रविवार, सितंबर 23, 2007

आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!

समय भी अजब चीज बनी है इस दुनिया में. जब हम चाहते हैं कि जल्दी से कट जाये तो ऐसा रुकता है कि पूछो मत और जब चाहें कि थमा रहे, तो ऐसा भगता है कि पूछो मत. बिल्कुल उलट दिमाग व्यक्तित्व है समय का.

कुछ दिन पहले दफ्तर से घर के निकला. उस रोज घर जरा जल्दी पहुँचना था. स्टेशन से ट्रेन छूटी और तुरन्त ही कुछ दूर आकर रुक गई. तीन स्टेशन छोड़कर एग्लिंगटन स्टेशन पर किसी ने ट्रेन के आगे कूद कर आत्महत्या कर ली थी. पुलिस की जाँच पड़ताल जारी थी. उनकी जाँच समाप्ति के बाद ही एक एक करके सब ट्रेनें छूटेंगी. वाकिया हुए पहले ही एक घंटे हो चुके थे, उम्मीद थी कि जल्द ही हरी झंडी मिलेगी.

यात्रियों का समय काटे नहीं कट रहा था. मैने कुछ देर अखबार पलटाया. कुछ देर इधर उधर लोगों के चेहरे के हाव भाव पढ़ता रहा. कोई परेशान दिख रहा था, तो कोई सेल फोन पर बातचीत में मगन और कोई कसमसाया सा सोया था. कुछ बतों में मशगुल थे और कुछ रेल्वे को गरिया रहे थे. अब कोई पटरी पर कूद गया तो रेल्वे क्या करे? मगर मानव तो मानव है, गल्ती थोपी और खुश हो लिये.

एक सज्जन अपने मित्र से बड़े मजाकिया अंदाज में बोले कि इनको भी रश ऑवर में ही कूदना होता है. १२ या १ बजे दिन में कूद लेते तो अब तक ट्रेक क्लियर हो जाता. कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त ने मानव को. एक महिला का बेटा डे-केयर में था, उसे उसके लिये चिंता थी. ऐसा लगा कि जैसे मैं ही बस फुरसत में हूँ. घर फोन कर दिया था और इत्मिनान से बैठा बाकियों की परेशानियों का अवलोकन करने में सच्चे भारतीय की तरह ऐसा खो गया कि खुद की परेशानी हावी ही नहीं हो पाई.
time

सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी. मैं सोचने लगा कि कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाये. वैसे भी कहा गया है कि किसी का असली रुप देखना है तो उसे गुस्से में या परेशानी में देखो. मेरे साथ कम से कम यह समस्या नहीं है. जैसा सुबह दिखता हूँ, वैसा ही शाम को और वैसा ही गुस्से में भी, जब कभी अगर आ जाये तो. :) उपर वाले की बड़ी कृपा है और आप सबने तो मेरी तस्वीर गाथा तो देखी ही है.

लगा कि समय आगे बढ़ ही नहीं रहा. तीन घंटे का इन्तजार लोगों के लिये मानो तीन साल की तरह कटा, तब कहीं ट्रेन चली. वाकई, इन्तजार की घड़ियां अक्सर बहुत मुश्किल से कटती हैं.

वहीं दूसरी तरफ, पिता जी भारत से मई में आ गये थे चार माह के लिये. हम भी निश्चिंत थे कि अब लम्बे समय तक हमारे साथ रहेंगे. रोज शाम को साथ बैठ कर चाय पीना, टीवी देखना, जमाने की बातें, अपनी आलेखों और कविताओं को सुना सुना कर उनसे स्नेह भरी वाहवाही लूटना.

यही रुटीन हो गया था. हर लेख और कविता पर उनकी तारीफ सुनना मेरी आदत सा बन गये इतने कम दिनों में ही. पत्नी का रुटीन भी उन्हीं के इर्द गिर्द घूमने लगा. अब पापा का चाय का समय हो गया, अब दवा देना है, अब नाश्ता तो अब खाना. सब कुछ उसी रंग में रंग गया. सब बड़े मजे से चलता रहा और इस बार तो समय को जैसे पंख नहीं पंखा लग गये. आज चार महिने बीत भी गये. अभी कल ही तो आये थे ऐसा लगा. कितना तेज समय बीता, समझ ही नहीं पाये.

अभी कुछ घंटे पहले ही उन्हें हवाई जहाज पर बैठा कर लौटे हैं. घर तो जैसे पूरा खाली खाली लग रहा है. दादा जी के जाने से तीनों चिड़िया भी उदास है, जो शाम को उनको अपनी चीं चीं से हैरान कर डालती थीं, आज वो भी चीं चीं नहीं कर रहीं. पत्नी चुपचाप अनमनी सी बैठी टीवी देख रही है, जैसे अब उसके पास कोई काम करने को ही नहीं बचा.

