”अम्मा, खाना लगा दे”
”क्या हुआ, आज जल्दी जायेगा क्या स्कूल?”
”हाँ अम्मा, वो क्लास के पहिले सुदेश की गणित किताब से कुछ प्रश्न उतारने है. उसके पास अंग्रेजी स्कूल की किताब भी है न.”
अम्मा जल्दी जल्दी भाप छोड़ते भात, अधपकी छितरी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी थाली में डाल कर दे देती है और उस पर से आधा चम्मच देशी घी. स्कूल जायेगा, दिन भर पढेगा तो घी से ताकत बनी रहेगी. अम्मा घर पर मलाई से बनाती है अनिल के लिए देशी घी.
अनिल जल्दी अल्दी फूँक फूँक कर खाने लगता है. पूरा खाना बिना खाये ही दिवाल घड़ी पर नजर पड़ती है और वो खाना छोड़ कर भागता है. अम्मा कहती है, अन्न का अपमान नहीं करते बेटा. खाना आराम से खाते हैं. मगर अनिल को तो स्कूल जाने की जल्दी है सो भागता है.
बरामदे से साईकिल निकाल कर, जब तक अम्मा बाहर आये, अनिल आवाज लगा कर निकल जाता है. गली से सड़क पर आकर कोने में ही शर्मा जी की कोठी है जिनकी फैक्टरी में अनिल के पिता जी काम करते हैं. शर्मा जी की कोठी के बाहर एक साथ तीन कारें खड़ी होती हैं. एक शर्मा जी की, एक उनकी पत्नी की और एक शुभि की सफेद वाली दो दरवाजे की. शुभि उसी से स्कूल जाती है.
अनिल के सरकारी स्कूल से पिछली सड़क पर शुभि का कान्वेन्ट स्कूल है तीन मंजिला लाल रंग का.
अनिल को जल्दी स्कूल पहुँचना है, वो तेजी से साईकिल के पैडल मारता है. आज जाने क्यूँ एड़ी में दर्द भी है.
अनिल कक्षा में बैठा है. मास्साब भौतिकी के चुम्बकत्व के सिद्धांत वाला अध्याय पढ़ा रहे हैं अनिल बैन्च पर बैठा अपने खपड़ैल की छत वाले क्लास रुम की खिड़की से बाहर पीछे के वाले स्कूल की ओर ताक रहा है. ढेरों लड़कियाँ उस स्कूल में पढ़ती है. नीला ट्यूनिक और सफेद कमीज पहने. परियों जैसी लगती सब अनिल को उजली उजली सी. सबके बैठने की अलग अलग कुर्सी. दूर से कुछ साफ तो दिखता नहीं, बस बैठा कल्पना करता रहता कि शुभि ही होगी जो खिड़की से दिखाई दे रही है.
एक बार शार्मा जी के दरबान के लड़के से पूछा था तो उसने बताया था कि शुभि भी उसी कक्षा में है जिसमें अनिल पढ़ता है.
दिन में लंच की छुट्टी में अनिल भी दोस्तों के साथ धूल में सतोलिया खेल रहा है. गेंद पीछे झाड़ियों में जाती है. अनिल दौड़कर गेंद उठाने जाता है. उस स्कूल का बड़ी ऊँची ऊँची जालियों का बाड़ा है. बाड़े के उस पार कुछ लड़कियाँ बेड मिंटन खेल रही हैं. कुछ हरी हरी दूब में गोला बना कर गप्प करती खाना खा रही हैं. अनिल ने झाड़ियों के बीच से छुप कर देखा, उसे शुभि दिखाई पड़ी अपनी सहेलियों के साथ बैठे खाना खाते. शुभि खाने में सैण्डविच खाती है.
अनिल लौटकर आ जाता है. अब उसका खेलनें का मन नहीं. क्लास रुम में आकर अपना खाने का डिब्बा निकाल लेता है. अम्मा ने चाव से दो रोटी के साथ आम का अचार रखा है. उसे जाने क्यूँ आज खाना खाने का मन नहीं है. डिब्बा बन्द करके बस्ते में रख देता है. उसे प्यास लगी है. पानी की टंकी तक जाता है. पीछे स्कूल पर फिर नजर जाती है. एक लड़की वाटर बोटल से पानी पी रही है. अनिल टंकी से हाथ धो कर लौट आता है.
