टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
मन डोले मेरा तन डोले...
दिल का गया करार रे..
ये कौन बजाये बांसुरिया
इकतारे पर यह धुन बजाता जब वो घर के सामने से निकलता..तो वाकई मन डोल जाता.
मिट्टी के दिये का बना वो इकतारा...बचपन से उसकी घुन लुभाती आई. जब भी वो गुजरता, अम्मा से जिद्द कर एक इकतारा खरीद लेता और फिर घंटो उस धुन को निकालने की कोशिश करता लेकिन कभी भी वो धुन नहीं निकल पाई और हर बार कुछ कोशिशों के बाद दिया फूटने के साथ उस इकतारे का अंत होता. दिया फूटने से न सिर्फ इकतारा खत्म होता बल्कि मेरे भीतर पल रहा एक स्वपन भी टूटता कि काश, मैं भी कभी वो धुन निकाल पाऊँ.
सारी जिन्दगी दूर बजती अनेकों धुन आकर्षित करती रहीं और मैं भागता रहा उन साजों के पीछे. बस इक उम्मीद लिए कि मैं भी वैसी ही धुन बजा लूँगा. कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि हुनर साज का नहीं, साधक का है.
आज जब जिन्दगी के पन्ने पलटाता हूँ तो पाता हूँ कि जाने कितने इकतारे टूटे, जाने कितनी बाँसूरियाँ महज एक बांस का टुकड़ा बन कर रह गई और मैं भागता रहा उस धुन को बजाने जिसकी महारत हासिल करने लिए उस साधक नें कितनी लगन के साथ मेहनत की होगी.
अगर जान पाता उस मेहनत के एक अंश को भी तो शायद उस धुन को बजाने का लोभ ही न आता किन्तु हम सभी तो दूसरे के इकतारे की आवाज सुन भागे जा रहे हैं इस जीवन की अबूझ दौड़ मे और नित तोड़ते जा रहे हैं बेवजह ही न जाने कितने इकतारे, मिट्टी के दिये से बने.
बस, इक उम्मीद है कि इक दिन साज बज उठेगा:
टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
मन डोले मेरा तन डोले...
दिल का गया करार रे..
ये कौन बजाये बांसुरिया
अब इक उम्र गुजर जाने पर सब जानते हुए भी मन है कि डोलता रहता है और दिल का करार जाता रहता है.
काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
-समीर लाल 'समीर'
101 टिप्पणियां:
इतने कम शब्दों में यह पूरा जीवन दर्शन है. हम हमेशा ही दूसरों की धुन पाने के लिए भागते रहते हैं बिना जाने कि उस धुन के लिए उसने कितनी मेहनत की होगी. और इस भागमभाग में अपनी खुद की धुन भी दिये की तरह गवां बैठते हैं.
बेहतरीन लघु कथा.
हुनर साज का नहीं, साधक का है.
क्या बात कह दी समीर जी आपने!
और यह पोस्ट कहीं मन को दरेर गयी -अरे यही सब तो इस एकतन - बहुमन के साथ भी हुआ है -हर्फ़ दर हर्फ़ !
कोई वो बासुरी मिली ही नहीं जो मेरे लिए निसर्ग ने बनाई हो -बजाने की कितनी कोशिशें की मगर नहीं बजनी थी तो नहीं -निराश हताश फ़ेंक दी कूड़े के ढेर में ...जो उसकी सही जगह थी ..ख्वाब टूटने नहीं देने का, तोड़ देने का -काहें सेंटिया गए हैं !
जब वो आपकी वाली मिल जायेगी तो ऐसी बजेगी की सारी कोर कसर पूरी हो जायेगी -बस इंतजार करिए -यहाँ वहां देर है अंधेर नहीं !
@काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.
बिना 'साधना' के साज बजाना आपको allowed नहीं है...
वैसे आप किस 'साधना ' की बात कर रहे हैं समीर जी ?? :):)
उदासी की बात मत कीजिये बाबा जी...