पापा, बार बार सीढ़ी पर छड़ी की ठक ठक सुनाई दे रही है, लगता है आप उतर कर फेमली रुम में आ रहे हैं. मैं इन्तजार कर रहा हूँ आपको अपना नया आलेख सुनाने के लिये.

अब तक तो पिता जी का ३ घंटे का सफर कट भी गया होगा. फिर भी अभी १८ घंटे बाकी ही हैं जब वो इतने लम्बे सफर से थके हुए भारत पहुँचेंगे.

मेरा मन भी बहुत भारी है, बस तसल्ली इतनी सी है कि नवम्बर में मैं खुद भारत जा रहा हूँ तो फिर से साथ हो जायेगा.

सोच रहा हूँ आज यह लेख लिख कर किसे सुनाऊँगा जो उस स्नेह से तारीफ करते हुए कहे कि तुमने आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है और मैं दुगने उत्साह से इसे प्रकाशित करुँगा. Indli - Hindi News, Blogs, Links

67 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सच...आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!

Udan Tashtari ने कहा…

काकेश

सच में, आसूं आ गये. आभार. जरुरत थी इसकी.

अनिल रघुराज ने कहा…

समय और रिश्ते की कसक। गहरी अनुभूति का सुंदर चित्रण। और हां, समीर भाई मेरी पत्नी का डिजाइन ब्लॉग अभी ब्लॉगर पर नहीं, वर्लप्रेस पर है, उसका पता है...
http://designflute.wordpress.com/

Chandra S. Bhatnagar ने कहा…

बहुत सच्चे भाव। हम चाहे कितने ही बड़े क्यों न हो जायें, माता-पिता की छत्रछाया का कोई विकल्प नहीं है। विचार की यात्रा में भूगौलिक अंतराल नहीं होता। इस लिये मुझे यकीन है कि पिता जी के भारत पहुंचने से पहले ही उन तक आप के विचारों की कंपन पहुंच गयी होगी। औए उनका आशीष इस लेख प्रेरणा बन आप के माधय्म से हम सब तक पहुंच गया। और नवंबर आने में तो एक महीना ही बचा है।

बेनामी ने कहा…

बढ़िया, बहुत सुन्दर लिखा है।

बेनामी ने कहा…

Thanks for sharing and wah! Enjoyed reading such a beautiful note. Excellent.

उन्मुक्त ने कहा…

मुझे जलन होती है। भगवान ने भावनाओं की अभिव्यक्ति करने की इस कला को मुझे क्यों न दिया।
समीर जी, मां सरस्वती की आप पर हमेशा ऐसी ही कृपा रहे।

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

सच में आज आपने बहुत अच्‍छा लिखा है। यात्रा के समय का वर्णन निश्चित रूप से बहुत अच्‍छा है आपने सामन्‍य यात्रियों के चेहरे पर आने वाले भाव हो अच्‍छा व्‍यक्‍त किया है। मैने भी हाल मे 24 घन्‍टे की यात्रा की थी। बडा मजा आया था।

एक पिता के प्रति आपके भाव देखकर काफी अच्‍छा लगा, बस दिल कहता है अब वह प्‍यार कहॉं ? पर आपने कह दिया यहॉं।

पंकज सुबीर ने कहा…

संसार है इक नदिया दुख सुख दो किनारे हैं
ना जाने कहां जाएं हम बहते धारे हैं
धरती पर अंबर की आंखों से बरसती हैं
इक रोज़ वही बूंदें फिर बादल बनती हैं
इस बनने बिगड़ने के दस्‍तूर नियारे हैं
समीर जी क्‍या करें पेट हमेशा मिट्टी से काट देता है । और आदमी निकल जाता है उन अनजानी दिशाओं को जहां पर कोई आपना नहीं होता केवल आहटें होतीं हैं आहटें अतीत की आहटें माज़ी की । और हम लौट लौट कर देखते हैं कि कोई शायद हमारे साथ आया है । ये किसकी आहट है
कैफ भोपाली ने कहा था
कौन आया है यहां कोई न आया होगा
मेरा दरवाज़ा हवाओं ने हिलाया होगा
कैफ परदेस में मत याद करो अपना मकां
अबके बारिश ने उसे तोड़ गिराया होगा
माता पिता दरअस्‍ल में वो सायादार वृक्ष हैं जिनकी छांव में बैठकर हम उम्र भर बच्‍चे बने रहने का आनंद उठाना चाहते हैं । आप की पीड़ा जिस तरह से घनीभूत होकर उमड़ी है वह भी उसीलिये है क्‍योंकि आप ने अपने बालमन को पिता के साथ बांधकर रखा है । हम सब अपने बालमन को अपने माता पिता के साथ बांध कर रखते हैं और शायद इसीलिये हम उनके सामने आकर बच्‍चे हो जाते हैं । खैर आप तो नवंबर में अपने वतन आ ही रहे हैं । और अब तो संचार के कितने साधन हैं ।

