दो इनोवा वैनों में भरकर पूरा परिवार बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान के लिए रवाना हुआ. दोनों गाड़ी, पूरी पैक, शीशे बंद, मनपसंद का संगीत बजाते, हल्का एसी चालू, परिवारिक गप्प सटाकों और हंसी हल्ले में दौड़ रहीं थीं मंजिल की ओर. न कोई धूल, बेहतर सड़क बन जाने से न कोई उछलन. मात्र ३.३० घंटे से कम समय में हम २०० किमी का फासला तय कर बांधवगढ़ पहुँच गये.
पहले से बुक एक अति सुन्दर रिसोर्ट हमारा इन्तजार कर रहा था. चारों तरफ हरियाली, सुन्दरता से सजे हुये दूर दूर कॉटेज, करीने से लगाया गया बगीचा और बीचों बीच शाम को बॉन फायर करने के लिये बड़ा सा सीमेन्टेड पंडाल.
कमरे के भीतर की साज सजावट और सफाई काफी मनभावन थी. कमरा बंद करने के बाद मैं सोचने लगा कि बंद कमरे में क्या भारत और क्या अमेरीका? पिछले कुछ माह पहले जब लास वेगस में था, तब भी कमरे के भीतर तो यही अहसास थे. बल्कि यहीं ज्यादा आराम और लक्ज़री है कि घंटी बजाओ और बंदा चाय नाश्ता लिए हाजिर. वहाँ तो कॉफी/चाय की मशीन कमरे में लगी थी, खुद बनाओ और तब पिओ.
कुछ देर आराम, फिर सब अपने अपने कमरे से बाहर खुले हरे मैदान में. फुटबाल खेली गई. बच्चे, बड़े सभी बराबरी से अपने उम्दा प्रदर्शन की फिराक में. थक कर सब तैयार हुए और हम चल दिये नजदीक में ही बने बांधवगढ़ म्यूजियम को देखने. छोटा सा म्यूजियम-अब म्यूजियम तो क्या-फोटो और पार्क एवं किले के मिनियेचर मॉडल की प्रदर्शनी ही कहें तो बेहतर कि कल क्या देखेंगे. अच्छा लगा एक घंटा वहाँ गुजारना. पुराने राजे महाराजाओं ने कितने टाईगर मार गिराये, उनका लेखाजोखा भी प्रिंट करके टांगा गया था सो उनको समय की मांग के अनुरुप कोस भी लिया कि हाय, कैसे थे ये? इत्ते निर्दयी. उस कमरे में ऐसा कोसना, एक प्रकार से बोर्ड पढ़ लेने की पावती छोड़ने जैसा लगा. जो पढ़ता था वो कुछ ऐसे ही पावती छोड़ रहा था.
बहरहाल, वहाँ से वापस लौट बॉन फायर के आसपास सारा इन्तजाम पाया गया. फायर को घेरे कुर्सियाँ, कायदे से लगी टेबल.
देर तक महफिल जमीं. जाम छलके, सुर उछले. मौका था तो जी भर के परिवार वालों को अपनी रचनाऐं झिलवाईं. उनकी मजबूरी थी तो जितना बन पड़ा, उन्होंनें वाहवाही का मंजीरा बजाया और नई आई पुत्र वधु ने भी वहाँ जान लिया कि ओह!! तो ऐसे होते हैं कवि और वो भी उसके ससुर. सोचती होगी..ये कहाँ आ गये हम? :) मगर क्या करे, झेलना तो पड़ा ही.
ये रहे टाईगर माहराज
खैर, तय पाया गया कि अगले दिन सुबह ६.१५ बजे सब तैयार मिलेंगे और ६.३० बजे जंगल सफारी की जीपें हमें वन भ्रमण पर ले जायेंगी.
सुबह की कड़कड़ाती ठंड, खुली जीपें, रिसोर्ट वालों द्वारा प्रायोजित कंबल भी मानो सरसराती हवा में पिघले जा रहे हों. कंबल से शरीर गरम हो या शरीर की गरमी से कंबल-समझ पाना मुश्किल था. जंगल के भीतर की सुन्दर मनोहारी यात्रा. पतले पहाड़ी रास्ते. २० किमी की स्पीड़ पर चलती जीप.
पंछियों की चहचहाट, कुछ चीतल, हिरण, मोर आदि दिखे. आनन्द आ गया. इन्तजार था कि कहीं टाइगर दिखे. कहते हैं इस १०५ वर्ग किमी में फैले राष्ट्रीय उद्यान में लगभग २५ टाइगर हैं. जीप धीरे धीरे बिना आवाज के चलती रही और हम चुपचाप आजू बाजू नजर दौड़ाते रहे कि शायद कहीं टाइगर दिखे. एक दो बार बंदर और अन्य जानवारों की आवाज से गाईड ने टाईगर के आसपास होने का अनुमान भी लगाया और जीप रोककर इन्तजार भी किया. उसके पंजे के ताजे निशान भी दिखे मगर महाराज को नहीं दिखना था तो नहीं दिखे. दो घंटे बाद हम पहुँचे सेन्टर पाईंट याने कि भ्रमण के उस स्थल पर, जहाँ से वापसी का ट्रेक शुरु होना था किन्तु रास्ता दूसरा याने अभी भी टाईगर के दर्शन के ५०% चान्सेस बाकी.
