये बैठे रहने में. कभी संगीत सुनने की धुन चढ़ जाती है,,,,’
न जाने ऊँट किस करवट बैठे!!!!! :)
apki soch....shabd...aur shaili.....
ka sangam...mano athah samandar ke
talchati ke par bhi kuch dekhne ka
bhan karata hai...................
pranam.
आपसे सहमत, एक छवि जो बनी हुई है उससे इतर कुछ भी करने से वह टूट जाती है. किस रूप में किसने क्या सोच रखा हो. हमारी अपनी सीमायें खुद ही बनायीं हुई होती हैं और उनमें रहना अच्छा लगता है.
कविता सच बयान कर रही है. हर मकान घर नहीं होता और कई घर ऐसे होते हैं जिनके पास अपना मकान नहीं होता.
जो मन में दबा है वह एक न एक दिन आएगा जरुर बाहर.लेखक ह्रदय उसे ज्यादा समय छुपा कर नहीं रख सकता. देखते हैं आपकी सीमा और रेखा कब तक रोक पातीं हैं उसे :)
ज़रूर पढ़िएगा किताबें, पर अपनी शैली मत छोड़िएगा..........ये शैली ही लिखावती है:-
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
Aapkee baat vichaarniy hai. lekh
aur kavita dono hee achchhe hain.
लिखने की बस एक ही तैयारी होती है पढो.. आप पढ़ रहे हैं यानी लिखने की तैयारी कर रहे हैं... और कविता /क्षणिका बेहद सुन्दर है... वाकई घर बनना आसान नहीं है...
कोई उपन्यास पढने आर उसके पात्र देर तक उधम मचाये रखते हैं , कैसे रहे होंगे , ऐसा कैसे हुआ होगा , उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा ...पढ़ते समय लेखक या लेखिका नहीं , उसके पात्र रहते है सामने तो कैसी दुविधा ..
लोगों की बदल रही है जिस तरह फितरतें
मकान या घर ,फर्क कहाँ लगता है ....
आपका पठान का शौक हमारे लिए तो बहोत फायदेवाला है....कब क्या सीख मिल जाए, नया जानने को मिल जाए....
और पंक्तियाँ बेहद खुबसूरत लगीं
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
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ईंट रेता सीमेंट से मकान बनता है , घर नहीं ।
बहुत सही बात कही ।
किताबों में खो जाना भी एक कला है । सब की बस की बात नहीं ।
हाँ यह बात तो सही है कि इंसान हर चीज़ नहीं कर सकता.. वही लेखन के साथ भी है कि एक इंसान हर तरह की लेखनी नहीं लिख सकता..
इसलिए बेहतर यही है कि जिसमें दिल लगे, वही लिखें.. वरना दुनिया में सीखते और करते-करते ज़िन्दगी निकल जाएगी :)
Beautifully scribbled ...thanks Sameer ji.
क्या ही अच्छा होता, अपनी पसंदीदा किताबों या जो पढ़ते हुए पसंदीदा होती रही, जिक्र भी किया होता!!
खैर इस तरह भी बात हो सकती है। अगली बार अपेक्षा रहेगी कि कुछ पोस्टों में जिक्र होता रहेगा। आभार।
sabka aisaa sundar ghar ho..
yahaa-vaahaan keval akshar ho.
कुछ विषय ऐसे होते हैं जिन पर लिखने से मैं खुद को हमेशा रोकता आया हूँ. शायद लिखूँ तो लिख भी पाऊँ मगर एक संकोच का घेरा है. एक दायरा सा है लेखन के विस्तार का जिसके भीतर मैं सहज महसूस करता हूँ. उसके परे जाते ही मुझे सबसे पहले वो चेहरे याद आते हैं जो मुझे जानते हैं और जो निश्चित ही मुझे पढ़ने वाले हैं. मेरे व्यक्तित्व का एक तय खाका है उनके जेहन में. मैं उन्हें तोड़ना नहीं चाहता. जो रंग भरे हैं उन्होंने मेरे व्यक्तित्व में, उसे बदरंग होते देखना मुझे फिलहाल तो मंजूर नहीं. अतः विषय और वृतांतो की व्यापकता एक सीमा रेखा के भीतर बाँधे रखती है मुझको
बिल्कुल सच्ची बात है.... अभिव्यक्ति का अधिकार मतलब कुछ भी लिखने का अधिकार नहीं होता... पर इतनी जिम्मेदारी से लिखना आजकल कम ही हो गया है.... हां.... अगर लिखने के पहले लेखक अपनी छवि के मुताबिक लिखने का सोचें तो स्थितिियां बदल सकती हैं.... प्रेरणादायी पंक्तियां... कम से कम मुझ जैसे इंसान के लिए.
