विज्ञान ने यह संभव कर दिया है कि मौसम चाहे कैसा भी गरम या ठंडा क्यूँ न हो, आप अपने घर का तापमान अपने मन के अनुरुप ढाल कर बाहर शीशे से निहारें और प्रसन्न रहें. क्या फरक पड़ता है बाहर के तापमान से, जब कमरे में ही बैठे रहना हो.
ऐसी सुविधा विज्ञान ने तन के लिए दी और हम ऐसे आदी हुए कि मन नें भी वही आदत बना ली. तन की संगत का असर होगा. कहते हैं न कि संगत अपना प्रभाव छोड़ ही देती है. अब तो कौन कितनी तकलीफ में है या खुश हैं, उससे मन न तो विचलित होता है और न खुश. मायने रखता है तो बस इतना कि क्या हम पर दुख गिरा है या हमें खुशी मिली है. बस, वही कमरे का तापमान. सब कुछ उसी भी निर्भर है. हीटिंग ऑन कर दी तो गरम और कूलिंग चालू तो ठंडा. कितना गरम हो या कितना ठंडा, सब अपने ही हाथ तो है. अखबार की खबरें मात्र शब्द बन कर रह गई हैं. कोई अन्तर नहीं पड़ता. संवेदनाऐं मृत प्राय हो चली है.
खिड़की से देखता हूँ कि सेब के पेड़ में नये फूल आ गये है. कल यही फूल फल बन जायेंगे-मीठे मीठे लाल लाल सेब. एक स्वास्थयवर्धक और स्वादिष्ट फल. तभी एक काली, नारंगी रंग की मिली जुली चिड़िया जंगल से उड़ कर यहाँ चली आई है. सुना है उसे मैने बोलते. घर के बाजू में जंगल है. अक्सर टहलने जाते समय देखा है इस प्रजाति को. बहुत सुन्दर गाती है, बेहद मीठा. जंगल में टहलते, सामने ओन्टारियो लेक से आती शीतल बयार और उसके साथ इसका गायन, मन को आहलादित कर देता है. आज पहली बार उसे अपने बगीचे में देख रहा हूँ.
न जाने किस बात का गुस्सा है. सारे सेब के फूल नोंच नोंच कर बिखराती जा रही है. बीच बीच में दो तीन और चिड़िया भी आ जाती है. कुछ इस तहस नहस में उसका साथ देती है. कुछ जोर जोर से चूँ चूँ कहती लड़ती हैं. शायद इनको समझा रही होंगी कि क्यूँ नुकसान कर रही हो? क्यूँ तोड़ रही है इन नई आती कलियों को और फूलों को? कुछ सब्र करो, फल तो आ जाने दो, तब खा लेना. पेड़ खुद खुशी खुशी खिलायेगा. पेड़ अपने फल खुद तो खाता नहीं, तुम्हारे लिए ही तो हैं. फिर ऐसी क्या नाराजगी कि तुम फूलों को ही खत्म किये दे रही हो.
समझाती होगी कि देखो, यही फूल हैं जिस पर आकर भ्रमर बैठेगे, गुनगुनायेंगे इस पेड़ से उस पेड़. साथ ही झील से आती पावन पवन भी इसके फूलों से पराग अपने साथ बहा कर दूसरे पेड़ तक ले जायेगी और नव सृजन होगा. नये पेड़ होंगे, नये फूल आयेंगे. नये फल होंगे. कितना खुशहाल वातावरण होगा.
कहती होगी कि अगर तुम फूलों का ही नाश कर दोगी तब फिर यह सब कैसे संभव हो पायेगा. नव सृजन ही रुक जायेगा. ये पेड़ भी पूरे परिपक्व होने के पहले ही खत्म हो जायेंगे. सूख कर बस ठूंठ. विचारो मित्र, हर तरफ बस ठूंठ ही ठूंठ. तुम्हारा तो सीमित जीवन है. अब तक उपलब्ध पेड़ पौधों से कट जायेगा पर आने वाली भावी पीढ़ियाँ, तुम्हारे बच्चे..उनका क्या होगा. वो क्या खायेंगे और कहाँ चहकेंगे?
मगर वो माने तब न!! अपने सुन्दर गाने का ऐसा दंभ, ऐसा धमंड कि फूलों की सुन्दरता कैसे बरदाश्त हो. बस, मिटा गई दिन भर में बगिया के दोनों सेब के पेड़.
अब उसमें इस बरस सेब नहीं आयेंगे. क्या पता आने वाले साल में भी आते हैं या नहीं. कल उन हरे भरे पेड़ों की जगह मेरी सुन्दर बगिया में भी ठूंठ होंगे. सोच कर ही दिल दहल जाता है. कितने प्यार से सींचा, संजोया था इस बगिया को. सब बस उस पागल चिड़ियों के दंभ के चलते मिट गया. वो तो वैसे भी जंगल में रहती थी और रह ही रही है, उसे क्या जरुरत आन पड़ी थी इस करीने से सजी बगिया में. शायद जंगल में अपनी पहचान ठीक से काबिज न कर पा रही हो या इस सुन्दर बगिया से घबरा गई हो कि इस बगिया के रहते भला जंगल में कौन आयेगा हरियाली निहारने और उसके गीत सुनने.
कैसे समझाऊँ उसे कि तुम्हारी महत्ता तुम्हारी जगह है ही और अगर बगिया में आती हो तो भी स्वागत करने सब फूल पत्ती फल खुला दिल लिए खड़े ही हैं फिर ऐसी क्या नाराजगी?
