मैं अपने पद प्रतिष्ठा के नशे में चूर, अपने मातहतों से तारीफ सुनता और अपने अधिकारियों से तारीफ पाने की लालसा में १० से १२ घंटे दफ्तर में गुजार लेने के बाद भी फाईलों से लदा घर पहुँचता और रात देर गये तक उनमें खोया रहता. याद है मुझे कि जब मैं सोने की तैयारी करता, तब तक घर में तो क्या शायद पूरे मोहल्ले में ही सब लोग सो चुके होते.
देर सुबह जब नींद खुलती तो बच्चे स्कूल जा चुके होते. पत्नी घरेलु कार्यों में और मेरे ऑफिस जाने के लिए तैयारियों में जुटी होती. मैं उठते ही चाय की प्याली के साथ अखबार में खो जाता और फिर फटाफट नहा धोकर नाश्ता करके दफ्तर के लिए रवाना. लंच भी चपरासी भेज कर दफ्तर ही में ही मंगवा लेता. न कभी रविवार देखा, न कोई छुट्टी. बस, काम काम काम और आगे बढ़ते जाने का अरमान.
मैं अपनी इस मुहिम में काफी हद तक सफल भी रहा और एक सम्मानीय ओहदे तक आकर रिटायर हुआ.
पता ही नहीं चला या बेहतर यह कहना होगा ध्यान ही नहीं दिया कि बच्चे कैसे पढ लिख गये और कब देखते देखते स्कूल पास कर कॉलेज मे पहुँच गये. कभी कभार बात चीत हो जाती. साधारणतः ऐसे मुद्दे कि इन्जिनियरिंग करना है कि डॉक्टरी. मगर बहुत सूक्ष्म चर्चा. सब यंत्रवत होता गया मेरी नजरों में. मगर इसके पीछे पत्नी का क्या योगदान रहा, क्या त्याग रहा, कितनी मेहनत रही-वह न तो मैने उस वक्त देखी और न जानने का प्रयास किया. मेरे लिए मेरा केरियर और मेरा दफ्तर. मेरी पूछ परख, मेरा जयकारा-बस, यही मानो मेरी दुनिया थी.
ऐसा नहीं कि बच्चों और पत्नी को बिल्कुल भी समय नहीं दिया किन्तु जो दिया वह आपेक्षित से बहुत थोड़ा था. पढ़ाई की किसी भी समस्या के लिए उन्हें ट्य़ूटर के पास भेजने से लेकर अन्य जरुरतों के लिए ड्राइवर और पत्नी के साथ भेज अपने कर्तव्यों की इतिश्री मान ली. बच्चे अपने पिता से समय चाहते थे और पत्नी अपने पति से. वो बैठकर गप्प करना चाहते थे. मेरे किस्से सुनना चाहते थे जो वो दूसरों से मेरी तारीफों में सुना करते थे और मेरे पास समय न था.
अपनी उपलब्धियों के तहत एक घर बनवा दिया था. जितने रहने वाले घर में, उससे भी एक अधिक कमरा मेहमानों के वास्ते. कुछ उपर और कुछ नीचे. तब सोचता था कि एक कमरा और बनवा लूँ जिसमें मेरा स्टडी रुम हो. बस मैं, मेरी फाईलें, किताबें और अखबार. कोई व्यवधान न आये.
सरकारी गाड़ी के अलावा एक कार खुद की भी. कुछ बैंक में पैसा और यह सब जमा करते करते एक दिन पाया कि सारे कमरे अब खाली रहते हैं. बच्चे अपनी अपनी दिशा में चले गये हैं नौकरियों पर. बिटिया अपने पति संग और उस बड़े घर के एक कमरे में रिटायर्ड मैं और मेरे साथ मेरी पत्नी.
अभी रिटायर्ड हुए ज्यादा दिन न बीते थे. आदतें वही पुरानी मगर अब कोई काम न था तो सारा सारा दिन अखबार, टीवी और किताबें और शाम को मित्रों और रिश्तेदारों के यहाँ मेल मुलाकात. यह मेल मुलाकात पत्नी के साथ ज्यादा समय बीतने का बहाना भी बन गया वरना तो उसके लिए मेरे पास अब भी सीमित वक्त ही था.
हमारा अपना कमरा छोड़ कर अब सारे कमरे मेहमानों के हो गये और आने वाला कोई नहीं. बच्चे यदा कदा अपनी सहूलियत और छुट्टियों में मय परिवार आते. कुछ दिन मेहमानों से रहते और निकल जाते. एक अघोषित सा कमरों का आवंटन भी था कि ये बड़े का, ये छोटे का और उसी अनुरुप इनके सामान भी उसमें रहते.
कभी कभी बच्चों के पास जाना भी होता किन्तु पहला दिन छोड़ ये पत्नी के साथ अधिक समय बिताना ही साबित होता. बच्चे अपनी दिनचर्या में व्यस्त होते.
जल्द ही हम अपने घरौंदे में वापस आ जाते और मैं अखबार किताबों में एवं पत्नी घर काज अड़ोस पड़ोस रिश्ते नातों में डूब जाती.
एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी. सब इक्कठे हुए थे और देखते देखते वापस हो लिए. उस पूरे घर में बच रहा तो अकेला मैं. बच्चे साथ ले जाना चाहते थे मगर मैं ही कुछ समय खुद के लिए चाहता था सो न गया.
खाली घर. ढ़ेरों कमरे. माँ न रही तो उनका सामान कौन देखेगा, ये सोच बच्चे अपने अपने कमरों में ताला लगा गये थे. हालांकि चाबी मेरे पास ही थी पर न जाने क्यूँ कभी हिम्मत न जुटा पाया कि खोल कर देखूँ क्या है उन कमरों में. क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता.
मैं अब भी कभी बच्चों के पास जाता हूँ, पहले से ज्यादा ख्याल रखते हैं पर मुझे वहाँ बस एक मेहमान होने का अहसास होता है. न जाने क्यूँ, मैं कभी भी उनके घर को, उनके सामानों को उस अधिकार से नहीं देख पाया जिस तरह से उन्हों ने मेरे घर को या मेरे सामानों को देखा था या इस्तेमाल किया था. क्या यह एक दिशाई धारा है? क्या उन्हें भी भविष्य में अपने बच्चों के साथ यही अहसास होगा या पहले मेरे गई पुश्तों ने भी यह अहसासा होगा.
बच्चे घर पर आते भी हैं. कुछ देर बातें भी होती हैं. फिर वो अपने पुराने दोस्तों में मशगूल या अपने कमरे में बंद, कुछ फुसफुसाते हुए से अपनी पत्नियों के साथ. खाने के टेबल या शाम को साथ बैठ भी जाते हैं. मगर बहुत सीमित समय के लिए. उनके प्रवास के दौरान, खाना क्या बनना है आदि उनकी पसंद पर ही होता है और न जाने क्यूँ, कभी मुझे इन्तजार भी लग जाता है कि ये जायें तो मैं अपनी पसंद से कुछ बनवाऊँ.
मैं उनसे बात करना चाहता हूँ. अब मेरे पास समय ही समय है. मेरे पास ढ़ेरों किस्से हैं. कितने अनुभवों से मैं गुजरा हूँ. मैने क्या गलत किया और क्या सही-सब जान चुका हूँ मगर अब उनके पास सुनने को समय नहीं. मेरे किस्से उन्हें बोर करते हैं. हैं भी आऊट ऑफ डेट तो रोचक कैसे लगें. बस, मजबूरीवश अगर कुछ सुन लें तो बहुत हुआ वो भी बिना चेहरे पर कोई भाव लाए ताकि मैं अपना किस्सा जल्दी बन्द करुँ और वो अपने दोस्तों, पत्नी और बच्चों के बीच समय बितायें. अनुभव तो है इसलिए मैं समझ जाता हूँ. कई बार भूल जाने का बहाना कर बड़ा किस्सा बीच में बंद किया है मैने उनके चेहरे के भाव को समझते हुए.
