बुधवार, अक्तूबर 03, 2007

अपराध बोध से मुक्ति

घर के सामने ही एक छोटा सा किन्तु लम्बाई के हिसाब से अपेक्षाकृत घना पेड़ है. सुबह शाम को जब चाय पीने बरामदे में बैठो तो उसे निहारना बड़ा अच्छा लगता है. मगर जिस तरह बिन बच्चों के घर में सब कुछ होते हुए भी एक सूनेपन का साम्राज्य हो जाता है वैसे ही बिन पंछियों के पेड़.

बस इसी उम्मीद से एक बर्ड फीडर (जिसमें चिड़ियों के लिये खाना भरा जाता है) खरीद कर ले आये और उसमें पंछियों के लिये दाने भर कर पेड़ पर टांग दिया. पता नहीं कैसे सबको खबर लगी. मगर दिन भर में पूरा डब्बा खाली. पचासों चिड़ियों से जैसे लहलहा उठा पूरा माहौल. एक दम बच्चों से भरे चहकते घर सा. मैं, पापा, मेरी पत्नी सब खूब खुश होते रोज सुबह शाम उसमें दाने भर कर. दिन भर चिड़ियाँ चहकती मानों आशीर्वाद दे रही हों भोजन कराने का. जबकि आभारी तो हम उनके थे जो इतनी रौनक लगा दी थी उन्होंने सूने बरामदे में. रोज का नियम हो गया. बहुत अच्छा लगता था उनको खाते देखना. उनको गाते देखना. खाना खत्म हो जाये तो भी थोड़ी थोड़ी देर में आकर देख जाती थीं कि वापस भरा कि नहीं.

birdfeederउनका आपसी भाईचारा ऐसा कि देखते ही बनता था. हम इन्सानों से बिल्कुल भिन्न. काश, हम उनसे कुछ सीख पाते. दरअसल, उस बर्ड फीडर पर एक बार में चार चिड़ियों के बैठने की ही जगह थी. तो चार की ड्यूटी लगती, वो खाती जातीं और नीचे गिराती जाती. बाकी सारी चिड़ियाँ जमीन पर पेड़ के नीचे भीड़ लगा कर उस नीचे गिराये गये दानों में से खातीं. उपर की चारों पारी पारी बदलती जातीं. खाना खत्म. सब उड़ जाती. खाना भरा, उनमें से जो आकर देख जाये, वो सबको खबर कर देती और मिनट भर में सब पचासों की तादाद में फिर इक्कठा.

मगर खुशियाँ कब अकेले आईं हैं.एक दिन देखा तो मुहल्ले की एक बिल्ली ने उनमें से एक चिड़िया को पकड़ कर अपना ग्रास बना लिया. आह्ह!! यह मैने क्या किया. आत्मग्लानी से भर उठा मैं. मेरी ही गल्ती है. लगने लगा मानो मैं ही उन बेचारी चिड़ियों को घेर कर ले आया इस बिल्ली के लिये. मैं ही जिम्मेदार हूँ. मुझे एक अपराध बोध ने आ घेरा. न मैं खाना रखता, न वो निश्चिंत होकर जमीन पर से भोजन कर रही होतीं और न ही ये बिल्ली उसे अपना शिकार बना पाती. अभी आराम से उन्मुक्त गगन में उड़ रही होती.

मन खराब हो गया. विषाद के उन्हीं लम्हों में मैनें तुरन्त बर्ड फीडर हटा लिया. अरे, खाना तो बेचारी कहीं भी पा लेंगी. पहले भी पा ही रहीं थीं. मगर कम से कम मेरे कारण इस तरह से काल का ग्रास बनने से तो बच जायेंगी. मैं सह लूँगा उस पेड़ का सूनापन, ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.

हो सकता है कि जंगल में या दीगर जगहों पर भी बिल्लियाँ और अन्य शिकारी पक्षी इन चिड़ियों को अपना शिकार बना रहे हों किन्तु जब यह सब मेरे सामने नहीं होगा तो कम से कम मैं अपराध बोध से मुक्त रहूँगा.