बेनामी ने कहा…

आज तुमने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!
yae toh aapkae peeta ka aahirvaad hae shabd nahin haen unkae
aap kee kalam kee dhar ko aadhar hae unka . vishwaas rakhe aap mae woh haen hamensha
regds
rachna

Sajeev ने कहा…

नवंबर दूर नही है जनाब बस एक महीने की ही तो बात है

rachana ने कहा…

उस हरे टॉप वाली लडकी की सुन्दरता भले ही टाईम बाउन्ड हो, लेकिन आपके लेखों की सुन्दरता बिल्कुल टाईम बाउन्ड नही है ( आपकी तरह ही :))हमेशा उतने ही सुन्दर. सच ही है, जिन्हे हम चाहते हों उनके कहे शब्दों का हमारे लिये खास महत्व होता है.

पंकज बेंगाणी ने कहा…

दोनो बाते बहुत सही है. इंतजार की घडीयाँ काटे नही कटती और किसी स्नेही के पास होने पर वही घडीयाँ दूगनी रफ्तार से चलने लगती है.

तब दिल मे आता है कि काश ये घडीयाँ थोडी देर के लिए ही सही बंद तो हो जाए.

यहाँ तक कि उन्हे स्टेशन या एयरपोर्ट छोडने जाओ तब भी बारबार नजरे घडी पर ही जाती है कि अभी 10 मिनट है 5 मिनट है. जब बिछडने की घडी आती है तभी यह अहसास होता कि उनके बिना हम कितने अधुरे हैं. :(

बेनामी ने कहा…

पिताजी कुशलता से पहूँच गये होंगे.

यह खालीपन बहुत "दूष्ट" होता है. गुमशुम और नम आँखें शुन्य को ताकती है. आपकी भावनाएं समझ सकता हूँ.

आपने बहुत अच्छा लिखा है.

ALOK PURANIK ने कहा…

सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी।
हे रामजी
क्या क्या दिखता है आपको।
मोगंबो खुश हुआ कि ऐसे मारक टाइम में भी आपकी आबजर्वेशन शक्ति कहीं कम नहीं होती। वो सब देखते हैं, जो देखना जरुरी है।
कहां से पायी ये नजर।

रंजू भाटिया ने कहा…

एक बार फ़िर आपके लेखन ने यह कहने पर मजबूर कर दिया की
आप एक साथ हँसाने और और भावुक करने का काम कर सकते हैं

"कितना असंवेदनशीन बना दिया है वक्त ने मानव को""सच में आज का इंसान चाहे वो कही भी रहे उस में संवेदना समाप्त होती जा रही है !!

दूसरा भाग दिल को छुने वाला है ...
माता पिता की छाया हर पल एक नया उत्साह देती है यह बात आपने बहुत ही सुंदर ढंग से कही है
नवम्बर दूर नही है :) बधाई !!

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

हम भी कह दें - बहुत सुन्दर. पर वह माई-बाबू जैसे लोगों के कहे का स्थान कहां ले सकता है.

सुनीता शानू ने कहा…

तूने पैसा बहुत कमाया
इस पैसे ने देश छुड़ाया
देश पराया छोड़ के आजा
पंछी पिंजरा तोड़ के आजा
आजा उम्र बहुत है छोटी...
अपने घर में भी है रोटी...

सच मुच गुरूदेव आपने सही लिखा आज इन्सान मे संवेदनाएं कम हो गई है सभी को अपनी-अपनी फ़िक्र है...बहुत सुन्दर लिखा है आपने...आपका भारत में स्वागत है...हमे भी आपकी कवितायें सुनने का सौभाग्य प्राप्त होगा...और आपको सुनाने का...:)

सुनीता(शानू)