शाम को साईकिल से घर लौट रहा है. शुभि की कार शर्मा जी के घर के बाहर खड़ी है जबकि उसका स्कूल अनिल के स्कूल के १५ मिनट बाद छूटता है लेकिन वो हमेशा घर पहले पहुँच जाती है चाहे अनिल कितनी भी तेज साईकिल चला कर लौटे.
रात होने लगी है. अम्मा ने आंगन में खटिया लगा दी है. अनिल खटिया पर जाकर लेट जाता है. अम्मा सर पर तेल मल रही है, और वो चाँद को देख रहा है. वही उसका खिलौना है जिससे वो बचपन से खेलता आया है.
अनिल इन्जिनियर बन गया है. बाबू जी तो उसकी इन्जिरिंग की पढ़ाई खत्म होते ही चल बसे थे और फिर छः महिने में अम्मा भी. अनिल को एक अच्छा ऑफर मिला और वो अमरीका आकर बस गया है. बीबी और दो बच्चों का परिवार है.
दरवाजे पर तीन गाड़ियाँ हैं. एक खुद की सफेद कार दो दरवाजे वाली, एक पत्नी की और एक वैन, जब परिवार के साथ कहीं लम्बा जाना होता है तब के लिए.
ऑफिस जाने को तैयार होता है.
पत्नी ने ब्रेकफास्ट के लिए सेण्डविच लगा दिये हैं और एक सैण्डविच और फ्रूट लंच के लिए पैक कर दिया है. साथ में मिनरल वाटर की ठंडी बोतल.
आज अनिल को सेण्डविच के बदले वो भाप छोड़ते भात, अधपकी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी थोड़ा सा घी डाल कर खाने का मन है.
वो पत्नी से कहता है. पत्नी हँस देती है. ”नो भात, नो घी. मोटा होना है क्या?”
कह रही है ”जल्दी निकलो और ये सैण्डविच भी साथ लेते जाओ, ड्राईव करते हुए खा लेना वरना ऑफिस को देर हो जायेगी.”
फिर छेड़ते हुए हंसती है ’ ”हर समय बस खाने में ही मन लगा रहता है मोटूराम का!!”
बेटा पूछ रहा है ”डैडी ये भाटे पालक क्या होता है?”
आज जाने क्यूँ अम्मा की याद आ रही है उसे.
उसकी आँखें नम हैं.
-समीर लाल ’समीर’
115 टिप्पणियां:
क्या कहें सर,
जो बीत गया सो बीत गया।
बचपन के उस सादे खाने में जो स्वाद था, वो प्यार मनुहार के कारण सच में दुर्लभ होता था।
बहुत अच्छी लगी आपकी ये पोस्ट।
बहुत खुब कही। यह तो पटकथा लग रही है। आओ फिल्म वालों आओ। इस पर एक लघुकथा बनाओ। बेहतरीन। मन से भूलते जा रहे कोमल अहसासों की सार्थक अभिव्यक्ति।
इसे कहते हैं बात कहने का "उड़न तश्तरीय" अन्दाज। बहुत सुन्दर प्रस्तुति समीर भाई।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
Sacchi see kahaanee lag rahee hai.
क्या समीरजी, फिर आपने रुला दिया ...
कितना करीब से देखते हैं आप भावनाओं को.
और कुछ नहीं बस
bahut hi sahi likha sir
bachpan ke din hamesha yaad aate hain
vo maa k hath ka khana
dosto k sath tiffin share karna
vo ladkpan ka pyar
sabka apana hi maza hain
गुरुदेव,
अगली ब्लॉगर्स मीट का मेनू सेट कर दिया है...
भाप छोड़ते भात, अधपकी छितरी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी और ऊपर से आधा चम्मच देसी घी...
भला बड़े से बड़े फाइव स्टार का खाना भी कहां पानी भरेगा, अम्मा के इस प्रसाद का...
जय हिंद...
समय का चक्र एक चक्कर पूरा घूम गया -बहुत मार्मिक ! आपको मानव मन की महीन संवेदनाओं को सहलाने दुलराने में महारत हासिल है ....और कभी कभी आपकी लेखनी ऐसा बहुत सहजता और उत्कृष्टता से कर जाती है जैसे आज !
बहुत अच्छी प्रस्तुति!