इसी तरह से तो आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं, वरना तो जीना दूभर हो जाये. Indli - Hindi News, Blogs, Links

51 टिप्‍पणियां:

अनिल रघुराज ने कहा…

आस पास घटित हो रहे अत्याचारों से नजर फिरा ली है, तभी तो अपराध बोध से ग्रस्त हैं।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

चिड़ियाँ भी उसी ने दी हैं, उनका खाना भी, अपराध बोध भी और बिल्ली भी.
साक्षी भाव भी उसकी देन है और उसका अभाव भी.
उसी ने आप में वह करुणा भरी है.
इस पोस्ट की उत्कृष्टता भी उसकी देन है.

बेनामी ने कहा…

समीर भाई

आसपास घटती घटनाओं को इस पारखी नजर से देखना आपके बस की बात है. हम तो अपने को आपके सामने हमेशा ही असक्षम पाते आये हैं..

याद है वो आज स्टेशन की घटना..आपके मन में तो कुछ कौंध गया होगा उस जूते की उछाल देख कर. आपका कोई सानी नहीं. आप पर किसी की खास दुआ है. कोई प्रेतात्मा तो नहीं.

हमेशा ऐसे ही बनी रहे.

खालिद

बेनामी ने कहा…

आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं..


--कितनी गहरी बात कह गये हल्के में, समीर जी.

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

आपके इस लेख को पढ़ा तो मुझे भी मर्म का एहसास हुआ किन्‍तु यह प्रकृति है, और सब उसी से बधे हुऐ है, किसी प्रकार का दोष लेना ठीक नही। शायद यही अंत रहा हो

सुबोध ने कहा…

नेक विचार हैं..लेकिन नियति और परिस्थितियों की तमाम बिल्लियां हमारे आसपास मंडराती रहती हैं..क्या करेंगे हम उनका

ALOK PURANIK ने कहा…

मार्मिक है।

रवि रतलामी ने कहा…

अच्छा, और आपके उस अपराध बोध का तो आपको भान ही नहीं है जो आपने उस बेचारी बिल्ली मौसी के भोजन की उपलब्धता को खत्म करके किया है!

अपना अपराध बोध उस प्रकृति, उस निराकार ईश्वर को दे दीजिए, जिसने ऐसे मांसाहारी जीव बनाए हैं.

परंतु फिर, याद कीजिए किसी सुबह का जब आपने अंकुरित मूंग का नाश्ता लिया था. लाखों की संख्या में उगे हूए, प्रकृति में अपनी आंखें खोलते हुए उन जीवों को आपने भक्षण किया था?

नजर का फेर? यही दुनिया है :)

मसिजीवी ने कहा…

बर्डफीडर लगाया कैटफीडर नहीं इसलिए कैट ने अपना फीड अपने परिश्रम से अर्जित किया, आपका अपराध बोध फिर क्‍यों
:
:
पर बोध का अपना तर्क होता है।

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

समीर भाई,
आजकल गुजरात के सँत कवि नरसिँह मेहता जी का एक भजन बार बार गुनगुनाती रहती हूँ ...
"हे सुख दु:ख मनमाँ न आणीये ,
घट साथे रे घडिया,
टाळ्या ते कोई ना नवँ टळे "
अर्थात :
" सुख दुख समेकृत्वा लाभालाभौ जयाजयो "
जैसी बात कही है -- कि, हे मन ! सुख या दुख मन मेँ न ला !
जिस पल ये शरीर घटीत हुआ, हर घडी का हीसाब भी रचा गया -जिन्हेँ कोई टाल नहीँ पाता "
इसी तरह, हर हाल मेँ जीने की और परम्` से लगन लगाये रखने की क्रिया जारी है -
-और, जीवन भी !
उम्दा आलेख पर स्नेह सहित बधाई !
-- लावण्या

mamta ने कहा…

इसी तरह से तो आस पास घटित हो रहे अत्याचारों और कारनामों से नजर फिरा कर हम सभी एक अपराध बोध मुक्त जीवन जी रहे हैं, वरना तो जीना दूभर हो जाये।

कितनी बड़ी बात आपने कह दी है।

बेनामी ने कहा…

एक संवेदनशील प्रविष्टी.

