सन २००६. तब बोलू इस घर में आई थी ऐना की साथी बनकर. नामकरण बोलू करने के पीछे भी एक यादगार कारण ही रहा वरना नाम भला बोलू कौन रखता है.
" हमारी ससुराल मिर्ज़ापुर की है. एक बार जब हम गये वहाँ और हमारे ससुर साहब ने,(जो कि अब नहीं हैं इस दुनिया में), मुझे उनके एक मित्र ,(जो कालिन का धंधा करते थे) की फेक्टरी देखने भेजा ,वहां जाने पर मालिक ने हमारी खातिरदारी की, दामाद जो थे हम और वो भी विदेश से आये. अपने खास नौकर को न जाने क्या समझा कर हमारे साथ किया. वो हमें गोदाम दिखाने लगा, पहली कालीन दिखाई और कहा कि ई बोलू है हम सोचे कि यह कोई क्वालिटी होती होगी. तब तक दूसरी कालीन दिखाई और कहा कि ई रेड है, लाल रंग की थी वो. तब हम यह समझ पाये कि पहले वाली नीली थी इसलिये बोलू (ब्लू)....यह नयी वाली भी नीले रंग की है सो नामकरण हुआ "बोलू". :)
बोलू-एना की साथी-अब दो-तोते |
मगर कुछ दिन का ही साथ रहा दोनों का और ऐना चल बसी. तब बोलू कुछ उदास और बुझी बुझी रहने लगी. बोलू का अकेलापन हमसे देखा नहीं गया और हम इसके लिए भी एक साथी लेते आये. भारतीय हैं तो नाम तो मिलता जुलता रखना ही था रो बेसिर पैर का नाम मोलू नये वाले को मिला. अब बोलू मोलू का साथ हो गया. खूब खेलते आपस में, दिन भर गाना गाते, खाना खाते मगर पिंजड़ा खुला भी रहे तो बाहर न आते. आपस में एक दूसरे का साथ ही इनकी दुनिया बन गई. इन्हें हमारी जरुरत न रही कम से कम खेलने और दिल बहलाने को.
लेकिन फिर भी शायद कभी सोचते हों कि चलो, इतना ख्याल रखते हैं मियां बीबी हमारा तो इनका दिल बहला दें तो पिंजड़े से निकालने पर निकल आते. कुछ देर साथ बैठते और मौका लगते ही पिंजड़े में वापस. माँ बाप को क्या चाहिये कि बच्चे खुश रहे बस!! कभी कभार हाल पूछ लें वरना तो उनकी अपनी दुनिया और उनका अपना परिवार. ये बात ये दोनों भी भली भाँति समझ चुके थे.
इस बीच हमारे घर तोते (इनको मैं तोता कहता हूँ मगर यह उसी प्रजाती के किन्तु बज़्ज़ी कहलाते हैं) का हँसता खेलता परिवार देखकर हमारी अफगानी पड़ोसी भी तोता पालने का मोह लगा बैठी. इन्हीं दोनों की ब्रीड का एक तोता वो भी लेती आई. पिंजड़ा खरीदा, खाना आया. सब करने की कोशिश की हमारी तरह मगर, जैसे छोटे बच्चों की बदमाशी भी तभी अच्छी लगती है, जब वो दूसरों के घर हो रही हो. यह बात हमारे पड़ोसी को भी जल्दी ही समझ आ गई और एक दिन कहने लगी कि मैं उसे उड़ाने जा रही हूँ. मुझसे नहीं पाला जायेगा.
जो बच्चा पैदा होते ही घर में पला हो वो भला जंगल में कैसे रह पायेगा? मुझे चिन्ता होने लगी. जंगल में रहने के कायदे अलग होते हैं, वो इस बच्चे ने कभी सीखे ही नहीं भले ही चिड़िया हो. वही हाल उन भारतियों के बच्चों का होता है जो अमेरीका/कनाडा में जन्म लेते हैं. उन्हें भारत जाकर रहने को बोल दिजिये तो चार दिन न रह पायेंगे. उन्होंने कभी सीखा ही नहीं वो लाईफ स्टाईल जहाँ आपको अपनी जगह खुद बनानी होती है. अपने ही अधिकार को हासिल करने के लिए लड़ना होता है. घूस खिलानी होती है.
