अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग...
दुनिया दिखावे की हो चली है. कोई भी कार्य जिसमें नाम न मिले, लोग न जाने- कोई करना ही नहीं चाहता. दिखावा न हो तो बस फिर मैं!!
जिस भी कार्य में मेरा फायदा हो, वो ही मैं करुँगा. संवेदनशीलता मरी. साथ मरी सहनशीलता. अहम उठ खड़ा हुआ दस शीश लेकर. एक कटे और दस और खड़े हो जायें. कोई झुकना ही नहीं चाहता. कोई सहना ही नहीं चाहता.
छोटी छोटी बातें, जो मात्र चुप रह कर टाली जा सकती हैं, वो इसी अहम के चलते इतनी बड़ी हो जाती हैं कि फिर टाले नहीं टलती.
कब और कैसे सब बदला, नहीं जानता मगर बदला तो है.
कुछ दिन पहले किसी बहाव में एक रचना उगी थी:
दो समांतर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा..
आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!
यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
-समीर लाल ’समीर’
-आज बस इतना ही!!
126 टिप्पणियां:
जीवन का बहुत अनमोल सूत्र।
झुके बिना सहजीवन कहाँ!
सच कहा है आपने ! अपने अहम को सर्वोपरि रखना आज के इंसान की सबसे बड़ी फितरत हो गयी है ! बहुत सच्ची और अच्छी पोस्ट ! कविता भी बहुत पसंद आयी !
आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुन झुको!!
समीर जी कृपया तुन को तुम कर लें.
झुकना तो होगा, पर मिलन के लिये ---- टूटने के लिये नहीं.
बेहतरीन रचना की बधाई
शानदार जीवन दर्शन ।
नेट की समस्या थी इसलिये ब्लाग जगत से दूर था
दो समानन्तर रेखायें,
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन,
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें,
झुकना ही होगा..
गुरुदेव, आज जीवन का सार दे दिया आपने...
जय हिंद...
The few lines has solved the problem that was eating up my brain..
Thanks BIG BOSS!
bas anad aa gaya sir........... :) behad achhi rachna....
बढ़िया कविता है समीर जी,
अहंकार लगभग सारे क्लेशों की जड़ है।
दो समानन्तर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा..
जीवन का पाठ पढ़ाती
इस सुन्दर रचना के लिए बधाई!
मेरे साथ भी चल रही थी एक रेखा
एकदम समानांतर रेखा सी
मैंने कहा झुको मत ,मेरे करीब आ जाओ
वो करीब आई थोड़ी मैं करीब हुई
दूरी घटती गई
मैंने इतनी घटा दी कि दोनों
एक दुसरे में समा गई
समानांतर न रह
बन चुकी थी दो से एक रेखा
न कोई टूटा न कोई बिखरा
बस छोड़ दी थी दोनों ने जिद
अलग अलग होने की कि
जो अपना है उसके सामने कैसे अहम ?
जो अपना नही उससे कैसा अहम?
नाचती है दोनों रेखाए अब
अनन्त तक साथ हो गया न उनका.
वादा भी है कि रेखा-खंड नही होंगे
हम कभी भी .
और अब नही सताता है डर उन्हें भी टूटने,बिखरने और सूख जाने का
बहुत सही समीर जी.
यही टूटने का डर झुकने नहीं देता....क्योंकी हम झुके तो क्या, तुम झुके तो क्या..दोनो को ही कुछ न कुछ अहम तोड़ना होगा, तभी समानातर चलती पटरियां मिलेंगी....वरना कुछ नहीं...
"लकीरों के माध्यम से बड़े-बड़े दर्शन प्रतिपादित किये गये हैं आज आपने भी उसमे गहरी बात जोड़ दी..."
