हमारे पास आँखे हैं तो देखने की सुविधा है. मगर हम बस दूसरों को देख सकते हैं.
काश!! अपनी आँखों से हर वक्त खुद को भी देख पाते.
दर्पण इज़ाद कर लिया है लेकिन दर्पण कब हमेशा साथ रहता है?
दिन में एक या दो बार दर्पण देखते हैं वो भी मात्र खुद को निहारते ही हैं.
खुद के भीतर झांकने का तो खैर समय ही नहीं लेकिन कब दर्पण में देख कर भी अपने को पहचानने की कोशिश की?
शायद यही तरीका होगा जिन्दा रहने का वरना खुद की सही पहचान के बाद तो खुद के साथ रहना भी मुश्किल हो जाये.
वो सामने बैठा
आकाश में ताकता
मूँह में हवा भरता
फिर गाल पर हाथों से
दोनों तरफ एक साथ
तमाचा मारता
और हवा निकलती
आवाज आती....
बुक्क!!
मैं उसे देखता रहता
सोचता
वो क्या कर रहा है?
बेवकूफ!!
वो हर
बुक्क!!!
के बाद मुझे देखता, मुस्कराता
मैं मुस्कराता जबाब में
वो सोचता
ये क्या देख
मुस्करा रहा है?
बेवकूफ!!!
और फिर
आकाश ताकते
मूँह में हवा भरता.....
तमाचा मारता
और
आवाज आती
बुक्क!!
-समीर लाल ’समीर’
नोट: कल दिन में एकाएक कुछ वजहों से मॉट्रियल जाना पड़ा. १२ बजे दिन में निकले और ५१० किमी की यात्रा तय कर ४.३० बजे पहुँचे. जरा थकान की वजह से रात कहीं जाना नहीं हुआ और आज सुबह काम खत्म कर ३ बजे वापसी पर रवाना हुए तो ८ बजे रात घर आकर लगे. यही वजह हुई कि न तो कोई ब्लॉग पढ़ना हुआ और न कमेंट करना. अब इत्मिनान से बैठे हैं तो कुछ पोस्ट किया जाये और फिर दो दिन का बचा ब्लॉग पठन शुरु किया जाये.
85 टिप्पणियां:
खुद के भीतर झांकने का तो खैर समय ही नहीं
@ लोगों को दूसरों के भीतर झाँकने से फुर्सत मिले तब तो कोई अपने अन्दर झांके ना !
अपनी आंखों से खुद को देख पाने की सुविधा होती भी तो आत्ममुग्धता ही बढ़नी थी। दोष और वो भी अपने, कुफ़्र की बात कर रहे हैं साहब।
हम अब भी वही देखते हैं जो देखना चाहते और तब भी वही देखते अगर खुद को देख पाते।
समीर जी एक दम सही कहा आपने लोगों को किसी भी कदम से पहले अपने आप को तौलना चाहिए की ,क्या हम सही हैं और हमारा ये कदम सही है / मेरे ख्याल से ऐसा करने से लोगों को अपनी कमियों का भी पता चलेगा और सही गलत के निर्णय की क्षमता में भी बृद्धि होगी ,जिससे इस संसार के आधे विवाद खत्म हो जायेंगे / मैं हमेशा इस प्रकार की कोशिस करता हूँ /
अगर लोग अपनी आँखों से खुद को देख पाते तो मैं समझता हूँ की बहुत सारे तो फिर ब्लॉग पर लिखना ही छोड़ देते
;) शायद मूर्तिकार(creater) समझदार था !
अनहद बाजे बाजिए,अमरापुर निवास्।
ज्योति स्वरुपी जगमगे,कोई निरखे निजदास्॥
@-शायद यही तरीका होगा जिन्दा रहने का वरना खुद की सही पहचान के बाद तो खुद के साथ रहना भी मुश्किल हो जाये.. ...
So true !
