एक अंदाज बस है कि शायद रात के तीन बजे के आस पास का समय होगा. नींद एकाएक सामने की सड़क से जाते ट्रक के हॉर्न से टूटी है.
पलंग से लगी खिड़की से लेटे लेटे बाहर झांकता हूँ आकाश में. आज कुछ भूरा सा रंग लिए है न जाने क्यूँ. बाहर क्या पता कि कैसा मौसम होगा-शायद महिने के अनुसार गरम ही हो. मगर कमरे में ए सी चल रहा है बिना किसी आवाज के शीतल वातावरण निर्मित करता.
विज्ञान की प्रगति के साथ प्रकृति से साथ छूटा. आप अपना वातावरण खुद निर्मित करने में सक्षम हुए. गरमी में सर्द या सर्दी में गर्म. मानव को एक अहंकार का भाव मिला. कमरे में रुम फेशनर की खुशबू से फूलों सी महक भरी है जबकि अस्पताल के ठीक नीचे बहता नाला जाने कितना बजबजा रहा होगा किन्तु मुझे उससे क्या लेना देना. मैं आत्म मुग्ध, अपने निर्मित वातावरण में.
अक्सर ही पाया गया कि अपने अनुरुप गढ़ा गया वातावरण, कहीं न कहीं शायद अहंकार की वजह से, वो नैसर्गिक सुख देने से वंचित हो जाता है जो हम अपने समय में सुविधाओं के आभाव में प्रकृति से जुड़ कर पाते थे. अब न गर्मी में छत पर खुले में सोने वाले और पड़ोसियों से छत से गपियाने वाले दिन रहे और न ही सर्दी में अँगीठी की आँच सेकते कमरे में रजाई में गुमड़ियाने के दिन जब मटर की गर्मागरम घुघरी हरी मिर्च और लहसून की चटनी के साथ अपनी अमिट छाप छोड़ जाती थी.
मैं चितरंजन अस्पताल में भरती हूँ कमरा नम्बर ४११. सीने में तीन दिन पहले दर्द उठा था शायद गैस की वजह से. दिन भर दबाये रहा मगर जैसा कि इस दर्द की शक्शियत है, रात को असहनीय हो उठा और बेटे को आवाज देनी ही पड़ी. आज बाजू में केयर टेकर के बिस्तर पर इस प्राईवेट एक्ज्यूकिटिव सूट के शानदार कमरे में बड़ा बेटा सोया है मेरी केयर करने को. बड़ी कम्पनी में अधिकारी है तो उसके पिता इससे कम सुविधा वाले कमरे में कैसे भरती रह सकते हैं.
सुबह ८ बजे बड़ी बहू नौकर के साथ आ जायेगी मेरे लिए चाय और नाश्ता लेकर. तब बड़ा बेटा घर चला जायेगा और नहा धो कर दफ्तर जायेगा. इस बीच छोटा बेटा ९.३० बजे यहाँ चला आयेगा ताकि बड़ी बहू घर जा सके. वो ११ बजे तक यहीं रहेगा. सूप वगैरह वो ही लायेगा. फिर ११ बजे छोटी बहू आ जायेगी और मेरे पास ही रहेगी २ बजे तक, जब बड़ी बहू वापस आयेगी लंच लेकर ताकि छोटी बहू घर जाकर छोटी और बड़ी बहू के स्कूल से लौटते बच्चों की टेक केयर करे.
अब ६ बजे छोटा बेटा दफ्तर से आकर मेरे पास रहेगा, बड़ी बहू घर जायेगी. वो मुझसे बात करेगा. डॉक्टरर्स से बात करेगा. आते रिश्तेदारों से सिर्फ और सिर्फ मेरी ही बात होगी. सब मेरे ही आसपास केन्द्रित रहेंगे. फिर छोटी बहू आकर रात का खाना खिलायेगी, मेरे तो हाथ में आई वी लगा है, खुद से खा ही नहीं सकता. तब थोड़ी देर में बड़ा बेटा आ जायेगा और वो रात भर रहेगा. यही दिनचर्या है जबसे यहाँ भरती हुआ हूँ.
अपनों का और अपने बेटों का इतना सानिध्य और अपनपा-इतनी मेरे और सिर्फ मेरे विषय में बातचीत और सब कुछ मुझ पर ही केन्द्रित देखे तो ५ बरस बीत गये, जब पत्नि मरी थी. क्या पता मैं ही मर गया था शायद. दोनों बेटे, दोनों बहूऐं सब मेरे साथ ही एक ही घर में रहते हैं मगर यहाँ मेरे ही कमरे में-मुझसे बात करते और मेरे ही लिए. यही बस अलग सी बात है यहाँ जो मुझे इतनी खुशी दिए जा रही है अपनी बीमारी की.