मान गए श्रीमन्
कई लोगों के लिए यह लेख मार्गदर्शक होगा।
'समानन्तर' नहीं 'समांतर' होता है। बहुत से लोग समानांतर भी कहते पाए गए हैं।
'तुम तो जानती हो!!' की जगह 'तुम्हें तो पता होगा' होने पर अर्थ व्यापक हो जाता। मैं 'जानती हो' पर ही अटक गया हूँ :)
जीवन में यदि यही समझ में आ जाये कि कौन सी बात छोटी और कौन सी बड़ी तो अहं के टकराव न केवल घट जायेंगे वरन उनकी तीव्रता भी कम हो जायेगी । अपनी छोटी सी पीड़ा जब औरों के व्यथा-सिन्धु से बड़ी लगे तो ईश्वर ही रक्षा करे ।
बातें टालना और न टलने की स्थिति में झुकना, इन्ही दोनों से सौहार्दता संभव है ।
अच्छा बिन्दु और कविता ।
छोटी छोटी बातें, जो मात्र चुप रह कर टाली जा सकती हैं, वो इसी अहम के चलते इतनी बड़ी हो जाती हैं कि फिर टाले नहीं टलती.
bahut satik post likhi apne. apaki har post kuchh na kuchh sandesh chhod jaati hai. shubhakamanae.
ramram.
आज के समाज का यही चेहरा हो गया है..उन्हे हर छोटे-छोटे बातों में भी नाम और पैसे और शोहरत चाहिए तभी वो किसी ज़रूरत मंद के लिए कोई कदम उठाते है.....कविता के माध्यम से बहुत ही बेहतरीन बात कह गये आप....सच में बेहतरीन है आप को सोच और आप की रचनाएँ...धन्यवाद समीर जी इन्हे पढ़ कर हम भी बहुत कुछ नया सीख जाते है.....बहुत बहुत धन्यवाद
toote hie vriksha sookh jaya karte hain....jaise bhautiktavaadi drishtikod badh raha hai...dikhava badh raha hai...bahut khoob kaha Sameer ji
"टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं" बहुत ही गंभीर पर खूबसूरत.
समान्तर रेखाये कब मिली है.. जैसे कभी धरती और आसमान नही मिलते.. सिर्फ़ एक आभासी मिलाप होता है.. गणित मे कहते है कि समान्तर रेखाये भी इनफ़ाइनाईट पर जाकर मिलती है.. अब वो किसने देखा है जैसे किसी ने क्षितिज़ पर धरती-आसमान मिलते नही देखा...
हमारा भी बचपन का नज़रिया क्षितिज के बारे मे..
बिना झुके, बिना सामंजस्य के सहज जीवन जीना मुश्किल है। बहुत खूब समीर भाई।
कभी जिन्दगी ने मचलना सिखाया
मिलीं ठोकरें तो सम्भलना सिखाया
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!
.....
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं..
--वाह! इशारों ही इशारों में बड़ी बात कह दी आपने और वह भी इस नायाब कविता में....
..जितनी भी तारीफ की जाय कम है।
सत्यवचन
जीवन का बहुमुल्य सुत्र
समझ ले तो मानुष
ना समझे तो अमानुष
शुभकामनाएं
अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग...
" दिखावे की इस दुनिया का सही चित्रण.....इन पंक्तियों में ख़ास कर एक व्यथा छुपी है......"
regards
दिखावें के चक्कर में ही तो बर्बाद हा रही है दुनिया। जिसके पास कुछ नहीं है, वह सब कुछ होने का दिखावा करता है, जिसके पास सब कुछ है, वह कुछ न होने का दिखावा करता है
न कुछ था तो खुदा था ...
कुछ न होता तो खुदा होता ..
डुबोया मुझको होने ने...
न होता मै तो क्या होता !!
-इसी मै से पगलाई दुनिया में आपकी कविता और ये विचार सुकून देते हैं
वाह जी वाह!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
बिल्कुल सही
agar insaan jhukna sikh jaye to bahut had tak uski sthithi me badlav sambhav hai.
par aisa ab hote ab nahi dikhta kyonki yaha har koi apne samne wale se bada najar aana chahta hai.
bahut acchi lagi rachna....
regards-
#ROHIT
...........छोटी छोटी बातें, जो मात्र चुप रह कर टाली जा सकती हैं, वो इसी अहम के चलते इतनी बड़ी हो जाती हैं कि फिर टाले नहीं टलती.........