आज खाली कमरे हैं. चाहूँ जहाँ स्टडी बना लूँ, कोई व्यवधान डालने वाला भी नहीं पर न जाने क्यूँ, अब पढ़ने लिखने से भी जी उचाट हो गया है. आखिरी नॉवेल दो साल पहले पढ़ी थी. इधर तो अखबार भी जैसा आता है, वैसा ही लिपटा दो तीन महिने में रद्दी में बिक जाता है. सोचता हूँ क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है.
आज भी इस कथा को यहीं रोक देता हूँ-आभास हो रहा है कि आपके चेहरे पर इसे पढ़ते वो ही भाव हैं जो मेरे बच्चों के चेहरे पर अपने किस्से सुनाते हुए मैं देखता हूँ.
बाकी पन्ने फिर कभी...या अभी के लिए ये मान लें कि मैं उन्हें भूल गया हूँ.
बस इतना जानता हूँ कि भले ही वक्त के थपेड़े खाकर मेरी डायरी के ये पन्ने पीले पड़ जायेंगे लेकिन इसमे दर्ज एक एक हर्फ हरदम हरा रहेगा- शायद किसी और बुजुर्ग की व्यथा कथा कहता.
154 टिप्पणियां:
इस संजीदगी को केवल महसूस कर सकता हूं. इतनी जल्दी इस पर कुछ भी टिप्पणी नहीं दे सकता.
इसे कहते हैं पोयटिक जस्टिस! बहुत गम्भीर लिख मारा!
अभी इस उम्र से बाबस्ता नहीं हुआ पर इस पीढ़ा को देखा सुना है, बहुत पास से, इस कारण समझा सकते हैं। संवेदना चाहिए..........
बहुत ही भावनाओं और संवेदनाओं से भरपूर है । आपके पास अच्छी कल्पनाशक्ति और सवेदनशील हृदय जरूर है इसीलिए यह शब्द आपकी कलम से बह निकले । आज सुबह की चाय को आपने और स्वादिष्ट बना दिया ।जैसे सूरदास ने कभी देखा नही लेकिन नेत्रवालों से अच्छा लिखा वैसा ही कुछ आप भी करने में सफल रहे है । एक अच्छी रचना हम लोंगो को चिंतन हेतु प्रदान करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद .
सुशील दीक्षित
अभी आपकी इतनी उमर नही हुई की आप बुजुर्गो की डायरी पर इतना ध्यान दे .{मजाक]
अब पछताय का होत है जब चिडिया चुग गई खेत
समकालीन सामाजिक सचाई इतने मार्मिक और प्रभावपूर्ण ढंग से उकेरी है आपने समीर जी कि आपकी लेखन कला पर बार बार हजार बार बलि जाऊं ! क्या धाँसू लिखते हैं आप !
सेटेलाइट हुए किसी भी आधुनिक,प्रगतिशील कहे जानें वाले परिवार के वरिष्ठतम पुरुष की आम होती जारही कथा-व्यथा। परिवार के शिखर पर विराजमान शाश्वत सत्य की तरह एकाकी-मानों कह रहा हो ‘एकोहमद्वितीयोनास्ति’। सुंदर।
भविष्य की तस्वीर दिखा गई आपकी पोस्ट. बधाई.
क्या बात हुई समीर?, संजीदा लिख रहे है? इन्हें भी आपका लिखा सुना रही थी। बधाई हमारी तरफ़ से, इतना अच्छा लिखने के लिये।
जीवन की सच्चाई को अच्छी तरह से उतारा है आपने अपने शब्द चित्र में!
ये जीवन है, इस जीवन का, यही है, यही है, यही है रंगरूप.....
बहुत बढ़िया साहब, यह परिचय तो यादगार रहेगा
---आपका हार्दिक स्वागत है
चाँद, बादल और शाम
बहुत कुछ सोचने पर मजबूर करती ये लेखनी!
सादर नमन
"भले ही वक्त के थपेड़े खाकर मेरी डायरी के ये पन्ने पीले पड़ जायेंगे लेकिन इसमे दर्ज एक एक हर्फ हरदम हरा रहेगा- शायद किसी और बुजुर्ग की व्यथा कथा कहता".
इन पंक्तियों ने अकाट्य सत्य बयाँ कर दिया और दिल को छू लिया।
महाकवि गोपालदास नीरज जी का गीत याद आ गया जो मैं गाया करता हूँ अपने रियाज़ के दौरान--
मैंने तो सोचा था अपनी सारी उम्र तुझे दे दूँगा,
इतनी दूर मगर थी मंज़िल, चलते चलते शाम हो गई।
एक आलातरीन संजीदा पोस्ट।
समीर भाई साहब ....
बहुत गंभीर लेख है ...इसे कवल महसूस किया जा सकता है....टिप्पणी नही.....
एक दम यथार्थ और आम कहानी है। इस में घुटनों का काम करना बंद करना। चलने फिरने की लाचारी। अकेले असहाय रहने की विवशता। ये सब छूट गया। वरना व्यक्ति अपने लिए स्वर्ग का निर्माण करते करते वास्तव में नर्क का निर्माण कर बैठता है जीवन के अंतिम कालांश के लिए।
बहुत गंभीर बहुत रोचक
ओफ़ ओ! कहीं मेरी डायरी के पन्ने भी ऐसा ही न बयान करने लगें। अभी सम्हलना चाहिए।
...लेकिन इसमें क्या बदलाव किया जाये? कुच समझ में नहीं आता। जिन्दगी में बहुत कुछ नियत हो चुका है जिसे बदलना बहुत कठिन है।
apne liye bhee insan ko vakt nikalana chahiye,varna vakt hath se nikal jata hai. narayan naraayn
बड़ा सवेंदनशील लिख दिया, महाराज. एक पूरा जीवन आँखें के सामने से हो कर गुजर गया. और आशंकाएं भी छोड़ गया.
एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी.
" एक ऐसे जीवन के पल की सच्चाई जो हर किसी की जिन्दगी मे आना ही आना है....एक ऐसा सच जिसे हम जानते हुए भी अनदेखा कर देते हैं.....एक एक शब्द अपनी कहानी कहता हुआ सा लगा..भावनाओं और संवेदनाओं का एक अनोखा चित्रण..."
Regards
अभी मैं उम्र के उस पड़ाव पर हू.. जहा इस डाय री के पन्नो में फेर बदल कर सकता हू.. अच्छा हुआ आपने डाय री के ये पन्ने यहा पढ़वा दिए.. ये अनुभव किसी ना किसी के काम ज़रूर आएगा..
भविष्य को दर्शाता एक गंभीर लेख .सच है इस में ..झूठ कुछ नही ..अच्छा लगा यह
बड़ा सवेंदनशील......
sahi men sochne laayak hai.....ham bhi nahi chaaenge ki hamaari diary ke panne aise ho...
बहुत ही मार्मिक कठोर यथार्थ।
समीर जी,
यह पोस्ट तो दिल को छु गई.. बहुतों को पढाउगां..
