उत्सवधर्मी हमारा
देश है और ईश्वर की महान कृपा है कि हमारे देश में उत्सवों के कारणों की कमी भी
नहीं है. त्यौहारों एवं
पर्व विशेष पर मनाये जाने वाले उत्सव ही हमें परिभाषित करते हैं. शायद यही हमें हर हाल में जी लेने का संबल भी
देते हैं.
कभी सोचता हूं कि
यूं कहूँ कि हम तो वो शै हैं जानी, जो पर्व भी खुद
घोषित करते हैं और उत्सव भी खुद मनाते हैं.
इस सीरिज़ में वो
पर्व आते हैं जो सत्ताधारी राजनितिक दल अपनी राजनितिक आस्था प्रकट करने के लिए
घोषित करते हैं..नाम लेना उचित न होगा इन पर्वों का..कौन गाँधी, कौन सावरकर..सब जरुरी हैं देश
के इतिहास को पढ़ते हुए.
कुछ त्यौहार
सदियों पुराने पुरातन काल से चले आ रहे हैं और बिना बहुत ज्यादा सोचे समझें हम उन्हें
मनाते चले जा रहे हैं. काल के अनुरुप
इनके रुप बदलते गये मगर त्यौहार तो वही रहे. दिये की जगह झालर वाली लाईटों ने ले ली. पटाखों की जगह अब सरकारी आदेशों ने अपने धमाके के आगे इनके धमाके को बंद करा
कर ले ली है. धुँआ, जो कभी कीड़े
मकोड़े और मच्छरों को भगाने और मारने में सहायक माना जाता था, आज प्रदुषण रुपी दानव का रुप धर कर इन्सानों को
निगलने को अमादा है.
कुछ त्यौहार ऐसे
भी हैं जो पहले थे तो मगर आंचलिक स्तर पर. जैसे कि छठ, लोहड़ी, करवाचौथ, संक्राति की पतंगबाजी. इनको राष्ट्रीय
स्तर का बनाने का पूरा श्रेय टीवी के सीरियलों को जाता है. जिस तरह से इन
त्यौहारों ने टीवी के माध्यम से लोकप्रियता हासिल
की है, न जाने कितने ही
लोकल त्यौहार आज इस इन्तजार में लगे होंगे कि हे एकता कपूर, हमें भी दिखला दो न त्यौहार सा मनता हुआ अपने
सीरियल में प्लीज.
मगर टीवी के अपने
नखरे हैं, कहो तो रामदेव
बना दें, या राम रहिम या
आशाराम बना कर जेल पहुँचा दें. यही सोच कर कई त्यौहार
भी डर के मारे चुप्पी साध जाते होंगे. दक्षिण के जल्लीकट्टू का भी राष्ट्रीय स्तर पर आते आते न आ पाना, इसी कड़ी से जोड़
कर देखा जा सकता है.
इनके इतर कुछ
त्यौहार बस कुछ दशक पुराने हैं हमारे देश में. ज्यादा उम्र नहीं हुई है हमारे देश में उन्हें
पधारे. जैसे कि
वेलेन्टाईन डे, मदर्स डे, फादर्स डे, हेलोविन आदि आदि. ये पश्चिम से पधारे हैं तो ताम झाम भी वैसे ही
है. गरीब के बस के
नहीं हैं ये. बस, संभ्रांत और फेशनेबल लोगों के हिस्से में आये
हैं. बाजार की देन यह
त्यौहार बाजार के लिए ही हैं. बाजार की चमक दमक
इनके लिए है..और चमक दमक के हकदार वो अमीर तबका ...इसे मान्यता देता है.
वेलेन्टाईन डे से
याद आया कि अब तो इसे मनाते हुए हमारे देश में एक अरसा हो गया. अब इसे मनाने वालों की श्रेणी में वैसे भी लोग
आ चुके हैं जो इसे अब नहीं मनाते. अब वे बुजुर्ग
टाईप हो लिए हैं.
जैसे आम बुजुर्ग
कहता है कि अब जमाना पहले जैसा नहीं रहा. हमारे समय तो बात ही कुछ और थी. घी कटोरी से मूँह
लगा कर पीते थे. अब तो न धी सच्चा
और न शरीर ही ऐसा है कि शुद्ध घी पचा पाये. कोई दिखा दे आज एक कटोरी घी पी कर, न हगहगी लग जाये तो नाम बदल देना हमारा.
जमाना और समय
बदलने की जब भी बात आती है मुझे शराबी वाले अमिताभ बच्चन का वो डायलॉग जरुर याद
आता है:
अब तो उतनी भी
मयस्सर नहीं मयख़ाने में
जितनी हम छोड़
दिया करते थे पैमाने में...
ये शेर तो बहुत
से उन राजनितिक दलों पर लागू होता है जो कि कभी जितनी सीटें समझौते में दूसरे दलों
को लड़ने के लिए छोड़ दिया करते थे, आज उससे भी कम लिए खुद बैठे हैं, चाहें लोकसभा हो या विधान सभा. वक्त सबको सबक
सिखा ही जाता है जिन्दगी जीने का.
तो भूतपूर्व
वेलेन्टाईनबाज जो अब इसे मनाने के क्षेत्र में बुजुर्ग होकर बाहर हो लिए हैं, उनको
कहते सुनते हैं कि हमारे समय में वेलेन्टाईन डे एकदम ताजा ताजा आया था बाजार में. हम तो एक दिन में
तीन तीन पतों पर गुलाब भिजवाते थे और तीनों गुलाब अलग अलग किताबों में सूखे हुए
फूल किताबों में मिले तक शिद्दत से पाये जाते थे.
अब तो न वो पते हैं
और न किताबें. अब का जमाना देखो कि एक ही पते पर चार चार गुलाब पहुँच रहे
हैं और किताब का स्थान नाली ने ले लिया है. सब बहा दिया जा रहे हैं. मलैच्छ हो गया है
बाजार.
मने कि पुरुष
प्रधान मानसिकता से उभर कर, स्त्री की अपनी पसंद नापसंद की मानसिकता को स्वीकार न
कर पाने को भी बाजार पर थोप देने वाले ये बुजुर्ग भी बाजार में मिलने लगे हैं..है तो अफसोसजनक
मगर है तो!
बाजार बहुत आगे
बढ़ गया है. कुछ और नये त्यौहार आयेंगे आने वाले समय में..यह अनवरत है, मगर तब तक पुराने
त्यौहारों में कुछ और बुजुर्ग पैदा हो जायेंगे.
यही तो चक्र है
जो सदा चलता रहेगा और आने वाला जमाना भी यही कहता रहेगा कि अब जमाना पहले जैसा नहीं
रहा.
सच में देखा जाये
तो कुछ भी बदलता नहीं.एक मृग मरिचिका है हर जमाने की...जो आज मन की बात है वो कल बात मन की होकर सुनाई
जायेगी और हम उत्सवधर्मी मानसिकता के वाहक, हर हाल में उत्सव मनाते रहेंगे...प्रसन्न होते
रहेंगे.
यही हमारे जीने
का तरीका है!
-समीर लाल ’समीर’
भोपाल के सुबह सवेरे में
रविवार फरवरी ११, २०१८ में प्रकाशित:
http://epaper.subahsavere.news/c/26148349
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