अरे मुस्कराहट की तलाश में हम यहाँ आये थे और गम यहाँ खड़े मिले ???
हुनर साज का नहीं, साधक का है.
..सही कहा आपने. हम सिर्फ धुनों के पीछे भागते हैं. आवश्यकता तो यह है कि ठहर कर साधना करें.
मैं ने भी बहुत खरीदे हैं वे दियों के इकतारे। शायद मैं भी उस से कोई धुन निकाल सकूं। लेकिन धुन न निकली। कमजोरी अपनी थी। मैं ही न साध पाया। लेकिन हर बार इकतारा सिखा गया बेटा साधना के बगैर कुछ नहीं। वे इकतारे वाले हमारे गुरू थे। एक आने में बेचते थे एक पाठ जिन्दगी का, उस की सफलता का....
Sameer bhi,
kal misir ji bhi yahi dhun baja rahe the bathroom me,
aaj apane man ke tar chhed diye.
sadhna ke bina koi saj dhun madhur
nahi baja pata.
Man ka saj baja na paya
jo saj bajane mai aaya tha.
bahut sundar jivan darshan
aabhar............
जिसके अन्दर जल होता है
उसे नदी कहते हैं
नदी को बहना सिखाना नही होता उसका बहाव तो नैसर्गिक होता है.
हर एक के अन्दर इकतारे की धुन है अभिभूत हो जाने की जरूरत है.
हम सभी तो दूसरे के इकतारे की आवाज सुन भागे जा रहे हैं इस जीवन की अबूझ दौड़ मे और नित तोड़ते जा रहे हैं
सार्थक चिंतन है. हम अपनी खूबियों को पहचानने के बजाये हमेशा दूसरों के जैसे होना चाहते हैं और वो भी बिना किसी परिश्रम के.
बहुत सुंदर पोस्ट, शुभकामनाएं.
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
रोज ही टुटते हैं. खवाब टुटने के लिये ही तो आते हैं. अगर आके ना जाये तो फ़िर ख्वाब ना होकर हकीकत कहलाते.
रामराम.
आपका इकतारा या कोई साज बिना साधना के बज नहीं सकता ...सभी जानते हैं ..मानते हैं ...:):)
ये उदासी आप पर बिलकुल सूट नहीं करती ....!!
नदियाँ जमी-जमी लगती हैं,
दुनियाँ थमी-थमी लगती हैं,
अँखियाँ नमी-नमी लगती हैं,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद पुरानीं आती है।
मन सब सुध-बुध खोता है,
जब याद पुरानी आती है।।
समीरलाल जी!
आपने इस पोस्ट को बहुत ही करीने से सजाया है!
वाकई काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता !!
सोच रहे हैं, सोचकर बताते हैं और अगर आप को मिल जाये तो हमें भी बता देना... :)
आदरणीय,
आज की आपकी पोस्ट आपके विचार मंथन के अमृत रूपी सार से बहुमूल्य हो गई है "जीवन में परिश्रम की बड़ी महत्ता है इसके बिना कोई साधना सफल नहीं हो सकती" !!
वैसे ब्लाग जगत में आए हुए बहुत समय भी नहीं हुआ लेकिन जितना आपको जाना है उसमे हमेशा हँसी की बोछार बिखेरने वाले समीरजी की ही छवि है ....तो यक़ीनन यह उदासी क्षणिक हो जाएगी !
इतनी अच्छी पोस्ट के लिए धन्यवाद.
काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
" ख्वाब तो होते ही टूटने के लिए हैं और कमबख्त ये आँखें हैं की मानती ही नहीं ख्वाब सजाने से........"
regards
टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
धुन इकतारे की
धुन भाईचारे की
धुन अपनेपन की
धुन इस जीवन की
धुन कुछ पाने की
धुन एक खोने की
धुन कभी हसने की
धुन कभी रोने की
धुन कभी जित की
धुन किसी के प्रीत की
धुन कई रंगों की
धुन सब उमंगों की ...
टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
खवाब टूटना जुटना इन्ही धुनों के बीच है
धुन सुनें और इश्वर के इस संगीत का आनंद लें..
आप जीवन के छोटे छोते अनुभवों को कितना जबरदस्त लिखते हैं कि बस, हम जैसे पाठक और प्रशंसक विस्मित रह जाते हैं.
आपको नही मालूम एक साज़ है जिसके लिए किसी साधना की जरूरत नही ? ओह ! ये जानने समझने का समय ही नही दिया होगा जिंदगी की व्यस्तताओं ऩे .
मैं ?...फुर्सत ही फुर्सत ,तभी तो फुर्सत से गढ़ा भगवान ऩे .
हा हा हा
नही सीख पाई वे धूने बजाना
जो सब बजा लेते हैं
किसी की भी पीठ को ड्रम,
धोखे की स्टीक बना कर
या किसी परिवार के घुंघट को
ढप ,थाली या मांदल बना के चौराहों पर बजाना
किसी 'साधना की' जरूरत भी कहाँ पडती है?
कितनी सहजता से सीख जाते हैं हम ये सब बजाना
पर अनाड़ी ही रहे तुम हम
तुम सचमुच का साज़ छेड़ना चाहते थे
चाहते थे कोई धुन छेड़े तुम्हारी अंगुलियाँ
और सुनना चाहते थे उसकी मधुरता को बस तुम
नहीं सीखा............
मैंने सीखा और जानती हूँ जानते हो तुम भी
मन रागिनी छेड़ना,
मन के मधुर तालों पर थिरकना
मन वीणा बजाना,
कभी बांसुरी बना कर मन को
कालिंदी तट पर जा बैठना
क्यों झुठलाते हो खुद को
कि नही सीखा कोई एकतारा ,या बांसुरी या माउथ आर्गन
एक साथ सीखे हैं तुमने उसे बजाना
जिनसे मधुर धुन निकलती है
संगीत जन्मता है मन से
उसकी गहराई से
और माहिर तुम उसमे
बस, बहुत है
-----------------
'क्या खूब लिखते हैं आप ',
मैंने भी किशोरावस्था में इकतारे वाले को देखा था..
एक नये तरीके से पहचान आपने कराई..
---BEHTREEN POST-JITNEE TAREEF KEE JAY KM HAI---
---KAASH AISEE POST MAI BHEE LIKH PATEE,KITNEE TAREEF KRU,KYA KHU TAREEF KE SHBD NHEE HAI-----
एक समय था बचपन के दौर से निकली हुई एक खूबसूरत याद...अब तो जमाना ही नही रहा और इकतारा वाले दिखते भी कम है बस गाँव और कस्बों में बड़े शहरों में तो गायब ही है..
खूबसूरत यादें..
साधना साधना होती है,
साधना के बिना कुछ भी प्राप्त नही होता (मैं नही कह रही)
जहाँ साधना है सब कुछ है (ये मैं नही कह रही)
समीरजी के होठों से क्या निकला सब साधना साधना करने लगे .
करे भी क्यों ना साधना कि बराबरी कोई नही कर सकता (ये भी मैं नही कह रही )
साधना ,तंग कुर्ता चूडीदार पायजामा, हेयर स्टाइल तक 'साधना-कट' कहलाता है आज भी
भारतीय खूबसूरती का पर्याय साधना ...साधना
पर.....भाईयो/ भतीजों /पिताओं साधना जी ऩे जो हम महिलाओं को दिया उसके लिए 'अदाजी,रानी,वाणी,सीमा बोले तो बात समझ में आती है ,पर यहाँ तो समस्त पुरुष वर्ग साधना साधना पुकार रहा है .
वाह दादा! कहाँ हो? आपके चरण कहाँ है ?
............................और 'साधनाsssss जी आप कहाँ है ?सब गा रहे हैं 'नैनो वाली ऩे हाय मेरे दिल लुटा 'वो भी आपका नाम ले ले कर .(येss मैंने कहा ,सच्ची)
सुनिए तो......