आदमी जैसे जैसे उपर बढ़ता जाता है उसे बहुत सारी भौतिक सुविधाएँ तो मिल जाती है पर उसके बदले कुछ अपनी सी चीज़ें पीछे छूट जाती है जैसे आज इतनी सुविधा के बाद उसे माँ के हाथ की चावल दाल नही मिल रही जिसमें माँ का प्यार होता है..एक बढ़िया कहानी...बहुत बढ़िया लगी समीर जी..धन्यवाद
....अदभुत !!!
सारे जीवन अतीत याद आता रहता है। क्यूँ ये पीछा नहीं छोड़ता। कहीं चुम्बक की तरह कदमों को पीछे की ओर खींचता है तो कहीं मार्गदर्शन करता है।
अपन तो जब चाहे,लुत्फ उठाते हैं। आज रात के लिए फिर तैयारी शुरू करता हूँ।
esa kyon hota hai? Maa ke khane jaisa swad patni ke khane me nahin milta.
.
.
.
दुनिया गोल है...घूम फिर कर फिर फिर वहीं लौट जाता है इंसान, जहाँ से चला था!
आज आप फुल फॉर्म में हैं सर जी,
हिला के रख दिया आज आपने अपने पत्थर-दिल को भी !
आभार!
भुली बिसरी यादें
कभी खींच कर ले जाती हैं अपने पास
गुजारे हुए लम्हे याद आते हैं
समय के साथ
आभार
बहुत कुछ सुनहरे याद दिलाती कहानी ....दिल को भा गयी फिर से एक और रचना !!
Next week i am in your desh :-)
कितना पहचाना पहचाना सा है ये 'अनिल'
तीन तीन कारों वाला .
आज भी अम्मा के हाथ का बना भात,राहर की दाल.भाटे पालक की सब्जी को याद करता है ?
'उसकी पत्नी' उसकी सेहत को लेके कितनी भी सजग,सतर्क हो पर.........कभी कभार बना कर क्यों नही खिला देती उसे वो सब कुछ ?
'मोटूराम' शरीर से मोटा गया है तो क्या ?
मेरा गब्बू 'अनिल' है तो अब भी मासूम बच्चा.
वो क्यों अपनी पत्नी को नही कह देता कि ......
खाऊँगा खाऊंगा खाऊंगा
शाम को ज्यादा 'वाक्' कर लूँगा.
bahut hi sahi likha sir
bachpan ke din hamesha yaad aate hain
मुझे भी मेरी मां की याद आ गई...
मुकम्मल जहां कहां मिला है किसी को आजतक.
गुरुदेव,
एक बढ़िया कहानी..... समीर जी धन्यवाद
बहुत बढ़िया मार्मिक तुलनात्मक वर्णन, गरीबी और अमीरी का ।
दुनिया गोल है , ये तो हम सब जानते हैं । लेकिन जीवन चक्र भी गोल घूमता है ।
बचपन में सूखी रोटी ---फिर धन्ना सेठ बनकर ---फिर सूखी रोटी ---घी वाली खा ही नहीं सकते ना। मनुष्य फिर वहीँ पहुँच जाता है ।
क्या प्रकृति भी भेद भाव करती है ?
कल की पोस्ट ज़रूर देखिएगा ।
wahwa...behtreen
बेहद सम्वेदनशील...... मन को छु गयी....रिश्तो और यादो का ये ताना बाना यूँही चलता रहता है......
regards
अनिल की शादी किससे हुई, क्या शुभि से?
मन को छू गयी यह कहानी.
------समय के भी कैसे फेर हैं.
-----यह तो अच्छा है ,यादों का साथ कभी भी मिल जाता है.
आँखें तो हमारी भी नाम सी हो गयी जी पढ़ते-पढ़ते.....अंतिम पंक्तियाँ.....वाह..
कुंवर जी,
सुन्दर प्रस्तुति....वक्त अपना काम करता है पर मन है कि यादों में उलझा रहता है...
bhai ..mera to aaj bhi pasandeeda khana hai ...kabhi kabhi khud bhi bana ke kha leta hun .. :)..cheezen jab humare paas hoti hain tab hum unki keemat nahi samjhte hain ..
waise..
"kabhi kisi ko mukammal zahaan nahi milta"
ye nida faazli ka likha hua hai jahaan tak mujuhe pata hai ..ek dafa dekhiyega... :)
बहुत ही सुंदर पोस्ट।
यादें अपना अलग ही रंग लिए रहती हैं। समय बीत जाने के बावजूद उनकी रंगत पर कोई असर नहीं पड़ता।
समीर जी,बहुत सुन्दर कहानी है...एक संवेदनशील ह्र्दय ही ऐसी भावपूर्ण कथा लिख सकता है...धन्यवाद।
कितने सरल शब्दों में आपने इतनी बड़ी बात कह दी. दिल को छू गयी...और अब तो माँ की याद भी आने लगी :(
do yugon kaantar rekhankit karti is rachanaa ke liye badhai..mere bhai...