वैसे बिल्ली ने चिड़िया को क्या इसलिए खाया की वह आपके यहाँ दाना चुग रही थी? मुझे लगता है पक्षियों को दाना डालते रहें, बाकि प्रकृति के नियमानुसार चलेगा. सब प्रभू पर डाल दें.

थोड़ा दूख तो हो रहा है.

विजेंद्र एस विज ने कहा…

Bahut hi marmik auir komal prastuti hai sameer ji..dil ko chhoo gayi..
aabhar ke sath aapaka hi
-vij

Ashish Maharishi ने कहा…

shabd nahi hain mere pass kuch kahne ko

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत सुंदर तरीके से आपने यह बात कह दी

ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.

आज का सच और अपराध बोध यह बात आपकी कलम से बहुत ही खूबसूरती से निकली है
बेहद मार्मिक लगी आपकी यह रचना
शुभकामना के साथ

रंजना

Rajeev Ranjan Lal ने कहा…

एक साथ बहुत सारे पहलुओं को आपने छुआ है इस ब्लाग के माध्यम से-

इस दौड़ती जिंदगी में अगर हम थोड़ी देर रूक कर अगल बगल प्रकृति के सौंदर्य को निहारने का प्रयास ना करें, तो जिदगी व्यर्थ है, रखा क्या है बेकार दौड़ने में...आखिर लक्ष्य तो हो।

कर भला हो तो हो बुरा पुरानी कहावत है। किसी ने सोचकर ही कहा होगा। शायद आपने साधु और बिच्छु वाली कहानी पढ़ी होगी, जिसमें साधु बिच्छु को नदी से निकालने का प्रयास करता है और बिच्छु के डंक मारने से उसका हाथ हिल जाता है और बिच्छु पुनः पानी में गिर जाता है। फिर साधु का प्रयास उसे बाहर निकालने का, और बिच्छु का उसे डंक मारने का क्रम जारी रहता है। इसे देख एक स्नान कर रहे व्यक्ति ने जब साधु को उसकी मूर्खता का बोध कराना चाहा तो साधु का सहज उत्तर था...बिच्छु अपनी प्रकृति के अनुसार काम कर रहा है और मैं अपनी।

बुढ़ापे का जीवन एक अलग ही अध्याय है और उसे आप जैसे मार्मिक ही बेहतर समझ सकतें हैं...सपनों से समय चुराकर...तिनका तिनका जोड़कर जो घोंसला बनाया, उसे बच्चे घृणा से देखने लगें तो उसके हाथ जीवन के अंत में क्या आता है। आप खुशनसीब हैं कि आपके साथ आपके पिताजी हैं, और अक्सर बड़ों के बगल में होने से सोच ऊँची हो ही जाती है...जिंदगी जी के सारे अनुभव प्राप्त नहीं किए जा सकते, कुछ सीख दूसरों से भी लेनी पड़ती है। जरूरत है तो बस उनके करीब जाने की...जाने कब से वो हमारी राह देख रहे हैं।

बहुत अच्छा समीर जी...धन्यवाद।

Srijan Shilpi ने कहा…

अत्यंत मर्मस्पर्शी।

आपकी संवेदनशीलता का कल्पनाशीलता के साथ जब मणि-कांचन मिलन होता है तो ऐसी ही खूबसूरत लेखों का जन्म होता है।

साधुवाद !

PD ने कहा…

आज के इस जमाने में इंसान भी कुछ ऐसा ही कर रहे हैं.. 4 लोग ठाठ से खाते हैं और बाकी सभी उनके जूठन..
और मैं शर्त लगा कर कह सकता हूं की जिस चिड़िया को बिल्ली ने पकड़ा था वो नीचे वाली ही होगी..
खैर आपने बहुत ही अच्छा काम किया था, और मेरी माने तो उस बर्ड-फिडर को फिर से लग दें.. क्योंकि ऐसा तो है नहीं की जहां वो चिड़िया अभी खाती होगी वहां कोई बिल्ली नहीं होगी? खतरा तो उन्हें वहां भी होता होगा..
और अपने अपराधबोध को पनपने ना दें.. आपने बहुत ही अच्छा काम किया था..