हा हा हा
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
तभी तो इकतारे की धुन आकर्शित करती है। बहुत भावमय पोस्ट है धन्यवाद
दर्द है।
"काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता."
साज तो साधना करने के साधन ही होते हैं, साधन बिना साधना के कैसे बजेंगे?
कम शब्दों में बड़ी अभिव्यक्ति। बेहतरीन पोस्ट जितनी तारीफ कीजाए कम। एक तारा....।
Ek tara--- kuch shabd , gahra arth. Badhai...........
टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
इकतारा-जीवन
जीवन-इकतारा
टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.
पहले होते होंगे ऐसे साज, आजकल तो नहीं हैं
ईश्वर करें उदासी लम्बी न हो ।
क्योंकि-
"मंजिल न दे चिराग न दे हौसला तो दे ।
मेरे खुदा कहां है तू अपना पता तो दे ॥"
आभार..!
कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.
क्षमा करें, आपका कोई साज बिना "साधना" के नहीं बज सकता. अगले सात जन्मों तक तो नहीं ही. :) और इसके लिए हम कतई जिम्मेदार नहीं है. निर्णय आपका था.
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
सत्य है, जीवन का आनन्द या संगीत अपने अन्दर ही छिपा है ना कि किसी वाद्य यंत्र में। हम भौतिक सुखों के द्वारा उन्हें ढूंढने का प्रयास करते हैं लेकिन वे नहीं मिलते। बहुत ही सार्थक पोस्ट, हमेशा की तरह।
धुनों के पीछे दौड़ने का अपना ही लुफ्त हुआ करता था. वैसे बाजना मठ में घंटी बजायी जा सकती है.
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
सटीक विचार दिया है आत्म मंथन के लिए
हुनर साज का नहीं, साधक का है.
बहुत सही बात....आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी
"हुनर साज का नहीं, साधक का है"
प्रणाम स्वीकार करें
गम पे धूल डालो,
कहकहा लगा लो,
कांटों की नगरिया ज़िंदगानी है,
तुम जो मुस्कुरा दो राजधानी है,
यारो नीलाम करो सुस्ती,
हमसे उधार ले लो मस्ती,
मस्ती का नाम तंदुरुस्ती...
जय हिंद...
कभी मेले में बांसुरी वाले को बजाते देखकर हमने भी खरीदी थी ! कोशिश दर कोशिश करते रहे ..... एक गाने का मुखड़ा जैसे-तैसे सीख ही गए,,,,,,,,,,,, इतनी ख़ुशी....इतनी ख़ुशी कि क्या कहूँ... संभाले नहीं संभल रही थी
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बड़ा बुरा होता है जब कोई सपने देखना बंद कर देता है
सपने देखना बहुत जरूरी है
सपने टूटना, बनना .. बिखरना फिर नए सपने देखना
यही तो है जीवन का सार
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बहुत सुन्दर अर्थमयी पोस्ट
शुभकामनायें
हुनर साज का नहीं, साधक का है. ...कितने पते की बात इतनी सहजता से कह दी आपने...इस मूल मन्त्र को समझ लें...फिर ना कोई निराशा रहें ना कोई उदासी,परेशानी,,
बचपन में एकतारा की ऐसी कहानी मुझसे जुडी है... सिर्फ खरीद खरीद कर बांसुरी और एकतारा जमा किया...
कभी बजा न पाया न सीख पाया... विधाएं तो सभी मुश्किल होती है... जो दिल में राम जाये वहीँ ठहर जाना चाहिए..
खुशियों की आंखमिचोली है
जिंदगी अबूझ पहेली है
बहुत अच्छा लगा आज ऐसा आपको पढ़कर.
सारी जिन्दगी दूर बजती अनेकों धुन आकर्षित करती रहीं और मैं भागता रहा उन साजों के पीछे. बस इक उम्मीद लिए कि मैं भी वैसी ही धुन बजा लूँगा. कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि हुनर साज का नहीं, साधक का है.