आशा है नीचे दिया लिंक न्याय करता है ऐसी स्थितियों के लिये
http://www.youtube.com/watch?v=dIFswH3IGO8
ek baar padhkar,dobara padhi..ab soch mein hoon!
धाराप्रवाह लेखन तो कई करते है पर वह लेखन धाराप्रवाह पठन करवाने में भी सक्षम होना चाहिये. जैसे कि आपकी यह कथा, एक सांस में पढ़ डाली गयी.
क्या अनिल और उड़नतस्तरी के चालक में कोई समानता है ???????????
अगर ये कंप्यूटर स्क्रीन ना हो कर कागज़ पे लिखी इबारत होती तो लेखक की आँख से गिरे आंसू का धब्बा जरूर दिखाई देता |
यादें याद आती हैं ...........यादें
मै भी बचपन मे कुछ सपने देखता था आज तक तो पुरे नही हुये .
सहज लेखन.. कहीं आस पास देखा सुना सा... सहज कहानी.. कहीं आस पास पढी लिखी सी...
मुझे नहीं पता की आपने ऐसी कहानियां/पोस्ट्स पहले ट्राई की हैं कि नहीं... लेकिन मुझे एक काफी अच्छा प्रयास लगा... एक नया सा प्रयोग आपके द्वारा... (अगर पहले नहीं हुआ है तो, अब आप तो न जाने कबसे लिख रहे हैं :))
mannn ko chhune wali, arvind mishra jee se sehmat
क्या क्या और नहीं याद आता होगा....वो धूप में साइकल चलाना...धूल अटे पैरों से गेंद खेलना....मन की गहराइयों में उतर गयी ये कथा
जमीन से जुड़ा हुआ हर आदमी का हक़ीक़त है ई लघुकथा... फिर से क्षमा याचना सहितः
‘कभी किसी को’ शहरयार साहब का नहीं है, निदा फाज़ली साहब का है!
ham abhi kuchh nahin kahenge.... pahale kuchh khaa kar aayenge...phir iske baare men kuchh bataa paayenge..
कितनी अपनी सी लगी अनिल की कथा ?इन्दूजी की टिप्पणी भी मायने लगती है |
शायद आजकल पत्नियों की झिडकी खाकर ही सब लोग मोटूराम हो रहे है इससे अच्छा तो भाप निकलता हुआ भात ही खा ले |बहरहाल बहुत सच्ची और भावनाओ से पूर्ण है है ये कहानी |
एक कहावत है- जहाँ दांत है वहां चने नही ,और जहाँ चने है वहां दांत नहीं |
दिल को छू लेने वाली रचना
मन के खेल को क्या खूब बखाना है!!
बस जो नहीं मिला, उसी को मचलता है मन.
शुचि भी यदि अनिल की पत्नी न बन सकी होगी (कहानी का सस्पैंस!!)तो उसको भी दाल,भात और भाटे पालक की तरह अनमना सा ढूढ़्ता होगा अनिल.
समीर जी हमे कुछ पाने के लिये बहुत कुछ खोना पडता है, आप की कहानी हमे बचपन मै ले गई, ओर बहुत सी यादे समेट लाई ऎसा ही होता है.
धन्यवाद
अपन तो आज भी हर रोज यही खाना खाते हैं.. इसी वजह से पूरी दुनिया अपने को बेहद खूबसूरत लगती है। बेहद शानदार रचना।
समीर जी ............कभी कभी तो एकदम निशब्द कर देते हैं आप..कुछ भी कहते नहीं बनता.भावुकता ,परिवेश का फरक ,सच्चाई, क्या नहीं है इस रचना में. सांस रोक कर पूरा पढ़ गई पर फिर भी कुछ कहने में असमर्थ हूँ.
पापा का पसंदीदा खाना है ,आज आपने याद दिला दी
बहुत संवेदना छिपी है समीर भाई ... ये सच है आज के बच्चे शायद इन बातों को ना समझ सकें ... पर अक्सर ऐसा होता है ... दिल की बात लिख दी है आज ... मेरी तो आजकल अम्मा दुबई आई हुई हैं साथ रह रही हैं ... भरपूर मज़ा ले रहा हूँ ....