आज मुझे जंगली चिड़ियों की भाषा न आ पाने का बहुत दुख हुआ. काश, भाषा समझता होता तो मैं उनका मनतव्य तो जान लेता और उसके अनुरुप ही, उनमें न सही अपनी बगिया में ही कुछ बदलाव या सुधार कर लेता.
तो हे कलमपीरों, हे तथाकथित साहित्यकारों!! हमें दुख है कि हम आपकी भाषा नहीं बोल पाते, हम आपकी भाषा नहीं समझ पाते हैं!! हमारी अपनी छोटी सी बगिया है. नये पौधे रोपें जा रहा हैं. बड़े प्यार से उन्हें सींचा जा रहा है. स्नेह से दुलराकर बड़ा किया जा रहा है. कुछ में फूल भी आने लगे हैं. कुछ तो फलदायी वृक्ष भी हो गये हैं. स्वागत आपका भी है इस बगिया मे.
आप तो ज्ञानी हैं इसलिये भले हम न समझ पायें, आप तो हमारी बात समझ ही जायेंगे. बस!! अपने अहंकार पर काबू पा लिजिये और अपने दंभ को किनारे रख कर आईये. हम तो आपके आने से लाभांवित ही होंगे मगर, यह तहस नहस कैसी? कैसी यह नाराजगी? क्यूँ फूलों को नोंच ले रहे हैं. क्या पा लेंगे इससे? कहीं यह अपना असतित्व खो जाने का भय या इसी तरह की कुंठा तो नहीं?
ऐसा मत करों वीरों. याद है न वो ठूंठ वाली दुनिया. क्या आप वैसी दुनिया चाहते हो!!
चलिये, ऐसा कर लिजिये कि अगर नव-आगंतुको को उत्साहित करने से आपका कद घटता हो तो कम से कम हतोत्साहित न करिये.
वैसे, चलते चलते एक बात और बता दूँ, सेब का पेड़ भारत में लगे, जंगल में लगे या फिर विदेश में-सेब तो सेब ही होता है.मीठे मीठे लाल लाल सेब. एक स्वास्थयवर्धक और स्वादिष्ट फल.
नोट: अभी पिछले दिनों किसी कवि की कविता को लेकर किसी वरिष्ट साहित्यकार ने बहुत हंगामा खड़ा किया था कि उन्हें कविता लिखना नहीं आती, फिर भी लिख रहे हैं. फिर, दो-चार दिन पहले किसी वरिष्ट साहित्यकार द्वारा विदेशों में किये जा रहे हिन्दी लेखन को दौ कौड़ी का घोषित कर देना मन दुखी कर गया और उपरोक्त भाव उभरे.
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86 टिप्पणियां:
इस सुन्दर सी रचना के निहितार्थ को समझने की कोशिश में लगा हूँ !
आपकी रचना का निहितार्थ अच्छी तरह समझ गए !
गजब ढंग से अपने विचारों को प्रस्तुत किया है आपने !!
इस पोस्ट के निहितार्थ को मैं समझ रहा हूँ ,आपके मन में क्या द्वंद है ,पीडा है उससे सहमत हूँ ,लेकिन क्या करेंगे ,बकौल बशीर साहब -
लोग टूट जाते हैं ,एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते ,बस्तियां जलाने में .
बहुत बदसूरत थी
लिखावट
जो तख्ती पर
लिखी थी पहली बार
लेकिन
उसी की बदौलत
सीख पाया लिखना
लिख दिया महाकाव्य।
एक दम अनगढ़ था
पत्थर पहला
जो नींव में डाला गया
पर ये ताजमहल
उसी पर खड़ा है।
तख्ती पर लिखा
पहला अक्षर,
नींव में गया
पहला पत्थर,
बाद के सुंदर अक्षरों
बाद के गढ़े हुए पत्थरों
से बहुत बड़ा है।
"चलिये, ऐसा कर लिजिये कि अगर नव-आगंतुको को उत्साहित करने से आपका कद घटता हो तो कम से कम हतोत्साहित न करिये"
समीर लाल जी।
आप दूर देश में भले ही दैठे हों पर यह आभास रहता है कि आप तमाम ब्लॉगर्स के दिलों में विराजमान हैं।
आपकी व्यापक और सकारात्मक सोच को सलाम।
डा मनोज मिश्र ने बिल्कुल सही अवसरानुकूल शेर कोट किया है..
बस चश्मे की बात है, कुछ myopic होते हैं तो कुछ बहुत दूर तक देख लेते हैं.
''खुशफहमी'' समीर लालजी के दुःख पर
चिडियों को अच्छा न लगा,
आपका वातानुकूलित बना रहना,
वें सोचती थी; गुस्साएगे आप,
निकल आयेंगे बगियाँ में,
जब कुछ फूल नष्ट होने पर भी आप न गुस्साए,
और न ही बाहर आये,
तब वे ही गुस्सा गयी.....
वें मिलने आप से आई थी,
फूलो से नहीं,
आपने गर्मजोशी नहीं दिखाई,
अनुकूल कमरे में,
मन में भी ठंडक भर ली थी आपने.
ऎसी ही उदासीनता का शिकार,
आज का मनुष्य हुआ जा रहा है,
अपना बगीचा उजड़ जाने तक.
काश! चिडियाएँ,
हमारा व्यवहार समझ पाती.
