बुधवार, मई 26, 2010

दाल, भात और भाटे पालक की भाजी!!!

”अम्मा, खाना लगा दे”
”क्या हुआ, आज जल्दी जायेगा क्या स्कूल?”
”हाँ अम्मा, वो क्लास के पहिले सुदेश की गणित किताब से कुछ प्रश्न उतारने है. उसके पास अंग्रेजी स्कूल की किताब भी है न.”

अम्मा जल्दी जल्दी भाप छोड़ते भात, अधपकी छितरी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी थाली में डाल कर दे देती है और उस पर से आधा चम्मच देशी घी. स्कूल जायेगा, दिन भर पढेगा तो घी से ताकत बनी रहेगी. अम्मा घर पर मलाई से बनाती है अनिल के लिए देशी घी.

अनिल जल्दी अल्दी फूँक फूँक कर खाने लगता है. पूरा खाना बिना खाये ही दिवाल घड़ी पर नजर पड़ती है और वो खाना छोड़ कर भागता है. अम्मा कहती है, अन्न का अपमान नहीं करते बेटा. खाना आराम से खाते हैं. मगर अनिल को तो स्कूल जाने की जल्दी है सो भागता है.

बरामदे से साईकिल निकाल कर, जब तक अम्मा बाहर आये, अनिल आवाज लगा कर निकल जाता है. गली से सड़क पर आकर कोने में ही शर्मा जी की कोठी है जिनकी फैक्टरी में अनिल के पिता जी काम करते हैं. शर्मा जी की कोठी के बाहर एक साथ तीन कारें खड़ी होती हैं. एक शर्मा जी की, एक उनकी पत्नी की और एक शुभि की सफेद वाली दो दरवाजे की. शुभि उसी से स्कूल जाती है.

अनिल के सरकारी स्कूल से पिछली सड़क पर शुभि का कान्वेन्ट स्कूल है तीन मंजिला लाल रंग का.

अनिल को जल्दी स्कूल पहुँचना है, वो तेजी से साईकिल के पैडल मारता है. आज जाने क्यूँ एड़ी में दर्द भी है.

अनिल कक्षा में बैठा है. मास्साब भौतिकी के चुम्बकत्व के सिद्धांत वाला अध्याय पढ़ा रहे हैं अनिल बैन्च पर बैठा अपने खपड़ैल की छत वाले क्लास रुम की खिड़की से बाहर पीछे के वाले स्कूल की ओर ताक रहा है. ढेरों लड़कियाँ उस स्कूल में पढ़ती है. नीला ट्यूनिक और सफेद कमीज पहने. परियों जैसी लगती सब अनिल को उजली उजली सी. सबके बैठने की अलग अलग कुर्सी. दूर से कुछ साफ तो दिखता नहीं, बस बैठा कल्पना करता रहता कि शुभि ही होगी जो खिड़की से दिखाई दे रही है.

एक बार शार्मा जी के दरबान के लड़के से पूछा था तो उसने बताया था कि शुभि भी उसी कक्षा में है जिसमें अनिल पढ़ता है.

दिन में लंच की छुट्टी में अनिल भी दोस्तों के साथ धूल में सतोलिया खेल रहा है. गेंद पीछे झाड़ियों में जाती है. अनिल दौड़कर गेंद उठाने जाता है. उस स्कूल का बड़ी ऊँची ऊँची जालियों का बाड़ा है. बाड़े के उस पार कुछ लड़कियाँ बेड मिंटन खेल रही हैं. कुछ हरी हरी दूब में गोला बना कर गप्प करती खाना खा रही हैं. अनिल ने झाड़ियों के बीच से छुप कर देखा, उसे शुभि दिखाई पड़ी अपनी सहेलियों के साथ बैठे खाना खाते. शुभि खाने में सैण्डविच खाती है.

अनिल लौटकर आ जाता है. अब उसका खेलनें का मन नहीं. क्लास रुम में आकर अपना खाने का डिब्बा निकाल लेता है. अम्मा ने चाव से दो रोटी के साथ आम का अचार रखा है. उसे जाने क्यूँ आज खाना खाने का मन नहीं है. डिब्बा बन्द करके बस्ते में रख देता है. उसे प्यास लगी है. पानी की टंकी तक जाता है. पीछे स्कूल पर फिर नजर जाती है. एक लड़की वाटर बोटल से पानी पी रही है. अनिल टंकी से हाथ धो कर लौट आता है.