Amrita.. ने कहा…

Pyare bhaiya!
bahut bhavuk ho gayi hu.. apka yeh lekh padh ke...
Kya zindagi hai...jis baat ka aapko itna dukh ho raha hai..usi baat per hame harsh hai...Arrey wah!
Mausa ji wapas aa rahe hai...jabki sacha hai ki ye tio mai bhi nahi jaanti ki ab meri mulakaat unse kab hogi? per fir bhi dil bahut khush hai!
BAs aap jaisa haal kuch mera bhi hai! Ma aajkal saath hai...sara ghar unhine sambhal ke rakha hai..mujheme to abhi kaam kerne ki shhamta hi nahi bachi hai...wo rehti hai to dil laga rehta hai..jab wo chali jayengi tab din kaise katoongi yeh soch ker hi man sihar jata hai!
Per kya kare kab tak unhe sabse door ker apne paas rakh sakti hu...
Per fir bhi man to yahi kehta hai, kuch din aur ruk jaati,akhir " Dil hi to Hai!"

Shastri JC Philip ने कहा…

जीवन में हम सब कई प्रकार का सौन्दर्य देखते है. उस युवती का सौन्दर्य जो समय के साथ कम होता जाता है एवं जो अगली मेकप के बाद ही वापस आ पाता है. उस पिता या माता का "सौन्दर्य" जो उमर के साथ साथ बढता ही चला जाता है. मां बाप के लिये इससे अधिक बडा अभार क्या हो सकता है!

आज मेरे पिताजी 80 की ओर दौड रहे हैं, कडक आवाज नरम पड गई है, पैर मुड गये हैं, चेहरे पर झुर्रियां बढती ही जा रही है, स्मरण शक्ति कम होती जा रही है, लेकिन उनका हर वाक्य जो प्रेरणा देता है वह अविस्मरणीय है. कल ही मैं गांव जाकर उनसे मिलकर लौटा हूं.

इस लेख के द्वारा आपने मेरे जीवन के भी एक महत्वपूर्ण आयाम को स्पर्श किया. अभार समीर जी -- शास्त्री जे सी फिलिप


हिन्दीजगत की उन्नति के लिये यह जरूरी है कि हम
हिन्दीभाषी लेखक एक दूसरे के प्रतियोगी बनने के
बदले एक दूसरे को प्रोत्साहित करने वाले पूरक बनें

Shiv ने कहा…

समीर भाई,
हम सभी रोज कहते हैं कि आपने बढ़िया लिखा है.आज थोडा सा बदलाव कर के कहते हैं कि आपने बहुत बहुत बहुत बढ़िया लिखा है....

धन्यवाद

Sanjeet Tripathi ने कहा…

सुंदर, भावपूर्ण!!

डा.अरविन्द चतुर्वेदी Dr.Arvind Chaturvedi ने कहा…

हम जब जागते हैं,तब आंखें खुली होती हैं,बहुत कुछ देख लेते हैं. परंतु कुछ आंखें register करती हैं,कुछ नहीं.
हमारे सामने जो चल रहा है ,उसे महसूस करने के लिये, आंखे ही नही दिल भी चाहिये.
आपने सिद्ध कर दिया कि आप ने जो देखा,दिल से देखा.
भई वाह!!!

Pankaj Oudhia ने कहा…

दिल की आवाज है ये।

परेशान न हो हम आपके साथ है। दूर हुये तो क्या इस इंटरनेट ने सब को करीब ला दिया है। इस सितम्गर (माफ करे सितम्बर) के बाद नवम्बर बहुत करीब है।

anuradha srivastav ने कहा…

दिल छू लेने वाला लेख ।

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

अमाँ यार! इत्ते सारे ब्लॉगर दोस्त हैं आपके और आपको सुनाने के लिए लोगों की कमी पडी है. सचमुच बहुत अच्छा लिखा है.

पारुल "पुखराज" ने कहा…

माँ बाबा से ज़्यादा और कौन सराहेगा?समीर जी बहुत सरल लिखा है आपने …शुक्रिया

मसिजीवी ने कहा…

कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाय

धत्‍त

सनातन सुन्‍दरता तो केवल हमारी ही है कि कोई भूल से भी 'आरोप' नहीं लगा सकता कि उस क्षण हमपर कोई खणभंगुर ही सही सौन्‍दय्र की छाया पड़ी थी :)

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

समीर भाई,
आपने सचमुच बहुत अच्छा लिखा है.ऎसेही लिखेते रहिये.बहुत बहुत बहुत धन्यवाद !

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

आपने तो बाबूजी की याद दिला दी, जिन्हे अपनी बच्ची दुनियाँ की सबसे प्यारी चीज़ लगती थी, मेरी कविताएं कितनी कितनी बार पढ़ते थे और कितना खुश होते, वो कविता उनकी जेब में पड़ी रहती कार्यालय से घर तक जो मिलता उसे दिखाई जाती.. और जाने क्या क्या..?