So true...
"Speech is silver but silence is gold"
न केवल सहजीवन के लिए बल्कि सहअस्तित्व के लिए भी यह अनिवार्य सोपान है। बहुत सुंदर।
जिन पेडो मे लोच नही होती वह भी टूट के सूख जाते है .
आदरणीय समीरजी....
आप सच कह रहे हैं.... संवेदनशीलता अब मर चुकी है..... जिस कार्य में नाम ना मिले अब वो कार्य कोई नहीं करना चाहता....स्वार्थ हावी हो चुके हैं... सहनशीलता अब गुज़री बात हो चली है... झूठा अहम् अब ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुका है....
सुंदर कविता के साथ यह पोस्ट दिल को छू गई.....
सादर
महफूज़.
यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
...बहुत खूब, बात भी- सन्देश भी !!
बहुत सुन्दर लिखा अंकल जी...
समन्वय के लिए झुकना ज़रूरी है...बहुत अच्छी सीख देती सुन्दर प्रस्तुति..
'अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं... '
-एक---किसी भी रिश्ते में समझोते इंसान को एक हद्द तक ही सीधा रख पाते हैं...अन्यथा उसका टूटना स्वाभाविक है..
-दूसरा -कहीं तो इसी टूटने के डर से व्यक्ति झुकना ही नहीं चाहता..
इस कविता में एक सच्ची सही बात कही गयी है.
bahut khoob
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
वाह वाह गुरु देव !
एक और नया जीवन सूत्र अपने अनूठे अंदाज में समझा दिया आपने .....:):)
बहुत बहुत धन्यवाद यूँ लिखते रहने के लिए ...:)
समीर जी शायद इसी मानसिकता के चलते ही समानांतर रेखाएं अनन्त तक नहीं मिल पाती हैं...
यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
Bahut khoob !
लाजवाब !!!!!!
अनमोल रचना... सत्य से साक्षात्कार कराती...!
झुकना दोनों पक्ष के लिए है... वरना टूट कर कोई साथ कैसे चले.
जीवन का गूढ़ सत्य ।
Is sajeedgee ke aage kya kahun? Khamosh hun..
किसे कहा टूटा वृक्ष आपने ,बताईये किसे कहा ?
सच है. टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं.
बहुत बढ़िया रचना है. अहम् किसी न किसी शक्ल में सामने आ जाता है. और उसे महत्व देनेवाले झुकने के लिए तैयार नहीं होते.
"अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग."
बहुत खूब
यही वास्तविकता है
वैसे भी कहते हैं कि भले लोगों के मित्र मरने के बाद ही प्रकट होते हैं
-
-
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ
-
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
अआह .......................
जिस तरह आप अपने शब्दों से गागर में सागर भरते हैं
यह अपने में कमाल है
--
-
आपको 'ब्लॉग पोस्ट संग्रह' के प्रकाशन के बारे में सोचना चाहिए
आभार
jhakjhor dene wala par saty yahee hai.......
Aabhar
झुक सकने वाले वृक्ष टूटते कहाँ है? :)
सुन्दर प्रस्तुति.
bahut hi anoothi abhivaykti..hamesha ki tarah :))
दो समांतर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा..
waah
आत्म सम्मान और घमंड में भेद जरूरी है .
झाड़ियाँ जो तूफान झेल जाती हैं
बड़े दरख़्त उनमे ढेर हो जाते हैं
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
वाह ! कमाल की पंक्तिया है !
सभी रोगों की जड ये अहम ही तो होता है…………जिस दिन अहम रूपी काँटा अपने जीवन से निकालना आ जायेगा सच मे इन्सान ,इन्सान बन जायेगा।
बहुत ही सुन्दरता से शब्दों में बाँधा है भावों को।
सत्य वचन महाराज !