-मंसूर अली हाशमी
सोच सोच का फ़र्क है प्रभु .....इंसान अगर अपनी सोच को व्यापक बना ले तो महान बन जाता है..... और यदि संकुचित कर ले तो पहले दूसरों की नज़रों में गिरता हुआ अंततः अपने से भी नज़र मिलाने के काबिल नहीं रहता .....
साभार
हमसफ़र यादों का.......
ये तो हमारी भाषा है न... जंगली भाषा नहीं.. फिर वो कैसे समझेंगे... ?
आपकी छोटी सी बगिया उन कथित महान कलमवीरो के बड़े-बड़े बागो से हज़ारो गुना खूबसुरत है।वे क्या जाने ढाई आखर प्रेम के सबसे अनमोल हैं।उनको, उनका अहम मुबारक़।आप तो प्यार बांटते चलिये।
aapki rachna ke bhawon ko samajhne ki koshish kar raha hoon shayad isme kisi ki peeda chupi hui hai .......
अब तो नई परिभाषा के अनुसार जो साहित्य को छोडकर बाकी सब काम करे अब वही असली साहित्यकार माना जायगा :)
समीर जी मेरी कल की पोस्ट भी इसी मुद्दे पर थी। मुंबई मे हुए रोचक वाकये को लेकर जिसमें कि पुष्पा भारती जी ने ब्लॉग को साहित्य मानने से ही इन्कार कर दिया। खैर, अपना क्या जाता है अपन तो वैसे ही बे-कार के हैं :)उस कार में चाहे साहित्य की पेंदी लगाओ चाहे लुगदी की :)
समीर भाई ,
समझ में नहीं आ रहा क्या लिखूं : " रोचक , सुन्दर प्रविष्टि , आभार या कोई घिसा पिटा शेर ? " पर दिल नहीं मानता , आप भावुक इन्सान हैं , आपका आलेख सार्थक टिप्पणी का हक़दार है , बहुतेरी कोशिशों के बावजूद मानीखेज अल्फाज गढ़ नहीं सका ! हर बार लिखता हूं और मिटा देता हूं ! टिप्पणी नहीं करने के लिए क्षमा सहित !
और हाँ दो दिन पहले एक तकनीकी भूल हुई है उसके लिए भी खेद है : हुआ ये कि पंडित 'वत्स' की 'धर्मयात्रा' में खोटे सिक्कों के चलन को लेकर गढ़ी गई लोककथा पर आपकी टिप्पणी के बाद टिप्पणी की और झटके झटके में 'समीर जी' की जगह लिख बैठा 'उड़नतश्तरी जी' ! अंगूठा छाप देने के बाद अहसास हुआ कि मैंने क्या कर डाला पर संपादन मेरे हाथ में नहीं था ! फिर एक वहम पाल लिया अरे समीर भाई इतने ब्लाग में टिपियाते हैं उन्हें एक ब्लाग के एक आलेख में दोबारा लौटने की फुर्सत कहाँ होगी ! तो भाई साहब अगर वहां जाएँ तो मेरी टिप्पणी में 'उड़नतश्तरी जी' की जगह 'समीर लाल समीर' पढ़ा जाये !
चिडिया जैसी मनोवृति लोग दुनिया में हर कहीं हैं...जो खुशियाँ और फूल खिलते नहीं देख सकते...लेकिन चिडिया के डर से फूल खिलना छोड़ नहीं देता...अगले साल फूल फिर आएगा चिडिया आये ना आये...
आपकी पोस्ट हमेशा की तरह दिल की गहराईयों से निकलती है और पढने वाले के दिल की गहराईयों में पहुँच जाती है...
नीरज
जो पीडा आपके मन में है, उसका कुछ अंश तो हमने भी अपने भीतर अनुभव किया था जब पिछले दिनों एक भलेमानस कवि की कविता को लेकर एक वरिष्ट साहित्यकार हंगामा खडा कर रहे थे कि उन्हें कविता लिखने की समझ नहीं लेकिन फिर भी लिखे जा रहे हैं.
सच में हमें तो अब जाकर मालूम पडा ये आभासी जगत भी उस वास्तविक जगत का एक प्रतिरूप ही है..........
आदरणीय समीर जी,
आज पहली बार ही आपको उड़नतश्तरी के नाम से नहीं बल्कि समीर जी के नाम से संबोधित कर रहा हूँ...सच कहते हैं की अनुभव यूँ ही नहीं कहलाता ..और कुछ तो विशेष होता है ऐसा जो साबित कर देता है ..की ये है विशिष्टता ..एक अनोखी शैली...आपने जो बात कही हैं ..कहने को तो रोज ही कई लोग कह रहे हैं..मगर मैं जानता हूँ की इस शैली में कोई नहीं कह पायेगा..कभी भी नहीं..बगिया सुरक्षित रहेगी..जब तक आपसे निगेहबान हैं....
कहती होगी कि अगर तुम फूलों का ही नाश कर दोगी तब फिर यह सब कैसे संभव हो पायेगा. नव सृजन ही रुक जायेगा. ये पेड़ भी पूरे परिपक्व होने के पहले ही खत्म हो जायेंगे. सूख कर बस ठूंठ. विचारो मित्र, हर तरफ बस ठूंठ ही ठूंठ.
बेहद सटीक लगा..इसी तरह का विद्ध्वंश अनाम/अनामिकाओं की तरफ़ से है और यही विद्ध्वंश इसको नही लिखना आता..उसको नही आता..के द्वारा है.