जब मैं 9th में थी समीर जी! तब वो एक दिन अपने किसी मित्र के साथ आये और मेरा परिचय कराते हुए उन्होने कहा " ये मेरी बेटी है, 9th में पढ़ती है और 10th वालों को पढ़ा सकती है।" वो मेरा मूल्यांकन

किस आधार पर करते थे मुझे नही पता, लेकिन मुझे याद है कि उनके इस वाक्य ने मेरी नींदें उड़ा दी

थी। मैं दिन रात सोचती थी कि कहीं अगर मेरे नंबर कम हो गये तो मैं क्या करूँगी? कैसे मैं उनसे नजरें

मिलाऊँगी और किस्मत देखिये कि जब हाईस्कूल परीक्षा के दिन आये तो वे दुनियाँ छोड़ कर चले गये।

मेरा परिणाम उन्होने देखा तो होगा ही लेकिन एक बार भी प्रशंसा नही की। तब से मैं हर परीक्षा ये सोच

कर देती हूँ परिणाम बाबू जी को देखना है और वो मुझ पर बहुत विश्वास करते हैं।

Pratyaksha ने कहा…

सचमुच बहुत सुंदर लिखा है ।

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

बहुत भावुकता से ओत-प्रोत है आपका लेख, आँखें नम हों गयीं, ममा पापा से मिले २ साल हो गये और अभी कोई चांस भी नहीं है जाने का या उनके आने का, वैसे ही आज़कल बहुत याद आ रही है अपके लेख ने तो उनके साथ बिताये पलों का ताज़ा कर दिया...
बहुत अच्छा लेख लिखा है आपने... आप बधाई के पात्र हैं ...अपनी भावनाओं को हम सबके साथ बाँटने के लिये...

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

शब्द जहां असामर्थ हो गये
या अवरुद्ध कंठ की वाणी
तब बातें करने लगता है
छलक छलक आंखों से पानी
उस पल कहना सुनना सब कुछ
घुल जाता है एक शून्य में
और हवा की परछाईं बस
दोहराती है एक कहानी

समय हुआ फ़ौलादी, काटे
तनिक नहीं कटने पाता है
चढ़ा मुखौटा घड़ियों पर
बस चित्र लिखित हो रह जाता है
जैसे उड़ जहाज का पंछी
फिर जहाज पर वापिस आये
भटक भटक मन फिर फिर
बीते रंगी पल में खो जाता है

mamta ने कहा…

बस इतना ही कहना चाहते है की आपने वाकई बहुत सुन्दर लिखा है।

ePandit ने कहा…

तुमने आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है।

भावनाओं का ऐसा सुन्दर चित्रण करना आपकी ही कला है। ईश्वर आपके पिताजी को स्वस्थ बनाए रखे तथा उनका स्नेह आप पर कायम रहे।

राजीव जैन ने कहा…

बहुत खूब लिखा आपने

इतने सुंदर और सरल शब्‍दों में

बधाई

ईश्‍वर हर किसी को दे ये शक्ति की अपनी बात इतने सरल तरीके से लिख सके

Dr Prabhat Tandon ने कहा…

बहुत ही सुन्दर चित्रण !

संजीव कुमार ने कहा…

सचमुच में बहुत सुन्दर लिखा है .

आभा ने कहा…

बहुत सारी संवेदनाएँ और अपनापे से भरी पोस्ट।

deo prakash choudhary ने कहा…

समय एक शब्द भर नहीं है...वक्त का रोना...वक्त से दूर भागना...वक्त हो साथ..तो इतराना..ऐसा हर किसी की जिंदगी में होता है...और हम अक्सर भूल जाते हैं कि
समय एक शब्द भर नहीं है।

बसंत आर्य ने कहा…

समीर जी आज आपने एक साथ जाने कितनी भावनाओ को एक ही आलेख मे समेट लिया. हसाया भी रुलाया भी और आप नवम्बर मे आ रहे है. बहुत अच्छे

dpkraj ने कहा…

आपकी रचना से कई महत्वपूर्ण जानकारी मिल ही जाती है जिसे पढकर कुछ नया सोचने का अवसर मिलता है।
दीपक भारतदीप