इस जीवन दर्शन कों समझाने के लिए बहुत बहुत आभार !
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
बेहतरीन रचना
बहुत बेहतरीन रचना....समीर जी यदि थोड़ा -सा झुकना आ जाए तो जिन्दगी कितनी आसान हो जाती है..इसे तो जीवन मे उतारने के बाद ही महसूस किआ जा सकता है...पता नही कितने पाठक इस सुन्दर रचना पर अमल करने कि कोशिश करेगें.....आभार।
समानांतर रेखाओं के बारे में कोई गणितज्ञ ही बता सकते हैं .. बस आपको विरोधाभासी कविता सुनाती हूं ....
सुना है
समानांतर रेखाएं
अनंत में जाकर मिल जाती हैं!
यदि यह सच है
तो मैं तुमसे अवश्य मिलूंगा !!
वैसे भावनाएं तो आपकी कविता की सुदर हैं !!
समानांतर रेखाओं के बारे में कोई गणितज्ञ ही बता सकते हैं .. बस आपको विरोधाभासी रचना सुनाती हूं ....
सुना है
समानांतर रेखाएं
अनंत में जाकर मिल जाती हैं!
यदि यह सच है
तो मैं तुमसे अवश्य मिलूंगा !!
वैसे भावनाएं तो आपकी कविता की सुदर हैं !!
समानांतर रेखाओं के बारे में कोई गणितज्ञ ही बता सकते हैं .. बस आपको विरोधाभासी कविता सुनाती हूं ....
सुना है
समानांतर रेखाएं
अनंत में जाकर मिल जाती हैं!
यदि यह सच है
तो मैं तुमसे अवश्य मिलूंगा !!
वैसे भाव तो आपकी रचना की सुदर हैं !!
आप ने बिलकुल सही कहा... धन्यवाद
chhoti-chhoti kavitaon me jeevan ke kitne rahasyon ko ughad dete hai aap??
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं... और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
बहुत खूब...इस अहम् ने ही तो सारे राहों पर तालेबंदी कर रखी है..
सत्य वचन .........सुन्दर बात
सार्थक कविता
- अलबेला खत्री
laajwab sir ji..der se comments dene ke liye maafi chahta hun..is blog ki duniya me apni paidaish thoda jaldi ki hai isliye iske penchon se waaqif nai hun..meri hauslaafzai ke liye shukriya...
समीर भाई आजकल समानान्तर रेखाओ मे से एक को लोग मिटा ही
देते है ।बहरहाल जिवन का गणित याद दिलाया है ,धन्यबाद।
समीर भाई आजकल समानान्तर रेखाओ मे से एक को लोग मिटा ही
देते है ।बहरहाल जिवन का गणित याद दिलाया है ,धन्यबाद।
सौ बटा सौ...
टूटने से चाहे घुल जायेंगे
पर मिल अवश्य जायेंगे
जैसे रलते हैं
जैसे मिलते हैं
बच्चे गिर गिर कर
गिरकर भी न वे टूटते हैं
वे जमीं पर रेंग रेंग
कर आपस में जुड़ते हैं
मन उनका सच्चा होता है
बिल्कुल चाहे कच्चा होता है
।
छोटी छोटी बातें, जो मात्र चुप रह कर टाली जा सकती हैं, वो इसी अहम के चलते इतनी बड़ी हो जाती हैं कि फिर टाले नहीं टलती.
Aapki baat se sahmat hoon.
दुनिया दिखावे की हो चली है. कोई भी कार्य जिसमें नाम न मिले, लोग न जाने- कोई करना ही नहीं चाहता. दिखावा न हो तो बस.....
बहुत ऊँची बात कह दी आपनें ,,दिल को छू गयी यह बात.
आपकी कविता के लिए बेहतरीन लफ्ज़ भी छोटा पड़ जाता है..झुकना और टूटना एक साथ दिखा दिया आपने..
'डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!! '
- बात तो तभी बनेगी जब थोड़ा थोड़ा दोनों झुकें.
itne ne hee bahut kuchh kah diya...
खूबसूरत सोच, ख़ूबसूरत रचना .
अना [अहं] पर एक शेर यूं याद आया :
अना का ज़हर जो पाऊँ का ख़ार था कबसे,
ज़रा सा झुक के बिल आखिर जबीं [पेशानी] से खींच लिया.
http://aatm-manthan.com
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
थोडा तुम झुको थोडा मै और उससे आगे फिर एक ही रेखा हो जाती है ।
सुंदर पोस्ट ।
िन समानान्तर रेखाओं का हिसाब भी अजीब है । मेरी एक कविता से कुछ पँक्तियाँ
चल रही है दोनो
मखमली सी चाहतें
और
और खार सी जिन्दगी
समानान्तर रेखाओं की तरह
दूरी बना कर।
मगर आपका सूत्र बहुत काम का है } काश कि ये रेखायें भी झुकना जान लेती। शुभकामनायें
आपके लेखन को तो बस नमन करने की मेरी औकात है. आप बहुत गजब लिखते हैं.
बढिया है....
मिलने के लिये झुकना होगा .... वाह !!!
---- राकेश वर्मा
!!!
जो बृक्ष में लचीलापन नहीं है वो तूफान में टूट जाया करते हैं ...
आपका ये लेख एकदम सही है ...
सही सामंजस्य के बिना कोई रिश्ता नहीं टिक सकता है ...
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं। अच्छी अभिव्यक्ति है। सच कह रहे हैं आप संवेदनशीलता मरती जा रही है।
आधुनिकता का एक और दुष्परिणाम। कभी मनुष्य को ईश्वर के निकटतम बताया जाता था। मगर मनुष्य की यात्रा देखिए,वह फिर से बंदर बनने की ओर उऩ्मुख है। शिक्षा और विकास के समानान्तर यह अधोमुखी यात्रा न जाने उसे कहां ले जाएगी।
नम्रता और मीठे वचन ही मनुष्य के सच्चे आभूषण होते हैं |
thoda mein jhukun, thoda tum jhuko.
---bahut hi vyaavharik baat kahi aapne.
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं ...
क्यों इतनी उदासी भरी है समीर भाई आज ... ये तो हक़ीकत है प्यार करने वाले झुकते हैं .. टूटने की हद तक तो देखो ... क्या टूटने देंगे वो ........
अत्यंत भाव विभोर और मन को झकझोरने वाली रचना
बहुत खूब!
kitni saralta se jeevan kesabse badhe sukh ki kunji di hai aapne!
बिल्कुल सही कहा है आपने समीर जी! इंसान की असली पहचान उनके व्यव्हार से होती है! उम्दा पोस्ट!
अंकल इत्ती अच्छी-अच्छी बातें कैसे सोचते हो आप...
कविता बहुत पसंद आयी | वैसे देखा जाए तो आज तक न पसंद आने वाली कोई चीज आपने लिखी भी तो नहीं है |
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!! उत्तम! अतिउत्तम।
एक अच्छी बात कही आपने । ।
लेकिन कुछ होते है जो पहले सूखते है फिर टूटते है ।
बेबस हैं नहीं बदल पाते इस बदली धारा की दिशा ...कविता सुंदर है जुड़ने, मुड़ने, टूट कर सब कुछ बदलने को मजबूर करती है...
बेबस हैं नहीं बदल पाते इस बदली धारा की दिशा ...कविता सुंदर है जुड़ने, मुड़ने, टूट कर सब कुछ बदलने को मजबूर करती है...
आप बहुत बढ़िया लिखते हैं, बधाई.
हमेशा की तरह बहुत गहरी कविता और अच्छे विचार.
आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!