पीडा आपकी जायज है. पर शायद यह भी एक मानव स्वभाव का ही एक अंग होगा? अब सोचते हैं भुगतें या भागें?
रामराम.
bahut sahi...vakai samvednayen mar gai hai....
ek cartoon banaya hai..
ek pita aour beti par...
अच्छा लगा पढ़कर. आपका द्वंद्व और पीड़ा आखिरी लाईनों में व्यक्त हो ही गए.
बड़ी ऊंची ऊंची बातें हैं.तेंशान्वा हो रहा है. लेप्रोस्कोपिक पद्धति से भेजे में डालने के प्रयास में हैं
आपकी संवेदनशील लेखनी ने बहुत कुछ कहा।
दो प्रकार के वरिष्ट साहित्यकार पाये जाते हैं। एक तो वो जिनकी साहित्यिक समझ दौ कौड़ी की भी नहीं होती है। साहित्य जगत में येनकेनप्रकारेण बने होने के कारण ही वे वरिष्ट साहित्यकार कहलाये जाते हैं। बने होने की प्रक्रिया में इस प्रकार की टुच्ची टिप्पणी करना उनका स्वभाव बन जाता है। और फिर भई औकात भी तो कोई चीज होती है।
और दूसरे वे साहित्यकार हैं जिनकी अब और उपेक्षा करना संभव नहीं है। मेरा विश्वास है कि ये दूसरे प्रकार के वरिष्ट साहित्यकार इस प्रकार की टुच्ची टिप्पणी नहीं कर सकते।
फिर आप दुखी क्यों हो गये!
ताऊओ के ताऊ महाताऊजी,
बहुत खुब !! आप मे वो बात है जो लेखन के वास्विकता एवम उस्की उपयोगीता के दर्शन होते है.
आभार!!!!!!
महावीर बी सेमलानी
मुम्बई टाईगर
हे प्रभु यह तेरापन्थ
अच्छे मन और सकारात्मक सोच लेकर लिखी गयी रचना....अच्छा लगा पढ़कर
rachna bahut hi bhavporna hai.....kisi ki prashansa me logon ke muh se shabd kam hi nikalte hai burai karna jyada aasan lagta hai....!
निंदा वे करते हैं जिनको खूद पर विश्वास नहीं होता. अच्छा या घटिया तो समय तय करता है. किसी के कहने से क्या होता है?
पढी है एक बार
पढनी पडेगी बार बार
जाने कितनी बार
अब पढेंगे ध्यान लगाकर तभी बता पाएंगे कैसी लगी
शायद भिगो भिगो कर मारने का हुनर आप से बेह्तर कोई नहीं जानता इतनि सी बात के लिये और भी कितना कुछ सम्झा दिया एक तीर से कई शिकार वाह वाह क्या बात है बधाई उपर से मनोज मिश्र जी क शे अर क्या बात है
aa dekhen jaraa ka agla bhag dekhna na bhoole
hamesha kee tarah anootha
समीर भाई,
आपका लेखन और आप सचमुच लाजवाब है. बधाई.!!
सब को समझ में आ गया है कि आप क्या कहना चाह रहे हैं। मनोज जी ने सही कहा है पर आपने अपने रोष को बहुत सही ढंग से पेश किया। सहमत।
चिड़िया नासमझ थी, खेल खेल में नुक्सान कर गयी. हम इंसानों का क्या? हम किस नासमझी का बहाना बनाएंगे?
आपकी पोस्ट पढ़ के ......आह निकल गयी .....!!
देख रही हूँ एक कवि मन कितना आहात होता है .....समीर जी आपने जिस कल्पना शक्ति से इस पूरी प्रक्रिया को कथ्य रूप दिया है ....और वह भी इतना सुंदर उदहारण देकर ....मैं तो नतमस्तक हूँ .....!!
मैंने प्रकाश गोविन्द जी के ब्लॉग पे एक टिप्पणी पढ़ी थी .....की आप ऐसी टिप्पणियों का जवाब न दें और उसे नज़र अंदाज़ कर दें .....वो खुद ही शर्मिंदा हो जायेगा .....पर दर्द तो तब होता है जब सभी लोग उसी का अनुसरण करने लगते हैं ...!
न जाने किस बात का गुस्सा है.
समीर जी
चिडिया नई हो या पुरानी सत्ता का विकेन्द्रीकरण किसी को नही भाती. वह अमरूद फिर फलेगा. जब उसके सृजन का जादू चलेगा.
साधुवाद उस चिंता के लिये जो बगिया के लिये है.
बहुत सार्थक लेखन.
वैसे चिडिया है बहुत खूबसूरत
जैसी सोच, वैसा चोला।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
सुंदर ! अति सुंदर रचना साथ ही कुछ लोगों के लीये सबक भी अगर वो ले सकें तो ।
आपकी संवेदनशील लेखनी ने बहुत कुछ कहा।
आपने हम सबके साथ अपनी पीड़ा बांटी .संवेदनशील मन इन बातों से आहत हो ही जाता है.मेरे जैसे कई ब्लोगर्स के लिए आप प्रेरणा स्त्रोत हैं.