After knowing myself, i'm really finding it difficult to tolerate myself.
इसका ज़वाब तो बहुत पहले मिल चुका है जी ।
बुरा जो देखन मैं चला ---
सही है , खुद को देख पाने की हिम्मत कहाँ कर पाते हैं हम ।
स्वयं को पहचानने की यात्रा किसी बाहरी दर्पण से नहीं भीतर से होती है।
बहुत कम शुरू कर पाते हैं और समाप्त करने वाले खोजे नहीं मिलते।
आप अकविता में भी आजमाइश करने लगे हैं। शुभकामनाएँ।
क्या बात है समीर जी एक उम्दा अलग अंदाज में रही यह प्रस्तुति...बेहद प्रभावशाली रचना...अच्छी लगी..
kabhi darpan me ab dekhe to darpan toot jaate hai...
इतने मनोवैज्ञानिक तरीके से आपने कविता मे संकेत किया है कि सुखद लगा ........
सच में हमारे प्रिय हमें कैसे झेल लेते हैं यह आश्चर्य की ही बात है। कभी कभी यूँ दर्पण भी दिखाते रहिए।
घुघूती बासूती
खुद को देखने के लिए मन की आंखें होती है
लेकिन हर इंसान में अपने अंदर झांकने की ताकत नहीं होती है
गुरुदेव,
इस बेपनाह हुस्न को देखकर रोज़ कितने दर्पण टूटते होंगे, क्या इसका भी कभी ऑडिट किया है आपने...
जय हिंद...
डर लगता है बिना आईने के अपने को देखना . जान बुझ कर नही देख्ते है क्योकि अपनी शैतानिया ,मक्कारीया ,कमीनापन कैसे बर्दाश्त करेंगे
समीर जी एक दम सही कहा आपने
वक्त को पकड़ती बेहतरीन लाइनें
खूबसूरत बात !
हम अपने आप से निरंतर भाग रहें हैं समीर जी!
क्योकिं जैसे ही चुप होतें हैं अपना वज़ूद यह सवाल पूछंने लगता है :- " मैं कौन हूं ?"
खुद के भीतर झांकने का तो खैर समय ही नहीं लेकिन कब दर्पण में देख कर भी अपने को पहचानने की कोशिश की? ...बहुत सही कहा अपने...यह तो वाकई सोचने वाली बात है.
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'शब्द सृजन की ओर' पर आज '10 मई 1857 की याद में' !
स्वयं के अंदर झांकने कि बात सच बहुत अच्छी लगी....और बुक्क....गहरा अवलोकन है..
बढ़िया पोस्ट. कविता बहुत अच्छी लगी.
अपनी आँखों से खुद को देखने की सहूलियत होती तो बात ही क्या थी. मन की आँखें हैं लेकिन हम उसका उपयोग करते हुए शायद डरते हैं.
अपनी आँखों से अगर देख पाते खुद को तो ना जाने कितने लोग हर बार खुद की आँखों में ही शरमशार हो जाते
बहुत सूफ़ियाना अंदाज की रचना है, बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
क्या बुक्केदार कविता है.. बुक्क...
वैसे भारत में साढ़े चार घण्टे में २०० किमी ही चला जा सकता है..
hindi main nahi likh pane kaa kaaran kisi aur ka laptop use kar rahe hain. apne bheetar jhankne kaa maza hi kuch aur hai gar sab yeh bhed jaan paayain...
डॉ टी एस दराल से सहमत ............. इतने हिम्मती नहीं है हम !!
बहुत सटीकता से समझाया आपने !! आभार !!
bukk....khud me khush
अन्दर की बेवकूफी को बुक्क से निकाल रहा था ।
khud ko dekh payen...? itni na to himmat hai insaan men na chahat.
sach kaha aapne shayad tabhi jee patehain ham.