यही सब सोच कर मैने पड़ोसी से कहा कि उसे उड़ाओ मत, वो मर जायेगी. एक शेर कहीं पढ़ा था, वो याद हो आया:
क़फ़स से निकल कर किधर जायेगी
रिहाई मिलेगी तो मर जायेगी...
(क़फ़स=पिंजड़ा)
हमने उससे कहा कि हमारे घर तो दो पल ही रही हैं, तीन पल जायेंगी. हमें दे दो. हम पिंजड़ा बड़ा ले आये और तीनों उसमें रहने लगे. इस नये सदस्य का नाम खुशाल रखा गया क्यूँकि उसका प्रारंभिक लालन पालन एक मुसलमान के घर हुआ था. हम चाहते थे कि वो अपनी जड़ों से कटा न महसूस करे तो उसे खुशाल पुकारते. जानवरों में मजहबी विवाद जैसा रोग अभी नहीं पहुँचा है इसलिए तीनों घुल मिल कर रहने लगे, खूब खेलते. गाना गाते तो एक सुर में, चिल्लाते तो एक सुर में, सोते तो एक समय, जगते तो एक समय.
कई बार इच्छा हुई कि हम इन्सान इनसे कुछ सीखें, इनके रहन-सहन पर लिखूँ मगर टलता ही रहा.
तीनों शाम सात बजते ही हल्ला मचाते याने कि अब नींद आ गई है, कंबल उढ़ा दो. जैसे ही कंबल उठाया जाता, तीनों अपने अपने झूले पर सो जाते. सुबह जब तक हम सोते, वो भी सोते रहते मगर जैसे ही मेरे पैर बिस्तर से नीचे उतरते, मेरे कमरे से एक मंजिल नीचे १५ सीढ़ी दूर इन तीनों का कंबल के भीतर से ही कोरस गान शुरु हो जाता. समझते की मम्मी पापा दोनों उठ गये हैं. फिर मैं इनका कंबल हटाता और कहता कि बच्चों, मम्मी अभी सोई हैं. अभी तो हमें ही चहकना अलाऊड नहीं है तो तुम कैसे चहक सकते हो, तो तीनों चुप होकर मम्मी के उठने का इन्तजार करते. जब वो उठती, तो तीनों का फिर चहकना चालू. हालांकि चहक तो हम भी साथ ही उठते थे उस वक्त.
पिछले तीने दिन से ६ साल की बोलू जरा ढीली दिख रही थी. उम्र तो हो ही चली थी. अधिकतर ये प्रजाति ३ से ४ साल जीती है मगर शायद घर का खाना और माहौल उसे ज्यादा उम्र दे गया. बाकी मोलू और खुशाल उसे हैरान करते रहे कि साथ खेलो मगर वो निढाल सी थोड़ा सा खेलती और फिर बैठे बैठे सो जाती. दोनों उसे हिलाते, जगाते तो फिर थोड़ा खेलती. अपने साथियों का मन बहला देती
२१ तारीख को दुनिया खत्म होने की भविष्यवाणी थी. शाम सात बजे बोलू अपने झूले से उतर पिंजड़े के फर्श पर आ बैठी. यह एक प्रकार से इस बात का ऐलान होता है कि मेरे दिन अब पूरे हुए. उसके लिए शायद भविष्यवाणी सही हो रही थी. पत्नी की नजर पड़ी तो उसे सफेद कपड़े में लपेट कर पिंजड़े के बाहर निकाला. अभी सांसे बाकी थी. वो मुझे ताक रही थी. मैने उसके सर पर हाथ फेरा और कहा कि बेटा, निश्चिंत होकर जाओ और अब दादी के साथ वहाँ खेलना. ऐना भी उनके पास है, वो इन्तजर कर रही हैं तुम्हारा. बस दोनों दादी को परेशान मत करना. फिर मैने उसे एक बून्द पानी पिलाया कि प्यासी न जाये. क्या पता कितना लम्बा रास्ता हो दादी के पास तक पहुँचने का. सर पर हाथ फेरा, उसने आँख बंद की और अपनी मम्मी के हाथ में लुढक गई.
