इतना जीवन बेवजह हीन भावना
पाले गुजर गया. शादी हुई तो पत्नी
प्रगतिशील एवं नारी सशक्तिकरण की भरपूर समर्थक तो क्या कहें, नेता ही कहना उचित होगा, मिली. समर्थक तो आज इनके हैं, कल टूट कर दूसरे पाले में जाकर खड़े हो जायेंगे. मगर सच्चा नेता अपनी पहचान बनाये रखता है. मैं उन्हें नेता मानने से सिरे से इन्कार करता हूँ जो आज
कांग्रेसी हैं, कल जे पी के साथ और परसों
बीजेपी के साथ. वे नेता का मुखौटा पहने बस
एक अवसरवादी हैं जो निजी स्वार्थ हेतु किसी से भी हाथ मिला लें, किसी को भी गले लगा लें. हमारी पत्नी सच्ची नेता है नारी सशक्तिकरण की. इनके रहते मजाल है कि पुरुषों को जरा भी एक्स्ट्रा
एडवान्टेज सिर्फ इसलिए मिल जाये क्यूँकि वह पुरुष हैं.
अब नारी सशक्तिकरण और
समानता की बात जहाँ आ खड़ी हो तो वहाँ ये तो नहीं हो सकता कि पूर्व मान्यताओं के
हिसाब से घर और बाहर के कामों और दायित्वों का बटवारा हो जाये. उसी के खिलाफ ही तो सारी आवाज है और फिर जब दोनों बराबरी से
कमाने जाते हैं तो घर क्या और बाहर क्या?
तो बच रहा आपस में बैठकर
बातचीत, चिल्ला चपट, मूँह फुलाना, आँसू, जूतम पैजार मने कि पूरा संसद के सत्र का माहौल और फायनली यह
कि चलो, सारे कामों की पर्ची बना
लेते हैं, फिर एक एक करके खींचते है, जो जिसके हिस्से पड़ जाये वो वह कार्य करेगा. हम तो इसी में खुश थे कि पेट में बच्चा कौन रखेगा, उसकी पर्ची न बना डाली इनने, वरना कहीं वो हमारे हिस्से आ गिरती तो इनके नारीवादी झंड़े
के आगे तो यूँ भी विज्ञान और प्रकृति नतमस्तक है, हमारी क्या मजाल!!
इसी परची खींचने के चक्कर
मे हमारे हिस्से अन्य कार्यों के साथ साथ घर में झाडू लगाना भी आ गया, रास्ता तो कोई था नहीं, मूँह अंधेरे ही मंजन करने के भी पहले झाडू लगाकर बाहर
बरामदे तक सफाई कर आते. मोहल्ले के लोग तब सोये ही
होते और अंधेरे में कोई देख न पाता तो इज्जत बची रही. मगर एक डर हमेशा सताता रहा कि कहीं लोगों ने देख लिया तो
भद्द उतर जायेगी कि ये देखो, झाडू लगा रहे हैं? हमारे समय में ऐसे लोगों को मौगड़ा कहते थे जो बीबी की जी
हजूरी बजाते थे या चाय शाय बनाकर बीबी को पिलाया करते थे. बस, मोहल्ले में मौगड़ा न कहलाये
जायें, इसी जुगत में नित जिन्दगी
टेंशन में गुजरती रही.
यह तो सर्व विदित है कि पिछले
७० सालों में जो देश में नहीं हुआ वो सन २०१४ के बाद हुआ. मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूँ. यह वो ऐतिहासिक साल है, जब देश को ऐसा प्रधान मिला जिसने ऐसा राष्ट्र व्यापी अभियान
चलाया कि हाथ में झाडू उठाकर सफाई करना फैशन सिम्बल बन गया. फोटो ऑप में टॉप नंबर
पर झाडू लेकर सफाई करते हुए सेल्फी हो गई. झाडू लगाना मौगड़ई का
ध्योतक न होकर सम्मान का विषय हो गया. हालात यहाँ तक पहुँच
गये कि हम बरामदा साफ कर चुके हों तो भी पत्नी अपनी सहेलियों के साथ सड़क से कचरा
उठाकर वापस बरामदे में बिखराती और उसे साफ करते हुए सेल्फी उतरवा कर अखबारों में
छपवाती.