समीर जी चिंता न करें न तो आलोचक के कहने से कुछ होता है और न ही वरिष्ठ साहित्यकारों के कहने से । हां ये है कि अगर रचना में जान है तो वो स्वयं ही अपने आप को सिद्ध कर देती है । सितारों को बादल से छुपाना तो संभव है किन्तु सूरज को नहीं । सो अगर रचनाएं दमदार हैं तो उनका कोई कुछ नहीं कर सकता ।
कैसा संजोग है कि कल किसी मुलाकात के बाद कुछ ऐसे ही भाव मेरे भी मन में आ रहे हैं.....!
बिलकुल ठीक कह रहे हैं भइया. चिडिया-प्रवृत्ति छोड़कर ही कलियों को फूल बनाना है. अभी सीख रहे हैं इसीलिए तो ब्लॉग पर लिख रहे हैं. सबकुछ सीख कर मैदान में उतरते तो ब्लॉग पर नहीं लिखते. किसी के लेखन को एकदम से नकार देना साहित्यकार को छोटा ही करता है.
नव लेखकों को साथ लेकर चलने की भावना को सलाम । आपके इस लेख मे एक लेखक के मन की पी
डा साफ झलक रही है ।
समीर जी, बहुत सुंदर लिखा, इन मै बहुत सी बाते आप ने मेरे दिल की लिख दी, मेने भी वो शव्द उस महान लेखक के पढे थे, लेकिन क्य फ़र्क पडता है किसी के बोलने से, जो जेसा है वेसा ही है, इन मोहदय के बच्चे भी शायद इतनी अच्छी हिन्दी नही बोल लेते होगे जितनी अच्छी हिन्दी विदेश मै जमे पले बच्चे बोलते होगे, ओर वो भॊ तमीज से, ओर इन्हे बोलने की भी तमीज नही होगी कि किस से केसे बोलना है,
छोडिये इन्हे,
आप का धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
ऐसे भी क्या दुखी होना भाई! जिसको जितनी समझ है उतनी बात करेगा। रचनाओं के मूल्य समय तय करता है। रागदरबारी उपन्यास को तमाम आलोचकों ने खारिज कर दिया था। आज हर साल उसके कम से कम एक-दो संस्करण निकलते हैं। लफ़ड़े वाली पोस्टों के लिंक भी दिया करें। इत्ता मत उदास हुआ करें। बहुत हो जाता है! :)
जिस बर्तन मे जो होगा वही तो निकलेगा ।
समीर जी चिंता तो जायज है.....यदि किसी को आईना देख कर भी अपने चहरे पर लगे दाग नजर ना आए तो कोई क्या कर सकता है......आशा की जानी चाहिए की भविष्य में ऐसा ना हो........यह सभी को सोचना होगा...।आप की यह पोस्ट दिल को छू गई।....
अपने दिल के भावों निराले ही ढ़्ग से कह दिया आपने। बहुत खूब।
are wah! pollination ki process mein sentimental emotional touch....... achcha laga
सबसे पहले तो मैं ऊपर डा० मनोज मिश्र जी ने बशीर बद्र साहब के जिस शेर को कहा है उसकी आगे की भी दो पंक्तियाँ कहना चाहता हूँ :
हर धड़कते पत्थर को, लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है, दिल को दिल बनाने में
समीर साहब आपने चिड़िया कथा के माध्यम से जो सन्देश दिया, वो गहराई तक समझ में आता है !
जो कुछ भी ब्लॉग जगत में हो रहा है ... या अभी ताजातरीन वाकया हुआ जिसका आपने जिक्र किया ... दिल को व्यथित करने वाला है !
एक बात जो मैं हमेशा कहता आया हूँ की इस दुनिया को खराब लोगों ने इतनी क्षति नहीं पहुंचाई जितनी कि अच्छे लोगों ने पहुंचाई है !
आखिर हम लोगों की तामाशाई प्रवृत्ति कब ख़त्म होगी ? हम लोग गलत बातों के खिलाफ कब खड़े होना सीखेंगे ? अरे आप मत शामिल होयिये किसी भी मुहिम में ... मोर्चे में ... लेकिन अपनी जगह पर खड़े रहकर असहमति तो दर्ज करा सकते हैं ! लेकिन वो भी नहीं दिखता यहाँ !
अभी जो घटना क्रम हुआ उसमें कितने सीनियर थे जिन्होंने सही बात रखी या मामले को शांत करने का प्रयास किया ? नहीं पड़ना चाहते हैं लोग ऐसे किसी चक्कर में .... भैया दोनों पक्षों में से एक भी बुरा मान गया तो एक अदद "कमेन्ट" रूपी लक्ष्मी का नुक्सान कौन झेलेगा ! प्रतिक्रियायों को पाने की तो इस कदर दीवानगी है जैसे कुछ ही दिन बाद सब की सब डालर में कन्वर्ट हो जायेंगी !
बस एक ही सदियों पुराना फलसफा ,,,, भाई हम ठहरे शरीफ आदमी ... इन सब लफड़ों से दूर रहते हैं !
चलते-चलते ये भी ये भी हो जाए :
मैं ऐसे शख्स को जिन्दों में क्यूँ शुमार करूँ
जो सोचता भी नहीं, ख्वाब देखता भी नहीं !!
आज की आवाज
बेहतरीन प्रस्तुति
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चर्चा । Discuss INDIA
बहुत सुन्दर विचार... अगर सभी एसा सो्चे तो दुनिया कितनी खुबसुरत हो जाये..
काश समझ पाते ये छोटी सी बातें..
जब एक कवि का मन दुखता है तो ऐसी ही संवेदनशील पोस्ट निकलती है ...