हम पति पत्नी एक दूसरे को बहती आँखों से लुटे से देखते रह गये और बोलू चली गई.
सूर्यास्त हो चुका था, इस समय हमारे यहाँ अंतिम संस्कार नहीं किया जाता तो एक डब्बे में उसे आराम से लिटा कर सफेद कपड़ा उढ़ा दिया और अगली सुबह के इन्तजार में अगरबत्ती जला कर रख दी.
मोलू और खुशाल ने फिर कुछ खाया नहीं तो उन्हें भी कंबल से ढक कर सुला दिया. शायद समझ गये हों कि बोलू का साथ यहीं तक था. इतना लम्बा साथ रहा और उसका एकाएक यूँ चले जाना, कैसे कुछ भी खा पाते बेचारे.
सुबह उठकर घर के पास ही बोलू को ओन्टारियों लेक में कुछ पुष्पों के साथ प्रवाहित कर दिया.
मोलू, खुशाल धीरे धीरे सामान्य हो रहे हैं. कुछ खाने भी लगे हैं और बीच बीच में चिल्लाना और गाना भी शुरु कर दिया है मगर ज्यादा तो मिस ही कर रहे हैं अपनी साथी को. जीवन तो रुकता नहीं, फिर सामान्य होना ही होता है.
मुझे पता है कि हमारी प्यारी बिटिया बोलू, दिल की इतनी कोमल और शीशा देखकर अपने चेहरे को निहारने की शौकीन, अगले जन्म में किसी अच्छे घर में सुन्दर सी इन्सानी बिटिया बन कर जन्म लेगी..कभी दिखी तो मैं पहचान लूँगा उसे.
माँ बाप तो बच्चों को हर रुप में पहचान ही जाते हैं.
बहुत याद आ रही हो तुम बोलू.....मुझे, मम्मी को और मोलू और खुशाल को भी. तुम्हारा झूला पिंजड़े में खाली टंगा है, उसे अलग करने की हिम्मत मुझमें अभी तो नहीं है बिटिया. शायद कल को यह हिम्मत हो जाये मगर दिल के पिंजड़े में तो तुम हमेशा टंगी ही रहोगी उस झूले पर गाना गाती.
तुम खुश रहना हमेशा, जहाँ भी रहो!!!!
74 टिप्पणियां:
ओह.
:-(
पढ़ते-पढ़ते हमारा भी दिल भर आया... उस जहां में भी इसी तरह खुशियाँ बाटती रहे, यही दुआ है...
समीर जी आपने बहुत ही सुन्दर और विस्तारित रूप से लिखा है प्यारी पंछियों के बारे में! मुझे बोलू नाम बेहद पसंद आया क्यूंकि ये बिल्कुल अलग तरह का नाम है ! ब्लू रंग से हो गयी बोलू! रंग बिरंगे सुन्दर पंछियों को देखकर मेरा मन भर गया! जब मैं मसकट में थी तब मेरे पास दो पंछियाँ सफ़ेद रंग की थी जिसका नाम मैंने रखा था "चुकू" और "चिंकू"! उम्दा पोस्ट!
दिल भर आया पढ़कर। आत्मीयता हो जाती है, उनको भी समझ में आता है। कुछ पिछले जन्मों का रिश्ता रहा होगा।
भावुक कर गई पोस्ट.
मर्मस्पर्शी संस्मरण , वह शेर यूँ है इतने मानूस सैयाद से हो गए, अब रिहाई मिलेगी तो मर जायेंगे |
तन पिंजर में मनमोहन बोलू-बिल्लू के लिए धड़कता दिल.