आई वी से टपकती बूँद बूँद ग्लुकोज की मिठास में पूरे वातावरण में अहसास रहा हूँ. जुँबा पर कोई स्वाद नहीं, बस अहसास, ठीक ग्लुकोज की मिठास सा.
कितना ही अच्छा लग रहा है मुझे कि मैं बीमार हुआ. लेकिन जाहिर भी तो नहीं कर सकता यह बात.
मेरी अशक्त्ता नें मुझे डरपोक बना दिया है शायद. हर वक्त डर रहता है कि मेरी कोई बात से मेरा ही कोई बच्चा नाराज न हो जाये. सामने हैं, दिखते रहते हैं तो एक मानसिक संबल रहता है. भले ही उनके पास मेरे लिए समय न हो.
डॉक्टर का कहना है कि जल्दी ही डिस्चार्ज कर देंगे.
है भगवन, मैं ठीक होकर अपने ही बनाये उस घर लौटना नहीं चाहता- मैं उस भरे पूरे घर के अपने एकाकी जीवन में, जहाँ होने को ये सब हैं पर मेरे पास कोई नहीं, लौटना नहीं चाहता. बस, वहाँ मैं और मेरे ही घर में मेरे कमरे तक सीमित मैं. मुझे तो तू अपने साथ यहीं से ले चल.
मैं अपने साथ अपनों की वो मधुर स्मृतियाँ ले जाना चाहता हूँ जो पिछले तीन दिनों में मैने सहेजी हैं मानो कि पत्नि के जाने के बाद के ५ बरस मैनें इन तीन दिनों के इन्तजार में ही जिए हों.
मगर भगवन, तू जल्दी कर, मैं अब भी चाहता हूँ कि मेरे बच्चे, समाज में अपनी पोजिशन बनाये रखने के लिए, अपनी इस नियमित कठिन अस्पताल आने जाने की जिम्मेदारियों से जल्दी मुक्त हो अपनी उन्मुक्त जिंदगी बितायें.
हे प्रभु, तुम सुन रहे हो न!!! बड़ा बेटा अभी बाजू के बिस्तर में गहरी नींद में है. चल, मुझे चुपचाप ले चल!!!!
(नोट: पिछली बार कुछ लोगों को लगा कि मैं अपनी डायरी का पन्ना दे रहा हूँ. एक स्पष्टीकरण देना चाहूँगा कि यह मेरी डायरी नहीं बल्कि अपने आस पास महसूस कर मैं एक बुजुर्ग को जीने का प्रयास कर रहा हूँ इन पन्नो के माध्यम से ताकि उन्हें मैं और आप बेहतर समझ सकें और उन्हें यथोचित मान सम्मान और समय देने का प्रयास करें.)
-------------------
चलो, अब मामला भारी सा हो लिया है तो एक नई रचना सुनो और खुश हो लो. डायरी उनकी, दर्द उनका..हमें क्या, हम ऐसे ही तो जीने के आदी हैं. तो फिर रचना हमारी-मुस्कान आपकी -की दरकार के साथ.
चुनाव का माहौल है तो उससे प्रभावित पहले कुछ शेर फिर कुछ चुलबुले भी, मूड ठीक करने को:
झूट की बैसाखियों पे, जिन्दगी कट जायेगी
मूँग दलते छातियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
तू दगा करता उन्हीं से, जो भी तेरा साथ दे
वार करते साथियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
सज गया संपर्क से तू, कितने ही सम्मान से
कागजी इन हाथियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
यूँ जमीं कब्जे में करके, दे गया तू मशविरा,
घर बसा लो नालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
कब गुजर संभव किसी की, इस कविता पाठ से,
मिल रही इन तालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
गाड़ देना मुझको ताकि अबके मैं हीरा बनूँ,
सज के उनकी बालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
-समीर लाल ’समीर’
-------------------
सूचना:
१. कल १० दिनों के कलकत्ता और सिक्किम के प्रवास पर जा रहा हूँ. कलकत्ता में शिव भाई दौड़ा भागी में लगे सब इन्तजाम कर रहे हैं और मीत भाई से भी मुलाकात तय है. वापसी ३१ मार्च की है.
२. १८ मार्च की संजय तिवारी ’संजू’ के संदेशा द्वारा प्रस्तुत श्री विजय शंकर चतुर्वेदी जी (आजाद लब) के सम्मान में आयोजित रात्रि भोज की रिपोर्ट में यह बात हमारे संजय साहब आराम से दबा गये कि मैने जबलपुर के सभी ब्लॉगर्स को न्यौता देने की जिम्मेदारी उन पर रख छोड़ी थी.