कहने वाले कहते रहेंगे यह उनको सोच है लिखने वाले लिखते रहेंगे ..आप ने इस बात को बहुत ही बेहतर तरीके से कहा है .सब समझने की बात है
जिसने भी कहा हो की विदेशो में दो कौडी का लेखन हो रहा है उन्हें अपने देश के बारे में छोड़कर अन्य देशो में कैसा लेखन हो रहा है इसकी जानकारी नहीं है . बचपन से ही मै सोवियत संघ की हिंदी में पुस्तके पढ़ता रहा हूँ तो ख़ुशी होती है की विदेशो में भी हिंदी साहित्य पल्लवित हो खूब फल फूल रहा है . विदेशो में भी हिंदी के प्रति लोगो में उत्सुकता जाग्रत हुई है और इसका प्रतिफल है की आज विश्व के करीब ४५ देशो में हिंदी पढी जा रही है. आभार.
aap ki door drashti! kya kahe ?
nishabd bana dene ki aapki kla sachmuch kabile tarif hai .
bas isi tarah ham logo ko prerit karte rahe . shukriya
सारा कबाड़ा इन्हीं मूर्खों का किया धरा है, किस बात का ये इतना घमण्ड करते हैं?
पता चला आप आज उदास हैं; इतना उदास ना हुआ करें, देखिये मुझे भी टिप्प्णी देने आना ही पड़ा।
:)
भई क्या केने क्या केने। बहूत खूब।
बड़े सलीके से आपने बात को रखा है। जिन दो पोस्ट की तरफ़ आपने ईशारा किया है उसे पढ़कर मैं भी आहत हुआ था। सौ प्रतिशत सहमत हूं आपसे।
bahut sahi likha hai sameer ji, samajhdaar ko ishaara kafi.
चलिये, ऐसा कर लिजिये कि अगर नव-आगंतुको को उत्साहित करने से आपका कद घटता हो तो कम से कम हतोत्साहित न करिये.
------------
पूर्णत: सहमत। पर नवागंतुकों को भी अपने आपको हतोत्साह से इम्यूनाइज करने का टीका लगवा कर ही इस फील्ड़ में आना चाहिये।
"कितने प्यार से सींचा, संजोया था इस बगिया को. "....मेरा गुलशन हरा-भरा था, उजडा या सुनसान नहीं था..........सब दिन एक समान नहीं है....
हमेशा की भाँति बहुत अच्छा सँवेदनशील लेखन पढकर फिर यहीविचार मन मेँ आया
" वो सुबहा कभी तो आयेगी ..."
- लावण्या
भय वाली बात ही ज्यादा सटीक है. और कोई कारण तो नहीं दिखता !
खैर उनकी बातों का क्या ध्यान देना. देखिये मैं भी उपदेश दे रहा हूँ आपको :) हद हो गयी !
आपकी आज की पोस्ट तो पूरी कवितामय लगी
बहुत सुन्दर बात कही आपने, जिसके लिए कही वो अगर समझ जाये तो फिर तो क्या बात है
बड़ी नाजुक सी पोस्ट लगी, पढ़ते पढ़ते लगा की अगर पढना रोक दिया तो कही झटके के साथ मेरे अन्दर कुछ बिखर न जाये, इस लिए पढता ही चला गया
सुन्दर,
वीनस केसरी
समीर जी, मुझे तो याद हैं ब्लौगजगत में रखे वे अपने पहले सकुचाए कदम। तब आप जैसे मित्रों ने ही मेरे अच्छे बुरे हर तरह के लेखन पर मुझे सराहा था। यदि हम सब वे दिन याद रखें तो ठीक रहेगा। वैचारिक मतविभेद होना आवश्यक है परन्तु वह विचारों तक ही सीमित रहना चाहिए।
काश आपने वे सेबों के फूलों से लदे पेड़ भी दिखाए होते। बहुत जमाना बीत गया उन्हें देखे हुए।
घुघूती बासूती
मान गए समीर जी . आप सज्जन हैं . मिठास में ही कह दिया सब कुछ. गलती तो मुझसे हुयी .वहीं जाकर अपनी ' दो कौडी ' की कई टिप्पणी दे आया .पता लगा प्रतिक्रियाओं से वे बहुतों के विचार थे .लेकिन कुछ को लगा की मैं व्यक्तिगत रूप से कटु हो गया .
खैर अब मैं भी आपकी तरह भीगा के जूता मारना सीख रहा हूँ . बेआवाज़ और प्यार से . सज्जनता से . संस्कारिता से .और कलात्मकता से भी.और वह भी ' दो कौडी ' वाले अंदाज़ में नहीं जो खास कर हम सब घोषित ही कर दिए गए हैं.
आपकी तरह का
कुछ संस्कार सभी में आये .
वैसे एक बात जरूर कहूँगा समालोचकों की राय पर .जब राग दरबारी छपी तो एक बड़े नामचीन ( नाम मै भी नहीं बताऊँगा , श्री लाल शुक्ल जी ने भी नहीं बताया है) ने कहा " अपठित रह जाना ही इसकी नियति है " .
अब समीक्षा या साहित्य , क्या ' दो कौडी ' का है यह तो वक्त बताता है .
आपकी संवेदनाओं को प्रणाम समीर भाई
"जंगली भाषा" न आना ही बेहतर है जी! वरना आप भी उन तथा कथित साहित्य कारों की तरह हु लू लू लू करने लगेंगे!! सुक्र है आप हमारी भाषा समझते हैं और हमें उत्साहित करते हैं!!