ये एक इतनी भावपूर्ण डायरी है कि सोचने पर मज़बूर कर देती है, जीवन में अकेलापन किस कदर इंसान को कचोटता है, किन-किन बातों को याद करके दुखी होता है उस दर्द, उस पीड़ा को हम महसूस कर सकते हैं अपने बुजुर्गों को देखकर, आपकी इस डायरी को पढ़कर। पर मैं सोच रही हूँ उन बुजुर्गों की पीड़ा को जिसका अहसास आपने कराया, कि कितना दर्द सहते हैं हमारे बुजुर्ग जिनको हम इगनोर करते हैं। काश डायरी वाले बुजुर्ग भी उस वक्त अपने परिवार को समय दे पाते तो शायद आज़ इतना अकेलापन और पश्चाताप महसूस ना करते...
Ek shashwat yatharth.......jo anvarat tha,hai aur rahega.....jabtak ki koi chetkar iske liye pahle hi satark na ho jaye.
भई, कोई कुछ कहे,
समीर लाल ठहरे समीर लाल ।
यह यादगर पोस्ट पृष्ठांकित किया जा रहा है, वाकई में !
देख तो हर कोई रहा है, पर आपने बखूबी उकेरा है ।
कहीं कहीं तो डर की सिहरन पैदा करने में आप सफल रहे हैं, समीर भाई ।
इस व्यथाकथा पर, भई वाह कहने का मन भी नहीं हो रहा है, क्षमा करें !
भावनात्मक एवं संवेदनाओं से परिपूर्ण अभिव्यक्ति.......
आपने तो बहुत कुछ सोचने को विवश कर डाला.
एक ऐसी हकीकत जिसे नकारा नही जा सकता ।
बल बल जाऊं तोरे रंगरेजवा
अपने रंग रंग दीनी री मोसे.....
आप इतना हास्य लिखते लिखते एक दिन अचानक कुछ महागंभीर लिख जाते हैं....
सच...सार्थक....सुंदर
बधाई
भावनाओं और संवेदनाओ से भरी यह डायरी का यह अंश एक बार में पढ गया। फिर खत्म होने पर दुबारा से पढा। फिर पता नही क्या क्या सोचने लगा कुछ देर के लिए। अभी कमेट देते वक्त भी उन्ही भावनाओ और संवदेनाओ में उलझा हुआ हूँ। खैर सच यही है कि य्ह पोस्ट दिल को छू गई।
महानगरों की सच्चाई, जो धीरे धीरे छोटे शहरों को अभी अपने चपेट में ले रही है|
Bahut hi bhaavpurn aur samvedansheel....
समय बड़ा बलवान!
समीर जी यह वो सच्चई है, जो हम सब के साथ घटे गी....लेकिन यही प्रकति है, जेसे पक्षी बदॆ हो कर अपना नीड अपनी दिशा खुद बना लेते है.... एक तरफ़ हम चाहते है बच्चे खुब पढे लिखे, खुब उन्नति करे....
समीर जी आप ने तो डरा दिया.
धन्यवाद
अनूप जी से सहमत हूँ, वाकई बहुत गंभीर और संवेदनशील लिख मारा है - कई मायनों में जीवन की सच्चाई भी है क्योंकि मैंने ऐसा होता देखा और महसूस किया है अपने आसपास।
फिर भी कुछ और क्या कहें, नहीं समझता कि इस पर कुछ कहने के लिए फिलहाल मैं क्वालिफाईड हूँ!!
लगता है समीर जी अपना भविष्य देख रहे हैं. चिंता की कोई बात नहीं. ये ससुरा ब्लॉग्गिंग तो काम आएगा!.समीर जी हम अरविंद जी का समर्थन करते हैं. उन्होने जो लिखा वही हमारा भी माने. आभार.
एक बेवसी भरी पोस्ट. यथार्थ ... !
ऐसी न जाने कितनी डायरिया मिल जाएँगी
जीवन-यात्रा का सच बयान करती........बहुत अच्छा लगा इसे पढना
"क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है."
"बस इतना जानता हूँ कि भले ही वक्त के थपेड़े खाकर मेरी डायरी के ये पन्ने पीले पड़ जायेंगे लेकिन इसमे दर्ज एक एक हर्फ हरदम हरा रहेगा- शायद किसी और बुजुर्ग की व्यथा कथा कहता".
ऐसा अहसास ...बुढापे पे नसीब होता है . एक यथार्थ कथा व्यथा अभिव्यक्ति और गहरी सोच . .... बहुत ही लाजबाब शानदार पोस्ट .
पीले पन्ने के जो हरे हर्फ़ हैं उनका सच ब -खूबी व्यक्त हुआ है. अधिकतर आदमी के साथ होता यह है कि वह वर्तमान में नही रहता या तो भविष्य में रहते है या अतीत मे . अगर वर्तमान में रहे भी तो अपने आप में इस कदर खोये रहते हैं कि पास कि ख़बर नही रहती . बाद में जीवन कि साँझ में जब सब कुछ खाली हो जाता है तो उनको अहसास होता है. पर वे उस समय अहसास के अलावा कुछ नही कर सकते है. आपने जो लाइन लिखी है कि पत्नी मे आत्म विश्वास आत्म सम्मान अहसास सबकुछ ले गई या शायद वही ये सब कुछ थी. बिल्कुल सही है. अधिकतर लोग तो पत्नी क जाने क बाद ही समझते है उसकी अहमियत पर तब तक देर हो चुकी होती है. बरहाल आशा है कि इस पोस्ट को पढने क बाद तेज़ भागते लोग ठहर कर सोचेंगे.
मुनव्वर रना जी की एक गजल है समीर साहब .शायद वाही बानगी लिए हुए .......
दुनिया तेरी रौनक़ से मैं अब ऊब रहा हूँ
तू चाँद मुझे कहती थी मैं डूब रहा हूँ
अब कोई शनासा भी दिखाई नहीं देता
बरसों मैं इसी शहर का महबूब रहा हूँ
मैं ख़्वाब नहीं आपकी आँखों की तरह था
मैं आपका लहजा नहीं अस्लोब रहा हूँ
इस शहर के पत्थर भी गवाही मेरी देंगे
सहरा भी बता देगा कि मजज़ूब रहा हूँ
रुसवाई मेरे नाम से मंसूब रही है
मैं ख़ुद कहाँ रुसवाई से मंसूब रहा हूँ
दुनिया मुझे साहिल से खड़ी देख रही है
मैं एक जज़ीरे की तरह डूब रहा हूँ
सच्चाई तो ये है कि तेरे क़रयए दिल में
ऐसा भी ज़माना था कि मैं ख़ूब रहा हूँ
शोहरत मुझे मिलती है तो चुपचाप खड़ी रह
रुसवाई मैं तुझसे भी तो मंसूब रहा हूँ
i was at my wits' end after reading this piece . but what r u doing thre i a foreignland then u have so muchtime and others dont have so give them ur preciuos time . wheredo u live nowadays ??? us??/ CHANGE as us got shnged????? what u say....
kya abto blog swami bhi ho gaye...........
न जाने क्यूँ, मैं कभी भी उनके घर को, उनके सामानों को उस अधिकार से नहीं देख पाया जिस तरह से उन्हों ने मेरे घर को या मेरे सामानों को देखा था या इस्तेमाल किया था....bhaavnaayen aur shabdon kaa upyog behtar huaa hai ...badhai
sameer भाई
जैसे जैसे padhta गया लगा भविष्य को vartmaan में jhel रहा हूँ, प्रवाह में अपने जैसे कई लोगों की tasweer guzar गयी आंखों के सामने से. पर शायद ये समय की गति है और sub को ऐसे ही चलना है, yen ken सब इस dour से guzrenge. शायद अभी से इस के बारे में नही सोचा to बहुत देर हो जायेगी
आइना दिखा गए आप.