Kitnee gaharee baat kah dee...
जीवन के सत्य को निचोड़ दिया है समीर भाई ... पर जीवन का इकतारा बजता रहता है कभी सुर में तो कभी बेसुरे ...
बिना साधना के तो केवल मन का एकतारा ही बजता है और आपके संदर्भ में वह पूरी तरंगियत में बजे जा रहा है ।
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
koi dhun un khwaabon kee bangi ban jaye
हुनर साज का नहीं, साधक का है.
हम सभी तो दूसरे के इकतारे की आवाज सुन भागे जा रहे हैं इस जीवन की अबूझ दौड़ मे और नित तोड़ते जा रहे हैं ......
बहुत ही ज्ञानवर्धक, शिक्षाप्रद.
जाने कितने इकतारे टूटे, जाने कितनी बाँसूरियाँ महज एक बांस का टुकड़ा बन कर रह गई और मैं भागता रहा उस धुन को बजाने जिसकी महारत हासिल करने लिए उस साधक नें कितनी लगन के साथ मेहनत की होगी.
समीर जी इन पंक्तियों में न जाने कितनो की कहानी बयां कर दी आपने...उम्दा अभिव्यक्ति..हमेशा कि तरह.
कितने ख्वाब टूटे हैं, इकतारा तो नहीं बांसुरी देख जरूर मचल जाता था मन...
समीर जी इस इक तारे वाली की हमें भी खूब याद है अभी भी मेलों में या फिर हमारी कालोनी में कभी कभार ये धुन निकालते इक तारे वाले नज़र आ जाते हैं...हमने भी न जाने कितनी बार उनकी धुन पर मुग्ध हो कर इसे खरीदा और जब धुन नहीं निकली तो उसे किसी के सर पर गुस्से से दे मारा...बचपन याद आ गया...आज कल आप बहुत सेंटीआई हुई पोस्ट लिख रहे हैं क्यूँ नहीं कुछ दिन को जबलपुर आ जाते. हम भी पहुँच जायेंगे और फिर दोनों चांदनी रात में भेडाघाट में नौका विहार करते हुए एक दूसरे को गीत ग़ज़ल सुनायेंगे...जिंदगी जियेंगे...वरना अभी तो समझिये साँसों की गिनती ही पूरी कर रहे हैं..
नीरज
काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.
सच है समीर जी, बिना साधना के कुछ नहीं सधता.
ज़िंदगी कैसी है पहेली .........
अब इक उम्र गुजर जाने पर सब जानते हुए भी मन है कि डोलता रहता है और दिल का करार जाता रहता है.
घर घर की कहानी
हम ने भी बहुत से इकतारे खरीदे लेकिन धुन ना निकाल सके, ओर एक दिन उस इकतारे वाले से ही पुछा बाबा यह धुन हम से क्यो नही निकलती, तो बाबा ने बडे प्यार से सर पर हाथ रखा ओर बोले बेटा साधना करो,लेकिन बाबा साधना केसे करे, अरे बेटा यह पापी पेट सब कुछ सीखा देता है. ओर उस की बात हम ने अपनी जिन्दगी मै बांध ली, इकतारे पर तो नही लेकिन जिनद्गी मै साधना बहुत की.
बहुत सुंदर लेख लिखा ओर जीवन की सचाई दिखा दी. धन्यवाद
इस पोस्ट को पढ़ने के बाद मुझे मेरा बचपन याद आ गया जब एकतारे वाले के पीछे-पीछे भागना और उनसे एकतारा खरीद कर आनंद का अनुभव करना अपने आप में कितना रोमांचक होता था , बयान नहीं कर सकता ! कम शब्दों में पूरा जीवन दर्शन, बधाईयाँ !
