शुक्रवार, जुलाई 20, 2012

वो वाली गज़ल..

पिछले आलेख के साथ वादा था कि गज़ल पूरी सुनाऊंगा तो पढ़िये पूरी…और हाँ. मेरी आवाज में सुनना हो तो कमेंट करो..अगली पोस्ट में गा कर सुनायेंगे एक अलग अंदाज में..मगर कहो तो::

 

2012-07-13 19.48.21

 

दर्द सबका हर सके वो मुस्कान होना चाहिये...

इंसान के भीतर भी इक इंसान होना चाहिये.

 

भूल जाते हम सदा ही दुश्मनों के वार को

हर गली में अब यहाँ, शमशान होना चाहिये..

 

रोज मरते हैं हजारों, मंहगाई की इस मार से

भूख उनको ना लगे, वरदान होना चाहिये..

 

दूर कर दे भाई को, माँ बाप के प्रस्थान पर

अब नहीं ऐसा कहीं, स्थान होना चाहिये...

 

जिसकी शिरकत देख के, अब जा छुपा है ’समीर’

कह रहा है वो मेरा, सम्मान होना चाहिये..

 

-समीर लाल ’समीर’

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सोमवार, जुलाई 02, 2012

विज्ञान और कला: एक अध्ययन

अमरीका/कनाडा में रहना अलग बात है और भारत में रहना अलग. इससे भला कौन न सहमत होगा. जो न होगा वो मूर्ख कहलायेगा और मूर्ख कहलाना किसी भी भारतीय को मंजूर नहीं- वो बिना अपनी इच्छा के भी सहमत हो जायेगा मगर मूर्ख नहीं कहलवायेगा खुद को. तो कोई अमरीकी या कनेडीयन ही होगा कम से कम इस मामले में तो जो मूर्ख नवाज़ा जायेगा.

अमरीका, कनाडा जैसे देशों में रहना एक विज्ञान है, यहाँ रहने के अपने घोषित और स्थापित तरीके है, जो सीखे जा सकते हैं ठीक उसी तरह जैसे कि विज्ञान की कोई सी भी अन्य बातें- किताबों से या ज्ञानियों से जानकर. कैसे उठना है, कैसे बैठना है, कैसे सोना है, कैसे बिजली का स्विच उल्टा ऑन करना है, कब क्या करना है, सड़क पर किस तरफ चलना है- सब तय है.

मगर भारत में रहना- ओह!! यह एक कला है. इस हेतु आपका कलाकार होना आवश्यक है. और कलाकार बनते नहीं, पैदा होते हैं.

भारत में रह पाना, वो भी हर हाल में खुशी खुशी- यह एक जन्म जात गुण है, ईश्वर की कृपा है आप पर- कृपा ही नहीं- अतिशय कृपा है- इस कला को कोई सिखा नहीं सकता- इसे कोई सीख नहीं सकता. यह जन्मजात गुण है- वरदान है.

बिजली अगर चली जाये तो- दुनिया के किसी भी देश के वाशिंदे बिजली के दफ्तर में फोन करके पता करते हैं कि क्या समस्या है?.... और भारत एक ऐसा देश है जहाँ..घर से निकल कर ये देखते हैं कि पड़ोसी के घर भी गई है या नहीं? अगर पड़ोसी की भी गई है तो सब सही- जब उनकी आयेगी तो अपनी भी आ जायेगी..इसमें चिन्ता क्या करना!! फोन तो पड़ोसी करेगा ही बिजली के दफ्तर में.

ऐसी मानसिकता पैदा नहीं की जा सकती सिखा कर- यह पैदाईशी ही हो सकती है.....जन्मजात!! हिन्दू धर्म के समान- आप हिन्दू बस पैदा हो सकते हैं., बन नहीं सकते! पैदा हो जाओ- फिर भले ही गोश्त खाओ या मल्लिछ हो जाओ- रहोगे हिन्दू ही....