थोड़ी गल्ति मेरी थी कि सब कुछ तय शाम ५ बजे पाया गया और संजय तक सूचना पहुँचते ५.३० बज गया और सब ७.३० बजे एकत्रित हो लिए जिन को भी वो सूचित कर पाये. बहुतों तक इस सूचना के न पहुँच पाने का मुझे दुख है. आगे फिर किसी दिन जल्द ही कनाडा वापस लौटने के पहले. :)
84 टिप्पणियां:
आपके पिताजी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिये मंगलकामनायें! कलकत्ता प्रवास के किस्सों का इंतजार है! जबलपुरिये लफ़ड़े के बारे में हम कुछ न कहेंगे!
कविता सचमुच लाजवाब है जिन्दगी को आराम से सलटाने के कई कारगर आजमूदा नुस्खे आपने दे ही दिए हैं कोई भी 'नुस्खे ही नुस्खे ' कोई भी चुन लो के तर्ज पर इनसे लाभान्वित हो सकता है !
समीर साहेब!
भारत यात्रा की शुभ कामनाएं.
आपका ब्लॉग देखा. बहुत अच्छा लगा. कविता अपने जैसे शुष्क आदमी को तो समझती नहीं, लेकिन कहानिया अच्छी लगती हैं!
जबलपुर की बात की तो ध्यान आया, अपने डॉ रविन दास (नेत्र विशेषज्ञ ) भी ब्लॉगर हैं. सेवाग्राम मेडिकल कॉलेज में अपने से ३ साल सीनियर थे. http://ravindas.blogspot.com/
मुनीश
बहुत भावपूर्ण लेखन है .आपने सच कहा है .एक बुजुर्ग के जरिये समाज का अच्छा चित्रण है .पहले गंभीर किया और अंततः
झूट की बैसाखियों पे, जिन्दगी कट जायेगी
मूँग दलते छातियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
यह भी खूब रही .
हक़ीक़त से दूर लगी बात। बच्चे अपने स्टैटस के लिये भी इतना नहीं करते हैं। मां-बाप को नहीं देखते इस तरह बीमार होने पर भी अगर उनकी मंशा न केयर करने की हो तो। इस तरह बहुओं का आ-आकर देख जाना, बच्चों का अस्पताल में रहना...ये सब केयर ही दिखाता है।
थोड़े उलझे से लगे आप...कथा इस बार कुछ जमी नहीं। पिछला पन्ना कहीं मज़बूत था।
समीर भाई,
कितनी सच बयान करती डायरी लिखी है आपने - मन भर आया -
और राजनीति का यथार्थ भी बखूबी लिखा आपने - यात्रा वृताँत सचित्र लिखियेगा और कनाडा भी अब आपका इँतज़ार कर रहा है --
Have a safe trip
स्नेह,
- लावण्या
गुरुजी, डायरी काल्पनिक तो कतई नहीं लगती, शब्दश: सही लगती है,
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया आपने।
बहुत ही सुन्दर समीर जी. हम लोग यहाँ सीनियर सिटिज़न'स होम में जाकर कुछ वक्त गुजारने का प्रयास करते हैं. योजना तो बहुत बना राखी है जैसे उनके बौद्धिक क्षमताओं का दोहन आदि..आभार.
बुजुर्ग की डायरी का ये पन्ना सच मे कुछ भावुक कर गयी......ये जिन्दगी के कुछ अलग ही हिस्से और एकाकी को बयान करती है......आपको सिक्किम की यात्रा की शुभकामनाये..
Regards
समीर भाई साहब ....
\डायरी के पन्नों पर जिदगी और samaaj का सच बिखरा पड़ा है.....jahi तो जिंदगी है ...कविता भी सचमुच लाजवाब है...
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया आपने।
बहुत ही भावपूर्ण बुजुर्ग की डायरी है जो हुबहू अपने अपनी कलम से बड़ी सुन्दरता के साथ उकेरा है सचमुच आपकी पोस्ट पढ़कर लगता है कि लिखने में आपका कोई सानी नहीं है . पढ़कर सचमुच भावुक हो गया हूँ . बुजुर्गो को समुचित सम्मान दिया जाना चाहिए इससे पूर्णतया सहमत हूँ . आभार.