शाम को साईकिल से घर लौट रहा है. शुभि की कार शर्मा जी के घर के बाहर खड़ी है जबकि उसका स्कूल अनिल के स्कूल के १५ मिनट बाद छूटता है लेकिन वो हमेशा घर पहले पहुँच जाती है चाहे अनिल कितनी भी तेज साईकिल चला कर लौटे.

रात होने लगी है. अम्मा ने आंगन में खटिया लगा दी है. अनिल खटिया पर जाकर लेट जाता है. अम्मा सर पर तेल मल रही है, और वो चाँद को देख रहा है. वही उसका खिलौना है जिससे वो बचपन से खेलता आया है.

अनिल इन्जिनियर बन गया है. बाबू जी तो उसकी इन्जिरिंग की पढ़ाई खत्म होते ही चल बसे थे और फिर छः महिने में अम्मा भी. अनिल को एक अच्छा ऑफर मिला और वो अमरीका आकर बस गया है. बीबी और दो बच्चों का परिवार है.

दरवाजे पर तीन गाड़ियाँ हैं. एक खुद की सफेद कार दो दरवाजे वाली, एक पत्नी की और एक वैन, जब परिवार के साथ कहीं लम्बा जाना होता है तब के लिए.

ऑफिस जाने को तैयार होता है.

पत्नी ने ब्रेकफास्ट के लिए सेण्डविच लगा दिये हैं और एक सैण्डविच और फ्रूट लंच के लिए पैक कर दिया है. साथ में मिनरल वाटर की ठंडी बोतल.

आज अनिल को सेण्डविच के बदले वो भाप छोड़ते भात, अधपकी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी थोड़ा सा घी डाल कर खाने का मन है.

वो पत्नी से कहता है. पत्नी हँस देती है. ”नो भात, नो घी. मोटा होना है क्या?”

कह रही है ”जल्दी निकलो और ये सैण्डविच भी साथ लेते जाओ, ड्राईव करते हुए खा लेना वरना ऑफिस को देर हो जायेगी.”

फिर छेड़ते हुए हंसती है ’ ”हर समय बस खाने में ही मन लगा रहता है मोटूराम का!!”

बेटा पूछ रहा है ”डैडी ये भाटे पालक क्या होता है?”

आज जाने क्यूँ अम्मा की याद आ रही है उसे.

उसकी आँखें नम हैं.

aadhasach1

-समीर लाल ’समीर’

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116 टिप्‍पणियां:

संजय @ मो सम कौन... ने कहा…

क्या कहें सर,
जो बीत गया सो बीत गया।

बचपन के उस सादे खाने में जो स्वाद था, वो प्यार मनुहार के कारण सच में दुर्लभ होता था।
बहुत अच्छी लगी आपकी ये पोस्ट।

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

बहुत खुब कही। यह तो पटकथा लग रही है। आओ फिल्‍म वालों आओ। इस पर एक लघुकथा बनाओ। बेहतरीन। मन से भूलते जा रहे कोमल अहसासों की सार्थक अभिव्‍यक्ति।

श्यामल सुमन ने कहा…

इसे कहते हैं बात कहने का "उड़न तश्तरीय" अन्दाज। बहुत सुन्दर प्रस्तुति समीर भाई।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com

पी.सी.गोदियाल "परचेत" ने कहा…

Sacchi see kahaanee lag rahee hai.

Indranil Bhattacharjee ........."सैल" ने कहा…

क्या समीरजी, फिर आपने रुला दिया ...

M VERMA ने कहा…

कितना करीब से देखते हैं आप भावनाओं को.
और कुछ नहीं बस

बेनामी ने कहा…

bahut hi sahi likha sir
bachpan ke din hamesha yaad aate hain
vo maa k hath ka khana
dosto k sath tiffin share karna
vo ladkpan ka pyar
sabka apana hi maza hain

Khushdeep Sehgal ने कहा…

गुरुदेव,
अगली ब्लॉगर्स मीट का मेनू सेट कर दिया है...

भाप छोड़ते भात, अधपकी छितरी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी और ऊपर से आधा चम्मच देसी घी...

भला बड़े से बड़े फाइव स्टार का खाना भी कहां पानी भरेगा, अम्मा के इस प्रसाद का...

जय हिंद...