सुबह मूँह अंधेरे उठने के
आजीवन जंजाल से मुक्ति मिली. कोई देख न ले वाले भय का
माहौल खत्म हुआ. मौगड़ाई सम्मान में बदली. खैर, बदली तो लुच्चई भी संतई में
मगर उस पर बात इस आलेख के सिलेबस से बाहर है.
इसे कहते हैं आमूलचूल परिवर्तन. अप साईड डाऊन कर डालने वाला
नेता. सारी सोच ही बदल डाली. मानसिक ढ़ांचा बदल डाला. जीवन जीने की शैली और नजरिया बदल डाला. आज हर हाथ, झाडू की बात!! अब झाडू लगाने में कोई नहीं शरमाता. हालांकि अन्य अप साईड डाऊन प्रयोगों के कारण कईयों के पास
झाडू लगाने के सिवाय और कोई रास्ता भी नहीं बच रह गया है मगर फिर भी. जो क्रेडिट बनती है वो देनी चाहिये. नहीं भी दोगे तो भी ले ही लेंगे तो बेहतर है कि दे ही दो.
इन्हीं आमूलचूल परिवर्तनों
की सुनामी में एक ताजी लहर ने फिर मुक्त किया एक जीवन भर के भ्रम से. बचपन से घर
में जब कभी पढ़ने के लिए डांट पड़ती तो हमेशा लताड़ा जाता कि दिन भर आवारागर्दी करते
रहते हो, पढ़ाई में तो मन ही नहीं लगता. कहीं कोई नौकरी नहीं मिलेगी. बैठ जाना
नुक्कड़ पर पकोड़े का ठेला लगा कर. दिन भर बस पकोड़ी छानना.
बालमन घबरा जाता. मोहल्ले
के नुक्कड़ पर घंसु का पकोड़ी का ठेला था, बस वही घंसु का चेहरा घूम जाता आँख के
सामने. कभी नगर निगम वाले ठेला उठा के ले जाते तो कभी कोई पुलिस वाला उसे हफ्ता न
देने और फ्री मे न खिलाने के लतिया रहा होता, कभी कोई दारुखोर रात में दारु के साथ
खाये उधार पकोड़े के पैसे मांगने पर गरिया रहा होता और हाथ जोड़े उसके मूँह से हमेशा
एक ही वाक्य सुनाई देता कि मुझ गरीब पर ऐसा अत्याचार न करो!! जब दिखा, हमेशा दयनीय
स्थिति में ही दिखा. वही गंदा सा पजामा और घीसे हुए कालर की कमीज. वहीं पास में एक
कमरे की छपरी में रहता था किराये पर.
सोचते कि अपनी यह हालत होने
वाली है तो रुह कांप जाती. उस दिन जरुर थोड़ी बहुत पढ़ाई कर
लेते. फिर अगले दिन भूल जाते..फिर कुछ दिन में पकोड़े बेचने की बात याद दिलाई जाती.
इसी इसी के चलते सीए बन गये तब जाकर श्रीमुख से पता चला कि अगर पकोड़े बेचते होते
तो आज रोजगार प्राप्त बंदे का दर्जा मिला होता. सीए को तो वे पहले ही उड़ा चुके हैं
यह बोल कर कि आप के करम मुझे पता हैं कि आप देश के लिए काम करते हो कि उन काला
बाजारियों के लिए. शरम से सर झुक गया. मगर सोचता हूँ कि अगर घर वालों के टेरर में
न आये होते तो आज पकोड़े बेच रहे होते और इस बात को फक्र से कहते कि देखो, एक हम
हैं जिसका रोजगार ऐसा है जिस पर देश का प्रधान गर्व करता है.
मगर हाय री किस्मत!! जब
भाग्य में यश न बदा हो तो कोई क्या कर सकता है!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल से प्रकाशित दैनिक
सुबह सवेरे के फरवरी ९, २०१८ अंक में प्रकाशित:
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1 टिप्पणी:
बेहतरीन भाई
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