@ मानोशी
तुम्हारी टिप्पणी से स्पष्ट झलक रहा है कि इस तरह के कटु अनुभवों को तुमने दूर से भी नहीं देखा है. मेरी शुभकामनाऐं हमेशा तुम्हारे साथ हैं कि जीवन में कभी महसूस करना तो दूर, किसी और को इससे गुजरते भी न देखो और सदैव खुश रहते हुए एक बहुत सुन्दर समाज में रहो और उसे सुदृण बनाओ.
यह एकदम काल्पनिक नहीं है और अगर अहसासों तो पूरे समाज में फैला हुआ है. बिना प्रयास आस पास ऐसा अनुभव देखने मिल जायेगा. मैने तो बस शब्द दिये हैं, जिसने भोगा है वो तो इस स्थिति में भी नहीं रहता. मैने उसके मनोभावों को समझने का प्रयास किया है.
जिस तरह से समाज सेवा, ओल्ड एज होम्स में जाकर संभ्रांत वर्ग द्वारा दिये जाने वाला समय आदि एक स्टेटस सिंबल सा हुआ जा रहा है वैसे ही केयर गिविंग भी आजकल अक्सर दिखावे का ही एक अंग सा बन गया है बहुतेरी जगहों पर और अक्सर समाज में रहने की मजबूरी की वजह से भी. अपवाद और अतिश्योक्तियाँ भी हैं. वो भी अपने ही आसपास देखता हूँ.
अच्छा लगा तुमने ध्यान से पढ़ा और चिन्तन किया.
बहुत शुभकामनाऐं.
@ अनूप भाई
आपकी शुभकामनाओं से पिता जी का स्वास्थय एकदम बेहतर है.
निश्चित ही यात्रा वृतांत पेश किया जायेगा आपकी सेवा में.
यूँ जमीं कब्जे में करके, दे गया तू मशविरा,
घर बसा लो नालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
कब गुजर संभव किसी की, इस कविता पाठ से,
मिल रही इन तालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी
waah bahut badhiya.
ek bujrug ki dil ki marmasprashi baat,bahut pasand aayi,unhe pyar ki khushbu chahiye,hai na.
जब भी आप बुजुर्ग के मन की बात इस तरह करते हैं, मुझे अपने लेख "वृद्ध" ( जो दो सम्पन्न पुत्रों के पिता हैं) की याद आ जाती है!...
पिताजी को मेरा प्रणाम कहियेगा!
बहुत ही संवेदनापूर्ण प्रस्तुति.. कविता भी दमदार है.. आभार
'Ek Bujurg Ki Diary' ke maadhyam se kch katu sacchaiyon se rubaru kara rahe hain aap. Bharat yatra ki shubhkaamnayein.
नहीं समीर, कुछ अनुभव से ही कही है ये बात। मां बाप को इस तरह की केयर देना सिर्फ़ दिखावे के लिये संभव नहीं होता। बच्चे केयर करते ही नहीं हैं और when they dont care they dont care...they dont bother to take all the pain and stay in the hospital taking turns etc. Anyway, your posts are always quality posts, but this one kind of looked a bit fabricated...
hopefully you did not mind...
साधना भाभी और बच्चों को प्यार कहियेगा
सच के करीब है आपकी इस डायरी का पन्ना ..पढ़ के मन भारी हो गया .. कविता अच्छी लगी
बहुत शानदार पोस्ट है. बहुत भावुक कर देने वाली. क्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा.
कलकत्ते में आपका इंतजार है.
मन खराब हो गया है.. एक अजीब सी फिलिंग आ रही है.. कोशिश करूँगा ये कहानी ही रहे.. ग़ज़ल का आख़िरी शेर कमाल का है.. वैसे आजकल लोगो कि डायरीया बहुत आ रही है बाहर.. चक्कर क्या है?
एक और बात.. जगह तो दिल में होनी चाहिए पार्टियो में नही..
आपने सहज सन्देश दिया है ओर इस बात से सहमत हूँ की कुछ लोग सिर्फ समाज के भय से सेवा भी करते है..अपनी आँखों से देखा है....कई बार .बस ये निवेदन था कविता बाद में पोस्ट करते तो इस पोस्ट की गंभीरता बनी रहती
दोनों पन्ने अभी ही पढ़े हैं हमने ..एक बात कहूँ ..सोंचिये इस स्थितियों के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम ही होते हैं. हम ही यह शुष्कता अपने चारो और पैदा करतें हैं ..इन्सान को समय रहते सम्हल जाना चाहिए
बहुत खूब...
डायरी पढ़ी....
आपकी नयी रचना पढ़कर मजा आ गया....
है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
इमैजिनेशन के आधार पर लिखी गयी डायरी भी बहुत प्रभवी बन पडी है।
sikkim jaa rahey hain..to yumthang bhii zaruur ho ke aayiye..mun khush ho jayegaa..