हाल मिल गया तुम्हारा , अपने हाल से ---।
समीर जी , हमें भी ये इकतारा कभी बजाना नहीं आया ।
एक दिन गली में एक भिखारी को रफ़ी का गाना गाते हुए भीख मांगते हुए देखा और सुना । सच मानिये , उसका सुर और आवाज़ इतने मधुर थे की मैं हैरान रह गया ।
ऊपर वाला कहीं न कहीं सबको कुछ तो दे ही देता है।
आपको भी दिया है , एक हुनर ।
सरल सहज शब्दों में कितनी गहरी बात कह दी है आपने....
क्यों उदास होते हैं व करते हैं? सोचिए कि यदि आप वे सब इकतारे न खरीदते व तोड़ते तो बेचने व बजाने वाले का क्या होता? सो उसकी मधुर धुन में आपका भी योगदान है।
घुघूती बासूती
Is baar fir qalam me wahi paina pan..bas ek gana yaad aa raha hai sir...
''humko deewana kar gaye...'' :)
Jai Hind... Jai Bundelkhand...
आप मेरे ब्लॉग पर आये इसके लिये धन्यावादी हूँ क्या लिखूं आपके लिखने के बाद
सुमन ‘मीत’
विचारोत्तेजक!
अब क्या लिखूं सबने सबकुछ लिख दिया सच ही तो है "अगर हम किसी काम में असफल होते है तो कमी हमारे प्रयासों में होती है ...बहुमूल्य संजोने लायक पोस्ट
जब छमकती है बीबी,
और बजती है उसकी पायल,
तो मन करता है,
मैं भी रुन-झुन में ताल मिलाऊँ,
और बजने लगूं बांसुरी बनकर.
लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से
http://laddoospeaks.blogspot.com
पता नहीं क्यूँ हम ख्वाब टूटने की बात करते हैं.....ख्वाब तो हमेशा सजाने के लिए होता है....वो टूटता ही नहीं कभी...कभी किसी ने साधना की हो और साध्य न मिला हो...ऐसा हुआ है कभी भला!!
समीर जी, मुश्किल ये है कि हम साधना करते नहीं कभी... क्यों आपने नहीं देखा था..."उड़न तस्तरी" बनने का ख्वाब!! आपने अपने ख्वाब को सजाते संवरते देख रहे हैं....आप कुछ लिखते हैं और लोग टूट पड़ते हैं टिप्पड़ियाँ देने के लिए....ये किसकी साधना है??? ये किसकी मेहनत है??? सिर्फ आपकी, समीर जी,................ सो ख्वाब टूटने की बात न करो प्लीस, हर ब्लाग पर दिखा करो...यूँ ही...'सजे-संवरे'---उड़न तश्तरी!!!!
इकतारा ओर सारंगी बजाने वाले जो घर घर जाते थे , उनकी धुन मुझे आज भी बहुत आकर्षित करती है । वैसा बजाने की चाह तो कभी नहीं हुई लेकिन सुनकर मुझे कुछ कुछ होने लगता है ।
सारी जिन्दगी दूर बजती अनेकों धुन आकर्षित करती रहीं और मैं भागता रहा उन साजों के पीछे. बस इक उम्मीद लिए कि मैं भी वैसी ही धुन बजा लूँगा. कभी यह एहसास ही नहीं हुआ कि हुनर साज का नहीं, साधक का है.
अगर जान पाता उस मेहनत के एक अंश को भी तो शायद उस धुन को बजाने का लोभ ही न आता किन्तु हम सभी तो दूसरे के इकतारे की आवाज सुन भागे जा रहे हैं इस जीवन की अबूझ दौड़ मे और नित तोड़ते जा रहे हैं बेवजह ही न जाने कितने इकतारे, मिट्टी के दिये से बने.
सुन्दर जीवन दर्शन प्रस्तुत किया है आपने | सच कहा "हुनर साज का नहीं, साधक का होता है" |
टूटना जुड़ना तो प्रकृति का नियम है. रही ख्वाब की बात, वो टूट कर भी मन मे जुड़े रहते है.