हम ने कभी पंछियों को पिंजरों में न पाला। पर छत पर रोज दाना डालते हैं। पानी की व्यवस्था भी नियमित है। अनेक पंछी रोज आते जाते हैं। पर किसी विशेष से मोह नहीं रहा। तब दुख होता है जब किसी को बिल्ली अपना शिकार बना लेती है। फिर सोचते हैं। यही नियति है।
पालतू पशु-पक्षी अक्सर घर के सदस्य जैसे हो जाते हैं. उनके प्रति संवेदना जागृत होती है. आपने उस संवेदना को बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति दी है. इस पोस्ट में जज़्बों की ऐसी रवानी है जो ह्रदय को छू जाती है.
----देवेंद्र गौतम
संवेदनशीलता शायद इसी को कहते हैं ......लोग तो इन्सानों को भूलने में भी एक पल नहीं लगाते हैं और आपने इन पंछियों को भी अमर कर दिया ...... सादर !
सुबह की पहली पोस्ट और उसके यूँ चले जाने पर अपनी मालू और पापा याद आ गए और हिचकियाँ बँध गईं...मेरी मालू भी चली गई जिसे पापा ने गंगाजल पिला कर गायत्री पाठ करके घर के पिछवाड़े धरती माँ की गोद में सुला दिया था..गुस्से और दुख में मुन्ना को उड़ा दिया...समझ सकती हूँ बोलू के लिए आपका मोह...दिल भारी हो गया..
इसे कह्ते हैं निश्छल स्नेह । मन को अंदर तक कुलबुलाता वर्णन ।
पुराना बोलू तो याद है हमें
लेकिन यह नया बोलू कब आया पता ही नहीं चला
ये बेज़ुबान होते ही ऐसे प्यारे हैं
जहाँ इंसान के लिए ही प्रेम नहीं भरपूर , पक्षियों के लिए इतना प्रेम ...बड़े खुशनसीब रहे होंगे ..
नमन !
बड़े भावुक और संवेदनशील हो समीर भाई !
वाकई इन जीवों में वही संवेदनशीलता होती है जैसी हम इंसानों में , इनके होते घर में कभी अकेलापन महसूस नहीं होता !
एक बोलू, गुडिया के कहने पर, मैंने भी पाला था और एक दिन उसके लिए यही आंसू, ऐसे बहे थे कि जैसे घर का कोई सदस्य विदा हो गया हो !
यह एक पोस्ट काफी है आपके दिल की गहराई बताने के लिए मगर ऐसे दिल को पहचानने वालों की यहाँ कमी है समीर भाई !
शुभकामनायें आप दोनों को !!
mahsoos ker rahi hun
जानवरों में मजहबी विवाद जैसा रोग अभी नहीं पहुँचा है इसलिए तीनों घुल मिल कर रहने लगे
बहुत भावुक कर गयी आपकी पोस्ट ...
चिड़ियों को देखते रहने का शौक है मुझे और बोलू के बारे में पढ़ कर अच्छा लगा . हाँ उदासी के साथ साथ अच्छा भी लगा क्युकी उसने एक अच्छी ज़िन्दगी जी ली थी . मोलू और खुशाल के लिए ढेर सारा प्यार !!!
पंछियों से अपनापा....बहुत सराहनीय !
बोलू की आत्मा उछलती फूदकती रहे. जहाँ भी रहे सीटी बचाती रहे....
नामांकरण और अंग्रेजी का भारतीय करण मजेदार बात रही. बोलू.
घूस खिलानी होती है... दूखती रग पर हाथ रख दिया....
समीर भाई 'मेरे मुँह में ख़ाक' जिसे तुफैल जी ने ट्रांसलेट किया है, उस में 'सीजर और मोतिहारी' वाली कहानी की याद दिला दी आपने|
पक्षियों के प्रति आप के प्रेम और उस प्रेम की मानवीय सरोकारों के साथ प्रस्तुति के लिए आप साधुवाद के पात्र हैं|
फिर मैं इनका कंबल हटाता और कहता कि बच्चों, मम्मी अभी सोई हैं. अभी तो हमें ही चहकना अलाऊड नहीं है तो तुम कैसे चहक सकते हो, तो तीनों चुप होकर मम्मी के उठने का इन्तजार करते.
