मजदूर दिवस पर भाषण देने दिल्ली से नेता जी गांव आये.
मजदूरों के वर्तमान हालात और उसके सुधार एवं मजदूरों के उत्थान के लिए सरकार की भावी योजनाओं पर खुल कर बोले और वापस चले गये.
नन्दु और उसके दो भाई, जिन्होंने तीन दिन रात लग कर सभा स्थल पर मंच का निर्माण किया था, अपनी पेमेन्ट के लिए न जाने कब से भटक रहे हैं.
१. चाँद कवि और मजदूर |
२. थकान से चूर बदन छन्न्न्न्न्न्न! एक पल के लिए उसे सुनाई दी बापू!! रोटी!!!!!!!! भूल कर अपनी थकान |
-समीर लाल ’समीर’-
88 टिप्पणियां:
चाँद कवि को महबूबा और गरीब को रोटी सा लगता है ..
घर की रोटी की फिक्र मजदूर को थकने नहीं देती ...
मजदूर सिर्फ छेनी हथौड़ी वाले ही नहीं होते ....
अब साहब, ये मज़दूर दिवस तो हर साल मनाया जाना है। मज़दूर रहेंगे तभी तो ऐसे आयोजन हो पायेंगे। और फ़िर नन्दू जैसों के लिये ये कोई नई बात नहीं है, उनको तो आदत है ही, काहे को आदत बिगाड़नी।
कवितायें भी बहुत अच्छी लगीं।
आभार।
मजदूरों की दयनीय अवस्था को देख कर तो यही कह सकते हैं--यहाँ सब कुछ बनावटी और दिखावटी है, चाहे मुख्यमंत्री हो या परिवहन मंत्री / भ्रष्टाचार और मंत्रियों में पूरा-पूरा और खुलेआम संतुलन है / ऐसे में पैसे की तंगी ना बाबा ना !!!! माका नाका--------? अच्छी प्रस्तुती के लिए आपका धन्यवाद /
जिन्होंने दुनिया को सब कुछ दिया, दुनिया के पास उन्हें देने के लिये कुछ भी नहीं...
संवेदना को जगाने वाली पोस्ट समीर भाई। दुनिया के हर "मजे से जो दूर है उसे मजदूर" कहते हैं और उनकी जीवनी कुछ यूँ चलती है कि-
खाकर के सूखी रोटी लहू बूँद भर बना
फिर से लहू जला के रोटी जुटाते हैं
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
क्यूँकि
असमर्थ था वह
इस आवाहन को
नकारने में …
और फिर यही असमर्थता न जाने कितने अनचाहे और अनिच्छित कार्य करने को मजबूर कर देती है, न केवल मजदूर बल्कि सभी को ---- (उस वर्ग ??? को छोड़कर)
ek katu sachchaai.
बस केवल एक शब्द और भाव -मार्मिक !
एक मजदूर का दर्द उड़ेल दिया कविता में आपने।
bahut hi gahari baat kahi hai aapne. hridaya ko chhoone wali marmsparshi rachna.bahut hi sundar bhav.
poonam
आप संवेदना के उच्चतम स्तर तक पहुँच जाते हैं।
मजदूर की व्यथा ,दर्द और मजबूरी सब कुछ बयां कर दिया आपने ।
'रात ने अपनी थाली में चाँद परोसा लगता है'
अच्छी लघुकथा.
बहुत सुन्दर बात कही है | कवी और मजदूर की सोच अलग तो होती है | मैंने एक बात और भी नोट की है कि खाने पीने का स्तर सबसे ज्यादा अच्छा या तो अमीर लोगो का है या बिलकुल गरीब का है | मजदूर ज्यादातर चिकन और शराब के बिना नहीं चल सकते है |
मजदूर को सलाम। आपकी संवेदना को सलाम।
आपके शब्द-चित्र बहुत हृदयस्पर्शी हैं!
दिल्ली से नेता जी गांव आकर मजदूरों के वर्तमान हालात और उसके सुधारऔर सरकार की भावी योजनाओं पर खुल कर बोले..नन्दु और उसके दो भाई अपनी पेमेन्ट के लिए न जाने कब से भटक रहे हैं.
सटीक !!