मर्मस्पर्शी कथा.
क्या समीर जी ये जो भी बहार जाते है रोये क्यों रहते है मेरा एक दोस्त कड़ी चावल याद करता है अमरीका में .....यही आ जाओ न
ऐसा क्यों होता है कि 'आज' की बजाए 'कल' रेशमी एहसास लिए होते हैं जो बहुत याद आते हैं..!
राहर की दार तो हमारे यहं भी बोलते हैं... बढ़िया
बेहद मिस करते हैं आप अपनी मिट्टी को
प्रणाम
बढ़िया, याद आ गया गुजरा ज़माना!
भूलवश निदा फाज़ली साहब की जगह शहरयार नाम लिख गया था. भूल की ओर ध्यान दिलवाने का आभार.
.
शायद इसे कहते हैं पत्थर चीर कर पानी निकालना.
अतित कभी पीछा छोड़ने वाला नहीं है.... अम्मा तो याद आएगी ही...
वैसे आपने कहीं लिखा है "आधासच"
ये सच्चे भाव हैं और यही सच है.
वजन बढ़ने के दो कारण
पहला ये भोजन
दूसरा आभार
दिल को भा गयी ,बहुत अच्छी लगी आपकी ये पोस्ट।
दिल को भा गयी ,बहुत अच्छी लगी आपकी ये पोस्ट।
शुभि का क्या हुआ....
बड़े मन से पढ़ी आपकी यह पोस्ट ....दिल में कुछ छोड़ सा गयी
भैया जी !! अनिल आपका दोस्त था? मन के करीब वाला…… समझिये बात को…… भाभी जी पढ़ लेंगी इसीलिये नाम में हेरफेर…
बहुत अच्छी सीख मिली है आपके इस लेख से…
यही सब हम लोग आज भी खाते हैं, लेकिन अब न तो स्कूल जाने की जल्दी है और न ही कोई "शुभि" है
और न ही……
Lagta hai yeh aapka bhoga hua yatharth hai. Jo bhi sunder hai...
बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी मां.....
क्या कहूं
आप बस लिखते जाते हैं
हर बार कुछ
अनुपम लाते हैं
और हर बार
ज़ोर से रुलाते हैं
अद्भुत...शब्दातीत....
अम्मा के हाथ की दाल भात और भाटे पालक की भाजी को हांजी..हांजी..।
मैकडोनाल्ड का फास्टफूड और ताज होटल के कॉन्टिनेंटल व्यंजन को नाजी..नाजी..।।
देश पराया छोड़ के आजा
पंछी पिंजरा तोड़ के आजा
मां तेरी है बहुत ही रोती
आजा अपने देश में भी है रोटी....
एक कनाडा बस गया दूसरा दिल्ली ,
दोनों छोड गए अपनी माटी ,
एक ही मां , मां की रोटी,
दोनों को उसकी याद है आती ।
क्या कहूं कि शब्द नहीं हैं कहने को अब सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है ।
समीर जी
बहुत मार्मिक वर्णन बचपन का...........क्या मर्मस्पर्शी रचना है
उन्मुक्त जी की संवेदना और किशोर सुलभ जिज्ञासा जो सहसा मुझे भी हो आयी थी का जवाब देगें क्या ? या यह पाठकों पर ही छोडिये ! कहानी फ्लैशबैक में है न ? यह कहानी है या संस्मरण ? किस कटेगरी में जायेगी ?
अरविन्द जी
उन्मुक्त जी को तो ईमेल से जबाब दे दिया था. :)
शुभि का क्या हुआ-यह नहीं पता किन्तु अनिल को तो नहीं ही मिली.
कहानी ही कहें तो सेफ प्ले रहेगा...
हेल्लो समीर,
राम का दोस्त हूँ. उसके ब्लॉग में आपका नाम देखा था. dhundte dhundhte आपके ब्लॉग पर आ गया. बहुत अची कहानी लिखी. बिलकुल सचाई के करीब. जो है उसका आनंद लेने की बजाये हम चाँद और तारो को चूना चाहते हैं.
जब भारत में थे तो अमेरिका जाना चाहते थे. फिर अमेरिका आ गए तो यहाँ पर भारत को तलाशते हैं. जब भारत जाते हैं तो वहां जा कर अमेरिका तलाशते हैं.