Arvind Mishra ने कहा…

समय का चक्र एक चक्कर पूरा घूम गया -बहुत मार्मिक ! आपको मानव मन की महीन संवेदनाओं को सहलाने दुलराने में महारत हासिल है ....और कभी कभी आपकी लेखनी ऐसा बहुत सहजता और उत्कृष्टता से कर जाती है जैसे आज !

Smart Indian ने कहा…

बहुत अच्छी प्रस्तुति!

विनोद कुमार पांडेय ने कहा…

आदमी जैसे जैसे उपर बढ़ता जाता है उसे बहुत सारी भौतिक सुविधाएँ तो मिल जाती है पर उसके बदले कुछ अपनी सी चीज़ें पीछे छूट जाती है जैसे आज इतनी सुविधा के बाद उसे माँ के हाथ की चावल दाल नही मिल रही जिसमें माँ का प्यार होता है..एक बढ़िया कहानी...बहुत बढ़िया लगी समीर जी..धन्यवाद

कडुवासच ने कहा…

....अदभुत !!!

Unknown ने कहा…

आज प्रथम बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ।
अजनबी था मैं जिससे वो जाना पहचाना हुआ।
है शब्दों के कुशल चितेरे भावों के बेजोङ शिल्पी।
इसीलिए तो जग सारा तस्तरी का दीवाना हुआ।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सारे जीवन अतीत याद आता रहता है। क्यूँ ये पीछा नहीं छोड़ता। कहीं चुम्बक की तरह कदमों को पीछे की ओर खींचता है तो कहीं मार्गदर्शन करता है।

कुमार राधारमण ने कहा…

अपन तो जब चाहे,लुत्फ उठाते हैं। आज रात के लिए फिर तैयारी शुरू करता हूँ।

VICHAAR SHOONYA ने कहा…

esa kyon hota hai? Maa ke khane jaisa swad patni ke khane me nahin milta.

प्रवीण ने कहा…

.
.
.
दुनिया गोल है...घूम फिर कर फिर फिर वहीं लौट जाता है इंसान, जहाँ से चला था!

आज आप फुल फॉर्म में हैं सर जी,

हिला के रख दिया आज आपने अपने पत्थर-दिल को भी !

आभार!

ब्लॉ.ललित शर्मा ने कहा…

भुली बिसरी यादें
कभी खींच कर ले जाती हैं अपने पास
गुजारे हुए लम्हे याद आते हैं
समय के साथ

आभार

राम त्यागी ने कहा…

बहुत कुछ सुनहरे याद दिलाती कहानी ....दिल को भा गयी फिर से एक और रचना !!

Next week i am in your desh :-)

बेनामी ने कहा…

कितना पहचाना पहचाना सा है ये 'अनिल'
तीन तीन कारों वाला .
आज भी अम्मा के हाथ का बना भात,राहर की दाल.भाटे पालक की सब्जी को याद करता है ?
'उसकी पत्नी' उसकी सेहत को लेके कितनी भी सजग,सतर्क हो पर.........कभी कभार बना कर क्यों नही खिला देती उसे वो सब कुछ ?
'मोटूराम' शरीर से मोटा गया है तो क्या ?
मेरा गब्बू 'अनिल' है तो अब भी मासूम बच्चा.
वो क्यों अपनी पत्नी को नही कह देता कि ......
खाऊँगा खाऊंगा खाऊंगा
शाम को ज्यादा 'वाक्' कर लूँगा.

संजय भास्‍कर ने कहा…

bahut hi sahi likha sir
bachpan ke din hamesha yaad aate hain

वर्षा ने कहा…

मुझे भी मेरी मां की याद आ गई...

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

मुकम्मल जहां कहां मिला है किसी को आजतक.

संजय भास्‍कर ने कहा…

गुरुदेव,
एक बढ़िया कहानी..... समीर जी धन्यवाद

डॉ टी एस दराल ने कहा…

बहुत बढ़िया मार्मिक तुलनात्मक वर्णन, गरीबी और अमीरी का ।
दुनिया गोल है , ये तो हम सब जानते हैं । लेकिन जीवन चक्र भी गोल घूमता है ।
बचपन में सूखी रोटी ---फिर धन्ना सेठ बनकर ---फिर सूखी रोटी ---घी वाली खा ही नहीं सकते ना। मनुष्य फिर वहीँ पहुँच जाता है ।
क्या प्रकृति भी भेद भाव करती है ?
कल की पोस्ट ज़रूर देखिएगा ।

योगेन्द्र मौदगिल ने कहा…

wahwa...behtreen

seema gupta ने कहा…

बेहद सम्वेदनशील...... मन को छु गयी....रिश्तो और यादो का ये ताना बाना यूँही चलता रहता है......
regards

उन्मुक्त ने कहा…

अनिल की शादी किससे हुई, क्या शुभि से?