कृपया इस पर भी मुलायजा फरमाइए
http://qatraqatra.yatishjain.com/?p=66
कुछ दिन पहले घर पर बैठा सोच रहा था इकतारे के बारे में. जेठ की दुपहरिया हो या कोई और दिन..गलियों में इकतरे की धुन अक्सर सुनाई देती थी....इकतारे के साथ यही होता जो हम आपने लिखा....
आपने इतनी सहजता से बचपन की टुटी इकतारे की धुन को छेड़ा है, क्या कहूं....साथ ही जीवन की आपाधापी में सुनते हुए धुनों की पीछे की दौड़....कभी कभी सोचता हूं ये दौड़ सही नहीं है क्या...
समीर साहब
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
आहा......क्या बात कही आपने...!
सर.. दिल को छू गया आपका आलेख... बदलते समय के साथ विलुप्त हो रही हैं... जमी से जुडी चीज़े... मात्र स्मृतियों में रहेंगी...
मन की स्लेट पर प्रश्न भी हैं और उत्तर भी.चमकते साज़ और साधक की भांति.एकतारे से धुन न सही लेकिन उसकी स्मृति आपके शिल्प का माध्यम बनी;ये किसी हुनर से कम है क्या ?
उम्दा अभिव्यक्ति !
हुनर साज का नहीं, साधक का है.
"पाखी की दुनिया" में देखिये "आपका बचा खाना किसी बच्चे की जिंदगी है".
टू ऊ ऊं ऊं ऊं..टू ऊ ऊं ऊं ऊं..
बड़ा मजेदार है अंकल जी. इसे तो बार-बार दोहराने का मन करता है. मजा आ गया.
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
waah waah waah...
वाह हम तो निशब्द हो गए! बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण पोस्ट रहा! बधाई!
आज एक अंतराल के बाद नियमित हो पाया हूं ब्लौग पे तो आपकी इस पोस्ट के अंदाज़ ने और कथ्य ने अजीब तरह से छुआ। बिल्कुल आपकी ही तरह ये अदना भी जाने कितने वाद्य-यंत्रों के पीछे भागता रहा...किंतु कभी इस तरह जीवन का दर्शन नहीं खोज पाया इस भागने में।
आखिरी की त्रिवेणी बड़ी लाजवाब है। नोट करके ले जा रहा हूं।
ओरकुट में अपने प्रोफाइल पे लगा रहा हूं ये त्रिवेणी...जानता हूं, मना नहीं करेंगे आप।
mratyu ka saaj bhi jab jeevan kee saadhanaa ke baad hi bajtaa ho tab esa mumkin nahi ki काश!! कोई साज तो ऐसा होता जो बिना किसी साधना के बज उठता.../ kaash kitanaa achchaa shabd he, aksar kuchh nahi to ek chhupi si santushti jaroor de jaataa he.
hamare ateet me bahut se ese raag he jo samay dar samay baj uthate he..ektara na sahi magar jis khoobsoorati se aap jeevan ke raag saadh rahe he yah kisi ektara se kam nahi.
शुक्रिया ,
देर से आने के लिए माज़रत चाहती हूँ ,
उम्दा पोस्ट .
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
समीर जी ! बिल्कुल एक दार्शनिक की तरह चलने लगी आपकी कलम ......सुकून मिला .
हुनर साज का नहीं, साधक का है.
-काश! इन्सान मरने के पहले यह समझ पाता. बहुत गहरी पोस्ट.
आपकी लेखनी को नमन करता हूँ.
एकतारा तो बचपन में अपन भी बहुत बार खरीदे, हर बार काफ़ी प्रयास किया कि वो गाने की धुन निकल आए, गाने की धुन तो न निकलती पर कुछ कर्कश संगीत ऐसा निकलता कि पड़ोसी अपने घर से झांकने लगते कि यह जानने को कि कौन तानसेन आ गया है!! ;) इसके मुकाबले बांसुरी पर अपन फिर भी कुछ सुनने लायक ओरिजिनल धुन बजा लेते थे! ;)
aadarniya sir, ham sabhiduusaron ke sukh ko dekhkar jo kuchh hamaare pass hai usaki chin ta chhodkar dusare ki kisi bhi chij ko paane ke liyae purjpr koshish karate rhate hain.bhale hi us chij ke ham kabil na ho us ektaar ki tarah.
poonam
एक तू ही धनवान है गोरी ....