पुनीत ओमर ने कहा…

बहुत सोचा बहुत सोचा कि मैं क्या कहूँ… लेख पढ़ते पढ़ते दिल ना जाने कहाँ खो गया। आपकी तरह से वतन से दूर तो नहीं हूँ पर हाँ, आज करीब डेढ़ साल से अपने माता पिता से दूर जरूर हूँ आजीविका के लिये। मेरे मित्रों में से बहुत लोग अपनी पगार से कुछ घर भेजते हैं, या कुछ ने कम से कम अपनी जीवन की पहली पगार तो अपनी माँ के हाथ में रखी ही थी, पर मुझे लगा कि मैं क्या दूँ अपनी माँ को? उन्हें पैसे की तो जरूरत ही नहीं है। उनका बेटा खुद संघर्ष कर के जिन्दगी के ऊँच नीच सीख सके, सिर्फ़ इसी आशय से ही आज अपने कलेजे के टुकड़े को खुद अपने कलेजे से दूर कर के भी खुश होने का नाटक करती रहती हैं वो। उन्हें पैसों की जरूरत नहीं, पर जिस चीज की जरूरत है वो ही मैं उन्हें नहीं दे पा रहा… मेरा वक्त, मेरा साथ।
शायद यही जीवन है जिसका पाठ समझने में शायद मैं कुछ भावुक हो रहा हूँ…

delhidreams ने कहा…

yakeen maniye, aapne aaj bhi bohat accha likha hai... aur hum log to hain hi, tippaniyon ke liye.
likhte rahiyega, accha lagta hai.

Unknown ने कहा…

I was missing good hindi (literature). idhar kuch dino se hindi bloggers ki rachnaye parh raha hoon. thori man ko shanti mil rahi hia. badhai, apke lekhan ke liye. I used to go through them (in library) when I was in IIT Roorkee. Ab to bas jindagi ki aapa-dhapi me jindagi hi bahoot peeche choot gaye, hindi ki kaun sudh le. main hindi me comment karna chahta hoon . koi mujhe sahayta karen. pkhindi@gmail.com par.

dhanyawad

pravin

अजित वडनेरकर ने कहा…

सचमुच बहुत सुदर है। भावुक चिंतन जो ज़रूरी है रिश्तों - सामाजिकता की गरमाहट के लिए

बेनामी ने कहा…

बहती हुई धार में कब तक कहो संवर रहती परछाईं
टूटे हुए आईने कब कब असली अक्स दिखाया करते

लेकिन आपने अपने लेखन में यह साकार कर दिया है.

सादर

अरुणिमा

बेनामी ने कहा…

मान्य समीर जी

बहुत सुन्दर भावात्मक लेख लिखा है आपने

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

समीर भाई,
हिन्दी ब्लोग जगत के ऐसे छोटे छोटे आलेख, पारीवारिक परिद्र्श्योँ की छवि समेटे,हमारे अन्तर्मन के भावोँ को रँग देते, महज हमारी सँस्कृति का आइना ही नहीँ
हमारी धरोहर हैँ ...जो आनेवाले समय मेँ, अगली पीढी भी बाँचेगी और,शायद आँसू से या ठँडी साम्स ले कर, अपनी अपनी जीवन यात्रा पूरी करने मेँ जुटी रहेगी.
मैँ भी मेरे बेटे और हमारी नयी बहुरानी से शदी के बाद, ५ महीने बाद मिल कर लौटी हूँ ...अब तो, सारे रिश्तोँ को, कलेजे पे पथ्थर रख कर, बस प्यार करते रहना सीख लिया है...ज़िँदगी आगे बढती जा रही है ..'जिस विध राखेँ राम गुसामी उस विध ही रह लीजै '...ये मेरे भजन के शब्द जीवन का सच बन गये हैँ
स ~~स्नेह,
-- लावण्या

महावीर ने कहा…

समीर भाई
दिल भर आया पढ़ कर! पिता जी का थोड़े दिनों का साथ, फिर विछोह और फिर आशा
की किरण - नवंबर का इंतज़ार! पिता जी के भारत लौटने का मंज़र जिस सजीवता से चित्रित किया है,पढ़ कर मख़दूम मोइनुद्दीन के कुछ शेर याद आगएः
आपकी याद आती रही रात भर।
चश्मे-नम मुस्कुराती रही रात भर।।
रात भर दर्द की शम्मा जलती रही
गम की लौ थरथराती रही रात भर।
याद के चांद दिल में उतरते रहे
चांदनी जगमगाती रही रात भर।
कोई दीवाना गलियों में फिरता रहा
कोई आवाज़ आती रही रात भर।
लेख के लिए बधाई।

Reetesh Gupta ने कहा…

समय भी अजब चीज बनी है इस दुनिया में. जब हम चाहते हैं कि जल्दी से कट जाये तो ऐसा रुकता है कि पूछो मत और जब चाहें कि थमा रहे, तो ऐसा भगता है कि पूछो मत. बिल्कुल उलट दिमाग व्यक्तित्व है समय का.