Alpana Verma ने कहा…

मन को छू गयी यह कहानी.
------समय के भी कैसे फेर हैं.
-----यह तो अच्छा है ,यादों का साथ कभी भी मिल जाता है.

kunwarji's ने कहा…

आँखें तो हमारी भी नाम सी हो गयी जी पढ़ते-पढ़ते.....अंतिम पंक्तियाँ.....वाह..

कुंवर जी,

संगीता स्वरुप ( गीत ) ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुति....वक्त अपना काम करता है पर मन है कि यादों में उलझा रहता है...

स्वप्निल तिवारी ने कहा…

bhai ..mera to aaj bhi pasandeeda khana hai ...kabhi kabhi khud bhi bana ke kha leta hun .. :)..cheezen jab humare paas hoti hain tab hum unki keemat nahi samjhte hain ..

waise..

"kabhi kisi ko mukammal zahaan nahi milta"

ye nida faazli ka likha hua hai jahaan tak mujuhe pata hai ..ek dafa dekhiyega... :)

सतीश पंचम ने कहा…

बहुत ही सुंदर पोस्ट।

यादें अपना अलग ही रंग लिए रहती हैं। समय बीत जाने के बावजूद उनकी रंगत पर कोई असर नहीं पड़ता।

परमजीत सिहँ बाली ने कहा…

समीर जी,बहुत सुन्दर कहानी है...एक संवेदनशील ह्र्दय ही ऐसी भावपूर्ण कथा लिख सकता है...धन्यवाद।

Stuti Pandey ने कहा…

कितने सरल शब्दों में आपने इतनी बड़ी बात कह दी. दिल को छू गयी...और अब तो माँ की याद भी आने लगी :(

girish pankaj ने कहा…

do yugon kaantar rekhankit karti is rachanaa ke liye badhai..mere bhai...

बेनामी ने कहा…

आशा है नीचे दिया लिंक न्याय करता है ऐसी स्थितियों के लिये

http://www.youtube.com/watch?v=dIFswH3IGO8

Parul kanani ने कहा…

ek baar padhkar,dobara padhi..ab soch mein hoon!

Amit Sharma ने कहा…

धाराप्रवाह लेखन तो कई करते है पर वह लेखन धाराप्रवाह पठन करवाने में भी सक्षम होना चाहिये. जैसे कि आपकी यह कथा, एक सांस में पढ़ डाली गयी.


क्या अनिल और उड़नतस्तरी के चालक में कोई समानता है ???????????

naresh singh ने कहा…

अगर ये कंप्यूटर स्क्रीन ना हो कर कागज़ पे लिखी इबारत होती तो लेखक की आँख से गिरे आंसू का धब्बा जरूर दिखाई देता |

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

यादें याद आती हैं ...........यादें

dhiru singh { धीरेन्द्र वीर सिंह } ने कहा…

मै भी बचपन मे कुछ सपने देखता था आज तक तो पुरे नही हुये .

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) ने कहा…

सहज लेखन.. कहीं आस पास देखा सुना सा... सहज कहानी.. कहीं आस पास पढी लिखी सी...

मुझे नहीं पता की आपने ऐसी कहानियां/पोस्ट्स पहले ट्राई की हैं कि नहीं... लेकिन मुझे एक काफी अच्छा प्रयास लगा... एक नया सा प्रयोग आपके द्वारा... (अगर पहले नहीं हुआ है तो, अब आप तो न जाने कबसे लिख रहे हैं :))

Sanjeet Tripathi ने कहा…

mannn ko chhune wali, arvind mishra jee se sehmat

rashmi ravija ने कहा…

क्या क्या और नहीं याद आता होगा....वो धूप में साइकल चलाना...धूल अटे पैरों से गेंद खेलना....मन की गहराइयों में उतर गयी ये कथा

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

जमीन से जुड़ा हुआ हर आदमी का हक़ीक़त है ई लघुकथा... फिर से क्षमा याचना सहितः
‘कभी किसी को’ शहरयार साहब का नहीं है, निदा फाज़ली साहब का है!