आदरणीय समीर जी ,
आपकी इस पोस्ट ने और आपके कमेन्ट ने मुझे बहुत भिगो दिया ... मेरी आँखे नम हो गयी आपके प्यार को पाकर ....सर , नुक्कड़ पर हुए उस हादसे ने मुझे बहुत दुखी किया है इसीलिए मैंने कुछ दिनों के लिए विराम लिया है ... in fact मुझे कभी लगा नहीं था की कोई मेरी कविताओ को लेकर मुझे इस तरह से आहत कर सकता है , लेकिन उस बंधू ने तो पता नहीं क्यों ऐसा लिखा .... anyway it takes all kind of people to make this world .... लेकिन इस में आप जैसे सहह्रुदय महानुभव भी है जो की मुझसे प्यार करते है ... आपको मेरा नमन .. आपने मेरी जो हौसला अफजाई की है ...उस के लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुजार हूँ ... मेरा वादा हिया आपसे की मैं जल्द ही कुछ नया लिखूंगा और आपको dedicate करूँगा ....
आपका
विजय
आदरणीय समीर जी ,
आपकी इस पोस्ट ने और आपके कमेन्ट ने मुझे बहुत भिगो दिया ... मेरी आँखे नम हो गयी आपके प्यार को पाकर ....सर , नुक्कड़ पर हुए उस हादसे ने मुझे बहुत दुखी किया है इसीलिए मैंने कुछ दिनों के लिए विराम लिया है ... in fact मुझे कभी लगा नहीं था की कोई मेरी कविताओ को लेकर मुझे इस तरह से आहत कर सकता है , लेकिन उस बंधू ने तो पता नहीं क्यों ऐसा लिखा .... anyway it takes all kind of people to make this world .... लेकिन इस में आप जैसे सहह्रुदय महानुभव भी है जो की मुझसे प्यार करते है ... आपको मेरा नमन .. आपने मेरी जो हौसला अफजाई की है ...उस के लिए मैं तहेदिल से आपका शुक्रगुजार हूँ ... मेरा वादा हिया आपसे की मैं जल्द ही कुछ नया लिखूंगा और आपको dedicate करूँगा ....
आपका
विजय
मैं डां मनोज मिश्र जी से सहमत हूं। आप बिन्दास होकर लिखे.....
सर आपने मेरे ही दिल की बात कह डाली है...
पता नहीं ऐसा क्यों होता है...
मीत
aaderneey....
sameer ji ji.........
aapne jo mera hosla badaya....uske liye dil se aabhar...
asha karta hun aap aage bhi isi tarah meri hoslaafzai aour margdarshan karte rahenge.....
"समीर जी, मुझे तो याद हैं ब्लौगजगत में रखे वे अपने पहले सकुचाए कदम। तब आप जैसे मित्रों ने ही मेरे अच्छे बुरे हर तरह के लेखन पर मुझे सराहा था।"
इस बात पर में भी सहमत हूँ आपसे समीर जी ही हैं जो मेरे जैसे नए लेखकों को प्रोत्साहन देने से पीछे नही हटते । ये में ही जानता हूँ कि समीर जी की उड़न तश्तरी जब सर्रर्र...... करती हुई मेरे ब्लॉग पर आती है तो कितना सकून मिलता है । अन्य वरिष्ठ व स्थापित ब्लोगर जो हिन्दी लेखन को प्रोत्साहित करने कि बातें करते हैं उनकी टिप्पणिया तो सिर्फ़ प्रतिष्ठित चिट्ठों पर ही नजर आती हैं ।
हाँ वो पोस्ट ओर उसके बाद की लम्बी चौडी प्रतिक्रियाये मैंने पढ़ी थी ...जिनमे अहं ज्यादा था ..अपने बड़े होने की घोषणा ओर हुंकार थी...यही बात विनम्रता ओर सलीके से कही जाती तो ज्यादा असर रखती....खैर ....जैसा समाज है वैसा ब्लॉग है...
आपकी मनःस्थिति समझ सकता हूँ...
लेकिन ऐसा तो न कहिये कि सारी संवेदनायें मर गयी हैं....कम से कम अपने हिंदी ब्लौगर्स को गेख कर ऐसा तो कतई नहीं लगता !
सही लिखा है............वैसे प्रचार का रोना रोते हुवे उन्होंने भी प्रचार का ही माध्यम ही चुना था ........... सच है किसी को aisaa adhikaar नहीं है की वो saahity को अपनी bapot samjhe ..............
समीर जी, आप बहुत भवुक हो, और हम आपकि भवनाओ के दरिया मे फ़िर से गोते लगते रह गये. और हा एक बात तो हम कहना भूल ही गये, प्लीज़ विल्स कर्ड वाली सीरीज़ ज़ारी रखिये गा.
ak chidiya ke madhym se aapne mhtvpurn bat rakh di apka andaz abharaapki sheeli kthanak andar tak chu jate hai .
Sameer ji apki baat se sehmat hoon...
...lekin kisi individual ko dhyan main rakh ke apne ye baat kahi hai to, apse ye hi kehna chahta hoon ki ya to aap pori baat se avagat nahi hain ya sikke ka ek hi paksha ujagar kar rahe hain...