सब को अपना वर्तमान और चाहें तो भविष्य दिख सकता है.
शैली लाजवाव .
सादर
bahut khub........
वैसे तो आपके चिट्ठों को हम मुस्कुराते-मुस्कुराते पढते हैं।
आज पढ़ते पढ़ते आँखों में आँसू आ गए।
इससे पहले कि हर बुजुर्ग की डायरी में यही लिखा हुआ मिले, कुछ करना चाहिए.
क्या कहूं और?
गंभीर ,रोचक और सवेंदनशील लेख
खाली घर. ढ़ेरों कमरे. माँ न रही तो उनका सामान कौन देखेगा, ये सोच बच्चे अपने अपने कमरों में ताला लगा गये थे. हालांकि चाबी मेरे पास ही थी पर न जाने क्यूँ कभी हिम्मत न जुटा पाया कि खोल कर देखूँ क्या है उन कमरों में. क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी.
-बेहद मर्म स्पर्शी दास्ताँ...दिल भर आया.
हर कोई डरता है ,भविष्य में ऐसा कुछ न हो हमारे साथ भी-
मानसिक रूप से हर स्थिति के लिए तैयार रहना चाहिये..
अकेलापन हर उम्र में vyakti ko तोड़ देता है.
.
समीरजी अभी तक तो मैं यही सोचती थी की आप क्या खूब हंसाते हैं. आज समझ आया, आप तो खूब डराते भी हैं. आपने उस सच्चाई से रूबरू करा दिया, जिसे हम ख़ुद उस अवस्था में पहुँचने से पहले महसूस भी नहीं करना चाहते.
मैं अभी एक सज्जन से मिल कर आ रहा हूं। हू-ब-हू यही दशा। मेरी पत्नी और मैं यही चर्चा करते रहे कि हमारी यह दशा न आये, उसके लिये क्या किया जाये!
बहुत सशक्त लेख!
नजीर अकबराबादी की लिखी एक कविता है--
क्या कहर है यारों जिसे आ जाए बुढापा,
और ऐश जवानी के तई खाए बुढापा,
इशरत को मिला ख़ाक में गम लाये बुढापा,
हर काम को हर बात को तरसाए बुढापा,
हर चीज़ को बुरा होता है हाय! बुढापा,
आशिक को तो अल्लाह ! न दिखलाये बुढापा.
:(
Kya likha hai sameer ji.. Samvedna se bahra hua ek ek shabd aankho ko nam sa karta hua.....
bahut hi sanjeeda lekhan... sach kabhi ham vaqta ko thokar maarte chalate hai aur kabhi vaqta hamko....!
पहली बार आपने भविष्य का आईना दिखाया। ऐसा आईना जिसके विषय में सोचने से भी डर लगता है...डरता तो आदमी मौत से है लेकिन जो सच है वह बस पीले पन्ने हैं जो हमेशा हरे रहते हैं चंद कद्रदानों के इंतजार में।
dil ko chu liya har alfaz ne,sundar marmik lekh.
गंभीर एवं यथार्थ। जमीन की बात जमीन पर। उत्कृष्ट लेखन। नमस्कार।
पहली बार आप की पोस्ट को पढ़ कर मन में उदासी छाई है...आप ने जो लिखा है वो शत प्रतिशत सही है...साधुवाद आपको...वाह.
नीरज
क्या करूँ असमंजस में हूँ इससे सिख लूँ या फ़िर उसी रस्ते पे चलता रहूँ जिस पे हूँ ...समझ नही प् रहा ..
बहोत ही अनुभवी लेख हो सकता है भविष्य दिख रही हो अपनी अपनी..
अर्श
वाकई हमारे आस पास की कथा लगती है। जीवन के अंत में ही हम अपनी गलतियों और भूलों पर ध्यान दे पाते हैं जो वक़्त रहते अगर हमने महसूस कर लीं होतीं तो अपने और अपने आसपास वालों को और खुश रखने में सहायक होतीं।
BHAI SAMEER JEE,
LIKHNA ISKO KAHTE HAIN.
AAPKEE DAIRY KE IS PANNE KO KAB
SHURU AUR KAB KHATM KIYAA ,PATAA
HEE NAHIN CHALAA.SAUNF,ILAYCHEE
AUR DALCHINEE SE BANEE TEA PEENA
BHEE BHOOL GAYA.
समीर जी,
लेख पढने के बाद काफी समय तक सहज नहीं हो पाया।
वैसे भी इंसान के पास जो कुछ भी होता है, वह उसकी कदर नहीं जान पाता। कीमत उसके चले जाने या खो देने के बाद ही पता चलती है।
वाकई सटीक और उस सच्चाई से रुबरु कराती रचना, जिसके नजदीक आ ही पहुंचे हैं. आज बेटी और बेटे के साथ दोपहर मे ही बंगलोर आया हूं, कल सूबह ही वापस लौट जाऊंगा.
आज अब थोडा सा समय निकाल कर ब्लागीवुड के हाल चाल देख रहा था. सोचा था जल्दी से कुछ कमेंट करके बंद कर दुंगा.
पर आपकी पोस्ट पढने लगा तो पूरा पढता चला गया. टिपियाने का मजा रोमन मे नही है सो गूगल ट्रंसीलरेटर डाऊनलोड कर लिया है,
यहां ६४ टीपणियां मैने देखी हैं सभी को कुछ अज्ञात भय ने जैसे घेर लिया हो? और मैं शायद कुछ उम्रदराज लोगो मे शामिल हूं जिनको यह भय ज्यादा नजदीक दिख रहा होगा.
वैसे मेरा मानना है कि बुढापा सबसे सुन्दर अवस्था है अगर आपको जीने की कला आती हो.
अगर कोइ परेशान हो और सीखना चाहे तो मुझसे सम्पर्क कर ले. शायद निकट भविष्य में समय मिला तो इस पर एक पोस्ट जरुर लिखना चाहुंगा.
पर आपने आंखे खोलने वाली पोस्ट लिखी है जो आदमी को सोचने या कहे आत्मावलोकन करने को बाध्य करती है. आपको बहुत धन्यवाद.
रामराम.
mama ji bilkul sahi bat hai
डायरी के पन्नो ने मेरे भी रोगटे खडे कर दिये। बडे ही भावुकक्षणो को मैने भी कल्पना द्वारा महसुस किये। आपने हम नोजवानो को जो कॉच दिखाया है, शायद कुछ युवा यह पढकर अपनी जिवन शेली मे बदलाव लाकर इस भावुकयादो को अपने जिवन मे सिख का कारण बनेगे। जैसे फिल्म बागवान ने एक सन्देश लोगो को दिया था वैसे ही आपकी यह प्रस्तुति हमारे जिवन मै भी अच्छे के लिये बदलाव लायेगी। आपको इसकेलिये हार्दीक बधाई ।
लालाजी ! आपके द्वारा उल्लेखित निचे लिखि चार लायनो को आप पुन पढे, शायद आपको पता नही,ईन्ह चार लाईनो मे आपने क्या लिखा है।
यह पुरुष जिवन के लिये सबसे बडी हर्दय विदारक घटना या क्षण होते है,जब उम्र के इस पडाव मे जिवन सगनी साथ छोड ससार से चली जाती है। पति-पत्नि को एक दुसरे कि सबसे अघिक भावात्मक सहयोग कि आवश्यकता इसी उम्र मे पडती है।
जब पुरुष अकेला हो जाता है,तब टुट जाता है, नश्वर सा हो जाता है। क्षीण हो जाता है। तब इस तरह का "महाग्रन्थ" ससार मे अवतरित होता है।
"एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी. सब इक्कठे हुए थे और देखते देखते वापस हो लिए. उस पूरे घर में बच रहा तो अकेला मैं. बच्चे साथ ले जाना चाहते थे मगर मैं ही कुछ समय खुद के लिए चाहता था सो न गया.