वाह क्या सुंदर बात कही है। लाजवाब।
जीवन के गूढतम सार को अभिव्यक्त करती इस रचना के लिये बहुत बधाई.
रामराम
विल्स कार्ड की किताब कब छप रही है? कृपया सूचित करें.
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा.. आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!
बहुत सटीक औत सत्य लिखा है।
जीवन को समझाती सी पोस्ट. शुभकामनाएं.
हैपी ब्लागिंग
sach hi hai,hum sab hi shayad jis mein apna fiada ho us taraf khiche jate hai,bahut kum log hote hai jo dusron ke barien mein soche, magar hum ek baat kegh sakte hai,uadn tashtari ji mein ye gun maijud hai.dusron ki hamesha maddat karna.amen.
kaash in saan apni lalach par jara kabu kar paye,phir sab log shayad thoda thoda insaniyat ke bare mein sochne lage.
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा.. आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!
yahi shayad barabar hai,hai na.
दो समांतर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा.. आओ!!
जिंदगी का फलसफा बता दिया आपने ... भावुक कर देने वाली रचना.. सुंदर...
दो समानन्तर रेखायें
साथ चल तो सकती हैं..
अनन्त तक..
लेकिन
मिल नहीं सकती...
मिलने के लिए उन्हें
झुकना ही होगा..
सुंदर कविता के साथ यह पोस्ट दिल को छू गई
मिलने के लिए झुकना होगा ... बहुत सही.
आओ!!
थोड़ा मैं झुकूँ
थोड़ा तुम झुको!!
यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
बेहतरीन लेकिन मै कहना चाहूँगा की अगर आप बहूत दिनों तक साथ समान्तर चले हैं तो उसकी तरफ झुकने से आप नहीं टूटेंगे .
अच्छी कविता, अच्छी सोच. झुकना मनुष्यता की निशानी है- इसीलिए किस बात की ऐंठ? समीर जी, आकाश की तरह झुकें, लेकिन झुकना स्वार्थ साधने के लिए नहीं.
अच्छी कविता, अच्छी सोच. झुकना मनुष्यता की निशानी है- इसीलिए किस बात की ऐंठ? समीर जी, आकाश की तरह झुकें, लेकिन झुकना स्वार्थ साधने के लिए नहीं.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति....आभार
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं... और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!!
बहुत सुन्दर बात कही है ।
बेहतरीन रचना ।
.... बेहद प्रसंशनीय रचना !!!
समीर जी बहुत खूब ...पर हम झुकने के पहले ही टूटने की परवाह करेंगे तो शायद कभी झुक ना पायेंगे..बड़ी बात ये है कि अकड़ के न टूटें बस
aapki rachna ne sach mein kayi naye wichhaar diye mann ko...
sochne par majbur kar dene waali rachna...
bahut khub..
yun hi humein achhi rachnayein dete rahein...
-------------------------------------
mere blog par is baar
तुम कहाँ हो ? ? ?
jaroor aayein...
tippani ka intzaar rahega...
http://i555.blogspot.com/
मैं ही मैं इस सृष्टि में , और कोई इस दृष्टि में
ऐसा भाव तो आज हर तरफ दिखाई देता है...शायद जीवन मूल्य दब से गए हैं..हाँ मरे नहीं.
यूँ तो
तुमसे मिलने की चाह में
मैं पूरा झुक जाऊँ
लेकिन
डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं...
और
तुम्हें तो पता होगा!!
टूटे हुए वृक्ष सूख जाया करते हैं!
waah waah sammer jee umda nazm ....
pakad hi liya aapko blog par kabhee tashrref layea
kalaam-e-chauhan.blogspot.com par
सत्य वचन .........सुन्दर बात
शे'र अर्ज़ कर रहा हूँ, मेरा नहीं हैं इसलिए आप जी भर कर दाद दे सकते हैं -
झुकेगा वही, जिसमें कुछ जान है
अकड़ ख़ास मुरदे की पहचान है
और आपकी ओरिजिनल इतनी बढ़िया सोच की कविता को समझने और अपनाने से बेहतर क्या तारीफ़ का तरीक़ा होगा, अभी ये सोच रहा हूँ।
वाह... मेरा कुछ भी कहना सूरज को दिया दिखने जैसा होगा... इसलिए बस नमन स्वीकार करें..
one word for poem " Ultimate"
"डर है कि
अधिक झुकने की
इस कोशिश में
टूट न जाऊँ मैं कहीं..."