...alochana se beshak mujhe bhi nafrat hai...
alochak to "brothal main pade impotant ki tarah hote hain jo jante hain ki kiase karna hai par kar nahi paate"
par jis individual ki baat ko aap sanmdarbh kr rahe hain to aap hi bataiye...
..ki kitna behtar hai 5-5 madhyam se rachnaon ka advertiesment karna....
chalo aaj advertiesment ka zamana hai...
..par is tarah ka prpopganda?
aur tis par yadi aap bura comment karte hai to ,
it will follow with a mail ki maine apka comment delete kar diya hai aap kuch accha comment dein....
bus apse itna kahoonga ki sikke ke dono pehloo ko darshaiyen...
..ye isliye aur bhi zarror ho jata hai kyunki apka blogjagat main jo rutba hai wo shayad haamra nahi.
yahi baat apki "benami" wali post main bhji laago ho jaati hai...
....kya ko benami apki post main comment kar sakta hai?
aur agar kar diya to kya wo prakrashit ho jaiyega? "Sometime victim is a culprit and vice versa"
mujhe to apne is comment par bhi shak hai...
...aaj tak kis bhi post main itni talkh tippani nahi ki.
lagta hai chota muh badu baat kar gaya....
...par asha hai aap kshama kareinge
aur is comment ko delete karke "accha sa comment dein" nahi kaheing.
Darpan Sah.
@ दर्पण भाई
मुझे तो आपकी टिप्पणी में तल्खियत कहीं दिखी ही नहीं, बहुत खोजा और फिर इसे ही अच्छी वाली टिप्पणी मान कर प्रकाशित कर दिया. अब तो ईमेल करने की जरुरत भी न रही.
आपने निश्चित ही वो पहलु उजागर किया है जिस पर मैने कुछ नहीं लिखा. माना वो पहलु भी सिरे से गलत है मगर वो इस बात को तो सही नहीं बना देता. जो गलत है वो गलत ही रहेगा. इनका किया भी और उनका किया भी.
टिप्पणी के लिए दर दर गुहार करने के मैं भी सख्त खिलाफ हूँ. कभी कभार एकदम खास मित्रों को शायद एकाध पोस्ट के बारे में बताया होगा वो भी यह सोच कर कि उन्हें यह पोस्ट जरुर पढ़ना चाहिये क्योंकि वो इससे संबंधित हैं या उनकी बात मैने उठाई है किन्तु हर पोस्ट को टिप्पणी की दरकार में इतनी बार और इतने माध्यमों से फॉलो अप कर सामने वाले को दुखी कर देना जरा भी हजम नहीं होता.
ब्लॉगवाणी, चिट्ठाजगत पर आ ही जाता है कि आपने कुछ लिखा है. जिसे पढना होगा, पढ़ ही लेगा.
आपसे पूर्णतः सहमत.
एक पहलू उठाया, पोस्ट की लम्बाई यूँ ही काफी हो गई थी, इससे यह गलतफहमी स्वभाविक थी, अतः क्षमाप्रार्थी.
बोले तो ब्लॉग की दुनिया के सभी नवकोपलों के ताऊ उड़न तस्तरी से सबके ब्लॉग पर जाकर आर्शीवाद देकर हौसला बढाने बाले समीर लाल की जय.
सर मज़ा में गया और बात को कहने का सलीका भी सीख लिया. हम तो बस हुंकारा ही लगा सकते हैं क्योकि ये सलीका हमें हमारे गुरु कुंवर बेचैन जी ने सीखा दिया था ( आपका वो वाट कहने का सलीका क्या हुआ, जो सूना करते थे बातें आप हुंकारे के साथ )
सो हमारी तरफ से आचार्य समीर लाल जी की बात पे जोरदार हुंकारा.
jab samay mile to padhen.
my blog
http://hariprasadsharma.blogspot.com
latest poem sukh aur dukh at nukkad
http://nukkadh.blogspot.com/2009/06/blog-post_27.html
आपकी पीड़ा को मैं समझ रहा हूं। दरअसल सरोकार खत्म होते जा रहे हैं।
udan tashtari ji aap kshama kis baat ke liye maag rahein hai...
...aap ne to koi galti nahi ki...
aur na hi mujhe apse koi issue hai...
ek hota hai ashmet hona ek hota hai sehmat hone ke saat saath usmein apni taraf se kuch jodna...
jaisa ki meri pehli post main aap dekhein main aapse sehmat hoon to maine pehle hi likh diya...
..yahan baat us "Individual" ki ho rahi thi...
...apse kabhi koi gila nhai raha...
...aur na rahega...
balki sharminda to main hoon...
ki chota muh badi bat kar gaya...aur jaisa ki apne likha hai...
" माना वो पहलु भी सिरे से गलत है मगर वो इस बात को तो सही नहीं बना देता. जो गलत है वो गलत ही रहेगा. इनका किया भी और उनका किया भी.
"
to is baat se to main pehle hi sehmat hoon...
yaad hai wo "brothal" wali baat
:)
lekin asha hain ki aap meri aur mujh jiase blogger ki irritation ko samajhte hue kshama kareinge.
(apko wo vakia bhi yaad hoga jahan laakh manae ke baad bhi ek blogger bhai sa'ab ne blog jagat se alvida kar diya...
lekin itne kam dion ke liye ki usse zayada asakriya to wo ab hai (sakriya rehte hue).
Being a blogger(no matter of lower level) it hurts....
...all these things for that matter...
...thanks for acknowledging the previous comment
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