बेहद संजीदा लेख और कविता लगता है जैसे ...कुछ सीख दे रही है
मीत
आजकल तो बच्चें माँ बाप का भी बटँवारा कर लेते है। कल ही एक परिवार के दर्द से मुलाकात करके आया हूँ। समझ नही आता कि ये रिश्तें इतने उलझे हुए क्यों रहते हैं। खैर किसी के भावों को आपने बहुत सुन्दर तरीके से कह दिया। और कविता भी बेहतरीन।
Diary ke panne behad bhawuk kar gaye...
kavita majedaar rahi...
apki achhi yatra ke liye shubhkaamnaye...
बहुत ही गहरी, संजीदा बात लिखी है समीर बही आज.........आंसू निकल नहीं पाते पर कुछ कतरे अंकों में निकलने लगे इसको पढ़ कर. लगा कहीं हम भी शामिल हैं इस स्थिति की लिए.आज की सामाजिक परिस्थिति, आधुनिकता की होड़, भोतिक सुखों की कामना में इंसान मशीन बन गया है, संवेदनहीन हो गया है.
कुछ ऐसे ही लेख, रुक कर कुछ पलके लिए सोचने पर मजबूर कर देते हैं......हमारी दोड़ की इन्तेहा क्या है.
आपकी रचना भी इतनी जोरदार है की आपके लेख के बाद मिश्रित हंसी भी आ गयी चेहरे पर
जब एकांकी जीवन जीना पड़ता है वो उसी तरह है जैसे पूरे २ साल एक अकेले कमरे में गुजरने जैसा .......बहुत दर्द होता है यूँ तो
sameer ji
kitni khoobsurat kavita likhi hai aapne ........shabd nahi hai ki tariif kar sakooN
really speechlees
yuN kaho ki..
laal ki kavita padho ye zindgii kat jayegii!
laal ko padhke haNsho ye zindgii kat jayegii!
sameer ji, hriday sparshi lekh, jo aaj kal ki paristhitiyon par sochne ke liye mazboor karta hai. aur kavita, apne aap men sampoorna rachna, wah bahut khoob. badhai
वर्तमान परिवेश में समाज के सच को दर्शाती, बेहद भावपूर्ण पोस्ट..........लेकिन कविता पूरी तरह से धांसू
अपने तो मान कर चलते है, एक दिन सिनियर सिटिजन बनना ही है...
पढ़ते -पढ़ते मन दुखी सा हो गया था पर ये भी एक सच ही है ।
अच्छा हुआ जो आपने नीचे मन को हल्का करने के लिए चुलबुले शेर लिख दिए थे ।
वरना तो .....
मेरी भी है यही तमन्ना,
दर्द उठे मेरे सीने में।
अस्पताल के कमरे में है,
बहुत मजा जीने में।
-----------------
मौसम ने करवट बदली है,
ली समीर ने अँगड़ाई।
कविता के उपवन-कानन की,
सब कलियाँ मुस्काई।
पू.पिताजी के स्वास्थ्य लाभ की मंगलकामनाएं. और कलकता के किस्सों का इन्तजार रहेगा. वैसे शिवजी मिश्रा हैं वहां. यकीनन आपको बडा आनन्द आयेगा.
बहुत शुभकामनाए आपके प्रवास के लिये.
रामराम.
बुजुर्ग की डायरी मार्मिक ही होगी और वह है भी . आपके पिताजी निश्चित स्वस्थ्य होंगे ऐसा मुझे विश्वास है . आपकी यात्रा मंगलमय हो लेकिन साली वाली बात शायद घरवाली को नाराज कर दे .
एक यह कमरा नम्बर ४११ के बुजुर्ग हैं और एक मेलवार्ड के बेड नम्बर ४११ का मेवालाल है जो डाक्टर से गिड़गिड़ा रहा है कि कुछ दिन और डिस्चार्ज न करें। घर जाने पर बहू खाना भी नहीं देती ठीक से और लड़का तो हफ्तों बात नहीं करता। पेंशन की रकम हथिया लेता है सो अलग! :(
sameer jee,
aap rulaate hansaate hameshaa hee hamaaare behad paas hote ho haan ye aandaaje bayan kuchh alag raha, jyaadaa padhaa .