मनुष्य यदि खुद के भीतर झाँकने लगे तो इस धारा को स्वर्ग बनाने मे भी समय नहीं लगेगा पर कौन कमबख्त ऐसा करने की जहमत उठाए सब तो मुह उठाए आकाश मे स्वर्ग तलाश रहे हैं सिर झुका कर अपने भीतर झाँके इतनी हिम्मत है किसमे।
अच्छी प्रस्तुति
gaal phulakar uspar maarna tapak se aur us aawaz ko sunkar maza lena ,bachpan me ye khel ki tarah khela karte rahe ,sundar .
सच कहा, खुद के भीतर झाँकने की फुर्सत आजकल किसी को नहीं है, जो दीखता है वो है नहीं और जो है वो दीखता नहीं!
खुद के भीतर झांकने का तो खैर समय ही नहीं लेकिन कब दर्पण में देख कर भी अपने को पहचानने की कोशिश की?
हम्म सोचने वाली बात है यह तो...पर इतनी फुर्सत है किसी को...चिंतनीय आलेख
"आत्मदीपो भव" इसीलिए कहा गया है।
@ खुद की सही पहचान के बाद तो खुद के साथ रहना भी मुश्किल हो जाये.
---- अपने विषय में कुछ कहना प्राय:बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि अपने दोष देखना आपको अप्रिय लगता है।
सही खुद की पहचान कहाँ हो पाती है जी ....ज़िन्दगी जीने का तरीका ही यही है बुक्क
सच कहा समीर जी आपने!
जिस दिन हम लोग अपने खुद के भीतर झांक लेंगे, शर्म के मारे दुसरो के भीतर झाँकने की आदत छूट जाएगी.
कुछ और ना भी हुआ तो कम से कम अपने आप को तो समझने लग ही जाएँगे.
बस, कुछ देर मेडिटेशन में बैठ लिये आपकी पोस्ट पढ़ कर। पद्मासन में बैठने की आदत कम हो गयी है। ज्यादा न बैठ पाये! :(
हां खुद से बातचीत करी बहुत समय बाद।
bahut khoob.
...वैसे भी दर्पण झूठ नहीं बोलता इसलिये उससे दूर ही रहने की कोशिश करते हैं !!!
क्या बात है सर जी बूम बूम बूगी बूगेई.वो कहावत भी सही है की ""मनुष्य को पहले अपने गरेबान के अन्दर झांककर देखना चाहिए."" पोस्ट पढ़कर आनंद आ गया .आभार.
अगर मन की आँखें बन्द रखें तो दर्पण भी काम नहीं आता ।
ये पोस्ट पढ़ कर बचपन याद आ गया .......
बढ़िया लगा ये पोस्ट पढकर ... अपना सत्य से शर्म आती है इसलिए दूसरों के जीवन में झांकते हैं ... हर कोई दुसरे को बेवक़ूफ़ ही समझता है, और खुदको समझदार ...
insan ydi chahe to aukat me rh ke ek khushnuma jindgi ji skta hai. shrt ye hai us jindgi ke liye apni aukat ki phchan jruri ho .
ye prkriya dushkr jrur hai mgr asmbhv nhi
apne bhitr jhakne me burai kya hai hm jitna kchra apna saph krenge utni shudhi hmari hi hogi
बढ़े भी अगर सब कुछ भूल कर बच्चा बन कर ये सब करें तो मन प्रसन्न हो जाता है समीर
insan ydi chahe to aukat me rh ke ek khushnuma jindgi ji skta hai. shrt ye hai us jindgi ke liye apni aukat ki phchan jruri ho .
ye prkriya dushkr jrur hai mgr asmbhv nhi
apne bhitr jhakne me burai kya hai hm jitna kchra apna saph krenge utni shudhi hmari hi hogi
कितनी अजीब बात है ना !दोनो एक दूसरे को अच्छे से समझ गये पर खुद को ???.......और ये भी कि एक दूसरे को बताते भी नही कि वो एक-दूसरे को कितना समझे !!!!!!!!!बस ....... " बुक्क!!!"