शुभकामनायें !
इक तारा बोले क्या बोले ज़रा सुन
सर जी मज़ा आ गया.
kahin aisa to nahi ki man ka wo ahankar ko hum kabhi nakar nahi pate hain ki hum me hi koi kami hai...aur hum bas ek ke baad ek ektara todte rehte hain....
aapki rachna advut hai...
सही है...पूरे पंद्रह दिन प्रक्टिस करने के बाद जब गिटार पर पहला गाना बजाया था " अजीब दास्ताँ है ये" तब लगा था मुझसे ज्यादा खुश कोई न होगा! एक गाने ने और मेहनत करने के लिए प्रेरित किया और आज मन चाहा गाना गिटार पर बजा लेती हूँ! आप भी कोशिश करिए फिर देखिये.....मन डोले और तन डोले कैसे बजता है!
इकतारा के बहाने कितना ही कुछ कह गए समीर जी। नमस्कार जी।
समीर जी क्या कहें कभी कभी ऐसे लेखों पर कुछ प्रतिक्रिया के लिये शब्द नहीं मिलते है, ये ऐसे भाव है जिनको शब्दों में बयां करना शायद मेरे लिये अभी मुमकिन नहीं,थोड़ा वक्त लगेगा
हम सभी तो दूसरे के इकतारे की आवाज सुन भागे जा रहे हैं इस जीवन की अबूझ दौड़ मे और नित तोड़ते जा रहे हैं ..
बिल्कुल सही कहा आपने..
''हुनर साज का नहीं, साधक का है ।'' आप बहुत अच्छा लिखते हैं । साधुवाद।
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
bachpan ki yaden taza kar gai ye post.
सही कहा आपने बचपन में जब एकतारा या और कोई साज देखते थे तो ऐसा जरूर लगता था की इसे हम जरूर बजा सकते है लेकिन तब हमें यह नहीं पता था कि "हुनर साज में नहीं, साधक में होता है"
जिस तरह बिना हुनर के कोई साज नहीं बजता उसी तरह बिना साधना के जीवन को पार नहीं किया जा सकता,
अगर जीवन में भी साधना आ जाये तो जिन्दगी भी सुहानी हो जाएगी
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत...
कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...
बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्तियाँ...जज्बातों से परिपूर्ण..बधाई !!
समीरलाल जी!
आपने इस पोस्ट को बहुत ही करीने से सजाया है!
इस इकतारे वाले को तो मैं भी कब से ढूंढ रहा हूँ समीर भाई । बचपन की गलियों से मैं बाहर क्या निकला ..यह भी कहीं गुम हो गया । आज आपने उसकी याद दिला दी ।
badi udasi bhari post padhne ko mili..lekin jeevan isi ka name ha..kabhi khushi kabhi gam...par eakdam sachhi or achhi bat kahi ha aapne..
हुनर साज का नहीं, साधक का है. ..... बहुत गहरी बात सरल शब्दों में आभार |
मेरे बचपन की यादों की गलियों में भी इस इकतारा की मधुर ध्वनि अक्सर सुनाई देती है। पर इसके बहाने जो बात आपने कही है वह जीवन की सच्चाई है। कई बार मुझे भी लगता है कि जीवन में साधन को साध्य का दर्जा हम दे बैठते हैं और ऐसे ही बेशकीमती घडिय़ा मु_ी में रखे रेत की तरह फिसलती जाती हैं। खूबसूरत अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद!
चेतना
Respected samirji
Iktary par bahut hee achha aur marmik lekhain kiya hai.Eskay liya shaduvad.
खुश होने की ख्वाहिश लिए
मन फिर से उदास है बहुत... कहीं कोई ख्वाब टूटा है अभी...बहुत सुन्दर ..यह संजो लिया है शुक्रिया
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