कितना अच्छा लिखा है .... बोलू नाम भी अच्छा लगा और बोलू के जाने का दुख भी हुआ ...पर यही तो एकमात्र अंतिम सत्य है ...एक दिन शायद आप -हम लोग भी यह पिंजड़ा छोड़ कर कही चले जाएँगे ....
नफरत की दुनिया को छोड़ कर ...
प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार ...
मर्मस्पर्शी संस्मरण,संवेदनशीलता शायद इसी को कहते हैं
sabke saath kuch na kuch rista ban jaata hai ....
jai baba banaras......
ऐसा लगा जैसे सामने चल रहा हो कुछ.. बेहद मर्मस्पर्शी...
बहुत बढिया लिखा बन्धुवर! बहुत ही!
१०-१२ साल का था तब.. एक तोता पाला था.. गाँव में... वह पिंजरे में कम बाहर ज्यादा रहता था.. घर में घूमता बाहर पेड-पौधों का भी चक्कर लगाता.. फिर पिंजरे में आ जाता.. एक दिन पता नहीं कैसे एक बिल्ली ने झपट्टा मार दिया उसपर.. लोग दौड़े पर तब तक देर हो चुकी थी.. मैं स्कूल गया हुआ था.. आने के बाद मैं जितना रोया था याद नहीं कि फिर कभी उतना रोया होऊंगा.. २-३ दिन तक घरवालों पर गुस्सा रहा, खाना नहीं खाया कि ठीक से ध्यान नहीं रखा उसका.. उसके बाद से कभी घर में कोई पक्षी नहीं पाला गया... उसके आज आपकी पोस्ट पढके फिर उसकी याद आ गयी... रुला दिया आपने..
आपकी उम्दा प्रस्तुति कल शनिवार (28.05.2011) को "चर्चा मंच" पर प्रस्तुत की गयी है।आप आये और आकर अपने विचारों से हमे अवगत कराये......"ॐ साई राम" at http://charchamanch.blogspot.com/
चर्चाकार:Er. सत्यम शिवम (शनिवासरीय चर्चा)
आपकी पोस्ट पढ़कर महादेवी वर्मा जी का रेखाचित्र 'गिल्लू' याद आ गया जो उन्होंने एक गिलहरी के बच्चे पर लिखा था। हमेशा की तरह बेहतरीन पोस्ट।
रुला ही दिया आज तो...
महादेवी वर्मा जी के गिल्लू की याद आ गई....
बस इसी कारण से पालतू पशु पक्षी पालने की हिम्मत कभी नहीं जुटा पायी मैं...
बहुत बहुत दुःख होता है इनके जाने का..
बचपन में पिताजी के घर में यह सब भोगा हुआ है हमारा...
बहुत प्यार हो जाता हे इन से हमारे पास भी दो पक्षी थे ऎसे ही एक पहले मर गया, दुख तो हुआ लेकिन दुसरे से सब को बहुत प्यार था, ओर वो शरार्ती भी बहुत था, फ़िर एक दिन वो मरा तो सब बहुत उदास हो गये, अब दिल नही करता बार बार उदास होने का, कुछ दिनो बाद हमारा हेरी बिमार हो गया, बहुत इलाज करवाया, एक सप्ताह मे ही करीन १ हजार € खर्च कर दिया... ओर वो भी छोड कर चला गया, अब मन नही करता किसी भी जानवर को दोवारा पालाने के लिये, यही याद आते रहते हे हर बात पर, उन की शरारते याद आती हे...आप की पोस्ट पढ कर मुझे फ़िर से मेरी हांसी, पीटर ओर मेरा हेरी याद आ गये.....
बहुत बढिया..मन भर आया, पढना शुरू किया तो रुकना मुश्किल था।
लगता है बहुत प्यार मिला है तीनों को आपसे ।
इन्सान को भी जानवरों और पक्षियों से प्यार हो ही जाता है ।
बस मोह में नहीं पड़ना चाहिए ।
बेचारी बोलू.... ऐसा लगा हाथ से तोते उड़ गए॥
इतने प्यार से लिखा है....मन भर आया पढ़ कर..