shradhey smpaadk ji ,
aapke "ghr" ne mn ka bhandaar khol diyaa . vaastv men mnushy ka jeevn hi ek ghr ke smaan hai. jise voh bnaate bnaate ane sapnon ka mhal is duniyaan se chla jataa hai lekin kaya kabhi uska spnaa pur ho paataa hai. Bhut sundr vishy hai. Aap hm sbki prernaa hain . Shiam Tripathi
I have commented earlier also but i guess due to some technical error it didn't appear on the post. Anyways Nice post.
संगीत सुनते हुए...यूँ बिना कुछ किये खोये खोये बैठे रहने में.... ही मन रमा है आजकल...
अच्छी विचारोत्तेजक व भावनात्मक प्रस्तुती|धन्यवाद|
यह तो सच है...मूड स्विंग्स पर बहुत कुछ निर्भर होता है...पर कुछ लोगो के लिए ये एक लक्ज़री नहीं??
घर बनाना कभी आसान नहीं होता, आपका लेख पढ़ कर प्रसन्नता हुई,जीवन की अनबूझी सच्चाई को जीवंत कर दिया आपने,
मन कहाँ एक जगह टिक पता है
कविता अच्छी लगी
बहुत बढ़िया!
"काव्यशास्त्र विनोदेन् कालोगच्छति धीमताम्!"
मन की इस रिक्तता को भरने के लिए पठन से बेहतर कुछ नहीं.... व्यक्तित्व की इमेज को लेकर आपकी स्पष्ट और सच्ची स्वीकारोक्ति मन में उतर गयी......... सच में यही तो होता है.....जिसे हर कोई कह नहीं पाता ...या फिर जानकर कहना नहीं चाहता .... शुभकामनायें
चचा, पहला पैरा पढ़के लगा कि उसे अगर मेरे जैसा अल्हड़ किशोर लिखता तो कहा जाता लौंडा प्यार में पड़ा है। अब आप पर ऐसा आरोप, इस उमरिया में तो हम लगा नहीं सकते। आप ही बताएं...इन्ना सब कुछ आप के साथ हो रहा है...और अगर इ पियार नहीं है तो अउर का है?
seedhee aur sachchi baat ,bahut achchi lagi.
इतनी किताबें तो असमंजस ही पैदा करेंगीं>>>>>थोड़ी इधर सरका दीजिये, असमंजस कम हो जायेगा.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
एक अच्छी छवि बनाना आसान नही... उसे बिगाडना कठिन नही, बहुत अच्छी बात कही आप ने, धन्यवाद
"ईंट रेता सीमेंट
जोड़ कर
खड़ा किया
एक मकान
और
वो
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा..."
सही कहा आप ने....किताबें इंसान की सबसे खास मित्र हैं...चक्रधर जी ने कहा है-"बच्चों को चेविंग-गम" न खिलाएं, उन्हें किताबें पढाएं.."
ऐसे मूड स्विंग का स्वागत है...कि कुछ हट के पढ़ने को मिला...कवि या लेखक को यही तो मजा है...कि जो लोग सोच नहीं सकते वो उसे भोगता है...कभी-कभी ये अंतर्दृष्टि सुख देती है जब आप मजेदार चरित्र को फोलो रहे हों...अन्यथा दुःख भी देती है...फेंटेसी कि बिना कविता या कहानी या लेख लिखना मुश्किल है...
Respected Sameer Ji saadar abhinandan. Bahut Achha, Makan to sab log banate hai, par asal jaddojahad to us makan ko ghar banane ki honi chahiye. Kash, Sabhi Makan Ghar mai tabdeel ho jaye! to phir aapka likhna saarthak ho jaye. Ek baar phir dhanyabaad.
"बेढब फेंटेसीज़" के दो दौर होते है- पहला जब किशोरावस्था की दहलीज़ पर व्यक्ति क़दम रखता है ,तब मन क्या-क्या नहीं सोचता, क्या-क्या नहीं चाहता ? दूसरा उम्र के ढलान पर !