कड़ी मेहनत से वो पैसे कमा रहा है और रात में चैन की नीद सोयेगा...मंच से भासढ़ देने वाला सब कुछ होते हुए भी टेंशन में मरता रहेगा, जलाता रहेगा . कविता में कुछ पक्तियां बहुत भावपूर्ण !
क्या बात है भाई ... कमाल की पोस्ट.
नई कविता आन्दोलन के समय सम्भवत: सर्वेश्वर ने चाँद को रोटी से जोड़ती एक कविता रची थी ।
'आह्वान' का 'आवाहन' रूप अच्छा लगा। पारिवारिक ज़िम्मेदारियों के वहन का आह्वान।
तीन की जगह छ: दिन दिखाते मस्टर पर अंगूठा लगा दें तो मजदूरी के साथ एक अध्धा कम्प्लीमेंट्री।... नन्दू को बताया जाय।
दोनों बेहद प्यारी.
भूल कर अपनी थकान
वो फिर तैयार हुआ
अगला प्रहार
करने के लिए
क्यूँकि
असमर्थ था वह
इस आवाहन को
नकारने में
समीर जी, मजदूर दिवस पर एक बेहतरीन रचना..और बहुत सुंदर भाव...सशक्त रचना के लिए धन्यवाद
सूरज ज़रा, आ पास आ,
आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम,
ए आसमां तू बड़ा मेहरबां,
आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम,
सूरज ज़रा, आ पास आ...
चूल्हा है ठंडा पड़ा,
और पेट में आग़ है,
गर्मागर्म रोटियां,
कितना हसीं ख्वाब है,
सूरज ज़रा, आ पास आ,
आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम,
ए आसमां तू बड़ा मेहरबां,
आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम,
सूरज ज़रा, आ पास आ,
आलू टमाटर का साग,
इमली की चटनी बने,
रोटी करारी सिके,
घी उसमें असली लगे,
सूरज ज़रा, आ पास आ,
आज सपनों की रोटी पकाएंगे हम,
ए आसमां तू बड़ा मेहरबां,
आज तुझको भी दावत खिलाएंगे हम,
सूरज ज़रा, आ पास आ...
जय हिंद...
मजदूरों के भी दिन फिर रहे है वो दिन दूर नहीं जब काम करने के लिए लोग मजदूरों के आगे पीछे घुमंगे | गांवों में तो इसकी शुरुआत भी हो चुकी है | मनरेगा जैसी योजनाएं चलती रही तो मजदुर खोजे भी नहीं मिलेंगे |
और
मजदूर
को
रोटी!!!
" सच में कितना फर्क है चाँद की देखने का भी.......बेहद सम्वेदनशील.....अभिव्यक्ति.."
regards
Bahut sanvedansheel rachana..Nandu jaise aur na jane kitne honge jo apni haqki mazdoori ke liyebhi taras jate hai!
थकान से चूर बदन
कांपते हुए हाथ
माथे से बहती पसीने की धार
और उसने फिर से किया
भारी भरकम हथोड़े से
छैनी पर प्रहार....
बार बार
छन्न्न्न्न्न्न!
छान्न्न्नन्न
bahut hi marmspashi baat dekhte sab h samjhta koi koi hain .
ye india h ji
"mahngai ko kam kaise kiya jaye iski meeting aur charcha me 1 lakh rupaiya kharch ho gya "
aisa haal h desh ka
दूसरी बेहतर है !
bahut sunder
वह ग्रेनाइट बनाने के लिये चट्टान तोड़ रहा है । वही ग्रेनाइट जो हमारे ड्रॉइंग रूमों में लगता है । छन्न्न्न ।
बिल्कुल सटीक और मार्मिक. मजदूरों की मेहनत पर पानी फ़ेरकर ताऊ लोग चांद में महबूबा तलाशते हैं. अगर खुद मजदूरी करें तो ,आलूम पडे कि महबूबा असल में कहां मिलती है?
रामराम
BAHUT KHUB
BADHAI AAP KO IS KE LIYE
चाँद
को
देखकर
कवि को
याद आती है
**अपनी महबूबा**
और
मजदूर को
रोटी!!!