Pankaj Oudhia ने कहा…

यह शुभ काम जारी रखे। समस्याओ के सामने हारने से कुछ नही होगा। फीडर कुछ ऊँचाई पर लगाये और एक कुत्ते की आवाज वाला खिलौना लगा दे। बिल्ली नही फटकेगी। भारतीय बिल्ली तो ऐसे मे नही फटकती , केनेडियन बिल्ली का पता नही। पर आप जैसे कोमल भावनाओ से भरे शख्स के आस-पास चिडियो का होना जरूरी है।

Sanjay Tiwari ने कहा…

असली शिक्षा-दीक्षा तो ऐसे ही आसपास के माहौल से मिल जाती है.

Sanjeet Tripathi ने कहा…

बहुत गहरी बात!!!
शुक्रिया इस सांकेतिक पोस्ट के लिए!!

पारुल "पुखराज" ने कहा…

समीर जी… आपका लेखा पढ्कर मुझे याद आ गया जब अपने बेटे की ज़िद्द पर तोता पाला था और जाड़ों की एक रात ्बाहर ठंड मे छूट जाने पर सुबह उसे मरा हुआ पाया था तो कुछ ऐसा भाव मन मे उपजा था ।

पंकज बेंगाणी ने कहा…

हम प्रकृति के आगे बेबस हैं. उसका ही नियम है. उसका ही चक्र है.

हम मन के आगे भी बेबस हैं. इसका ही राज है इसका ही राज़ है.

बेनामी ने कहा…

हमारे मानव होने की अपनी सीमाएँ हैं...कुछ चीजें नियती ने खुद तय रखी हैं, उनमे से एक मौत भी है...उस चिडिया ने ापने काल से पहले तो कम से कम भर पेट खाना खाया..

Admin ने कहा…

प्रकृति तै है ही सर्वोपरि एवं लेख सम्पूर्ण दर्शन

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा ने कहा…

मैनें तुरन्त बर्ड फीडर हटा लिया. अरे, खाना तो बेचारी कहीं भी पा लेंगी. पहले भी पा ही रहीं थीं. मगर कम से कम मेरे कारण इस तरह से काल का ग्रास बनने से तो बच जायेंगी. मैं सह लूँगा उस पेड़ का सूनापन, ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.


बहुत गहरी बात की है। पर जिन्दगी का सच तो यही है।

Pratyaksha ने कहा…

स्कूल में एक कहानी पढ़ी थी , रक्षा में हत्या । उसकी याद आ गई ।

Manish Kumar ने कहा…

क्या बात है! पेड़ और पक्षियों की बात कहते कहते कितनी सारगर्भित बात कह गए आप..

मीनाक्षी ने कहा…

आपकी वर्तनी शुद्ध है, भाषा शैली प्रभावशाली है.
"उनका आपसी भाईचारा ऐसा कि देखते ही बनता था. हम इन्सानों से बिल्कुल भिन्न. काश, हम उनसे कुछ सीख पाते. "
आपने सच कहा . लेख़ अपने आप मेँ एक गहरा सागर है जिसकी गहराई मेँ जाकर बहुत कुछ पाया जा सकता है.
मैँने पाया कि आने वाले समय मेँ मुझे अपने बच्चोँ को कैरियर की तलाश मेँ उन्मुक्त गगन मेँ उड़ने से पहले बिल्लियोँ से रक्षा की सीख देनी पड़ेगी. बहुत बहुत धन्यवाद

Atul Chauhan ने कहा…

हर किसी का भोजन किसी दूसरे की मौत है। वनस्पतियॉ सजीव हैं,मगर फिर भी मनुष्यों समेत तमाम जानवरों का पेट भरती हैं। आदमी का स्वभाव है कि वह जिस चीज से प्यार करता है,उसके बिना नहीं रह सकता। आपने तो 'गीता' की तरह ही अपना कर्म किया है…………आगे जो भगवान की मर्जी। आखिर "जीना इसी का नाम है"

निशा मधुलिका ने कहा…

बहुत मार्मिक प्रसंग है

साधवी ने कहा…

समीर जी

आप कितना सारगर्भित लिखते हैं. कम नजर आते हैं आप सा लिखने वाले. हमेशा संदेशों के साथ.