सेन्टर पाईंट पर चाय नाश्ते चिप्स केडबरी कुरकुरे की दुकानें, काफी चहल पहल के बीच चिप्स केडबरी की दुकानों से कुछ दूर मेरी मुलाकात हुई गले में टोकनी लटकाये उबले चने को पत्तल में बाँध प्याज मसाला डालकर बेचते बालक मोनू से. चिप्स कुरकुरे की सभ्यता के बीच शायद सुबह से उसे कोई खरीददार नहीं मिल पाया था अतः कुछ उदास सा था उस चहकती अभिजात्य भीड़ के बीच अनसुनी आवाज लगाता-चने ले लो, बाबू जी.
मन नहीं माना तो मैं उससे बात करने लगा. पता लगा वहीं एक नजदीकी गांव में रहता है. रोज २० रुपये के चने खरीद कर लाता है और ३५ से ४० रुपये के बीच बेच कर १० रुपये बना लेता है. बाकी पैसा शायद वहाँ बेच पाने की परमिशन के लिए विभागीय कर्मचारियों के हिस्से जाता हो. कुछ ठीक ठीक उसने नहीं कहा. कम बात करने वाला शर्मीला लड़का था.सैकड़ों की तादाद में आये भ्रमणकारियों में से वो मात्र ७-८ ग्राहक चाहता है अपना पूरा माल खपाने के लिए. फिर १० बजे से गांव के स्कूल में पढ़ने जाता है. स्कूल के कारण शाम का फेरा लगाना संभव नहीं हो पाता. साथ में उसका दोस्त भी था भद्र सिंह. वो साथ सिर्फ खेलने आता है. शायद बेहतर आर्थिक स्थिती वाले परिवार का हो मगर दोस्त के साथ फिर भी घूमने चला आता है.
मोनू एक दिन पढ़ लिखकर वन विभाग में नौकरी करना चाहता है. शायद वही जंगल की दुनिया उसने देखी है तो सपने भी वहीं तक सीमित होकर रह गये हों, बहुत स्वभाविक है. अपनी कमाई का हिस्सा बांटते हुए निश्चित ही उसके मन में आता होगा कि कल जब मैं इसकी जगह हूँगा तो किसी मोनू को कोई तकलीफ नहीं दूँगा और अगली पीढ़ी के मोनू की पूरी की पूरी कमाई उसी मोनू की होगी.
मोनू की आज बोहनी भी नहीं हुई थी.उसकी डूबती आँखों में तैरते सुनहरे सपनों की छटा देखने की किसी को फुरसत नहीं. बच्चे हों या बड़े, सब बस एक कुतहल लिए फिर रहें है कि टाईगर कहाँ दिखेगा? जिसे जो दिशा बता दी जाती है, वह जीप उस ओर मुड़ कर ओझल हो जाती है. और मोनू खड़ा अगली खेप की बाट जोहता है कि शायद कोई उससे उसके उबले चने खरीद ले. उसे किसी टाईगर का इन्तजार नहीं. उसका वन विभाग में नौकरी पाने का सपना ही उसका टाईगर है और वो उसी का पीछा कर रहा है अपने मासूम बचपन को व्यापार की इन चालों के तले रौंदते जिसमें उसे इन १० रुपयों को कमाने के लिए विभाग के लोगों से हिस्सा बांट करते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए क्या क्या पाठ नहीं सीखने होते.
ये है मासूम मोनू अपने दोस्त भद्र सिंह के साथ
मैं उसका फोटो खींचना चाहता हूँ तो वो अपने साथी भद्र सिंह को साथ खड़ा कर लेता है फोटो खिंचवाने. फोटो खींचकर मैं उसकी ओर ५ रुपये बढ़ा देता हूँ. आत्म सम्मानी मोनू यूँ ही पैसे नहीं लेता-वो भी एक दोना चने मेरी तरफ बढ़ाता है. मैं चने हाथ में लिए जीप में आकर बैठ जाता हूँ उस भीड़ का हिस्सा बन, जिसे तलाश है टाईगर दर्शन की.
टाईगर नहीं दिखा-टाईगर हर रोज नहीं दिखते. टाईगर का पीछा करना इतना आसान नहीं.
हम वापस रिसोर्ट में आकर अपना सामान उठाते हैं और लंच के बाद शुरु होता है मद्धम संगीत के बीच वापसी का सफर.
थकान से मैं आँखे बंद कर लेता हूँ और मेरी आँखों के आगे मोनू का भोला चेहरा आ जाता है-साहब, आज बोहनी नहीं हुई है!!
आज भले ही उसकी बोहनी न हुई हो लेकिन उसके उदास चेहरे पर झलकते आत्मविश्वास से मैं पूर्णतः आशान्वित हूँ कि एक दिन उसे उसका टाईगर जरुर मिलेगा.
मन ही मन मैं बुदबुदा उठता हूँ , अलविदा मोनू!! मेरी शुभकामनाऐं तुम्हारे साथ हैं. एक दिन फिर मिलेंगे शायद इसी मोड पर-तब तुम वन विभाग में होगे. तुम तो शायद मुझे पहचान भी न पाओगे मगर ये वादा रहा, मैं तुम्हारी आँखों से तुम्हे पहचान लूँगा.