समीर साहब, बड़ा कम होता है की लोग दर्द को शब्दों में उतारें आजकल। डायरी पढ़ के मन थोड़ा उदास हुआ और कविता पढ़ के थोडी उलझन। रचना भावनापूर्ण है और रचना से परे मेरी शुभकामनाएं आपके साथ आपके हितार्थ। मेरी तरफ़ से आपके लेख के सम्मान में ४ पंक्तियाँ स्वीकार करिए:
उम्मीद तो हजारों हैं इन आंसुओं के दौर में भी मेरे दोस्त
दिल भरा और जेब खाली हो तो क्या, ज़िन्दगी कट जायेगी।
महफ़िल में ता उम्र इंतज़ार ही तो किया है मुस्कुराते हुए
बेबस रात न कटने वाली हो तो भी ज़िन्दगी कट जायेगी।
अपनों के भरोसे तो ज़िन्दगी लगी है दांव पे कब से
अब तो दुश्मनों की गालिओं पे भी ज़िन्दगी कट जायेगी।
डॉयरी के पन्ने ना हो के भी उस जैसा अहसास दे गया ये आलेख !
ज़िन्दगी.. तो कट ही जायेगी...... भाई जी..
समीर जी, अब क्या कहे... जिन्दगी इसी का नाम है, कुछ बच्चे मजबुर होते है मां बाप की सेवा नही कर सकते, कुछ दिखावा करते है, कुछ सिर्फ़ लालच मै करते है, तो कुछ सच मै भी करते है.... लेकिन इन सब के पीछे कही ना कही गल्ती मां बाप की भी होती है,
आप के पिता जी के स्वास्थय के लिये शुभकामनाऎ
बहुत मार्मिक डायरी लिखी है आपने ... लगता है सच बयान कर दिया ... एक नहीं सभी बुजुर्गों की हालत यही हो गयी है आज ... बच्चे नहीं समझते कि वे भी बूढे होगे।
बुजुर्गों का दर्द बहुत करीब से देखा है मैंने! बात सही पर फिर भी पढ़कर मन उदास सा हो गया!इश्वर कभी जन्म देने वाले माता पिताओं को जीवन के आखिरी पड़ाव पर दुःख न दिखाए!
आपके लेख ने आने वाले भविष्य की जो रूप रेखा खींची है उसे पढ़ कर डर गया लेकिन आप की ग़ज़ल ने फिर से चेहरे पर मुस्कान लादी....आप यात्रा पर जाओ...खूब आनद करो...सिक्किम तो वैसे भी बहुत शानदार जगह है...उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वाश है की आने वाले समय में आप अपने ब्लॉग पर हमें सिक्किम की सैर कराये बिना मानेंगे नहीं. शिव से मिलो तो हमारा नमस्कार कहियेगा...मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा विश्वास है (ये तकिया कलाम नहीं है....सत्य है) की उस से मिल कर आप और कुछ भले ही हो जाएँ...निराश नहीं होंगे...
नीरज
यूँ जमीं कब्जे में करके, दे गया तू मशविरा,
घर बसा लो नालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
Mix vej ka maza aagaya ...
sare swaad ek hi gazal mein...
डायरी के पन्नॊ. में आज कल की हकीकत का चित्र आपने खींच दिया ।बुजुर्गों की सही स्थिति काचित्रण किया है। साथ ही -झूठ की बैसाखियों पे जिन्दगी कट जाऐगी ।
अच्छी रचना लगी ।
इससे यह सिद्ध होता है कि अनुभव के बल पर भी सच्चा साहित्य रचा जा सकता है।
बहुत ही संजीदा लेख.
आपको इन्दौर आने का भी भावभरा आमंत्रण है, याद है?
मै भी मानोशी जी की बात का कुछ हद तक समर्थन करता हूँ ! इस बार कुछ जमा नहीं, सच कहूँ ऐसे चित्रण को पढ़ने मै यहाँ नहीं आया हूँ, क्या करे, आपने हमारी उत्कंठाओं को बहुत बढा दिया हैं जिसके कारण हम इस चित्रण से संतुष्ट हो ही नहीं सकते...
थोड़े उलझे से लगे आप...। पिछला पन्ना वाकई बहुत बहुत बहुत धारदार था।
अनजानी गलती के क्षमाप्रार्थी हूँ...
दिलीप गौड़
एक और बात कहना चाहूँगा...
परम पूज्य पिताजी के स्वास्थ्य के लिए मंगल कामनाएं..
आपकी यात्रा मंगल मय हो...
दिलीप गौड़
सिक्किम एक बार फिर आपकी आँखों से देखने को मिलेगा ही अब तो... सिक्किम का नाम सुनते ही मन पुलकित हो जाता है. बड़ी शानदार जगह है. यात्रा के लिए शुभकामनायें.
बहुत सही लगी ये डायरी । सच इस भागदौड भरी जिंदगी में भी जब बच्चों को सेवा करते पाते हैं तो लगता है यह समय यहीं ठहर जाये । वरना तो एकला चलो रे तो है ही । आपकी होली की कविताएं एकदम झकास !