कलाकार भी ऐसे कि उन्हें नर्तक की श्रेणी के निपुण कलाकार से कम तो आप आंक ही नहीं सकते. नर्तक - कोई कत्थक नाच रहा है, कोई नागालैण्ड का नृत्य करने में मगन है, कोई भांगडा, तो कोई डिस्को, कोई बीच सड़क में बैण्ड बाजे के साथ नागिन नाच में मूँह में रुमाल दबाये झूमे जा रहा है- मगर हैं सब नर्तक - एक कलाकार. अपने स्वयं की दुश्वारियों को धुँए में उड़ा बेगानी शादी में दीवाने कलाकार- सब एक से बढ़कर एक. कोई किसी से कम नहीं. कर के दिखा दो किसी को कम साबित तो मानें की- हम किसी से कम नहीं की तर्ज पर नाचते.

kalaakar

अभ्यास से कला को मात्र तराशा जा सकता है. गुरु अभ्यास करा सकता है मगर कला का बीज यदि आपके भीतर जन्मजात नहीं है तो गुरु लाख सर पटक ले, कुछ नहीं हासिल होगा. यूँ भी सभी अपने आप में गुरु हैं तो कोई दूसरा गुरु कौन और क्या सिखायेगा?

कैसा भी विषय हो- विषय की स्पेलिंग न लिख पायेंगे मगर बोलेंगे जरुर कि हमसे पूछा होता तो हम बता देते या हमसे पूछते तो सही मगर तुम अपने आगे किसी को कुछ समझते ही नहीं तो क्या मदद करें तुम्हारी?

खैर, गुरुओं की कोशिश से शायद मुझ जैसा गायक तैयार हो भी जाये तो उसे भला कौन कभी गायक मानेगा. कविता गाने लायक गुजर भी नहीं है बरसों के अभ्यास के बाद भी. जन्मजात वो गायन का बीज ही नहीं है, तो भला कौन से गायन का पेड़ लहलहायेगा.

जनकवि वृंद की पंक्ति:

होनहार बिरवान के, होत चीकने पात...

कितनी सटीक बैठती है हम कलाकारों पर..भारत में रहने की कला हर वहाँ पैदा होने वाले बच्चे के चेहरे पर देखी जा सकती है – बिल्कुल चीकने पात सा चेहरा. पैदा होते ही फिट- धूल, मिट्टी, गरमी, पसीना, मच्छर, बारिश, कीचड़, हार्न भौंपूं की आवाजें, भीड़ भड्ड़क्का, डाक्टर के यहाँ मारा मारी और इन सबके बीच चल निकलती है जीवन की गाड़ी मुस्कराते हुए. हँसते खेलते हर विषमताओं के बीच प्रसन्न, मस्त मना- एक भारतीय.

फिर तो मारा मारियों की फेहरिस्त है एक के बाद एक – एक पूरा सिलसिला- नित प्रति दिन- प्रति पल- स्कूल के एडमीशन से लेकर कालेज में रिजर्वेशन तक, नौकरी में रिकमन्डेशन से लेकर विभागीय प्रमोशन तक, अपनी सुलझे किसी तरह तो उसी ट्रेक में फिर अगली पुश्त खड़ी नजर आये और फिर उसे उसी तरह सुलझाओ जैसे कभी आपके माँ बाप ने आपके लिए सुलझाया था- जन्मजात गुण पाकर... चैन मिनट भर को नहीं और उसमें भी प्रसन्न. हँसते मुस्कराते, चाय पीते, समोसा- पान खाते, सामने वाले की खिल्ली उड़ाते हम. ऐसे कलाकार कि भगवान भी भारतीयों को देखकर सोचता होगा- अरे, ये मैने क्या किया? ये क्या बना दिया?

और हर भारतीय गली गली नुक्कड़ नुक्कड़ मंदिर पर शीश नंवाये उसकी खिल्ली उड़ाता नजर आ जायेगा- आज बहुत खुश होगे तुम? (अमिताभ स्टाईल ऑफ दीवार)

लो- और खुश हो लो- १०१ रुपये के लड्डू खाओ!!

और भगवान- सॉरी मोड में- बगलें झांकते- यंत्रवत प्रसाद खाये चले जा रहे हैं. जब अति हो जाती है तो दूध भी पीने लगते हैं. सारा देश उमड़ पड़ता है ये देखने कि भगवान दूध पी रहे हैं और कलाकारी के वरदान की तरह- यह कृपा भी भगवान मात्र भारतीयों पर करते हैं कि बाल्टी पर बाल्टी दूध पिये चले जाते हैं मात्र भक्तों की खातिर -सिर्फ इसलिए कि भक्त कलाकार हैं.. मीडिया याने कि देश (हाथी के दांत की तरह वाला देश- दिखाने वाला) - बस, हो लेता है दूधमय!! लो, भगवान ने दूध पी लिया- हम तर गये. कल से जिन्दगी आसान- तो मुस्करा दो. सो तो यूँ भी मुस्करा रहे थे.