निदा फाज़ली साहेब का एक शेर बरबस ही याद आता है न जाने क्यूँ:
कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
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सूचना:
पहले से बुक एक अति सुन्दर रिसोर्ट हमारा इन्तजार कर रहा था. चारों तरफ हरियाली, सुन्दरता से सजे हुये दूर दूर कॉटेज, करीने से लगाया गया बगीचा और बीचों बीच शाम को बॉन फायर करने के लिये बड़ा सा सीमेन्टेड पंडाल.
कमरे के भीतर की साज सजावट और सफाई काफी मनभावन थी. कमरा बंद करने के बाद मैं सोचने लगा कि बंद कमरे में क्या भारत और क्या अमेरीका? पिछले कुछ माह पहले जब लास वेगस में था, तब भी कमरे के भीतर तो यही अहसास थे. बल्कि यहीं ज्यादा आराम और लक्ज़री है कि घंटी बजाओ और बंदा चाय नाश्ता लिए हाजिर. वहाँ तो कॉफी/चाय की मशीन कमरे में लगी थी, खुद बनाओ और तब पिओ.
कुछ देर आराम, फिर सब अपने अपने कमरे से बाहर खुले हरे मैदान में. फुटबाल खेली गई. बच्चे, बड़े सभी बराबरी से अपने उम्दा प्रदर्शन की फिराक में. थक कर सब तैयार हुए और हम चल दिये नजदीक में ही बने बांधवगढ़ म्यूजियम को देखने. छोटा सा म्यूजियम-अब म्यूजियम तो क्या-फोटो और पार्क एवं किले के मिनियेचर मॉडल की प्रदर्शनी ही कहें तो बेहतर कि कल क्या देखेंगे. अच्छा लगा एक घंटा वहाँ गुजारना. पुराने राजे महाराजाओं ने कितने टाईगर मार गिराये, उनका लेखाजोखा भी प्रिंट करके टांगा गया था सो उनको समय की मांग के अनुरुप कोस भी लिया कि हाय, कैसे थे ये? इत्ते निर्दयी. उस कमरे में ऐसा कोसना, एक प्रकार से बोर्ड पढ़ लेने की पावती छोड़ने जैसा लगा. जो पढ़ता था वो कुछ ऐसे ही पावती छोड़ रहा था.
बहरहाल, वहाँ से वापस लौट बॉन फायर के आसपास सारा इन्तजाम पाया गया. फायर को घेरे कुर्सियाँ, कायदे से लगी टेबल.
देर तक महफिल जमीं. जाम छलके, सुर उछले. मौका था तो जी भर के परिवार वालों को अपनी रचनाऐं झिलवाईं. उनकी मजबूरी थी तो जितना बन पड़ा, उन्होंनें वाहवाही का मंजीरा बजाया और नई आई पुत्र वधु ने भी वहाँ जान लिया कि ओह!! तो ऐसे होते हैं कवि और वो भी उसके ससुर. सोचती होगी..ये कहाँ आ गये हम? :) मगर क्या करे, झेलना तो पड़ा ही.
खैर, तय पाया गया कि अगले दिन सुबह ६.१५ बजे सब तैयार मिलेंगे और ६.३० बजे जंगल सफारी की जीपें हमें वन भ्रमण पर ले जायेंगी.
सुबह की कड़कड़ाती ठंड, खुली जीपें, रिसोर्ट वालों द्वारा प्रायोजित कंबल भी मानो सरसराती हवा में पिघले जा रहे हों. कंबल से शरीर गरम हो या शरीर की गरमी से कंबल-समझ पाना मुश्किल था. जंगल के भीतर की सुन्दर मनोहारी यात्रा. पतले पहाड़ी रास्ते. २० किमी की स्पीड़ पर चलती जीप.
पंछियों की चहचहाट, कुछ चीतल, हिरण, मोर आदि दिखे. आनन्द आ गया. इन्तजार था कि कहीं टाइगर दिखे. कहते हैं इस १०५ वर्ग किमी में फैले राष्ट्रीय उद्यान में लगभग २५ टाइगर हैं. जीप धीरे धीरे बिना आवाज के चलती रही और हम चुपचाप आजू बाजू नजर दौड़ाते रहे कि शायद कहीं टाइगर दिखे. एक दो बार बंदर और अन्य जानवारों की आवाज से गाईड ने टाईगर के आसपास होने का अनुमान भी लगाया और जीप रोककर इन्तजार भी किया. उसके पंजे के ताजे निशान भी दिखे मगर महाराज को नहीं दिखना था तो नहीं दिखे. दो घंटे बाद हम पहुँचे सेन्टर पाईंट याने कि भ्रमण के उस स्थल पर, जहाँ से वापसी का ट्रेक शुरु होना था किन्तु रास्ता दूसरा याने अभी भी टाईगर के दर्शन के ५०% चान्सेस बाकी.
सेन्टर पाईंट पर चाय नाश्ते चिप्स केडबरी कुरकुरे की दुकानें, काफी चहल पहल के बीच चिप्स केडबरी की दुकानों से कुछ दूर मेरी मुलाकात हुई गले में टोकनी लटकाये उबले चने को पत्तल में बाँध प्याज मसाला डालकर बेचते बालक मोनू से. चिप्स कुरकुरे की सभ्यता के बीच शायद सुबह से उसे कोई खरीददार नहीं मिल पाया था अतः कुछ उदास सा था उस चहकती अभिजात्य भीड़ के बीच अनसुनी आवाज लगाता-चने ले लो, बाबू जी.