बहुत सही लगी ये डायरी । सच इस भागदौड भरी जिंदगी में भी जब बच्चों को सेवा करते पाते हैं तो लगता है यह समय यहीं ठहर जाये । वरना तो एकला चलो रे तो है ही । आपकी होली की कविताएं एकदम झकास !
समीर जी,
सादर, कहना चाहूंगा कि डायरी पृष्ठों ने आँखें नम कर दी. बस अब यही सोचता हूँ हम क्यों एक न्यूक्लियर फैमिली बनने देते हैं. यहाँ मुझे कस्बाई संस्कृति बड़ी भली लगती है जिसमें पूरे मुहल्ले के पास सभी के लिये वक्त रहता है. किसीको एकाकीपन छू भी नही सकता.
जहाँ तक बात रही शेरों की तो पोष्ट के अंत में गुदगुदा जाते हैं.विशेषकर :-
" है अगर बीबी खफा तो फिक्र की क्या बात है
कर भरोसा सालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी. "
हाँ यह बात दीगर है कि कोई सालियों से नही पूछ्ता कि बात उनकी पसंद की है भी या नही.
मुकेश कुमार तिवारी
पिछला पन्ना भी पढा था और यह भी पढ़ चुके हैं... कुछ महीनों से भारत में रह कर अपने आस पास के बुर्जुगों का अनुभव पाकर मन ही मन छटपटा कर रह जाते हैं...थोड़ा सा वक्त..थोड़ा सा ख्याल उनके झुर्रीदार चेहरे में गुम होती मुस्कान को फिर से ज़िन्दा कर देता है..
समीर साहेब!
आपकी भारत यात्रा मंगलमय हो .
आपने एक बुजुर्ग की व्यथा को बखूबी लिखा है , पर यह भी तो सच ही है न की हम अपनी हालत के लिए खुद जिम्मेदार होते हैं
और आपकी कविता बहुत अच्छी है समीर जी पढ़ कर मन प्रसंचित हो उठा .....
बहुत बढ़िया आपके चिठ्ठे की चर्चा समयचक्र में आज . आपके पिताजी के शीघ्र स्वास्थ्य लाभ के लिये मंगलकामनायें
एक बुजुर्ग की पीड़ा को इतने कौशल से प्रकट करने के लिए साधुवाद. लेखनी में दम है.
ये गलत करते हो सरकार आप....मन जब उन पीले पन्नों के हरे हर्फ़ों में डूबा रहना चाहता था तो चहक कर यूं ग़ज़ल सुना दी कि अज़ब सा "रिमिक्स" वाला झमेला हो गया है
इमोशनल अत्याचार-जैसा ही कुछ
डायरी के कुछ शब्दों ने एक अपराध-भाव सा कुछ उभारा तो गज़ल के आखिरी शेर ने करोड़ो बार वाह-वाह निकलवाया है....
गाड़ देना मुझको ताकि अबके मैं हीरा बनूँ,
सज के उनकी बालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
हम ख़ुद भी आजकल इसी फ़िराक में हैं जी। ज़िंदगी काटने के ।
बहुत संजीदा किस्म की पोस्ट । न जाने कैसा कैसा लगने लगा । डल टाइप की चमक आ गई लाइफ़ में।
sameer ji
कब गुजर संभव किसी की, इस कविता पाठ से,
मिल रही इन तालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
bahut khoob kaha. badhaai ho.
बहुत भावपूर्ण डायरी...
कविता भी बहुत सुंदर...
आपकी यात्रा सुखद हो...
जो भी कहो साहब हमें आपकी कविता कुछ ज्यादा ही झक्कास लगी मजा आ गया इस कविता में तो बेहतरीन उपलब्धि है जी
nahi..satyata se bahut door to nahi lagi mujhe ye post....! kitni baar to hota hai apne irda girda...! kitni baar nahi bhi hota, ki samaaj ke hi dar se hi shai koi apne bujurgo.n ki sewa kare. lekin bahut baar hota hai, ki apni rapo maintenance me bujurgo.n ko aise hi kisi samay me apnatva mil jaat hai...!