किसी का असली रुप देखना है तो उसे गुस्से में या परेशानी में देखो.

तुमने (आपने) आज फिर बहुत सुन्दर लिखा है

बधाई...

बेनामी ने कहा…

पडोसी बुलाये और हम ना आयें ऐसे तो हालात नही
आप आज बैठाके आये हम अगले हफ्ते बैठाकर आयेंगे, रहा सवाल लेख का तो वाकई में टिप्पणी पछाड़ पोस्ट है। हो भी क्यों ना मानवीय संवेदनायें कितनी खोखली होती जा रही हैं, इस पर लिखा जाये इतनी प्रतिक्रियायें तो बनती ही हैं। ऐसे नजारे यहाँ भी देखने को मिलते हैं, आपनी बहुत सुंदर से अपनी भावनायें और पब्लिक की रिसती संवेदनाओं का संगम बनाकर अच्छा लेख लिखा है।

हम आजकल ब्लोगजगत से दूरी बनायें हुए हैं शायद १-१ॉ२ महीने बाद ये पहली पोस्ट पढ़ी है, अभी कुछ हफ्ते ये दूरी जारी रहेगी, तब तक आप यूँ ही लिखते रहें और टिप्पणी पाते रहें।

Vikash ने कहा…

अजी आपको तो सुन्दर लिखने का कीड़ा है. सौन्दर्य के मँजे हुए खिलाड़ी हो. :)

यह तो बिना कहे ही सिद्ध है कि आपने आज फिर बहुत सुंदर लिखा है. :):)

राजीव तनेजा ने कहा…

सीधे सरल शब्दों में दिल की बात कहना कोई आपसे सीखे....अन्दर तक छू गयी आपकी ये सरल-सुलभ लेखनी

बोधिसत्व ने कहा…

मैं पिता को लेकर हमेशा से थोड़ा भावुक रहा हूँ। उन्हे याद करते ही मन उदास हो जाता है। इसी लिए पहले तो शुरू करने के बाद आपकी पोस्ट को पूरा पढ़ा ही नहीं। फिर पत्नी ने कहा कि पढ़ो बहुत ही अलग तरह की पोस्ट है। आपने तो सच में कहिहैं सब मेरे हिए तेरे हिए की बात को सार्थक कर दिया। हिंदी के या कहें कि दुनिया के लेखकों को सावधान हो जाना चाहिए ब्लॉग पर इतना अच्छा लिखा जा रहा है। सचमुच बेजोड़ लिखा है आपने ....

SHASHI SINGH ने कहा…

भाई सा’ब, हम नाराज़ हैं आपसे :( ... फिर गोली दे गये आप हमको। आपने कहा था कि पिताजी के साथ ही मैं भी लौटूंगा वो भी मुम्बई के रास्ते। चाचाजी को अकेले भेज दिया और अब नवम्बर की पट्टी पढ़ा रहे हो आप। अगर नवम्बर में नंबर नहीं लगा न तो फिर समझना आप... हम भी यहां से गोलियां (कंचे) फेंकने लगेंगे कनाडा की ओर मुंह करके।

फिलहाल के लिए तो बस इतना ही कहूंगा "आज आप ने फिर बहुत सुन्दर लिखा है!!"

Manish Kumar ने कहा…

वाह कमाल की रही ये पोस्ट..सब के दिलों को छूती निकल गई । अच्छा लगा पोस्ट के साथ साथ इतने पाठकों के भावोद्गार को पढ़ना।

नीरज दीवान ने कहा…

दो प्रसंग और समय की गति.. गति का सापेक्ष अवलोकन.. इनमें भावनाओं से भरी शब्द-भंगिमा.. लेख सहज शैली में .

जानकारी ये मिली कि आप नवम्बर में तशरीफ़ ला रहे हैं। वादे के मुताबिक़ आप ज़रूर मिलेंगे.. और बाक़ी की बातें भी याद होंगी :)

Dr. Seema Kumar ने कहा…

सच कहूँ समीर जी, दिल भर आया पढ़कर .. अंत तक आते आते मुझे भी सब खाली-खाली लगने लगा । बहुत अच्छा लिखा आपने ।

बेनामी ने कहा…

भाई समीर जी,वाकई आप बहुत अच्छा लिखते हे.ऒरों के ब्लाग पर जाकर टिप्पणी करने में भी आप बिल्कुल कंजूसी नहीं करते.हर कलाकार लेखक की यह स्वभाविक इच्छा होती हॆ कि वह अपनी रचना के संबंध में पाठकों की प्रतिक्रिया जाने.मॆनें जब कविता लिखनी शुरू की थीं,तो लिखने के तुरंत बाद,बडी तीव्र इच्छा होती थी,कि उसे किसी को सुनाऊं.मेरे कुछ खास मित्रों को, मेरी इस कमजोरी का पता था. वे मेरी सूरत देखकर ही जान जाते थे कि कोई नई कविता लिखी हॆ.मुझसे चाय पीने के बाद ही कविता सुनने के लिए राजी होते थे.क्या करता उस समय मजबूरी थी- चाय पिलानी पडती थी.