सचमुच बहुत मिस करेंगे आप बोलू को...
खुशकिस्मत थी...इतना प्यार मिला उसे, आपके घर में..
मर्मस्पर्शी संस्मरण
बहुत भावुक कर गयी आपकी पोस्ट ......
............................................
........................................
....................................
......................................
भले ही गुरुदेव सक्सेना साहब ने कह दिया हो कि आपके कोमल दिल को पहचानने वालों की यहाँ कमी है,हम इसे बखूबी पहचानते हैं.. आपकी पिछली कई पोस्टों में देखा है इन मासूमों के साथ परिवार सा बर्ताव!!
उसके यूं चले जाने पर सचमुच दिल दुखता है.. हाँ कफस की बात से एक शेर मेरी तरफ से भी:
क़फस में हम बहुत महफूज़ होते,
कि पहरे पर खड़ा सय्याद होता!
यहाँ तो पापा मम्मी थे!!
जीवन में जो भी आता है...उसका जाना बहुत अखरता है...खास का उनका जिन्होंने हमारे जीवन को चहका रक्खा है...हमारी संवेदनाएं...
मन भर आया...
---------
हंसते रहो भाई, हंसाने वाला आ गया।
अब क्या दोगे प्यार की परिभाषा?
संस्मरण मन को बहुत बोझिल कर गया ,ऐसा ही लगता है जब कोई अपना चला जाता है !
कुछ सुना सा हो जा है
जब कुछ अपना खो जाता है..
जैसे बादल के बिच कहीं....
झिलमिल तारा छिप जाता है...
..
भावनात्मकता से ओत प्रोत मार्मिक रचना
नम आंखों से हमारा भी स्नेह स्वीकार करें...........
बहुत भावुक प्रस्तुति
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com
क्या कहने समीर जी। कितना शानदार वर्णन किया है।
जब मैं आगरा में था तो एक दोस्त के यहां से दो आस्ट्रलियाई तोते ले आया था। पीले रंग के थे दोनों। पहले जहां थे वहां दोनो साथ साथ ही रहते थे, लेकिन जब मेरे यहां आए तो एक ने दूसरे के गले में इतने वार किए कि वह मर ही गया बेचारा। यह शायद स्थान परिवर्तन के कारण हुआ हो। अब पिछले दो साल से वह आगरा में ही मेरे भाई के पास है। मजे में।
जब आपकी यह कहानी पढ़ रहा था तो लगा कि तीनों साथ साथ रहे मेरे तो दो भी साथ नहीं रह पाए।
aaj to rula dia, sir aapne..... bolu ki kahani hum sab ke saath baantne ke liye shukriya
:(
बोलू का नामाकरण अच्छा लगा. उसके अलावा बाकी पोस्ट ने तो ग़मगीन कर दिया.
क्या कहूँ? डबडबाई आँखों से टिपण्णी नहीं लिखी जा सकती....
नीरज
मन को छूने वाली पोस्ट है.... सच में कितनी चीज़ें यूँ ही जुड़ जाती है.......
समीर जी,
दिल भर आया पढ़कर,मर्मस्पर्शी और संवेदनशील संस्मरण
निशब्द...
जय हिंद...
ek dam sentimental ho gaya mann.afsos hai bolu ke liye,magar sunder yaadein hai saath.
अपने पिताजी के समय में एक बार मछलियां उनके घरोंदे सहित लेकर आया था । उनका खान-पान भी दुकानदार के बताये मुताबिक ही किया लेकिन न जाने क्या-कैसे हुआ कि वे आधा दर्जन मछलियां तीसरे ही दिन एक साथ काल-कवलित हो गईं तब मैंने अपने पिताजी का जो मानसिक दुःख उस दिन देखा उसके बाद जीवन में फिर कभी किसी पशु-पक्षी को घर लाने की हिम्मत ही नहीं हो पाई ।
बेहद मार्मिक प्रसंग है ये भी.