मीडिया जानती है कि कब मुस्करवाना है और कब रुलवाना. टी आर पी का खेल आमदनी का नुस्ख़ा है. कोई जिये या मरे- टी आर पी बढ़नी चाहिये..यह मीडिया में कलाकारी का मंत्र है.

याद है न इस मीडिया का खेल- आज आपके गुण दिखा कर टी आर पी बटोरेगा. कल आपके ही दुर्गुण दिखा कर टी आर पी बटोरेगा. बस, लक्ष्मी की कृपा आती रहे- रुके न!! फिर भले इमली की चटनी डाल कर समोसे खाने का उपाय हो या गरीबों में फल बांट देने का... अन्य कलाकारों की तरह भारतीय मीडिया भी सब करेगा- और हम सब कलाकार देखकर तली पीटेंगे. हंसेंगे- मुस्करायेंगे और मस्ती में खा पी कर सो जायेंगे.

यूँ भी कलाकारों की अपनी एक अलग सी दुनिया होती है. भारत में जब पूछो किसी से भी कि क्या हाल है? कैसा चल रहा है? बस एक जबाब- हमारी छोड़ो, अपनी सुनाओ? सामने वाले ने अगर अपना दुख बखान कर दिया, तो अपना दुख तो यूँ भी इतना छोटा हो चलेगा कि सुख सा नजर आयेगा. और सामने वाले यदि सुख बखाना तो मन ही मन मान लेंगे कि जलाने के लिए झूठ बखान रहा है. बेवकूफ समझता है सामने वाले को. फिर अगले की मुस्कराते हुए कि पूछा जाये ’क्या हाल हैं?’

आप खुद सोच कर देखें कि कला और कलाकारी की चरमावस्था- जो मेहनत कर पढ़ लिख कर तैयार होते हैं वो सरकारी नौकरी करते हैं और जो बिना पढे लिखे किसी काबिल नहीं वो उन पर राज करते हैं. यही पढ़े लिखे लोग उन्हें चुन चुन का अपना नेता बनाते हैं और बात बात में उनसे मुँह की खाते हैं फिर भी हे हे कर मुस्कराते हुए उनकी ही जी हुजूरी बजाते हैं. कलाकारी का इससे बेहतर नमूना तो और भला क्या पेश करुँ- आप तो खुद कलाकार हो, समझते हो सारी बातें. मैने तो बस ख्याल आया- तो दर्ज कर दिया है- हम कलाकारों के लिए. विज्ञान आधारित और तर्क संगत मानसिकता तो यही कहेगी कि राज और मार्गदर्शन तो पढ़े लिखे, जानकार को करना चाहिये मगर कला जो न करवा दे, कम है.

इस कलाकारी को मानने मनवाने के चक्कर में विज्ञान तो न जाने कहाँ रह गया बातचीत में. तभी शायद कहा गया होगा कि एक कलाकार तो वैज्ञानिक बनाया जा सकता है, पढ़ा लिखा कर, सिखा कर- बनाया क्या जा सकते है, बनाया जा ही रहा है हर दिन- भर भर हवाई जहाज भारत से आकर अमरीका/ कनाडा में सफलतापूर्वक बस ही रहे हैं. मगर एक वैज्ञानिक को जिसमें कला के बीज जन्मजात न हो, कलाकार नहीं बनाया जा सकता. कहाँ दिखता है अमरीका/कनाडा का जन्मा गोरा बन्दा या बन्दी, भारत जाकर बसते.

चलते चलते- मेरी आने वाली गज़ल के मुखड़े से एक त्रिवेणीनुमा चित्र इस आलेख को पूरा करता:

दर्द सबका हर सके वो मुस्कान होना चाहिये...

इंसान के भीतर भी एक इंसान होना चाहिये.

-इंसानी खाल में छिपे कुछ भेड़िये देखें हैं मैने!!

-समीर लाल 'समीर'

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