बुक्का फूटा.. बुक्क एक देसी शब्द है। कई दिनों के बाद सुनने को मिला यह शब्द। मैं तो ऐसे शब्दों की तलाश में रहता हूं।
आपने कमाल का लिखा है। बचपन में यह गदहपचीसी अपन ने खूब की है। अब भी कई बार मन तो करता है लेकिन यह सोचकर डर जाता हूं कि कोई देखेगा को क्या कहेगा।
दिमाग के ऊपर से निकल गयी बात | बस गाल फुला रहा हूँ लेकिन आवाज नहीं निकाल पाया क्यों कि हाथ दुसरे काम में व्यस्त है |
सुन्दरतम् ।
मन की आँखे खोल बाबा
पहले ही कह चुका हं कि आजकल आपको पढने में और पढ के चुपचाप फ़िर पढने में ज्यादा मजा आता है । दर्शन है जीवन का ....
समीरजी !
आनंद आ गया ...........बुक्क...........!!!!!!
साधारण सी लगाने वाली बात में से असाधारण अर्थ निकाल कर जीवन को नै परिभाषा और नया दर्शन दे देना आप जैसा कोई असाधारण व्यक्ति ही कर सकता है. बधाई !
बुक्क...........!!!!!!!!!!!!!
बहुत सुंदर बात कही आप ने जी. धन्यवाद
वाह..वाह..!
पोस्ट से ज्ञान मिला और चित्र-गीत बढ़िया लगा!
बहुत लम्बे समय बाद यहाँ आ पाया। आज भी देखता हूँ कि आपकी महफ़िल उतनी ही बाँधने वाली और सोचने पर मजबूर करने वाली है। सच में हम अपना मूल्यांकन करने को कभी तैयार नहीं होते। शायद बहुत दुष्कर कार्य है यह।
वाकई ...बहुत साधारण बात लेकिन प्रस्तुति असाधारण है
बहुत अच्छे गुरु देव...
बुक्क बुक्क
हा हा
मजा आ गया...
जिस काम को करने में डर लगता है उसको करने का नाम ही साहस है ।
बहुत अच्छे भाव लिए लाजवाब पोस्ट।
वाकई...आपकी बात निराली है ...हम तो कुछ कहने के लायक भी नहीं रहते हैं ...का कहें अब..
आत्म चिंतन के लिये एक सही मार्ग दिखाया आपने , मांट्रियल यात्रा की वजह से ब्लाग पठन न होने का दर्द न झेलिये अरे आप तो समाय निकाल ही लेंगे कोटा पूरा करेंगे पढ़ने का मुझे यकीन है
kya baat hai....
ghari baat .....padhkar achha laga
आज हिंदी ब्लागिंग का काला दिन है। ज्ञानदत्त पांडे ने आज एक एक पोस्ट लगाई है जिसमे उन्होने राजा भोज और गंगू तेली की तुलना की है यानि लोगों को लडवाओ और नाम कमाओ.
लगता है ज्ञानदत्त पांडे स्वयम चुक गये हैं इस तरह की ओछी और आपसी वैमनस्य बढाने वाली पोस्ट लगाते हैं. इस चार की पोस्ट की क्या तुक है? क्या खुद का जनाधार खोता जानकर यह प्रसिद्ध होने की कोशीश नही है?
सभी जानते हैं कि ज्ञानदत्त पांडे के खुद के पास लिखने को कभी कुछ नही रहा. कभी गंगा जी की फ़ोटो तो कभी कुत्ते के पिल्लों की फ़ोटूये लगा कर ब्लागरी करते रहे. अब जब वो भी खत्म होगये तो इन हरकतों पर उतर आये.
आप स्वयं फ़ैसला करें. आपसे निवेदन है कि ब्लाग जगत मे ऐसी कुत्सित कोशीशो का पुरजोर विरोध करें.