मन नहीं माना तो मैं उससे बात करने लगा. पता लगा वहीं एक नजदीकी गांव में रहता है. रोज २० रुपये के चने खरीद कर लाता है और ३५ से ४० रुपये के बीच बेच कर १० रुपये बना लेता है. बाकी पैसा शायद वहाँ बेच पाने की परमिशन के लिए विभागीय कर्मचारियों के हिस्से जाता हो. कुछ ठीक ठीक उसने नहीं कहा. कम बात करने वाला शर्मीला लड़का था.सैकड़ों की तादाद में आये भ्रमणकारियों में से वो मात्र ७-८ ग्राहक चाहता है अपना पूरा माल खपाने के लिए. फिर १० बजे से गांव के स्कूल में पढ़ने जाता है. स्कूल के कारण शाम का फेरा लगाना संभव नहीं हो पाता. साथ में उसका दोस्त भी था भद्र सिंह. वो साथ सिर्फ खेलने आता है. शायद बेहतर आर्थिक स्थिती वाले परिवार का हो मगर दोस्त के साथ फिर भी घूमने चला आता है.
मोनू एक दिन पढ़ लिखकर वन विभाग में नौकरी करना चाहता है. शायद वही जंगल की दुनिया उसने देखी है तो सपने भी वहीं तक सीमित होकर रह गये हों, बहुत स्वभाविक है. अपनी कमाई का हिस्सा बांटते हुए निश्चित ही उसके मन में आता होगा कि कल जब मैं इसकी जगह हूँगा तो किसी मोनू को कोई तकलीफ नहीं दूँगा और अगली पीढ़ी के मोनू की पूरी की पूरी कमाई उसी मोनू की होगी.
मोनू की आज बोहनी भी नहीं हुई थी.उसकी डूबती आँखों में तैरते सुनहरे सपनों की छटा देखने की किसी को फुरसत नहीं. बच्चे हों या बड़े, सब बस एक कुतहल लिए फिर रहें है कि टाईगर कहाँ दिखेगा? जिसे जो दिशा बता दी जाती है, वह जीप उस ओर मुड़ कर ओझल हो जाती है. और मोनू खड़ा अगली खेप की बाट जोहता है कि शायद कोई उससे उसके उबले चने खरीद ले. उसे किसी टाईगर का इन्तजार नहीं. उसका वन विभाग में नौकरी पाने का सपना ही उसका टाईगर है और वो उसी का पीछा कर रहा है अपने मासूम बचपन को व्यापार की इन चालों के तले रौंदते जिसमें उसे इन १० रुपयों को कमाने के लिए विभाग के लोगों से हिस्सा बांट करते अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए क्या क्या पाठ नहीं सीखने होते.
मैं उसका फोटो खींचना चाहता हूँ तो वो अपने साथी भद्र सिंह को साथ खड़ा कर लेता है फोटो खिंचवाने. फोटो खींचकर मैं उसकी ओर ५ रुपये बढ़ा देता हूँ. आत्म सम्मानी मोनू यूँ ही पैसे नहीं लेता-वो भी एक दोना चने मेरी तरफ बढ़ाता है. मैं चने हाथ में लिए जीप में आकर बैठ जाता हूँ उस भीड़ का हिस्सा बन, जिसे तलाश है टाईगर दर्शन की.
टाईगर नहीं दिखा-टाईगर हर रोज नहीं दिखते. टाईगर का पीछा करना इतना आसान नहीं.
हम वापस रिसोर्ट में आकर अपना सामान उठाते हैं और लंच के बाद शुरु होता है मद्धम संगीत के बीच वापसी का सफर.
थकान से मैं आँखे बंद कर लेता हूँ और मेरी आँखों के आगे मोनू का भोला चेहरा आ जाता है-साहब, आज बोहनी नहीं हुई है!!
आज भले ही उसकी बोहनी न हुई हो लेकिन उसके उदास चेहरे पर झलकते आत्मविश्वास से मैं पूर्णतः आशान्वित हूँ कि एक दिन उसे उसका टाईगर जरुर मिलेगा.
मन ही मन मैं बुदबुदा उठता हूँ , अलविदा मोनू!! मेरी शुभकामनाऐं तुम्हारे साथ हैं. एक दिन फिर मिलेंगे शायद इसी मोड पर-तब तुम वन विभाग में होगे. तुम तो शायद मुझे पहचान भी न पाओगे मगर ये वादा रहा, मैं तुम्हारी आँखों से तुम्हे पहचान लूँगा.
निदा फाज़ली साहेब का एक शेर बरबस ही याद आता है न जाने क्यूँ:
कभी कभी यूं भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है
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65 टिप्पणियां:
बहुत दिनों बाद दर्शन दिए ! यहाँ तो सूखा पड गया आपके बिना ! चलिए समधी बनने की बधाई स्वीकार करिए :)
इतनी लम्बी पोस्ट लिखी और बाद में कैसा शेर सुना दिया :)
ये तो अच्छा सुनाया समझाया आपने -बांधवगढ़ की यात्रा कथा अच्छी लगी .बाघ तो वहीं था ,कामाफ्लेग के चलते बस दिखा भर नही होगा !
"अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए क्या क्या पाठ नहीं सीखने होते." बहुत खूब!!
आप कैसे कह सकते हैं कि टाईगर नहीं दिखा, मोनू का टाईगर जैसा आत्मविश्वास तो देखा और सराहा आपने।
थोड़े और चने ले लिये होते। इत्ता तो दुबले हो गये हैं समधी बनने के चक्कर में।
आपको टाइगर न दिखा लेकिन हमें तो शेरे ब्लोगर दिखा कई दिनों बाद या कहे एक साल बाद २००८ मे दर्शन हुए थे उसके बाद २००९ मे ही मुलाक़ात हुई .
समीर भाई, बांधवगढ़ यात्रा का सुन्दर चित्रण किया.. पर अफसोस आपको टाईगर नहीं दिखा:(.
मोनु के रुप में बचपन के इ्स बीमारी को सामने आई..ये हि त्रासदी है.. शायद ये बचपन कोइ नहीं समझता और भविष्य..
समीर भाई,सौ. साधना भाभी जी, बहुरानी के आगमन पर आप के समस्त परिवार को हमारे परिवार की बहुत बधाईयाँ और शुभकामना नये साल की भी !!
नव दँपति को मेरे आशिष -
स-स्नेह
-दीपक व लावण्या शाह परिवार
मोनू को टाइगर मिलना अधिक महत्व्पूर्ण है भले हम आप को वहाँ टाइगर ना दिखे. आपकी अनवेदनशीलता के लिए नमन
मोनू को एक दिन उसका टाइगर जरूर मिले, हम भी यही आशा करेंगे।
बेटे की शादी की बधाई और समस्त परिजनों समेत आपको नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं।
मार्मिक,
मोनू के लिए हम भी प्रार्थना करते हैं कि उसे उसका टाइगर मिल जाय। वह बाकी दुनिया भी देख सके।
वन-भ्रमण कराने का शुक्रिया।
बांधवगढ़ की सफल यात्रा के लिए बधाई। आपने एक ऐसा शावक देखा जिसे शेर बनने से कोई नहीं रोक सकता।
यह यात्रा अच्छी लगी। बहुत दिनों के बाद नजर आए आप।
अपने अस्तित्व को बचाये रखने के लिए क्या क्या पाठ नहीं सीखने होते।
सच।
जिदंगी जीना आसान क्यों नही होता?
BAHOOOT DINO BAAD AAP AVATARIT HUy,
DEKHKAR ACCHA LAGAA.
तीन महीने पहले कान्हा नॅशनल पार्क घूमने गये थे.. बाँधवगाढ़ नही जा पाए थे.. हमे तो केम्प फायर के लिए माना कर दिया गया था..
नयी पुत्रवधू को बता तो है ना की उनके ससुर जी अंतरिक्ष से आई एक ऊडन तश्तरी है.. बहरहाल नयी पुत्रवधू आने के लिए बधाई..
वो तो पेड़ो से गिरा एक जंगल था.. यहा ऊँची ऊँची इमारतो से गिरे कई जंगल है.. जहा पर कितने ही ऐसे मोनू भटक रहे है.. बोनी की तलाश में.. कितने ही वन विभाग के लोग मोनू की कमाई का हिस्सा ले जाते है..
आशा है मोनू जब वन विभाग में नौकरी करे तो दूसरे मोनू की मेहनत का पैसा उसे मिलने दे.. वरना यहा तो मोनू बड़ा होकर मोनू का दर्द भूल जाता है...
नव वर्ष की शुभकामनाए..
अच्छा लगा कि आप परिजनों के साथ भारत भ्रमण का आनद ले रहे हैं. जीवन मे ये सब प्राप्त हो इसी के लिये तो हम इन आयोजनों का इन्तजाम करते हैं. आप को एक बार नये साल की फ़िर से बधाईयां.
बान्धव्गढ मे भी आपकी संवेदन शीलता देख कर पता चला कि एक संवेदन शील और नेक दिल इन्सान कहीं भी रहे उसका कोमल मन इन्सानियत को हर जगह महसूस करेगा. ईश्वर आपकी यह संवेदन शीलता बनाए रखे.
रामराम.
ये ऊपर आपको समधी बनने कर जो बधाई दी गई है वो हमारी तरफ से भी पर बधाई समधी बनने की क्यों, ससुर बनने की क्यों नहीं।
खैर
नववर्ष मंगलमय हो।
समीर भाई
बहूत समय बाद आपका लेख पढने को मिला. मजा आ गया. शेर मिले न मिले आपसे मिलना हो गया, यही बहुत है.
अक्सर अगर हम अपना बचपन याद करें, ख़ास कर जो छोटे शहरों से आए हैं, बहुत से मोनू अपने आस पास नज़र आयेंगे. आपकी यात्रा का विवरण रोचक था. आप सब को एक बार फ़िर से बधाई और मेरा निमंत्रण
aapko tiger nahin dikhaa to fir tiger ki photo net se lekar kyon daal di?
rahi bandhavgarh ki baat vahaan vaakai sunder najaaraa hai
jangli jaanvar khule men vicharate dekh man vaakai romaanchit ho uthataa hai.
haathi ki sawaari karte to achchha hota
khair jo bhi ho jungle dekha jungli jaanwar bhi to sansmaran lambe samay bane rahenge
aapko prakrutik drashyaawali dekh aane ki badhaaii
आज भले ही उसकी बोहनी न हुई हो लेकिन उसके उदास चेहरे पर झलकते आत्मविश्वास से मैं पूर्णतः आशान्वित हूँ कि एक दिन उसे उसका टाईगर जरुर मिलेगा.