खूबसूरत अहसास।
बहुत प्रभावशाली है |
देर आया गुरूदेव, शायद दुरुस्त आया
अद्भुत, लाजवाब।
टूटे हुए पेड़ सूख जाया करते हैं
अर्थी उठी तो काँधे कम थे,
मिले न साथ निभाने लोग
बनी मज़ार, भीड़ को देखा,
आ गये फूल चढ़ाने लोग...
आज बहुत दिनी बाद आपका लिखा हुआ पढ़ा ,अभी तो इस पोस्ट से शुरुआत करी है ...शुरुआत और अंत में लिखी पंक्तियाँ ज़िन्दगी के सच से रूबरू करवाती है ...पर यह दुनिया तो वाकई दिखावे की है ..पिछले दिनों इस बात को गहराई से महसूस किया है ...
बंधू ' उड़न तश्तरी ' लाल ,
आपकी टिप्पणिओं की भीड़ में अक्सर सब कुछ कहा मिलता है ,जो हम भी कहना चाहते हैं ,तो हम अक्सर आपके वलय पर tangent बन ( सिर्फ पढ़ कर ) खिसक लेते हैं.( हाँ टिप्पणियां बढ़ावा देती हैं पर आपको क्या कमी )
लेकिन इस बार आपने कवि भाव से कुछ गणित समझाया जीवन का तो कुछ ' अनकही ' मेरी भी .
हाँ वक्त के हर मोड़ पर धरती पर अनजाने लोग समानान्तर ज़िन्दगी जीते समानान्त हो जाते हैं. कभी समान्तर भी . मुड जाएँ ,झुक जाएँ तो मिलन भी नशीब होता है ,अक्सर प्रीतिकर या अप्रीतिकर भी . तो एक सरल रेखा अक्सर कहीं किसी को कटती कटाती निकल जाती है तो किसी के समानांतर भी .कभी तेंजेंट ( मिले बिछुड़ गए )
ज़िन्दगी गणितीय 'सेट ' भी होती है .कभी किसी का ' सबसेट ' तो कभी अपने में अनगिनत ' सेट ' समोए ,या अलग भी .इसलिये सरल रेखा ( अहम् ,आदर्श या कुछ भी ) आनंद भी हो सकती है , दुःख भी या कि अभिशाप भी.
वलय ही शायद जीवन में जरूरी होता है मिलते मिलाते,कंटते kantaante ,कभी साथ साथ सहधर्मिता निभाते ,जीवन नृत्य का आनंद साथ उठाते तो कभी अलग धुन पे थिरकते ,सभी कुछ . तो कभी एक दूसरे वलय का ' असिम्तोड़ ' वलय ( मिलते मिलते रह जाते ) या रेखा ही सही ,बनते .
समझता हूँ फिर भी ,जीवन गणित के बहुत सारे सवाल अनुत्तरित रह जाने को अभिशप्त रह जाते हैं.
अब ज्यादा लिखूं तो आपकी कविता की समान्तर अकविता न बन जाये या तो गणितीय बोरियत या फिर बेकार साकार फलसफा .
तो बस ..........चलायमान रहना ही काफी है ,फिर ज़िन्दगी से जो मिले मुकद्दर की बात है .फलसफे की चादर कोई भी हो .
@- RAJ SINGH ....
All the neurons and axons started vibrating after reading your comment.
What a beautiful explanation of the two parallel lines in life.
tangent, circular, parabola and parallel....wow...
An unparallel comment indeed !
Accolades !
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