# पहले दौर में नादानी और ग़ैर ज़िम्मेदारी होती है, दूसरे में परिपक्वता और ज़िम्मेदारी का अहसास.
# पहले दौर में उत्सुकता, जोश और आनंद भरा होता है, दूसरे में उदासीनता, ठहराव और निराशा का भाव भी होता है [निर्भर करता है].
# पहले दौर में जो चंचलता होती है वह शब्दों और कर्मो में व्यक्त करने में नि:संकोचता होती है, दूसरे दौर में संकोच घेर लेता है ( जैसा कि शायद आप के साथ हो रहा है!] इसके अपवाद भी हो सकते है.
# छबि कि चिंता पहले दौर में कम ही रहती है जब उसका जीवन एक 'मकान' की सूरत होता है, दूसरे दौर तक पहुँचते-पहुँचते वह अपने जज़्बात का, अहसासात का, पोज़िशन का , आडम्बर का एक 'घर' बना चुकता है, ख़ुद को एक 'घेरे' में ले चुका होता है. [ अपवाद की गूंजाईश यहाँ भी रहती है]
# अब जो एक नया दौर शुरू होता है उसका नाम है - "कशमकश"............ अपने ही बुने हुए जाल में फंसा इंसान ! अभी जबकि वह ज़्यादा अनुभवी, और रसूखदार होता है, अपनी मन चाही करने में, कहने में लिखने में ख़ुद को प्रतिबंधित पाता है. एक विचार जो उसको सबसे अधिक उद्वेलित करता है वह है "यौन" सम्बन्धी. मगर इसी की अभिव्यक्ति में उसे सबसे अधिक दुश्वारी पेश आती है, ख़ास कर जब 'लिखने' का मामला दरपेश होता है. कुछ बाते तो वह दरपर्दा [indirect] कहकर मन की भड़ास निकाल लेता है, बकाया में 'अपनी नैतिकता का प्रहरी' बन छटपटाता रहता है.
sir koi books mujhe bhi suggest kariye
abhi to saare novel end ho gaye hain
jo mere pass the
theek kaha sir aapney ,sab kuch asaan nahi hota /aapki tippani ke liye abhar/aapki pustak ka abhi intejar kar raha hoon/
sader,
dr.bhoopendra
rewa
mp
ईंट रेता सीमेंट
जोड़ कर
खड़ा किया
एक मकान
और
वो
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा...
KYA BAT HAI SIR G 1MAZA AA GAYA YE PANKTIYAA PADH .
क्या बात है ) .....सादर !
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
घर बनाना ही तो मुश्किल है ..मकाँ तो कोई भी बना ले ... बहुत अच्छा लगा लेख और कविता कि चंद पंक्तियाँ
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
शायद इसीलिये बने-बनाये पर कब्जा की प्रवृत्ति बढ रही है.
अंतर्द्वन्द ही नवसृजन का आधार होता है
सही कहा समीर जी,,,,,
महज़ ईंट सीमेंट से घर बन पाता तो क्या बात थी....... घर के मायने बहुत कुछ भिन्न हैं, समझे तो ठीक वर्ना बेजान दीवारों तक सिमट कर रह जाइये. ........बहरहाल उम्दा रचना .
सच है...अपने बनाये घेरे से अक्सर ही आदमी बाहर नहीं निकल पाता....
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
सत्य समेट कर रख दिया!
सुन्दर शब्दों से सुसज्जित भावनात्मक प्रस्तुती के लिए बधाई!
Dear Samir,
You may recall my mail of March 2011 regarding Pages of Diary of a Senior person in you Blogs.
I am awaiting your response, as well as further Pages in this series
चंद पंक्तियाँ में रचना रूप में आपने बहुत कुछ कह दिया है ... आभार
मूड स्वींग होने के बावजूद गहन कविता लिख डाली, बधाई।
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा... कितना नादान है
जानता नहीं
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
बहुत अच्छा लगा कविता पढ़ कर।
P.S. 'नहीं' की जगह बदल कर पढ़ी है, माफ कीजिएगा।
उड़न तश्तरी जी नमस्ते!
मै तो यहाँ आया था की शायद यहाँ पर एलियंस मिलेगा पर क्या कहूँ निराशा हाथ लगी
फिर मैंने आपके लेख पढ़े अच्छे लगे मुझे पछतावा है की मै इतना देर से क्यूँ आया ? माफ़ कीजिएगा देर से आने के लिए ....
आज कल जिन्दगी इतनी व्यस्त है की इंटरनेट पर आने का समय नहीं मिल पाता!