पर न जाने क्यूँ कभी हिम्मत न जुटा पाया कि खोल कर देखूँ क्या है उन कमरों में. क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता."
अन्त मै चलते चलते {अगर कोइ परेशान हो और सीखना चाहे तो मुझसे सम्पर्क कर ले- ताऊ) मेरे ताऊजी, फोन नम्बर या अपना अत्ता पत्ता तो छोड जाते तो मै और समीरलालाजी सबसे पहले ग्रहाक होते आपके।
sameera ji likhe ki tarif kar doonga to baat vahin chali jayegi jahan se shuru hui thi! behtar likhna aapke pass reh jayega, dar choot jayega. lekin ye zaroor hai rishton me 'aashwasan' insaan ko laparwah kar deta hai. ya to aap us aadmi se poochein tumne mujh se kabhi shikayat nahin ki, aur agar ehsaas me deri ho jaye to ye 'aashwasn' rakhiye jisne yahan shikayat nahin ki vo vahan bhi nahin karega!
और कुछ नहीं… बस :(
bahut sanvedansheel rachna, hridaysparshi. swapn
कड़वी सच्चाई की खतरनाक सीमा को छूता हुआ ...
साधुवाद
great write up with imense sensitivity and minute details!!
keep the good work going..
warm reagrds!
Rachana.
समीर जी,
आपने जो लिखा है वह जीवन का कटु सत्य है। इस सत्य का सामना हम सभी को देर सबेर करना है। इसी लिये सच्चे धार्मिक लोग कहते हैं कि जीवन अब है उसे अभी जिओ; कल के लिये नहीं छोड़ो। बहुत सुन्दर और सरल अभिव्यक्ति है। बधाई।
हा...हा...हा...हा..हा...हा...हा....आपकी बहुत सारी बातों में हमने भी अपना अतीत.....वर्तमान और भविष्य देख लिया.....अलबत्ता बात आपकी मर्मस्पर्शी थी.....हम हँसे तो इस बात पर थे......सबका तो वही अहवाल है.....फिर क्यूँ नहीं किसी को किसी का ख्याल है....हम अपने अपने दर्द में अकेले तड़पते हैं....दर्द हमारे अकेलेपन पे ख़ुद बेहाल है....!!साल-दर-साल किसी अच्छे की उम्मीद करते हैं हम........जा रहे हैं इसी तरह साल-दर साल हैं....!!ये मेरे देश के रहनुमा भी कैसे रहनुमा हैं.....डूबती है नाव और लिए हाथ में पतवार हैं......!!इक-इक पल में सार ढूंढते हम जिन्दगी बिता देते हैं "गाफिल"......वगरना इस समूची जिंदगी में और भला क्या सार है....!!
lal sahib, ek baar punah mere blog par aakar doosri rachna ka avlokan karen. dhanyawaad
बहुत ही मार्मिक पर यथार्थ पोस्ट्। एक कड़वा सच जिस से सब भागना चाहें लेकिन बच न पाएं। अगर ये बुजुर्ग खुद में इतना न खोये होते तो भी आज की तस्वीर वही होती जो अब है।
डर लगता है उस दिन से लेकिन खुद को मानसिक रूप से तैयार करने के सिवा कोई चारा नहीं। यकीनन आप की बेहतरीन पोस्ट्स में से एक ।
सच कहूँ तो मैं आपके व्यक्तित्व से अवश्य प्रभावित था . पर आपके लेखन का भी आज कायल हो गया !
हमारे चेहरे पर वे भाव नहीं जो आपने कहा . यहाँ तो कुछ और ही भाव हैं !
अब तक जो कुछ किया या आगे जो कुछ करना है, उसपर बहुत कुछ सोचने को विवश करता है ये लेख, कुछ कुछ वैराग-सा पैदा करता हुआ.....
जीवन के उस यथार्थ से एकदम से सामना करा दिया आपने, जैसे कोई सीधे सपाट रास्ते पर से किसी मोड़ पर एकदम तंग संकरी अंधियारी सी गली में अचानक ले जाये.
आपके इस बुजुर्ग को मैंने भी कई जगह देखा है.मेरा भविष्य भी शायद यही हो. आज तो आईना देखने को भी डर रहा हूं.
ताऊ का सकारात्मक आशावाद गलत नहीं है, बशर्ते हम में से जो जहां है, वहीं चेत जाये. वैसे , कर क्या लेंगे हम लोग,उम्र की उस बस में तो चढ ही गये है, लास्ट स्टोप तक तो बैठना ही पडेगा. उपरवाला ड्राईव्हर जहां ले जायेगा जाना पडेगा, और जहां उतार देगा उतरना पडेगा.
और कोई रास्ता है? सिवाय इसके सिवा कि दिल की खलिश को और हसरतों के दागों को छुपाते छुपाते जोकर के खोल में घुस जायें, और कहें-
जीना यहां , मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां...
bahut hi marmik likha hai, shayad ye sabke hisse ka such bhi hai. Woh babu to sirf daftar ki files ki wajah se time nahi de paya lekin lagta hai bloggers log office ki files and blogging ki posts dhone ki wajah se time nahi de paayenge.
क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता.
सबसे महत्वपूर्ण है ये अंश, जो सारांश में ये झकझोर कर याद दिलाते है, कि आज जो आपके साथ है, आपके सुख दुख में और आपके बच्चों के उज्ज्वल भविष्य में खटती हुई वह ..
अब तो उसमें भी रब दिखता है, यारा मैं क्या करूं..
बहुत भावुक कर देनेवाली पोस्ट लिखी है आज आपने समीर भाई ...
- लावण्या
"क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है"
क्या कहें मंत्रमुग्ध हैं आपकी शानदार प्रस्तुति पर...
इतना अच्छा लगा की पढ़ते ही मम्मी और श्रीमति जी को पढ़कर सुनाया...बधाई
shukriya janaab ...aap aksar mere lekh or kavitayei read karte hai ...achchha laga...kabhi mauka mila to aapse mulakaat jaruur karna chahunga...aap mujhe protsahit karte rahiye..
मैं फिलहाल उस मोड़ पर हूँ जहाँ आपने अपने काम को अपने परिवार से ज़्यादा वक्त देना जायज़ समझा था. आपका लेख पढ़कर लगता है कि आगे चलकर मुझे भी एकाकीपन इसी प्रकार सताएगा. ambitions को धीमा करने का दिल नही करता...लगता है सारा जहाँ जीत लूँ. शायद यही सोचकर आपने भी मेरी उम्र में ये फ़ैसला लिया होगा....शायद दिन-रात एक करके जो रुतबा आपने कमाया है, उसी रुतबे के कारण आपके blog पर हजारो टिप्पणियां लिखी जाती हैं.....वरना न जाने ऐसे कितने अकेले पिता हैं जो न blogger जानते हैं न diary लिखने का हुनर रखते हैं....और अगर कुछ नायाब लिख भी दें, तो उसे सराहने वाला कोई नही होता.
सोनिया जी
पढ़ने और टिप्पणी करने का आभार.