राजीव थेपड़ा ( भूतनाथ ) ने कहा…

ham abhi kuchh nahin kahenge.... pahale kuchh khaa kar aayenge...phir iske baare men kuchh bataa paayenge..

शोभना चौरे ने कहा…

कितनी अपनी सी लगी अनिल की कथा ?इन्दूजी की टिप्पणी भी मायने लगती है |
शायद आजकल पत्नियों की झिडकी खाकर ही सब लोग मोटूराम हो रहे है इससे अच्छा तो भाप निकलता हुआ भात ही खा ले |बहरहाल बहुत सच्ची और भावनाओ से पूर्ण है है ये कहानी |
एक कहावत है- जहाँ दांत है वहां चने नही ,और जहाँ चने है वहां दांत नहीं |

Unknown ने कहा…

दिल को छू लेने वाली रचना

सम्वेदना के स्वर ने कहा…

मन के खेल को क्या खूब बखाना है!!
बस जो नहीं मिला, उसी को मचलता है मन.

शुचि भी यदि अनिल की पत्नी न बन सकी होगी (कहानी का सस्पैंस!!)तो उसको भी दाल,भात और भाटे पालक की तरह अनमना सा ढूढ़्ता होगा अनिल.

राज भाटिय़ा ने कहा…

समीर जी हमे कुछ पाने के लिये बहुत कुछ खोना पडता है, आप की कहानी हमे बचपन मै ले गई, ओर बहुत सी यादे समेट लाई ऎसा ही होता है.
धन्यवाद

राजकुमार सोनी ने कहा…

अपन तो आज भी हर रोज यही खाना खाते हैं.. इसी वजह से पूरी दुनिया अपने को बेहद खूबसूरत लगती है। बेहद शानदार रचना।

shikha varshney ने कहा…

समीर जी ............कभी कभी तो एकदम निशब्द कर देते हैं आप..कुछ भी कहते नहीं बनता.भावुकता ,परिवेश का फरक ,सच्चाई, क्या नहीं है इस रचना में. सांस रोक कर पूरा पढ़ गई पर फिर भी कुछ कहने में असमर्थ हूँ.

माधव( Madhav) ने कहा…

पापा का पसंदीदा खाना है ,आज आपने याद दिला दी

दिगम्बर नासवा ने कहा…

बहुत संवेदना छिपी है समीर भाई ... ये सच है आज के बच्चे शायद इन बातों को ना समझ सकें ... पर अक्सर ऐसा होता है ... दिल की बात लिख दी है आज ... मेरी तो आजकल अम्मा दुबई आई हुई हैं साथ रह रही हैं ... भरपूर मज़ा ले रहा हूँ ....

वन्दना अवस्थी दुबे ने कहा…

मर्मस्पर्शी कथा.

Darshan Lal Baweja ने कहा…

क्या समीर जी ये जो भी बहार जाते है रोये क्यों रहते है मेरा एक दोस्त कड़ी चावल याद करता है अमरीका में .....यही आ जाओ न

मीनाक्षी ने कहा…

ऐसा क्यों होता है कि 'आज' की बजाए 'कल' रेशमी एहसास लिए होते हैं जो बहुत याद आते हैं..!

दीपक 'मशाल' ने कहा…

राहर की दार तो हमारे यहं भी बोलते हैं... बढ़िया

अन्तर सोहिल ने कहा…

बेहद मिस करते हैं आप अपनी मिट्टी को

प्रणाम

नितिन | Nitin Vyas ने कहा…

बढ़िया, याद आ गया गुजरा ज़माना!

Udan Tashtari ने कहा…

भूलवश निदा फाज़ली साहब की जगह शहरयार नाम लिख गया था. भूल की ओर ध्यान दिलवाने का आभार.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

.
शायद इसे कहते हैं पत्थर चीर कर पानी निकालना.
अतित कभी पीछा छोड़ने वाला नहीं है.... अम्मा तो याद आएगी ही...

वैसे आपने कहीं लिखा है "आधासच"

ये सच्चे भाव हैं और यही सच है.

डॉ महेश सिन्हा ने कहा…

वजन बढ़ने के दो कारण
पहला ये भोजन
दूसरा आभार

बेनामी ने कहा…

दिल को भा गयी ,बहुत अच्छी लगी आपकी ये पोस्ट।

बेनामी ने कहा…

दिल को भा गयी ,बहुत अच्छी लगी आपकी ये पोस्ट।

drdhabhai ने कहा…

शुभि का क्या हुआ....