Sameer ji
namaskar.
jo cheez jis waqt hamare paas ho,uski kadar kar lene chahiye kya pata Kal woh pal, woh cheez hamare paas ho na ho.
दिल को छू गई आपका ये संस्मरण (सेफ बोले तो कहानी ही....)
बहुत कोशिश किया-करवाया पर वो माँ के हाथ वाला स्वाद कहाँ !!!
सालों हो गये,स्कूल के ज़माने से लेकर आज तक मैं औत्र सुनील,मेरा छोटा भाई एक ही थाली मे खाते है और आज भी वो अपनी पत्नी और मैं अपनी बहु के हाथ से बनी भाजियों और चटनियों से ज्यादा अपनी आई(मां)के हाथ का बना खाना पसंद करते है।आपने स्कूल के दिनो की याद ताज़ा करदी बस शुभी की कमी आज तक खलती हैऽउर हां छ्त्तीसगढ मे तो आप रहे भी हैं यंहा इतनी तरह की भाजी होती है जिसका कोई मुक़ाबला नही।आप आईये आपको अमारी,कुल्फ़ा,लाल,चरौटा,बोहार और बहुत सी भाजी खिलायेंगे।मज़ा आ जायेगा।
अब इस पर क्या कहें.............
मुझे भी चावल में तेल नमक और आम का अचार खाने का मन होता था
और जब भी मांगता तो मम्मी देशी घी से चावल को फ्राई कर के डे देती थी
कभी तो चावल तेल और आम का अचार जरूर खाऊँगा ...
अभी पूरी पढ़ी.. इधर भी एक जोड़ी आँखें नम हैं..
अपने बचपन के खाने का स्वाद तो आजीवन जीभ भुला नहीं पाती। लेकिन विदेश में आने के बाद तो जीभ के स्वाद को ताक पर रखना ही पड़ता है। यहां हर भारतीय अनिल ही होता है, शायद आप भी।
sapno me khona aur fir sapne poore ho jae to ateet me khona......? ye hee manav pravrati hai .
kahanee ne poora bandhe rakha......
aap to harfanmoula hai Sameerjee...........
समीर जी इस कहानी को पढ् दिल मे जो भाव आये वो लिख दिये मैने....
गहरे भाव को लिए बढिया कहानी
भावुकता के जाल से बुनी बढिया कहानी
माँ की ममता व बीती यादो को
उजागर करती बढिया कहानी ....
bahut khubsurat kahani hai........ham log to aaj bhi yahi khate hain haan lekin na to hamare paas maan hai yahan par aur na hi school aur na hi shubhi........
hame to jindagi ki daud me office ki jaldi me khud ka banaya khana aur khud ki uljhano ke bich jagna aur sona hai.........lekin ........ye bilkul karib se dekhi ghatna lagti hai jaise khud ki hi kahani ho.....flash back me......
meri bhi aankhen nam ho gai... mujhe bhi maa kee bahut yaad aa rahi hai...sunder rachna... sunder bhav..
आज अनिल को सेण्डविच के बदले वो भाप छोड़ते भात, अधपकी राहर की दाल और लगभग पक गई भाटे पालक की भाजी थोड़ा सा घी डाल कर खाने का मन है .. मैं खुद मुंबई में रहता हूँ .. घर का खाना नसीब हुए ज़माना गुज़र जाता है .. अमेरिका और कनाडा में लोगों की क्या स्थिति होगी समझ सकता हूँ .. वैसे भाट क्या होता है .. मुझे भी नहीं पता ..
काफी अच्छी रचना.
ये शुभि तो सबके जीवन में होती है... और बाकी बातें भी तो आँखों के सामने प्ले बैक की तरह घूम ही गयी.
संवेदना, अहसासों ,भावनाओं, और यादो से युक्त निशब्द कर देने वाली रचना जिसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है .. सुन्दर प्रस्तुति
samay samay ka fark,marmik lekh,jaise sab ankhon ke samne ho raha ho.
bahut saare article pad chuka hu aapke ..ya to kahu lagbhag sare ke sare.......
bahut aacha likhte hain aap....
bahut hi jyada acha....ye past pad kedil me ajib sa kuch lagne lga....
ache aalekh ke liye badhai swikar kare
समीर बाबू , आपका बिस्तृत टिप्पणी बहुत कम लोग को मिलता है जईसा कि आप खुदे कहे हैं... ई हमरा सौभाग्य है कि हमको दू बार ई संजोग मिला. अऊर आप जो दूसरा वाला टिप्पणी दिए ऊ हमको सचमुच छू गया...बस धन्यवाद करने के लिए ई टिप्पणी...ब्यक्तिगत आभार!!!