जरूर टाईगर मोनू को मिल जाएगा ऐसा हमारा भी आत्मविश्वास कहता है और हम प्रे करेंगे
bahut mazaa aaya padhkar....bete bahu ko hamara aashirwaad,mera naam sirf batayenge.......kaam nahi,bechaari !
अच्छा लगा पढ़ कर....मोनू के लिए हमारी तरफ़ से ढेर सारे शुभकामनाये .......आगे चल कर जरुर वो वन विभाग में नौकरी पाये
Apki yatra to bahut achhi rahi aur padhne mai bhi maza aaya.
अनूप जी की बात से सहमति है, 10-15 रूपए के चने ले लेते, अपने साथ सबको खिलाते और उस बालक के आधे चने भी बिक जाते! :)
यात्रा विवरण रोचक रहा। मेरा एक मित्र बता रहा था कि बांधवगढ़ में तो होटल वगैरह वाले गारंटी से बाघ दिखाते हैं कि तीन दिन में बाघ न दिखा पाए तो जब तक बाघ न दिखा तब तक का स्टे फ्री। क्या ऐसा नहीं है? :) कदाचित् आपका तीन दिन का पिरोगराम नहीं था! :)
बाकी पुत्रवधु को भी आप कविता झिलवा दिए, ये तो अच्छी बात नहीं है!! ;)
मोनू के प्रसंग ने मन बहा दिया........पर यह सुखद है कि मोनू के पास सपना भी है और हौसला भी.ईश्वर इन जैसे सभी बालकों के सपने साकार करें,कर्म और मेहनत पर भरोसा करने का सामर्थ्य दें,यही कामना है.
बहूरानी अपने ऐसे संवेदनशील ससुर को पाकर अपने भाग्य को अवश्य सराहेंगी,देखियेगा.
मोनू के लिए शुभकामनाएं।
यात्रा विवरण अच्छा लगा।
बांधवगढ़ का काफी विवरण और तस्वीरे अपने टाईगर प्रेमी जबलपुर निवासी मित्र अमन विलियम्स के माध्यम से बहुत पढ़ने-देखने मिलता ही रहता है।
समीर जी आपकी ही तरह खालिस जबलपुरिया हूँ...जब आप बाँधवगढ़ के किस्से सुना रहे थे तब मैं जबलपुर की पुरानी कुलियों में यादों के किस्से बटोर रही थी। बहुत दिनों बाद जाना हुआ और फिर से परदेसी होने के बाद काफी दिनों बाद जाना होगा। बड़कुल दादा की खोवे की जलेबिया, कोतवाली के सामने हमारे घर के नीचे रमेश चाचा की इमली की चटनी में डूबी चाट, सराफा में रात में लगने वाली छोटू चाचा की कुल्फी (भरी ठंड में पत्तल में खाने का अलग स्वाद है), नेमा जी की गुड़-मूंगफली की चिक्की और भेड़ाघाट के दर्शन......और इस दर्शन के समय बहुत सारे मोनू सिक्का फेंकने की तलाश करते। अब कई जगह रोक लग चुकी है, फैसिंग बना दी गई है लेकिन बंदिशों को पेट कहाँ मानता है। कड़ाके की सर्दी में भी ये बच्चे भेड़ाघाट के ठंडे पानी में कूदने को तैयार भूख का यक्ष सवाल। हाँ मोनू की ऑँखों की तरह सपने कम के ही नसीब में होते हैं। क्योंकि इनके पंख परवाज भरने से पहले ही कतर दिए जाते हैं। इंशाअल्लाह उसके हर सपने पूरे हो। वैसे बाँधवगढ़, रूखड़ और कान्हाकिसली बचपन से मेरे पसंदीदा स्थान है...कभी गर्मी की हर छुट्टी इनमें से किसी एक जगह पर बिताई जाती थी। आपके बाँधवगढ़ चित्रण ने पुराने दिनों की सुनहरी यादें सामने ला दी गईं।
नई बहूरानी की बधाई स्वीकार करें...
शुक्र है कि ्कोई ब्लागर न दिखा :) वन यात्रा आप ने की घूम हम सब आये , धन्यवाद !!
आप आये बहार आयी, और बाघ महराज भी लाये, क्या बात है बहुत ख़ूब!
लगता है, परदेस में आपको फुर्सत रहती है और देस में समय नहीं मिलता, वर्ना क्या कारण हो सकता है कि आप आकाश को इतने लम्बे समय तक 'बिना सिंदूर की मांग' बनाए रखें?
यात्रा वर्णन के शब्द-शब्द आपका 'ब्राण्ड' चस्पा है। रोचक।
मोनू से एक दोना चना खरीद ही लेते तो अच्छा लगता।
आपने सूचित किया कि अब आप 'स-सुर' बन गए। अब तक क्या थे? नया ओहदा पाने पर बधाइयां ।
ये ससुरा तो कवि निकला… अफसोस करते हुए बहू के मन में कुछ ऐसे ही ख्याल आ रहे होंगे। भगवान उसे आपको झेलने की शक्ति दे।
भाई सा’ब प्रणाम, कैसे हैं?