वो मुझे ताक रही थी. मैने उसके सर पर हाथ फेरा और कहा कि बेटा, निश्चिंत होकर जाओ और अब दादी के साथ वहाँ खेलना. ऐना भी उनके पास है, वो इन्तजर कर रही हैं तुम्हारा. बस दोनों दादी को परेशान मत करना. फिर मैने उसे एक बून्द पानी पिलाया कि प्यासी न जाये. क्या पता कितना लम्बा रास्ता हो दादी के पास तक पहुँचने का. सर पर हाथ फेरा, उसने आँख बंद की और अपनी मम्मी के हाथ में लुढक गई.
हम पति पत्नी एक दूसरे को बहती आँखों से लुटे से देखते रह गये और बोलू चली गई.
आज तो आपने रुला ही दिया…………और कुछ कहने की स्थिति मे नही हूँ।
बहुत मर्मस्पर्शी...
Bahut hi marmik rachna hai! Dil ko chu gayi!!
समीर जी,
आंखें भर आईं। सोच रहा हूं जब पढ कर ही ऐसा लग रहा है तो आप दोनों पर क्या बीत रही होगी। बहुत पहले एक पामेरियन पाला था पर उसका प्यार देख भविष्य में उसकी जुदाई के ड़र से ही उसे अपने एक करीबी को दे दिया था। इस पर ही दो दिनों तक कौर गले से नीचे उतारना मुश्किल हो गया था।
प्रभावी शैली ने साक्षात् बोलू, मोलू, खुशाल का सानिध्य करा दिया |
sameer ji
(uper likhi tipaani ko anyatha na len )
bahut achchha likha hai....sathi to sathi hota hai chahe vo insan ho ya parinda.... kami hamesha hi khalti hai.....
आपकी भावनाओं को सलाम करता हूँ।
---------
मौलवी और पंडित घुमाते रहे...
सीधे सच्चे लोग सदा दिल में उतर जाते हैं।
kya kahun kuchh shabad hi nahi hain bhawnao ko bayan karne keliye.. baat chhoti si thi magar uski prastuti se jaise bhawnao ke samandar mein tufan sa aa gaya.. bahut badiya lekh hai.. regards
भावुकता के साथ मार्मिकता का संगम, हम कभी कभी करते है ह्रदयंगम,
वही प्रेम दिवस फिर से आया है,आज हर् अपना अपने से पराया है,
कोई नहीं कहता कि कोई समझे हमको,
क्योंकि सबको है मालूम हर् पल साथ सिर्फ अपना ही साया है..
आपकी पोस्ट पढ़ कर अहसास हुआ कि "मोलू" के साथ आप कितना भावनात्मक रूप से जुड़े थे..
उफ....
इसीलिये मैंने आजतक कोई पालतू नहीं रखा..
ये संस्मरण नही ... दिल के कुछ घाव हैं जो खोल दिए हैं समीर भाई .... बस बहाने बहाने से दर्द बयाँ करना ....
क्या बात है ...
ओह..
इतना भावुक कर किया कि बहुत देर से की-बोर्ड पर उंगलियाँ चल नहीं पाई. मन की बात को मर्माहत होकर लिखा है आपने ,अपनी अनुभूतियों को शब्दों में बाँधने में बहुत पीड़ा हुई होगी.आपने दृश्यों को जीवित कर दिया.छत्तीसगढ़ के प्रसिद्ध गीतकार लक्ष्मण मस्तुरिया के मशहूर गीत गाड़ीवाला के एक अंतरे में प्रेम को कुछ इस तरह से परिभाषित किया गया है "मया नहीं चीन्हे रे देसी-बिदेसी ,मया के मोल न तोल ,जात-बिजात न जाने रे मया ,मया मयारुक बोल".विदेश में पंछी प्रेम की कथा के सन्दर्भ में ये पंक्तियाँ कितनी प्रासंगिक हैं.
rulaa hi daala is post ne to...
भावुक कर देने वाली पोस्ट ...बोलू मोलू ,,नाम बहुत पसंद आये
शायरी मेरे प्यार की
Bahut acha likhte ho sir
एक टिप्पणी भेजें