Ra ने कहा…

बड़े मन से पढ़ी आपकी यह पोस्ट ....दिल में कुछ छोड़ सा गयी

Manish ने कहा…

भैया जी !! अनिल आपका दोस्त था? मन के करीब वाला…… समझिये बात को…… भाभी जी पढ़ लेंगी इसीलिये नाम में हेरफेर…

बहुत अच्छी सीख मिली है आपके इस लेख से…

यही सब हम लोग आज भी खाते हैं, लेकिन अब न तो स्कूल जाने की जल्दी है और न ही कोई "शुभि" है

और न ही……

Mahendra Arya's Hindi Poetry ने कहा…

Lagta hai yeh aapka bhoga hua yatharth hai. Jo bhi sunder hai...

मयंक ने कहा…

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी मां.....

क्या कहूं
आप बस लिखते जाते हैं
हर बार कुछ
अनुपम लाते हैं
और हर बार
ज़ोर से रुलाते हैं

अद्भुत...शब्दातीत....

ajay saxena ने कहा…

अम्मा के हाथ की दाल भात और भाटे पालक की भाजी को हांजी..हांजी..।
मैकडोनाल्ड का फास्टफूड और ताज होटल के कॉन्टिनेंटल व्यंजन को नाजी..नाजी..।।

ajay saxena ने कहा…

देश पराया छोड़ के आजा
पंछी पिंजरा तोड़ के आजा
मां तेरी है बहुत ही रोती
आजा अपने देश में भी है रोटी....

अजय कुमार झा ने कहा…

एक कनाडा बस गया दूसरा दिल्ली ,
दोनों छोड गए अपनी माटी ,
एक ही मां , मां की रोटी,
दोनों को उसकी याद है आती ।


क्या कहूं कि शब्द नहीं हैं कहने को अब सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है ।

Pawan Kumar ने कहा…

समीर जी
बहुत मार्मिक वर्णन बचपन का...........क्या मर्मस्पर्शी रचना है

Arvind Mishra ने कहा…

उन्मुक्त जी की संवेदना और किशोर सुलभ जिज्ञासा जो सहसा मुझे भी हो आयी थी का जवाब देगें क्या ? या यह पाठकों पर ही छोडिये ! कहानी फ्लैशबैक में है न ? यह कहानी है या संस्मरण ? किस कटेगरी में जायेगी ?

Udan Tashtari ने कहा…

अरविन्द जी


उन्मुक्त जी को तो ईमेल से जबाब दे दिया था. :)

शुभि का क्या हुआ-यह नहीं पता किन्तु अनिल को तो नहीं ही मिली.




कहानी ही कहें तो सेफ प्ले रहेगा...

भवदीप सिंह ने कहा…

हेल्लो समीर,

राम का दोस्त हूँ. उसके ब्लॉग में आपका नाम देखा था. dhundte dhundhte आपके ब्लॉग पर आ गया. बहुत अची कहानी लिखी. बिलकुल सचाई के करीब. जो है उसका आनंद लेने की बजाये हम चाँद और तारो को चूना चाहते हैं.

जब भारत में थे तो अमेरिका जाना चाहते थे. फिर अमेरिका आ गए तो यहाँ पर भारत को तलाशते हैं. जब भारत जाते हैं तो वहां जा कर अमेरिका तलाशते हैं.

sheetal ने कहा…

Sameer ji
namaskar.
jo cheez jis waqt hamare paas ho,uski kadar kar lene chahiye kya pata Kal woh pal, woh cheez hamare paas ho na ho.

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

दिल को छू गई आपका ये संस्मरण (सेफ बोले तो कहानी ही....)

बहुत कोशिश किया-करवाया पर वो माँ के हाथ वाला स्वाद कहाँ !!!

Anil Pusadkar ने कहा…

सालों हो गये,स्कूल के ज़माने से लेकर आज तक मैं औत्र सुनील,मेरा छोटा भाई एक ही थाली मे खाते है और आज भी वो अपनी पत्नी और मैं अपनी बहु के हाथ से बनी भाजियों और चटनियों से ज्यादा अपनी आई(मां)के हाथ का बना खाना पसंद करते है।आपने स्कूल के दिनो की याद ताज़ा करदी बस शुभी की कमी आज तक खलती हैऽउर हां छ्त्तीसगढ मे तो आप रहे भी हैं यंहा इतनी तरह की भाजी होती है जिसका कोई मुक़ाबला नही।आप आईये आपको अमारी,कुल्फ़ा,लाल,चरौटा,बोहार और बहुत सी भाजी खिलायेंगे।मज़ा आ जायेगा।

शिवम् मिश्रा ने कहा…

अब इस पर क्या कहें.............