गिरते हुए को संभाल लिया आपने..... रात में लाइब्रेरी का उपयोग होने के कारण... आसमान में चाँद ही दिखता था... और हम ठहरे मूरख.... उन्हें चाँद के चमकने की intensity और तारों की light frequency बताया करते थे.... कि मौसम कितना सुहावना हैं...... रात कितनी लुभावनी हैं..... पता नहीं वो क्या समझते रहे.... राम राम !!
अब तो चाँद को गरीब की रोटी समझ कर explain किया करेंगे...
कम् से कम् दूसरे को दूसरा पहलू तो पता चले.....
चाँद
को
देखकर
कवि
को
याद आती है
अपनी महबूबा
और
मजदूर
को
रोटी!!!
yahi hai satya
आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी रोटी को मोहताज लोग। असली गरीबी यही है कि आज का जुगाड़ होने पर भी कल के लिए निश्चिंतता न रहे।
छैनी हथोऔदे के रूपक लेकर हर मजदूर कि मजबूरी कह दी है.....संवेदनशील रचना...
अति संवेदनशील पंक्तिया है.
वैसे मजदूर और मजदूरों का दायरा भी छेनी-हथौरी से आगे बढ़ गया है.
चाँद
को
देखकर
कवि
को
याद आती है
अपनी महबूबा
और
मजदूर
को
रोटी!!!
----------अप्रतिम !!!!!!
चाँद को देख कर हमें ऐसा बल्ब याद आता है जो पर्यावरण को नुकसान नहीं पहूँचाता और जिससे मुफ्त में रोशनी मिलती है.
शेष आपने मजदूरों के हालात पर मार्मिक कविता की है.
उसे सुनाई दी
घर में इन्तजार करते
बेटे की आवाज
बापू!! रोटी!!!!!!!!
बहुत ही मार्मिक चित्रण...एक मजदूर की मजबूरियों का
बहुत जबरदस्त अभिव्यक्ति
बस यही कि मजबूर दिवस की शुभकामनाएं
नन्दु और उसके दो भाई.... आज हर तरफ़ दिखते है, जिस दिन नन्दु और उसके दो भाई जेसे लोगो को अक्ल आ जाये जी उस दिन इन नेताओ की अक्ल टिकाने लग जाये गी
.... रचनाएं प्रसंशनीय !!!
निशब्द हो जाता हूँ ऐसी पोस्ट्स पर !
छन्न्न्न्न्न्न!
छान्न्न्नन्न
छंन्न्न्न
मनरेगा जैसी योजनाएं चलती रही तो मजदुर खोजे भी नहीं मिलेंगे |
बेहद संवेदनशील रचना ..
मजदूर की थकान आपके इन लफ़्ज़ों में बखूबी उतरी है ..
बहुत ही खूबसूरती से आपने हर एक शब्द लिखा है! प्रशंग्सनीय रचना!
uffff kitna dard samait diya 2 shabdo ne hi 'BAAPPU ROTI'
lekhak man ki samvedansheelta ujagar hoti hai.
पहली कविता ने ही दिल को छु लिया.... बहुत संवेदनात्मक पोस्ट...
--
www.lekhnee.blogspot.com
Regards...
Mahfooz..
अपनी पेमेंट का इंतेज़ार करने वाला, चाँद में रोटी का अक्स देखने वाला और हथौड़े की आवाज़ के पीछे बच्चों की पुकार सुनने वाले मज़दूर की सच्ची तस्वीर रखी है आपने... बकौल राजेश रेड्डीः
उसने जिस हाथ से तामीर किया ताजमहल
रख दिया वक़्त ने उस हाथ को छोटा करके.
मार्मिक ।
कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया ।
अति संवेदनशील ।
बहुत सटीक
वैचारिक मंथन और सत्य बयान करती हुई कविताएं..
सच्चाई समेटे लाजवाब रचना लगी , कविता बहुत पसंद आई ।
ओहो...चांद में रोटी...
अच्छा लगा...
कमाल करते हैं भैया आप भी, काहे बार बार अन्दर तक झकझोर देते हैं!