बहुत सुन्दर रचना ! एक यही कसक मन में लिये जीवन बीत जाता है कि हमें भी कभी समझा जाये, सराहा जाये !
मेरी बधाई स्वीकार करें !
उड़न तश्तरी जी नमस्ते!
मै तो यहाँ आया था की शायद यहाँ पर एलियंस मिलेगा पर क्या कहूँ निराशा हाथ लगी
फिर मैंने आपके लेख पढ़े अच्छे लगे मुझे पछतावा है की मै इतना देर से क्यूँ आया ? माफ़ कीजिएगा देर से आने के लिए ....
आज कल जिन्दगी इतनी व्यस्त है की इंटरनेट पर आने का समय नहीं मिल पाता!
बहुत सुन्दर रचना ! एक यही कसक मन में लिये जीवन बीत जाता है कि हमें भी कभी समझा जाये, सराहा जाये !
मेरी बधाई स्वीकार करें !
सचमुच, मकान और घर में बहुत फर्क है!
किसी मशहूर शायर ने लिखा है.... उम्र गुजर जाती है ,इक आशियाँ बनाने में,लोग बाज़ आते नहीं ,बस्तियां जलाने में
जीवन में उहापोह के ये क्षण आते ही हैं.कितना भी बड़ा हो जाये ,मनुष्य तो आखिर मनुष्य ही है.बिखरे मोती पढ़ी.बहुत से पन्नों ने मन की गहरे को छुआ.आपको याद दिला दूँ कि जबलपुर की ब्लोगर्स मीट में आपसे भेंट हुई थी .आपही ने बिखरे मोती दी थी.पूर्व में भी आपके ब्लॉग में आया था,आपका कोई रिस्पोंस नहीं मिला.फिर भी आपकी रचनाओं के हम कायल हैं.
वाकई घर बनाना इतना आसान तो नहीं जितना कहना। हर बार की तरह आपका कोई जबाव नहीं।
अपनी सोच तो "मन को पिंजरे में न डालो मन का कहना मत टालो" के ईर्द-गिर्द ही चलती है ।
कुछ आपके वृतांत जैसी उहापोह और कुछ पारिवारिक कारणों से उपजी व्यस्तता के चलते इतनी देरी से आपकी ये ब्लाग पोस्ट पढने के लिये क्षमा सहित...
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
ekdam sahi... deewaren khadi kar ke makan banana aur bat hai lekin ghar banana asan nahin..
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं...
आपकी कविता....आपका गद्य लेखन दोंनों का जवाब नहीं....
पढ़ना,लिखना और सीखना...और चाहिये भी क्या !
आप पढते रहें और हमें उसका रस पिलाते रहें
साधारणतः जब हम लिखते हैं तो पाठक के रूप में सबसे पाले हमारे दिमाग में वो लोग आते हैं जो हमें जानते हैं... यह हमारे लेखन को कहीं न कहीं बांधता है.. उसका प्रवाह प्राकृतिक नहीं रह जाता.. वही लेखक इतिहास बन पाते हैं जो लिखते समय पाठक और उसकी प्रतिक्रया के बारे में नहीं सोचते.. आप एक बार प्रयोग तो करें.. मुझे विश्वास है कि आप वहाँ भी अपना लोहा बनवाएंगे..
ईंट रेता सीमेंट
जोड़ कर
खड़ा किया
एक मकान
और
वो
अपनी कामयाबी पर
मुस्कराता रहा...
सच है मकान आसानी से नही बनता ... मुद्दत सपने देखने पढ़ते हैं रंग भरने की लिया ...
मन नही लग रहा तो दुबई आ जाओ ...
किताबों से अच्छा दोस्त और कौन हो सकता है .. लेकिन किताबे सिर्फ दोस्त ही नही होती वे हमारे लिये जाने कितनी भूमिकाओं का निर्वाह करती हैं । आपका चित्र देखकर ऐसा लगा जैसे आप मेरे कमरे में हैं ।
किताबों से अच्छा वाकई कोई मित्र नहीं ...अक्सर जब मनचाहा पढने को मिले तो बात ही क्या है
कितना नादान है
नहीं जानता
घर बनाना
इतना भी आसान नहीं... -
बहुत सच्ची बात कही .....घर और मकान ..कोई समझे तो समझाएं न ..
हर किताब एक नई सोच को तैयार करती है..पढ़ते रहिये और लिखते रहिये..
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