वैसे यह फिलहाल मेरी कथा नहीं है. मैने तो बस अपने आसपास बुजुर्गों की स्थितियाँ देखकर उनकी मनःस्थिति उजागर करने का प्रयास मात्रकिया है. क्या पता कितना सफल हुआ.
हाँ, शायद भविष्य में मेरी कथा भी यूँ ही हो, कौन जाने.
एक बार पुनः आभार.
बयां आपका ऐसे जैसे ख़ुद बुज़र्ग होगए :)
जीवन एक ऐसा आइना है, जो आपको अपना अक्स दिखा ही देता है, भले ही इसमें थोडी देर लग जाए।
बहरहाल, डायरी के पन्नों को पढकर संवेदना तो झंकृत हो ही गयीं।
इस प्रभावी प्रस्तुति के लिए आभार।
कई बातें शब्दों के बंधन से परे होती हैं, बुढापा भी उनमे से एक है पर आप उसे शब्द देने में सफल हुए. एक संदेश भी था की read between the lines. और कुछ बातें तो वाकई में one liner thi (छोटी एवं सटीक). मेरी निजी पसंद को पुनः उधृत करना चाहूंगा:
अब सारे कमरे मेहमानों के हो गये और आने वाला कोई नहीं.
एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी.
क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता.
कई बार भूल जाने का बहाना कर बड़ा किस्सा बीच में बंद किया है मैने उनके चेहरे के भाव को समझते हुए.
आभास हो रहा है कि आपके चेहरे पर इसे पढ़ते वो ही भाव हैं जो मेरे बच्चों के चेहरे पर अपने किस्से सुनाते हुए मैं देखता हूँ.
कई बातें शब्दों के बंधन से परे होती हैं, बुढापा भी उनमे से एक है पर आप उसे शब्द देने में सफल हुए. एक संदेश भी था की read between the lines. और कुछ बातें तो वाकई में one liner thi (छोटी एवं सटीक). मेरी निजी पसंद को पुनः उधृत करना चाहूंगा:
अब सारे कमरे मेहमानों के हो गये और आने वाला कोई नहीं.
एक दिन पत्नी न आँखें मींच ली कभी न खोलने को. वो नहीं रही. पहली बार उसका साथ पाने की प्रबल अभिलाषा जागी.
क्या पत्नी मेरा आत्म विश्वास, मेरे मुखिया होने का अहसास, मेरी ताकत, मेरा सम्मान सब अपने साथ ले गई थी या कि वो ही मेरी यह सब थी. आज तक इस प्रश्न का उत्तर मैं नहीं पा पाता.
कई बार भूल जाने का बहाना कर बड़ा किस्सा बीच में बंद किया है मैने उनके चेहरे के भाव को समझते हुए.
आभास हो रहा है कि आपके चेहरे पर इसे पढ़ते वो ही भाव हैं जो मेरे बच्चों के चेहरे पर अपने किस्से सुनाते हुए मैं देखता हूँ.
एक अलग नजरिये के साथ आपने अपनी बात को रखा। अच्छी प्रस्तुति।
"संक्षिप्त टिप्पणी ये कि लाल ने , पीले , हरे , पर बहुत खूब लिखा !"
समीर भाई , मज़ाक के लिए माफ़ करिए !
संस्मरण या अनुभूति जिसकी भी हो , उदास कर जाती है !....और यही लेखन की सच्ची कामयाबी है !
लेकिन हो सकता है कि ,इसका दूसरा पहलू भी हो कि , उसने यह सब ख़ुद के लिए नहीं बल्कि पत्नी और बच्चों के भविष्य के लिए ही किया !
तब और अब , दोनों ही दशाओं में उसके हाथ कुछ भी नहीं है ? अगर ऐसा हो तो ? शायद ये और भी पीड़ादाई होगा !
और हाँ ......आपके लिए हमारा सुझाव , वास्तव में किसी लघु वेतन कर्मचारी के जीवन की सत्य घटना है !
सुमंगलकामनाओं सहित !
मार्मिक वृत्तांत !
मार्मिक वृत्तांत !
आज खाली कमरे हैं. चाहूँ जहाँ स्टडी बना लूँ, कोई व्यवधान डालने वाला भी नहीं पर न जाने क्यूँ, अब पढ़ने लिखने से भी जी उचाट हो गया है. आखिरी नॉवेल दो साल पहले पढ़ी थी. इधर तो अखबार भी जैसा आता है, वैसा ही लिपटा दो तीन महिने में रद्दी में बिक जाता है. सोचता हूँ क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है.
जो भी लिखा, खूब लिखा....
बहुत खूब समीर भाई !
समीर जी,
आपका हर शब्द हवा के झोंके की तरह है। वह हवा- जो ताउम्र हर इंसान के इर्द-गिर्द बहती है, लेकिन हर बार और हर व्यक्ति को उसका अहसास जुदा होता है। कभी वह अपनेपन की गर्माहट लिए होती है तो कभी वह बिछुड़ने की खुश्की लिए होती है। कभी इस हवा में यादों की नमी ज्यादा हो जाती है तो कभी तेज झोंका यह अहसास करा जाता है कि संभल कर चलिए जनाब! कभी वार-त्योहार, शादी-उत्सवों की वासंती बयार घर-आंगन में बहने लगती है, तो मन मयूर नाचने को मजबूर हो जाता है। साथ में किलकारी की रिमझिम हो तो क्या कहना!
वाकर्इ समीरजी, आपकी डायरी जीवन का फलसफा है। अपने शब्दों की पनडुब्बी में बैठा कर आप हम सभी को आपके दिल की गहराई में सैर करा लाए। और गहरे पानी में पैठकर हमने वाकई मोती पा लिया।
आज आपका मेल देखा… बहुत दिनों बाद किसी के जाल पर आया हूँ… कैसे हैं समीर भाई?
मेरी अगली और यों कहें की पहली कॉमर्शियल फिल्म का काम चल रहा है… तो बहुत व्यस्तता बढ़ गई है…
बहुत अच्छा लगा आपका यह पन्ना जो हमेशा से हरा ही था… संवेदनशील!!!
कुछ समझ नहीं पा रहा क्या लिखूं..पढ़ने के बाद बड़ी देर तक सारी टिप्पणियां देखी.फिर गाल पर हाथ धरे सोचता रहा,यही हाल तो है हमारा-हमारे इस्स वर्तमान का और होने वाले अवकाश-प्राप्त जीवन का..
सरकार इतनी सच्ची-सच्ची बातें लिख कर क्यों डरा रहे हो बच्चों को आप? ये ठीक बात नहीं...
और फिर आपके इन शब्दों पर ठिठक जाता हूं "एक अघोषित सा कमरों का आवंटन भी था कि ये बड़े का, ये छोटे का और उसी अनुरुप इनके सामान भी... "
आपने मेरे घर में कब झांक कर देख लिया?