सशक्त रचना , और बहुत कुछ कहने वाली ॥
हाँ, मजदूर तो हम सभी हैं, पर असंगठित क्षेत्र के मजदूर अधिक शोषित हैं. आपकी संवेदना उन्हें छूती है.
सच कहा है सभी का अपना अपना दायरा है ।
नमन आपको और आपकी लेखनी को !!
चाँद
को
देखकर
कवि
को
याद आती है
अपनी महबूबा
और
मजदूर
को
रोटी!!!
वाह क्या कहने, बेहद खूबसूरत पंक्तियाँ.. बहुत खूबसूरती से आपने चाँद की दो परिभाषा दे दी सर और क्या उम्दा सोच के साथ, हमारी खोपड़ी तो वहां तक पहुँचने की सोच भी नहीं सकती .. जहाँपनाह तुस्सी ग्रेट हो..
बहुत सशक्त अभिव्यक्ति।
अच्छा है..
आप जो बात हाथ में कलम लेकर लिख दिए, ओही बात बेचारा मजदूर हथौड़ा से छन्न्न्न्न्न्न्न करला के बादो पत्थर का ऊपर नहीं लिख पाता है... उसका त हाथ का लकीर भी धोखा है, अऊर पत्थर का लकीर भी... एक दम करेजा चीरने वाला बात लिखे हैं.
हमारे पेट भरे हुए हैं इसलिए हम साहित्य चिंतन कर पाते हैं, सही गलत के बारे में सोचते हैं ... जहाँ पेटभर खाना ही नसीब नहीं होता है ... वहां साहित्य क्या, और जज़्बात क्या ... वहां सिर्फ एक ही बात महत्वा रखती है .. वो है 'पेट कैसे भरा जाये' ... नेताजी गरीब के हक की बात करते हैं ... पर जब उनका अपना कहीं घर बनता होता है ... तो गरीबों को सरकारी रेट से पैसा मिलता नहीं है ...
बहुत सुन्दर बात कही है |
सशक्त रचनायें. आपको बधाई.
बहुत गजब. चांद और रोटी-क्या बात है.
बड़ी संवेदनशील किन्तु कटु सत्य है.
चाँद
को
देखकर
कवि
को
याद आती है
अपनी महबूबा
और
मजदूर
को
रोटी!!!
भूल कर अपनी थकान
वो फिर तैयार हुआ
अगला प्रहार
करने के लिए
क्यूँकि
असमर्थ था वह
इस आवाहन को
नकारने में …
बहुत सुन्दर!
महावीर शर्मा
वाह समीर भाई !
बहुत बढ़िया!
लाजवाब रचना...हमेशा की तरह...वाह
नीरज
लाजवाब रचना...हमेशा की तरह...वाह
नीरज
सत्य वचन।
समीर जी कवि भी चांद को देखकर रोटी की ही याद करता है। पर अंतर केवल यह है कि वह उसे रोटी नहीं कहता,महबूबा कहता है। भला कवि का पेट भी तो रोटी ही भरती है।
तो केवल नजरिए का फर्क है।
sundar..maarmik
http://athaah.blogspot.com/
वह सड़क पर गिरा था, और भूख से मरा था, कपड़ा उठा के देखा तो पेट पर लिखा था, सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा
आपकी रचना पढ़कर उबरने में बहुत समय लगता है. बहुत अच्छी रचना.
बिलकुल उपयुक्त कविता है और चित्र भी, मज़दूर दिवस पर। बधाई।
ऐसा तो हमारे प्यारे लालाजी ही कह सकते हैं। हमेशा की तरह दिल को छूती हुई पोस्ट।
मर्मस्पर्शी कविता।
धन्यवाद।
मजदूर दिवस पर इससे ज़्यादा संवेदनाएँ मजदूरों के प्रति क्या हो सकती हैं .... सच लिखा है .... अक्सर ऊँची ऊँची इमारत पर बैठे लोग इन मजदूरों के बारे में नही सोचते ....
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
इसे 08.05.10 की चिट्ठा चर्चा (सुबह 06 बजे) में शामिल किया गया है।
http://chitthacharcha.blogspot.com/
Sari bate sahi hai but hum in samsayo ko door karne ke liye kya kar rahe hain??
कल 02/05/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
सार्थक प्रस्तुति!
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