अनूप शुक्ल ने कहा…

मार्मिक लेख है।

namita ने कहा…

billi ka jhaptta marana to ham nahi rok payenge par apne dukh ke dar se kya chiriyon ko dana nahi dalenge .ha shayad yahi theek hai kyon ki chahchahat sunane ka swarth to hamara hai na.uske liye chidiyon ko khatare mein dalne ka hame bhala kya hak.

andar tak man bheeg utha .bahut pyarii bat bahut sanvedansheel tareeke se bayan ki hai . .

बोधिसत्व ने कहा…

इसी से बचने के लिए तुसीदास ने कहा होगा
मूँदहु आँख कतहु कछु नाहीं....जय हो बाबा समीर की

पुनीत ओमर ने कहा…

ठीक उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर. उन बुजुर्गों को बस यही तसल्ली है कि जहाँ भी हैं, बच्चे खुश हैं और इसी बच्चों की खुशी के लिये तो वे घर के सूनेपन को अपनी जीवनशैली बना बैठे हैं.

सच कहूँ समीर जी तो आपका लेख पढ़ कर ह्रदय भर आया। कहीं ना कहीं मुझे भी ये अपराध भाव हमेशा ही रहा कि मैनें भी हमेशा अपने माता पिता से वही छीन रखा है जिसकी उन्हें इस उम्र में सबसे ज्यादा जरूरत है- मेरा साथ्…

वैसे महाशक्ति जी की बात से सहमत हूँ। ये प्रक्रति का सन्तुलन ही है, और कुछ नही। सोचिये सागर में अगर बड़ी मछली छोटी मछलियों को खायेगी नहीं तो सारा सागर मछलियों से ना भर जायेगा? संसार में हर जीव दूसरों पर निर्भर है। इसी में सन्तुलन है। सवाल सिर्फ़ इस बात का आता है कि हम दूसरों का प्रयोग अपनी जरूरतों भर के लिये करें, ना कि अपने शौक या हवस के लिये।

बेनामी ने कहा…

गुरुजी नए चश्मे मे झकास लग रहे हो ,बिल्कुल २० साल का जवान ...मस्त लग रहे हो ...काफी दिनों से आपके चिट्ठे पर कमेंट नही कर पाया ,हलाकि पढता रोज था ...लेकिन ऑफिस मे पढता था ,और कमेंट नही कर सकता था ,दिल में तो कमेंट करने कि हिलोरे उठ रही थी ......खैर !! हमारे ब्लोग पर आपके लिए एक पहेली है ,बूझो तो जाने !!!!

बेनामी ने कहा…

आप भी समीर जी..... काहे अपराधबोध से ग्रसित होते हैं!!ज्ञानदत्त जी ने सही कहा है ऊपर अपनी टिप्पणी में, यह प्रकृति का नियम है, फूड चेन सीढ़ी के अलग-२ स्तर हैं। इसमें आपको अपराधबोध से ग्रस्त होने की आवश्यकता नहीं, आपने चिड़ियाओं के लिए खाना रख अपना कर्म किया!! :)

Neeraj Rohilla ने कहा…

समीरजी,
आपकी इस पोस्ट से आपके व्यक्तित्व के एक अन्य संवेदनशील पहलू के बारे में पता चला ।

खालिदजी किस किस्से की बात कर रहे हैं? जूते की उछाल के बारे में हमें भी कुछ बताईये । अगर आप पर किसी खास दुआ का असर है तो ईश्वर करे कि आप पर उस दुआ का असर बना रहे जिससे इस संसार में अच्छाईयाँ फ़ैलती रहें ।