कल सपरिवार पड़ी कहानी. मन नहीं माना. फिर दोबारा पड़ी.
यार रुलाने का ठेका ले रखा है क्या? और कुछ काम धंधा नहीं है क्या लाइफ में? आंखे नाम हो गईं जितनी बार पड़ी.
सुन्दर प्रस्तुति. आगे भी इस तरह की रचनाओ की प्रतीक्षा रहेगी.
तभी तो कहा है। बातें भूल जाती हैं यादें याद आती हैं। सुना है न आपने। खूबसूरत प्रस्तुति। आपको साधुवाद। और हां, बहुत दिन हुए आप मेरे ब्लॉग पर नहीं आए क्या बात कोई नाराजगी तो नहीं। बताइए तो सही। मैं इंतजार कर रहा हूं।
http://udbhavna.blogspot.com/
वो कहते हैं न आज का ये दिन कल बन जाएगा कल पीछे मुड़ के न देख प्यारे आगे चल
स्मृतियाँ सुखद हों या दुखद संवेदनाओं को तो जगाती ही हैं जीवन है ही कुछ ऐसा जो मिलेगा उसका सुख नहीं मिलेगा और जो छूट गया है उसकी कसक हमेशा दिल में रहेगी
इसी छूटी हुई कसक के साथ कि काश आप जैसे शब्दों के चितेरे हैं वैसा मैं क्यों न हो सका
आभार
kya baat hai sir..
meri bhi aakhein nam ho aayi hai .....
aap to bahut bade hain mujhse lekin mujhe abhi bhi woh nadaan bachpan satata hai..........
वाह... मन ही मन पढ़ो तो मन भारी हो जाए... ऊंची आवाज़ में पढ़ो तो आवाज़ रुंध जाए... वो भी क्या दिन थे.. बीता हुा कल हमेशा अच्छा लगता है, याद आता है। मतलब we r going to r worst...। सार्थक रचना। बधाई..।
दाल, भात और भाटे पालक की भाजी...अब तो खाकर ही कमेन्ट करेंगे.
क्या बात है समीर जी आपकी लेखनी का तो जवाब नहीं .....जिस क्षेत्र में भी हाथ डालते हैं बस सोना ही सोना ....पर ये अनिल की कहानी .....?????
वो भी इतनी नजदीक सी जानी पहचानी ....भोगी सी .....??
कुछ तो बात है .....
दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है .......
Lovely so sweet and emotional and Heart touch able story.
(Harish verma)
kya bat hai sir ji .............
bahut sundar ek sans me padh gaya ..
Lovely so sweet and emotional and Heart touch able story.
(Harish verma)
Lovely so sweet and emotional and Heart touch able story.
(Harish verma)
काफ़ी भावुक कर देने वाली कहानी है भाईसाहब,
"माँ" भगवान का एक अनमोल उपहार चेतन जगत को ख़ासकर मानव जाती को..
माँ के बनाये खाने की तो बात ही निराली है ...
ये सच्चे भाव हैं और यही सच है.
वाकई में सब कुछ एक साथ नहीं मिलता, अगर आपके पास समय है तो पैसा नहीं, पैसा है तो समय नहीं , और समय और पैसा दोनों है तो जवानी नहीं,
आप कैसे इतना प्रभावशाली लिख लेते हैं?
पुरुष की आंख कपड़ा माफिक है मेरे जिस्म पर http://pulkitpalak.blogspot.com/2010/05/blog-post_9338.html मेरी नई पोस्ट प्रकाशित हो चुकी है। स्वागत है उनका भी जो मेरे तेवर से खफा हैं
सर शुभि फिर कभी मिली..क्या उसे पता था....नहीं न....वैसे आपके पास कितनी कार है।.....तीन.....सैंडविच कितना खाओगे....कह दीजिए प्राणप्रिय (कहना ही पड़ेगा) आज बना दो मेरे मन का....कह दीजिए सर ..हिम्मते मर्दा मर्ददे खुदा...
वाह.....वाह...
sundar rachana
बहुत भावुक कर देने वाली है यह पोस्ट ..कुछ यादे कभी नहीं भूलती
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