तारों भरे कटोरे से दो घूँट चाँदनी पी लें
और जिन्हें हम अपना कह पायें, वे दो पल जी लें
उम्र जहां पर होम हुई है, वेदी हुई अपैरिचित
इसीलिये मन के उधड़े अपने घावों को सी लें
चाहा जो वो मिला हमें शायद ज्यादा या कम
पर सच चाहत क्या थी, क्या ये जान सके हैं हम
दोहराई जाती हैं हर इक बार यही गाथायें
और हर बरस फिर आते हैं पतझर के मौसम
भले ही आपने अपने आसपास के बुजुर्गों को देख कर यह सब लिखा हो लेकिन यह हम सबका आने वाला कल है।
बीमा एजेण्ट हूं। झुग्गी से लेकर प्रासाद तक में जाता रहता हूं। भौतिकता प्रेरित प्रतियोगिता से उपजी महत्वाकांक्षाएं जहां हैं, वहां यही होना है।
जान बूझ कर यह सब करता कोई नहीं है, सबको करना पड रहा है। पिछड जाने के आतंक से सहमे हुए हम सब वही कर रहे हैं जिसके होने पर ऐसी डायरियां लिखी जाती हैं।
भले ही मुझे लगा कि मैं अपना आने वाला कल पढ रहा हूं किन्तु तनिक भी चिन्तित, विचलित और भयभीत नहीं हुआ। मेरा कल यही है, मुझे पता है। मैं ने खुद को इसके लिए आज ही तैयार कर लिया है। यह 'कल', आज ही आ जाए, इसी क्षण।
मैं समाना करने को तैयार हूं।
माफ़ी चाहती हूँ जनाब! शायाद आपने इतना सजीव लिख दिया जैसे आपकी ही कथा हो. मेरे पिताजी भी retirement के करीब हैं, और इस लेखनी के चित्रण से काफ़ी करीब हैं. मैंने उन्हें भी इसे पढ़वाया....और उन्होंने कहा कि काश उन्होंने अपनी जवानी में इसे पढ़ा होता. शायद ये महज़ एक लेख नही, this is the circle of life. We start ambitious, end lonesome.
दोस्त धन्यवाद, ये कहानी तो कई बार आखो के सामने से गुजरी है और मैने इस पर राय भी व्यक्त की है दूसरो के लिये पर आज मैने इस कहानी को पढते पढते पाया की ये कहानी किसी और की नही मेरी है . मै ही निपट अकेला इस सब को ता उम्र झेलने के लिये अभिशिप्त होने वाला हू और ये गड्ढा खुद के मै ही खोद रहा हू .
कोशिश करूंगा की आने वाले दिनो मे खुद के वक्त को घर और बाहर मे बराबर बांट पाऊ.लेकिन दोस्त परिवार को उपर उठाने मे उसके भविष्य को उज्जवल बनाने मे किसी को तो बलिदान देना ही होता है . हर बुलंद इमारत की मजबूती उसकी नीव मे पडे पत्थरो के बलिदान पर ही निर्भर करती है .सिढींया सिर्फ़ लोगो को उपर पहुचाती है खुद कभी उपर नही जाती.ये उपर जाते लोगो पर निर्भर करता है कि वो उस के शुक्र गुजार हो या उसे कुचलते हुये उपर चंढ जाये.
वैसे भी
"कभी किसी को मुकम्मल जंहा नही मिलता
कही जंमी तो कही आसमा नही मिलता "
हम तो यू ही खुश है
कि तुम मिल गये दोस्त
वर्ना जब गुफ़्तगू का दिल हो ,
खुद का साया तक नही मिलता
:)
fir se dhnyavaad
सब कुछ लगता है कि यहीं कहीं आस पास घटित हो रहा है. बहुत गजब का लिखते हैं आप.
गणतंत्र दिवस पर आपको ढेर सारी शुभकामनाएं
समीर जी
अभिवंदन
"पीले पन्नों पर दर्ज हरे हर्फ : एक बुजुर्ग की डायरी".. डायरी का ये अंश पढ़ कर हर बुजुर्ग को ये अपनी डायरी और जवान को बुढापे का पूर्वानुभव सा लगेगा. एक कड़वी हकीकत और सच्चा अनुभव है जो बुढापा आने से पहले आत्मसात किया जा सकता है.
एक सार्थक,मार्मिक और गहन-गंभीर डायरी-वृत्तांत के लिए बधाई.
- विजय
जीवन का यदार्थ ऱक दिए हैं...
... अत्यंत प्रसंशनीय अभिव्यक्ति है।
आप ने वास्तविकता से रुबरु कराया है।...यहां एक ऐसे व्यक्ति की दास्तां है, जो सिर्फ अपने बारे में उम्रभर सोचता रहा और करता रहा... जिस परिवार ने... पत्नी और बच्चे... उसे उसकी खुशी हासिल करवाने में कोई कसर नहीं छोडी.... उस परिवार के सुख और दुःख यह व्यक्ति नजर अंदाज ही करता आया।... अब पत्नी नहीं रही और यह अकेले पन की समस्या से ग्रसित है, तो अब इसे महसूस हो रहा है कि गलती कहां हुई।
... बहुत भावपूर्ण रचना से रुबरु कराने के लिए धन्यवाद।
पीडा तो है पर है तो यह भी न्याय ही । बहुत ही मार्मिक लेखन ।
मार्मिक!
उत्तर आधुनिकता यही है।
आपके लिखे हुए व्यंग्य पढ़ कर मैं आपको एक बेहद ह्यूरस शख्स के तौर पर ही जानता था। इनफैक्ट आप ह्यूमरस हैं भी। लेकिन ये ह्यूमरस होने की छवि इतनी बड़ी थी कि मैं भूल ही गया था कि आपकी अपनी संवेदनाएं भी हो सकती हैं। आपका ये पोस्ट पढ़ कर काफी देर तक सोचता रहा। बहरहाल, गुज़ारिश ये है कि दिल छोटा ना करें। ऊपरवाले ने आपको जो कुछ दिया, उसका शुक्रिया अदा करें और खुश रहें।
एक बात और, उन दिनों में दैनिक भास्कर में था और हमारे अख़बार के एक बुजुर्ग समीक्षक हुआ करते थे। उनका नाम तो मुझे इस वक़्त याद नहीं, लेकिन उनके शख्सियत की खासियत ये थी कि उनसे मिल कर मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं किसी बुजुर्ग से मिल रहा हूं। कोशिश कीजिए कि सबसे आप भी वैसे ही मिलें। बिंदास और खुशमिज़ाज। यकीन मानिए आपको खुश देखने भर से कई लोगों को खुशी मिलती है। मेरी दिली शुभकामनाएं।
Bahut badiya.
आज के हर बुजुर्ग बाप की यही व्यथा है. यह त्रासदी न्युक्लीअर परिवार की देन है. वैसे आज की इस वेदना को इतने सुन्दर तरीके से व्यक्त करने के लए साधुवाद.
aaj ki dunia ki hakeekat ek aadmi me bayan kar di ye yatharth aaj kahin bhi dekha jaa sakta hai mere aas paas to sab jagah kyom ki ji colony me mai rehti hoon is ritiery colony kahate hai yahan lagbhag 50% log akele bina bchon ke rahate hai kaisa jamana aa gaya hai ki log is colony me ghar lene se pehle ye jaroor kahte hain vahan kya karna hai vahan to retier log rehte hai
बहुत बड़ी सच्चाई है इसमें.. इंसान अपने और परिवार के लिए इतना व्यस्त हो जाता है कि उसी परिवार और स्वयं की छोटी -बड़ी खुशियाँ भूल जाता है..
आप सभी को 59वें गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं...
जय हिंद जय भारत
आप सभी को 59वें गणतंत्र दिवस की ढेर सारी शुभकामनाएं...
जय हिंद जय भारत
kya likhun,aisa lagta hai mano apne pita ji ki aadhi kahani padh li lekin is tarah ka akelapan unke liye katai nahi chhahungi.
aap bahut acchha likhte hain ya jo beet ta hai wah achha hi likh padta hai.
umeed karti hoon ki mujhse kabhi bhi apne bujurgon ko akelapan dene ki bhool nahin hogi.aapko kartavya ke prati sajag karne ke liye dhanyavad.
haan aapka majakiya lekh achha lagta hai. use jyada likihiye. saadar bhawna
Sachhi baat hai bhai.....