जानदत्त पांडे की यह ओछी हरकत है. मैं इसका विरोध करता हूं आप भी करें.
Hum sabhi tippani baaj:- Aaj
Wah kya khhob likha hai, maja agaya, asadharan, sadhuwad, apne andar jhankna, jaroor jhakna chahiye
Hum sabhi tippani baaj:- Aagami kaal
Aisa kuchh likha tha kya, apne andar jhakna? mai kal hi shuru karoonga, pahle mera padosi shuru kare tab to,
khud se vasta pad jaye to kher nahi hai :)...bahut sashkt tarike se kavita likhi hai sir :)
समीर जी बाबा कबीर कह गए हैं कि-
बुरा जो देखन मैं चला,बुरा न मिलया कोय।
जो मन झांका अपना मुझ सा बुरा न कोय।
बचपन में हम भी ऐसा बुक्का फोड़ा करते थे। सच कहता हूँ, बडा मजा आता था।
--------
कौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
खुद के भीतर झाँक ही लें तो समस्या क्या बचेगी...
"बुक्क" वाह...हमें तो अभी भी मज़ा आता है ये सब करने में...खूब याद दिलाया...
नीरज
hamko nahi lagta hai ki mushkil hain....logon ne anavashyak ek bahukaal create kar rakha hain....aur fir wo insaan hi kya jo moderate na ho....Diplomatic comment....Live example :-)
बहुत अच्छा लगा, पहले होठों पर - फिर मन में - और फिर मज़ा तारी हो गया ख़ुमारी जैसा। पढ़ तो कल ही गया था, अनुभव करने के बाद अब शेयर करने आया हूँ जो ख़ुशी मिली अपने आप से मिलने में।
और नहीं तो क्या?
जहाँ 72 वहाँ हम? न-न! जहाँ आप वहाँ हम, वहीं सब।
काश कि ये आँखें भीतर बाहर दोनों ओर देख पाती तो खुद को पहचानना कितना आसान हो जाता.....
i would second Ratan Singh jee's view -
खुद के भीतर झांकने का तो खैर समय ही नहीं
@ लोगों को दूसरों के भीतर झाँकने से फुर्सत मिले तब तो कोई अपने अन्दर झांके ना !
बहुत सुंदर
http://nanhen deep.blogspot.com/
http://adeshpankaj.blogspot.com/
शायद यही तरीका होगा जिन्दा रहने का वरना खुद की सही पहचान के बाद तो खुद के साथ रहना भी मुश्किल हो जाये.
" कितनी सादगी से आप कितनी अहम बात कह जाते हैं...."
regards
खुद के भीतर झांकना तो बहुत जरूरी है । लोगों के घरों में झांकने से फुरसत मिले तब तो
ये बुक्क को खेल तो हमने भी बहुत खेला हे बचपन में ।
bahut badhiya kavita likhi hai dada aapne. dil mai utar gayee.
bahut hi sundar...
bahut hi achha laag padhkar....
yun hi likhte rahein...
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mere blog mein is baar...
जाने क्यूँ उदास है मन....
jaroora aayein
regards
http://i555.blogspot.com/
majedaar
apni aankho se khud ko dekh pana kitna mushkil hai, yah ham sabhi jante hain....aap to umra aur anubhav dono me mujhse bade hain, aap behtar jante honge guruwar.....
एक अपील ;)
हिंदी सेवा(राजनीति) करते रहें????????
;)
सिर झुका कर अपने भीतर झाँके इतनी हिम्मत है किसमे।
अच्छी प्रस्तुति
BURA JO DEKHAN MAI GYA ..BURA NA MILIYO KOI ..JAB DIL KHOJA AAPNO..HAMSE....!!!.BILKUL SAHI KA AAPNE.
बहुत खूब.
मैं भी बहुत देर से " बुक्क " कर रहा हूँ ।
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