साधुवाद स्वीकार करें ।

सुनीता शानू ने कहा…

आपने अपनी पोस्ट में एक बहुत गहरी बात कही है...उन बुजुर्गों की तरह जिनके बच्चे अपने कैरियर की तलाश में उन्मुक्त गगन में उड़ चले हैं घर से कहीं बहुत दूर...सचमुच एसा लगता है यह शब्द लिखते वक्त कितनी पीड़ा का आपको सामना करना पड़ा होगा...

जो आया है जग में उसे एक न एक दिन तो जाना ही है आप खुद को परेशान न करें...

सुनीता(शानू)

अजित वडनेरकर ने कहा…

बहुत सुंदर मार्मिक अभिव्यक्ति ...
यही सब पढने तो आप के धाम आते हैं हम.

dpkraj ने कहा…

चिडियाओं को दाना चुगते देखना मुझे अच्छा लगता है.
दीपक भारतदीप

dpkraj ने कहा…

चिडियाओं को दाना चुगते देखना मुझे अच्छा लगता है.
दीपक भारतदीप

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

प्रकृति का यह चक्र तो चलता ही रहेगा । अगर आप पक्षियों को दाना -पानी देने का काम एक बार शुरु कर रहे हैं तो आप के न देने के बावजूद वह दोबारा आयेगीं और अनजाने मे वह किसी और का भक्षण भी बनेगीं । मैने कई सालों से यह कोशिश कर के देख लिया है और कोई फ़ायदा भी नही हुआ , मै उनको आजाद करता हूँ और वह जाने का नाम ही नही लेते , अब इनका क्या किया जाये ?

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

समीर भाई,
एक दम सही कहा आपने,बिन बच्चों के घर में सब कुछ होते हुए भी एक सूनेपन का साम्राज्य हो जाता है वैसे ही बिन पंछियों के पेड़.
पोस्ट मार्मिक है। उम्दा आलेख पर बधाई !

SahityaShilpi ने कहा…

मार्मिक संस्मरण! यद्यपि हममें से अधिकतर लोग आपके ही शब्दों में हर तरफ से नज़रें चुराकर अपराध-बोध से मुक्त रहते हैं, पर कभी-कभी ऐसी कोई घटना हमें अपराध-बोध दे ही जाती है. फिर भी शायद आपको बर्ड-फीडर फिर से लगा ही देना चाहिये.

--
अजय यादव
http://ajayyadavace.blogspot.com/
http://merekavimitra.blogspot.com/

Satyendra Prasad Srivastava ने कहा…

आप बेवजह अपराध बोध से पीड़ित हैं, यही प्रकृति का नियम है। इकोलॉजिकल बैलेंस।

Mohinder56 ने कहा…

समीर जी बहुत सुन्दर,
कभी कभी वह हादसे भी अपराध बोध से ग्रसित कर देते हैं जिन के लिये शायद हम सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं होते...
आपने जिस तरह से लेख के लिये कलम चलाई है लगा चलचित्र आंखों के सामने चल रहा है

delhidreams ने कहा…

aap kitni chdiyon ka pt bhar rahe the, wo aapke apradh bodh se jyada keemti tha...

Suvichar ने कहा…

आपका यह लेख पड़कर अच्छा लगा, हर कोई माँ बाप चाहता है की उसकी संतान जहा कही भी रहे खुश रहे लेकिन जो उनकी मन के अन्दर की पीड़ा, आँख से टपकते हुऐ आंशुऔं की बूंदौं की धारा और अकेलेपन को नज़र अंदाज़ नही किया जा सकता है.

Anita kumar ने कहा…

समीर जी बहुत ही सुन्दर लेख है॥लेख कहाँ ये तो आप के मन का उदगार है। और मेरे एहसासों से कितना मिलता जुलता, लगा हम भी आपकी और आप के परिवार की खुशियों में शामिल थे और दु:ख में भी