इस गणतंत्र दिवस पर यह हार्दिक शुभकामना और विश्वास कि आपकी सृजनधर्मिता यूँ ही नित आगे बढती रहे. इस पर्व पर "शब्द शिखर'' पर मेरे आलेख "लोक चेतना में स्वाधीनता की लय'' का अवलोकन करें और यदि पसंद आये तो दो शब्दों की अपेक्षा.....!!!
भाई श्री समीर लाल जी.
आपने जो पीले पन्ने पढ़ाए हैँ उसने मुझे भावुक कर दिया। आँखें आँसुओं से छलक पड़ीं। मुझे पढ़ते-पढ़ते ऐसा लगा कि मैं उसी परिवेश में चला गया हूँ और मेरे बच्चे मुझे ज़्यादा तवज्जो नहीं दे रहे। बड़ा घर खाली हो गया है जिसमें कमरोँ में सबका नाम तो है लेकिन ताला लग गया है और बस अकेला मैं ही हूँ। आपने जिस मार्मिकता से लिखा है वो बहुत ही प्रभाव छोड़ता है। आपने रुला दिया। कभी शिमला आएँ तो मैं आपसे मिलना चाहता हूँ। आपका फैन हो गया हूँ। भगवान आपकी लेखनी का जादू बरकरार रखे।
. इधर तो अखबार भी जैसा आता है, वैसा ही लिपटा दो तीन महिने में रद्दी में बिक जाता है. सोचता हूँ क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है.
mere vichar se kisi bhi age ,kisi bhi ling ,ka dard ho sakata hai.jo apane jingi me arse se tanha hai, unke manahsthiti ko dikhata hai. bahut badiya,
. इधर तो अखबार भी जैसा आता है, वैसा ही लिपटा दो तीन महिने में रद्दी में बिक जाता है. सोचता हूँ क्या करुँगा जानकर कि बाहर की दुनिया के क्या रंग हैं जब मेरी खुद की दुनिया बेरंग है.
mere vichar se kisi bhi age ,kisi bhi ling ,ka dard ho sakata hai.jo apane jingi me arse se tanha hai, unke manahsthiti ko dikhata hai. bahut badiya,
गणतंत्र दिवस की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं
http://mohanbaghola.blogspot.com/2009/01/blog-post.html
इस लिंक पर पढें गणतंत्र दिवस पर विशेष मेरे मन की बात नामक पोस्ट और मेरा उत्साहवर्धन करें
गणतंत्र दिवस की आप सभी को ढेर सारी शुभकामनाएं
http://mohanbaghola.blogspot.com/2009/01/blog-post.html
इस लिंक पर पढें गणतंत्र दिवस पर विशेष मेरे मन की बात नामक पोस्ट और मेरा उत्साहवर्धन करें
...aur kahne ko kya rah gaya.
bahut hi badiya bagban kya likha hai aapne. apane hi lagaye baag main anjaan se khud ko doondate bagbaan ki kasmkash. man ko chho gayee.
बहुत गंभीर लेख है,भावनात्मक एवं संवेदनाओं से परिपूर्ण ....केवल महसूस कर सकता हूं.बधाई!
भावनाओं और संवेदनाओं से भरपूर है शब्द चित्र
अच्छा लगा यह लेख.दिल को छु गई यह पोस्ट ..
आपको एवं आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
गणतंत्र की जय हो .
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाऐं.
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं
yahi to trasdi hai hum jante hue bhi nahi sambhalte aur jab hos aati hai to bhot der ho chuki hoti hai...... kuch kuch mai bhi inhi prasthitiyon se gujar rahi hun ....sayad agli kavita usi pr aadharit ho.....!
yahi to trasdi hai hum jante hue bhi nahi sambhalte aur jab hos aati hai to bhot der ho chuki hoti hai...... kuch kuch mai bhi inhi prasthitiyon se gujar rahi hun ....sayad agli kavita usi pr aadharit ho.....!
बडी शिद्दत से महसूस किया आपने अपने जीवन के ख़ालीपन को. काश यह एहसास हमें समय रहते हो जाया करता!
इष्ट देव भाई
बस, यही मानो कि हम भी समय रहते ही जाग लिए. ये मात्र मेरे आसपास के बुजुर्गों के अनुभव हैं.
बहुत ही सवेदनशील ....कभी कभी मैं भी उन पलो को सोच सिहर जाता हूँ लेकिन जिंदगी बहती चली जा रही हैं ....
अभी फिलहाल मैं भी पीले पड़ चुके पन्नो को पलट रहा हूँ और यह एहसास हो रहा हैं कि जीवन का वह दरिया जो उन किनारों को छूता हुआ निकला था आज बिलकुल सूख सा गया हैं
एक एक शब्द शाश्वत सत्य है । मेरी उमर तो नही हुइ है लेकिन मन कहता है । यही सच्चाई है जीवन कि संसारिक बन्धनों कि । एक बात और है समीर जी आपकी लेखनी मे अलग तरह का बदलाव आ रहा है । वो बदलाव क्या है ? और कैसे आ रहा है मेरे जैसे अनाड़ी बच्चे के लिये बताना संभव नही है केवल अहसास कर सकता हूं ।
kisi bhi jugad se 150 poora kijiye...
aur ek aur record bane...
mithaai mile ya na mile ...:) :)
mann udas ho gaya.
bahut khoob, zindabad.
रोम रोम सिहर उठा..क्या यही नियति है..आँख नम हो आई. बहुत गजब की अभिव्यक्ति है. बधाई. गुरु जी और गुरु माँ को सुनाई भर्राये गले से..उनकी आँखो में पानी था और आपके संवेदनशीन हृदय के लिए गर्व. मिश्रित भाव गजब का दृष्य उत्पन्न कर रहे थे.
कब आने वाले हैं यहाँ. जाने के पहले बिना मिले मत जाईयेगा.
bujurgon ki nazar se dekhna paripaqvata ka parichay deta hai...kash ki hum apne budhpe ko bhi aapki nazar se dekh sakein...real eye opener...shubhkamnayein
आज 21/02/2013 को आपकी यह पोस्ट (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति मे ) http://nayi-purani-halchal.blogspot.com पर पर लिंक की गयी हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .धन्यवाद!
संवेदनाओं से परिपूर्ण .......
आप भी पधारो स्वागत है .....
pankajkrsah.blogspot.com
इतने सारे कमेंट्स इस बात की पुष्टि करते हैं..की आपका लेख सबके दिलों में उतर गया ...एक रिक्तता सी पैठ गयी मन की किसी कोने में ...वाकई ...एक पूरी ज़िन्दगी को एक बोन्साई की शक्ल में सामने रख दिया ..यह आप ही कर सकते हैं...साधुवाद !
मगर इसके पीछे पत्नी का क्या योगदान रहा, क्या त्याग रहा, कितनी मेहनत रही-वह न तो मैने उस वक्त देखी और न जानने का प्रयास किया. मेरे लिए मेरा केरियर और मेरा दफ्तर. मेरी पूछ परख, मेरा जयकारा-बस, यही मानो मेरी दुनिया थी...
bahut sahi kaha aapne ..
...chhote se bade karna bachhon ko aur padhna likhana MAA se jyada aur kaun jaan sakta hai ..
आपके लेखन की क्या तारीफ़ करें...?
मेरी आँखों में आँसू हैं ... बस! इससे ज़्यादा और कुछ नहीं.... :(
~सादर!!!
अक्सर ही जीवन में ऐसा होता है ,समझ आती है तब समय बीत चुका होता है.
एक टिप्पणी भेजें