Diary aap ki hai, aisa is liye bhi nahi laga kyo ki chhoti bahu to abhi aayi nahi hai aap ki.
jis ka bhi darda hai apne apne dil se mahsoos kiya hai
is smvedanshilta ko kya kahu.n
कब गुजर संभव किसी की, इस कविता पाठ से,
मिल रही इन तालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
गाड़ देना मुझको ताकि अबके मैं हीरा बनूँ,
सज के उनकी बालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
लालाजी,
क्या बात है !!! हर समय की तरह बेहतरीन एवं दिल को छू लेने वाला लेखन....हार्दिक बधाई
रीतेश गुप्ता
जल्दी से ठीक हो जाओ, वापिस आओ, अशुभ बातें क्यूँ करते हो॥
परिवार व्यस्त होता है लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि उनको आपकी ज़रूरत नहीं.... और हम सब तो आपके लिए कुछ हैं नहीं, क्यूँ?
दो अलग रंग में मिली आज की पोस्ट.
diary के पन्ने जहाँ आँखें नाम कर गए.
-वहीँ उसी समय कविता पढने को मन नहीं किया..बाद में कविता पढ़ी.जो अपने अलग रंग में मस्त कविता है.
कब गुजर संभव किसी की, इस कविता पाठ से,
मिल रही इन तालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
-कलकत्ता और सिक्किम प्रवास के लिए ढेरों शुभकामनायें.
बहुत भावपूर्ण और वर्त्तमान परिवेश के सही चित्रण का दमदार लेखन है .एक बुजुर्ग के जरिये हमारे जर्जर होते समाज का अच्छा चित्रण है .
झूट की बैसाखियों पे, जिन्दगी कट जायेगी
मूँग दलते छातियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
पढ़ कर लगा कि इसी झूठ का ही तो दंश कालांतर में आपके लेख की तरह बुजुर्ग होने पर झेलना पड़ता है.
... जिन्दगी इसी का नाम है, कुछ बच्चे मजबुर होते है मां बाप की सेवा नही कर सकते, कुछ दिखावा करते है, कुछ सिर्फ़ लालच मै करते है, .... लेकिन इन सब के पीछे कही ना कही गल्ती मां बाप की ही होती है, जो संस्कार के नाम पर बच्चों को सिवाय झूठ, फरेब, दिखावे के और कुछ दे ही नहीं पाते.
चन्द्र मोहन गुप्त
sameer bhai
thanks you admired to bring some typical side
diary from other person found interesting to you
& now to we all
मुझे लगता है पोस्ट सामग्री दो पोस्टों में विभक्त रहती तो बड़ा अच्छा रहता....
गंभीर चिंतन की गहराई में डूबे कुछ देर वहीँ बैठने को हुए कि, आपने गुदगुदी लगाकर हंसा दिया.......
दोनों रंग लाजवाब......
बहुत भावुक और कटु सत्य लिखा है आपने सर. पढ़ कर दिल भर आया. और कवितायेँ बहुत लाज़बाब...आभार..
अस्पताल में पड़े बुजुर्ग के शीघ्र स्वास्थय के लिये कामनायें क्या हुआ जो डायरी के पन्ने से है। दूसरे बुजुर्ग को कलकत्ता और सिक्कम जा रहा है अच्छे सफर की शुभकामनायें।
माहौल शानदार तरीके से हल्का किया।
Not done, this is very teasing. The first one made me speechless and immediately after the poem freshen up. Both are beautiful craftings.
बुजुर्गों की भावनाओं को समझने के लिए गहरी संवेदना की जरूरत होती है। आपकी पोस्ट हमारी संवेदना को जागृत करनेवाली है। और कविता तो सुंदर है ही।
आपकी कल्पना हकीकत से भी ज्यादा मार्मिक है।
----------
तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
नव संवत्सर २०६६ विक्रमी और नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनायें
log aisa kyun samjh baithe ki ye apki apni kahani hai?
सबसे पहले माफ़ी चाहूँगा आप के ब्लॉग पर लेट से आने के लिय ब्लॉग पढ़ कर लगा कि मैने आज तक क्या मिस किया.
diary ke panne .....bahut hi bhavpradhan ..
kavita bhi sundar lagi ..
Udan Tashtari said...
वाह वाह!!
बहुत खूब!! :)
विजय दशमी पर्व की बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाऐं.
yah tippani manoriya ji ke blog par dikhi ......
vijay dashmi ka parv october men padata hai ......
सबसे पहले माफ़ी चाहूँगा आप के ब्लॉग पर लेट से आने के लिय ब्लॉग पढ़ कर लगा कि मैने आज तक क्या मिस किया.
पहले डायरी के पन्नो का दर्द और फ़िर गुद गुदाह्ट !
गाड़ देना मुझको ताकि अबके मैं हीरा बनूँ,
सज के उनकी बालियों पे, जिन्दगी कट जायेगी.
पहले दर्द हुआ
फिर हँसी आई
आप भी समीर भाई
एक टिप्पणी भेजें