तो इन दिनों भारत भ्रमण पर निकले हैं। जंगली जानवरों से मन भर जाये तो बम्बई वाले जानवरों को भी अपने दर्शन का लाभ दें।
पारिवारिक आनंद की कोई तुलना नहीं है. सर्दियों का भारत भ्रमण अच्छा लगा अगली किश्तें भी आनी चाहिए. नव नर्ष की शुभकामनायें... पुत्रवधू के लिए बधाई. मोनू का चरित्र और बचपन मन को छू गया.
बहोत खूब लिखा है आपने वह मज़ा आगया ....बधाई हो ...
अर्श
हम अभी तक नहीं जा पाए बांधवगढ़....हाँ कान्हा ज़रूर दो बार गए हैं! हाँ...मोनू अक्सर कभी स्टेशन पर तो कभी मंदिरों पर टकरा जाता है!
बहुत ही सुंदर यात्र का वर्णन किया आप ने,आप जंगल मे शेर देखने गये??? अजी हमारे घर मै ही एक शेरनी रहती है,
लेकिन आप ने मोनू के फ़ोटू भी ले लिये पांच रुपये मै ओर चने भी अजी उस के सारे चने लेलेते, आप अकेले ही शहर पहुचते पहुचते खा जाते, ओर वो बेचारा भी खुस हो जाता,
धन्यवाद
मोनू नें दिये चने का क्या किया ये नहीं लिखा.
दिल से कहूं,पूरा परिवार था, नई बहू थी, पूरे चने खप जाते, बोहनी तो क्या,मोनू को आप याद रहते.
नई बहू के साथ आप सभी को ढेर सारा प्यार, और नव वर्ष की खूब खूब बधाईयां.
इन्दौर आना हो तो सेवा का मौका दें, बांधवगढ़ में शेर नहीं दिखा तो क्या हुआ, हम आपको मांडवगढ़ ले जायेंगे.हमें तो शेर दिख ही जायगा.
९३०३२२०६४४
ससुर और समधी बनने के लिए हार्दिक बधाई . बांधवगढ़ की यात्रा की बढ़िया यादे बांटने के लिए धन्यवाद.
शेर नही दिखा तो कम से कम "वन्य जीव संरक्षण के तहत " एकाध शेर गोद ले लेते . कम से कम वर्ष 2006-2009 यादगार और स्मरणीय हो जाता .
जीवन का ये नया पक्ष मुबारक हो सरकार और नया साल समस्त खुशियां लेकर आये नव-दंपति के लिये
पुत्रवधु तो कितनी खुशनसीब हैं कि ससुर के साथ एक कवि मुफ़्त मिला है
बहुत दिनों बाद आपका दर्शन हुआ!आपके बिना यहाँ बिल्कुल सुना-सुना लग रहा था!
सुंदर चित्रण.....
अक्षय-मन
बांधव गढ़ में टाईगर यूँ ही नहीं दीखता जुगत बिठानी पड़ती है...हमें बताते तो आपके कमरे तक ले आते उसे...हिंदुस्तान में पैसा खर्चो तो क्या नहीं हो सकता...आप से नए साल पर बात करने की चाह थी लेकिन नंबर खो गया...उम्मीद है बच्चे महाबलेश्वर घूमने गए होंगे...कोई काम हो तो बतईयेगा...मुंबई कब आ रहे हैं...???
नीरज
Aapki yeh Blog entry padhkar laga.. Maano mai khud Bandhavgarh mein hoon.. Bahut accha laga padhkar..
Jahan tak Tiger dikhne ki baat hai Sir.. Toh that depends on 3 things..
Luck.. Patience.. and the most important thing is.. The King's mood..
Aap jab Park se bahaar aa rahe honge toh aapko ek baord mila hoga.. http://img165.imageshack.us/my.php?image=40975703sv8.jpg
Monu ko bhavishya ke liye shubhkaamnaye.. Forest dept. ko local logo ka support chahiye jisse woh ghuspaithiyo ko bahar rakh sake..
कान्हा नेशनल तो कई दफ़ा होई आय..
यह बांधवगढ़ कैसे छूट गया जी ?
कहीं वहाँ के ज़नवरों ने मेरे आने पर स्टे-ऊस्टे तो नहीं ले रखा है ?
ज़रा पता तो लगाइयेगा !
हा हा हा ! और मुझे बुद्दू बना के जाइएगा बान्धवगढ़. मैनें ही सारे के सारे शेर अपने (साझा) ब्लाग लाल-एन-बवाल पर चारा बन्धवा कर बुलवा लिये लिए थे और चूंकि अनुपम अग्रवाल जी से कह चुका था इसलिए झेंप मिटाने, परिवार सहित बनखेड़ी हो लिया. कम-अज़-कम लड़ैए (सियार) तो थे ही वहां, हा हा. संस्मरण ख़ूबसूरत लगा, बधाई. मुझे अभी अभी ख़बर मिली है के आपने वहां जबरन, एक कवि सम्मेलन (एकल) का एहतेमाम भी किया था, बतलाइए ! ये वजह काफ़ी नहीं हैं क्या शेर न दिखने के लिए ?