विनोद पाराशर ने कहा…

भाई समीर जी,वाकई आप बहुत अच्छा लिखते हे.ऒरों के ब्लाग पर जाकर टिप्पणी करने में भी आप बिल्कुल कंजूसी नहीं करते.हर कलाकार लेखक की यह स्वभाविक इच्छा होती हॆ कि वह अपनी रचना के संबंध में पाठकों की प्रतिक्रिया जाने.मॆनें जब कविता लिखनी शुरू की थीं,तो लिखने के तुरंत बाद,बडी तीव्र इच्छा होती थी,कि उसे किसी को सुनाऊं.मेरे कुछ खास मित्रों को, मेरी इस कमजोरी का पता था. वे मेरी सूरत देखकर ही जान जाते थे कि कोई नई कविता लिखी हॆ.मुझसे चाय पीने के बाद ही कविता सुनने के लिए राजी होते थे.क्या करता उस समय मजबूरी थी- चाय पिलानी पडती थी.

अभिनव ने कहा…

बहुत सुंदर लिखा है भाईसाहब पढ़ते पढ़ते दिल भर आया, जब पूरा हुआ तो आंख भी भरने को आतुर बैठी थी, अगली बार जब भी बाबूजी से बात हो तो हमारा भी प्रणाम कहिएगा उनसे।

संगीता मनराल ने कहा…

नमस्कार समीर जी, लेख वाकई बहतरीन हैं, वैसे भी आप लिखते ही खूबसूरत है| विनोद पाराशर जी ने ठीक कहा, आप "ऒरों के ब्लाग पर जाकर टिप्पणी करने में भी आप बिल्कुल कंजूसी नहीं करते" इस बात से मैं भी सहमत हूँ| नवम्बर में दिल्ली आने पर इत्ला जरूर करीयेगा| इन्तज़ार रहेगा|

विजेंद्र एस विज ने कहा…

...सुबह से मेकअप में छिपे चहेरों की रंगत धीरे धीरे उड़ती जा रही थी. वो हरे टॉप वाली लड़की सुबह बहुत सुन्दर दिख रही थी. अब दो घंटे के इन्तजार के बाद कम सुन्दर हो गई थी. मैं सोचने लगा कि कितनी टाईमबाउन्ड सुन्दरता है. कहीं तीन चार घंटे और इन्तजार करवा दिया तो एक नया ही रुप न सामने आ जाये.....

.जरा देर हो गयी...टिप्पणी करने मे इतनी संजीदा पोस्ट पर...बाबू जी के लिये लिखे भावों पर आखें नम सी हो गयीं...वाकई बेहद सुन्दर लिखा है आपने..नवम्बर मे आपका इंतजार रहेगा.
आपकी ही.

Rajeev (राजीव) ने कहा…

समीर भाई, बहुत सहज शैली में लिखी यह पोस्ट भावुक भी है और कई-कई सद्_वाक्यों से अलंकृत है। नोस्टाल्जिया टाईप भी है, भावातिरेक से परिपूर्ण भी।

कुछ विशिष्ट बातें इस लेख में लगीँ - घटनाक्रम का चित्रण, अपने और अन्य व्यक्तियों के मनोभावों का सटीक विवरण, दार्शनिकता का परिलक्षण और अंत में सहज तरीके से विज्ञान के सिद्धांतों की व्याख्या! समय की सापेक्षता के सिद्धांत को आईंस्टीन ने भी तो एक सरल उदाहरण से समझाया था।

अभय तिवारी ने कहा…

आप ही की तरह हृदयस्पर्शी आप की पोस्ट..

Atul Chauhan ने कहा…

आज कुछ लोगों के लिये किसी की मौत सदमा नहीं होती। आपके लेख में लिखा है की 'दुर्घटना थोड़ी देर बाद होती…' यदि उस दुर्घटना में कहने वाले सज्जन या दुर्जन का रिश्तेदार होता तब उसकी टिप्पणी शायद देखने वाली होती। खैर आपने मह्सूस करके अपने आपको संयमित रखा। यही 'मेरा भारत महान' की अवधाराणा है।