वीनस केसरी ने कहा…

मुझे भी चावल में तेल नमक और आम का अचार खाने का मन होता था

और जब भी मांगता तो मम्मी देशी घी से चावल को फ्राई कर के डे देती थी

कभी तो चावल तेल और आम का अचार जरूर खाऊँगा ...

दीपक 'मशाल' ने कहा…

अभी पूरी पढ़ी.. इधर भी एक जोड़ी आँखें नम हैं..

अजित गुप्ता का कोना ने कहा…

अपने बचपन के खाने का स्‍वाद तो आजीवन जीभ भुला नहीं पाती। लेकिन विदेश में आने के बाद तो जीभ के स्‍वाद को ताक पर रखना ही पड़ता है। यहां हर भारतीय अनिल ही होता है, शायद आप भी।

Apanatva ने कहा…

sapno me khona aur fir sapne poore ho jae to ateet me khona......? ye hee manav pravrati hai .
kahanee ne poora bandhe rakha......
aap to harfanmoula hai Sameerjee...........

अंजना ने कहा…

समीर जी इस कहानी को पढ् दिल मे जो भाव आये वो लिख दिये मैने....

गहरे भाव को लिए बढिया कहानी
भावुकता के जाल से बुनी बढिया कहानी
माँ की ममता व बीती यादो को
उजागर करती बढिया कहानी ....

saurabh ने कहा…

bahut khubsurat kahani hai........ham log to aaj bhi yahi khate hain haan lekin na to hamare paas maan hai yahan par aur na hi school aur na hi shubhi........
hame to jindagi ki daud me office ki jaldi me khud ka banaya khana aur khud ki uljhano ke bich jagna aur sona hai.........lekin ........ye bilkul karib se dekhi ghatna lagti hai jaise khud ki hi kahani ho.....flash back me......

अरुण चन्द्र रॉय ने कहा…

meri bhi aankhen nam ho gai... mujhe bhi maa kee bahut yaad aa rahi hai...sunder rachna... sunder bhav..

Abhishek Neel ने कहा…

आज अनिल को सेण्डविच के बदले वो भाप छोड़ते भात, अधपकी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी थोड़ा सा घी डाल कर खाने का मन है .. मैं खुद मुंबई में रहता हूँ .. घर का खाना नसीब हुए ज़माना गुज़र जाता है .. अमेरिका और कनाडा में लोगों की क्या स्थिति होगी समझ सकता हूँ .. वैसे भाट क्या होता है .. मुझे भी नहीं पता ..


काफी अच्छी रचना.

Abhishek Ojha ने कहा…

ये शुभि तो सबके जीवन में होती है... और बाकी बातें भी तो आँखों के सामने प्ले बैक की तरह घूम ही गयी.

स्वाति ने कहा…

संवेदना, अहसासों ,भावनाओं, और यादो से युक्त निशब्द कर देने वाली रचना जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है .. सुन्दर प्रस्तुति

mehek ने कहा…

samay samay ka fark,marmik lekh,jaise sab ankhon ke samne ho raha ho.

राहुल पाठक ने कहा…

bahut saare article pad chuka hu aapke ..ya to kahu lagbhag sare ke sare.......

bahut aacha likhte hain aap....
bahut hi jyada acha....ye past pad kedil me ajib sa kuch lagne lga....

ache aalekh ke liye badhai swikar kare

चला बिहारी ब्लॉगर बनने ने कहा…

समीर बाबू , आपका बिस्तृत टिप्पणी बहुत कम लोग को मिलता है जईसा कि आप खुदे कहे हैं... ई हमरा सौभाग्य है कि हमको दू बार ई संजोग मिला. अऊर आप जो दूसरा वाला टिप्पणी दिए ऊ हमको सचमुच छू गया...बस धन्यवाद करने के लिए ई टिप्पणी...ब्यक्तिगत आभार!!!

भवदीप सिंह ने कहा…

कल सपरिवार पड़ी कहानी. मन नहीं माना. फिर दोबारा पड़ी.

यार रुलाने का ठेका ले रखा है क्या? और कुछ काम धंधा नहीं है क्या लाइफ में? आंखे नाम हो गईं जितनी बार पड़ी.