बड़े भाई, आपका मोनू मगर छा गया, हमेशा की तरह. सुन्दर लेख.
आपको पढ़ना हमेशा एक नए अनुभव से गुजरना होता है। बांधवगढ़ यात्रा का रोचक विवरण पढ़कर अच्छा तो लगा, मगर उन बच्चों के बारे में पढ़कर मन थोड़ा सा अनमना हो गया। हालांकि आपकी उम्मीद बंधाती बातें पढ़कर अनमनेपन को झटक दिया। ....आपको बधाई।
बांधवगढ़ यात्रा का सुन्दर चित्रण
बांधवगढ़ यात्रा का वृतांत पढ़ कर लगा की... हम भी आपके साथ इस रोमांचकारी यात्रा में शामिल है!.. सुंदर,जानकारी से परिपूर्ण और मनोरंजक लेख के लिए बधाई!
बांधवगढ यात्रा और समधी बनने पर बधाईयां। वैसे मैं तो कुछ और फोटो की आस लगाए था।
वाह समीर जी..! आपकी संवेदनशीलता को सलाम...!
रोचक विवरण ..
बंद कमरे में क्या भारत और क्या अमेरीका?
बहुत ही बड़ा सच है...घर के भीतर कुछ फरक नहीं पता चलता.
पूरा संस्मरण बेहद रोचक लगा.
-नए साल की हार्दिक शुभकामनाएं।
-बेटे के विवाह की बहुत बहुत बधाईयाँ ओर नव दंपत्ति को ढेर सारी शुभकामनायें..
टाईगर दिखने का सबसे अधिक चांस बांधवगड़ में है। यह इसलिये नहीं कि वहां पर्ति १०० वर्ग किलमीटर टाईगर की संख्या (घनत्व) सबसे ज्यादा है पर यह इसलिये कि वहां के टाईगर जीपों के सबसे अभ्यस्त हैं। मुझे आश्चर्य है कि आप टओईगर नहीं देख पाये। ऐसे टाइगर या जानवर देखने का सबसे अच्छा समय मार्च-अप्रैल रहता है। यह समय केवल जंगल की सुन्दरता देखने के लिये है।
किस रिसॉर्ट में ठहरे थे। अगली बार मैं भी उसी रिसॉर्ट में ठहरना चाहूंगा।
हमेशा की तरह बहुत सुंदर
Forest mein big cats ka dikh jana itna aasaan nahin haan is jugat mein paise khoob phunk jate hain.
Monu ke bare mein padhna achcha laga.
पहली बार आया हूँ.
सब से पहले तो
इस सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए बधाई
:
"हाथ में लेकर कलम मैं हाले-दिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया".
और फिर बहुत-बहुत धन्यवाद यात्रा वृतान्त के लिए आभार
.
सोचता हूँ पहले क्यों नहीं आया .
अब तो बार बार आऊँगा
.
नववर्ष मंगलमय हो!
सादर
द्विजेन्द्र द्विज
बड़े दिनों बाद आपके दर्शन हुए
बांधवगढ़ सफ़र पढ़कर यूं लग रहा था कि हम भी वहीं हैं
धन्यवाद मुफ़्त मे यात्रा करवाने की :)
बड्डे ।
जिस तरह यात्रा-विवरण को आपने एक मार्मिक जगह पर ले जाकर छोड़ा है--हम आपको सलाम करते हैं ।
अफ़सोस है--बालक की बोहनी नहीं होती रोज़ । और इधर हम अपनी ताज़ा जबलपुर यात्रा से लाई 'बड़कुल की जलेबी' चटका रहे हैं ।
कहां से शुरू किया था, कहां लाकर ख़त्म किया...
sameer ji sadar namaskar apka bandhavgarh sansmaran pada to apni bandhavgarh yatra ki yaaden taja ho gayee . humara tiger se samna nahee hua par kanha mein jaroor tiger dekne mila .
मेरा भी मन करने लगा बांधवगढ़ जाने को। पर तब मालगाड़ियां कौन गिनेगा?
आपको बहुत बधाइयां।
नए साल पर मोनू को याद करना अच्छा लगा. कामना है नए साल में ऐसे सारे मोनुओं को उनके Tiger मिल जायें. आभार.
समीर लाल जी,
अच्छा वर्णन है, किंतु इतनी सारी टिप्पणियों के बीच पता नहीं मेरी टिप्पणी आप पढ़ भी पाएँगे की नहीं|
खैर, बात ये है की कम से कम ये तो बता दिए होते कि बांधवगढ़ है कहाँ? और आपको बिना धूल मिटटी
की सड़कें कहाँ मिल गयीं ?
अमित
aap jaise kavi hriday shwasur ko paa kar aapki putravadhu nishchay hi prasann hogi
monu ka sapna zaroor poora hoga ,yahi shubhkamna hai.
बहुत अच्छा लिखा है, बधाई.
Sameer ji ,
bahut hee achchhe shbdon men apne yatra ke sansmaran likhe hain.yatra vrittant aisa hee pravahmaya bhasha men hona chahiye,taki padhne vale ke aage yatra kee pooree jhankee aa jaya.
Naya sal apke jeevan men dheron khushiyan lekar aayeis mangal kamna ke sath.
Hemant Kumar
रोचक यात्रा वृत्तांत।
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