सुन्दर प्रस्तुति. आगे भी इस तरह की रचनाओ की प्रतीक्षा रहेगी.

पंकज मिश्रा ने कहा…

तभी तो कहा है। बातें भूल जाती हैं यादें याद आती हैं। सुना है न आपने। खूबसूरत प्रस्तुति। आपको साधुवाद। और हां, बहुत दिन हुए आप मेरे ब्लॉग पर नहीं आए क्या बात कोई नाराजगी तो नहीं। बताइए तो सही। मैं इंतजार कर रहा हूं।
http://udbhavna.blogspot.com/

Mukul ने कहा…

वो कहते हैं न आज का ये दिन कल बन जाएगा कल पीछे मुड़ के न देख प्यारे आगे चल
स्मृतियाँ सुखद हों या दुखद संवेदनाओं को तो जगाती ही हैं जीवन है ही कुछ ऐसा जो मिलेगा उसका सुख नहीं मिलेगा और जो छूट गया है उसकी कसक हमेशा दिल में रहेगी
इसी छूटी हुई कसक के साथ कि काश आप जैसे शब्दों के चितेरे हैं वैसा मैं क्यों न हो सका
आभार

बेनामी ने कहा…

kya baat hai sir..
meri bhi aakhein nam ho aayi hai .....
aap to bahut bade hain mujhse lekin mujhe abhi bhi woh nadaan bachpan satata hai..........

अनुराग मुस्कान ने कहा…

वाह... मन ही मन पढ़ो तो मन भारी हो जाए... ऊंची आवाज़ में पढ़ो तो आवाज़ रुंध जाए... वो भी क्या दिन थे.. बीता हुा कल हमेशा अच्छा लगता है, याद आता है। मतलब we r going to r worst...। सार्थक रचना। बधाई..।

KK Yadav ने कहा…

दाल, भात और भाटे पालक की भाजी...अब तो खाकर ही कमेन्ट करेंगे.

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

क्या बात है समीर जी आपकी लेखनी का तो जवाब नहीं .....जिस क्षेत्र में भी हाथ डालते हैं बस सोना ही सोना ....पर ये अनिल की कहानी .....?????
वो भी इतनी नजदीक सी जानी पहचानी ....भोगी सी .....??
कुछ तो बात है .....

दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है .......

Unknown ने कहा…

Lovely so sweet and emotional and Heart touch able story.





(Harish verma)

MEDIA GURU ने कहा…

kya bat hai sir ji .............
bahut sundar ek sans me padh gaya ..

Unknown ने कहा…

Lovely so sweet and emotional and Heart touch able story.





(Harish verma)

Unknown ने कहा…

Lovely so sweet and emotional and Heart touch able story.





(Harish verma)

sanu shukla ने कहा…

काफ़ी भावुक कर देने वाली कहानी है भाईसाहब,

"माँ" भगवान का एक अनमोल उपहार चेतन जगत को ख़ासकर मानव जाती को..

वाणी गीत ने कहा…

माँ के बनाये खाने की तो बात ही निराली है ...

संजय भास्‍कर ने कहा…

ये सच्चे भाव हैं और यही सच है.

yugal mehra ने कहा…

वाकई में सब कुछ एक साथ नहीं मिलता, अगर आपके पास समय है तो पैसा नहीं, पैसा है तो समय नहीं , और समय और पैसा दोनों है तो जवानी नहीं,

दिनेश शर्मा ने कहा…

आप कैसे इतना प्रभावशाली लिख लेते हैं?

मिलकर रहिए ने कहा…

पुरुष की आंख कपड़ा माफिक है मेरे जिस्‍म पर http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_9338.html मेरी नई पोस्‍ट प्रकाशित हो चुकी है। स्‍वागत है उनका भी जो मेरे तेवर से खफा हैं

Rohit Singh ने कहा…

सर शुभि फिर कभी मिली..क्या उसे पता था....नहीं न....वैसे आपके पास कितनी कार है।.....तीन.....सैंडविच कितना खाओगे....कह दीजिए प्राणप्रिय (कहना ही पड़ेगा) आज बना दो मेरे मन का....कह दीजिए सर ..हिम्मते मर्दा मर्ददे खुदा...

garima ने कहा…

वाह.....वाह...

janki48 ने कहा…

sundar rachana

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत भावुक कर देने वाली है यह पोस्ट ..कुछ यादे कभी नहीं भूलती