१२ वीं के परिणाम
घोषित हो गये हैं. लड़कियों ने फिर
बाजी मार ली है – ये अखबार की हेड
लाईन्स बता रही हैं. जिस बच्ची ने टॉप
किया है उसे ५०० में से ४९६ अंक मिले हैं यानि सारे विषय मिला कर मात्र ४ अंक कटे, बस! ये कैसा रिजल्ट है?
हमारे समय में जब
हम १० वीं या १२ वीं की परीक्षा दिया करते थे तो मुझे आज भी याद है कि हर पेपर में
५ से १० नम्बर तक का तो आऊट ऑफ सिलेबस ही आ जाता था तो उतने तो हर विषय में घटा कर
ही नम्बर मिलना शुरु होते थे. यहाँ आऊट ऑफ
सिलेबस का अर्थ यह नहीं है कि किताब में वो खण्ड था ही नहीं. बल्कि वो तो बकायदा था मगर मास्साब बता देते थे इसे छोड़ दो, ये नहीं आयेगा. पहले भी कभी नहीं आया और हम लोगों की मास्साब
में, कम से कम ऐसी
बातों के लिए अटूट आस्था थी मगर अपनी किस्मत ऐसी
कि हर बार ५ - १० नम्बर के
प्रश्न उसी मे से आ जायें. तो बस हम घर आकर बताते थे कि आज फिर आऊट ऑफ सिलेबस १० नम्बर का आ गया. घर वाले भी निश्चिंत रहते थे कि कोई बात नहीं
९० का तो कर आये न!!
तब आगे का खुलासा
होता कि ५ नम्बर का रिपीट आ गया. सो वो भी नहीं कर
पाये और पेपर इत्ता लंबा था कि समय ही कम पड़ गया तो आखिरी सवाल आधा ही हल कर पाये, अब देखो शायद कॉपी जांचने वाले स्टेप्स के
नम्बर दे दें तो दे दें वरना तो उसके भी नम्बर गये. अब आप सोच रहे होंगे कि ये ’रिपीट आ गया’ क्या होता है?
दरअसल हमारे समय
में विद्यार्थी चार प्रकार के होते थे..एक तो वो जो ’बहुत अच्छे’ होते थे, वो थारो (Thorough) (विस्तार से)घोटूं टाईप स्टडी किया करते थे याने सिर्फ आऊट
ऑफ सिलेबस छोड़ कर बाकी सब कुछ पढ़ लेते थे. ये बच्चे अक्सर प्रथम श्रेणी में पास होते थे मगर इनके भी ७० से ८५ प्रतिशत तक
ही आते थे. काफी कुछ तो आऊट
ऑफ सिलेबस की भेंट चढ़ जाता था और बाकी का, बच्चा है तो गल्तियाँ तो करेगा ही, के नाम पर.
दूसरे वो जो ’कम अच्छे’ होते थे वो सिलेक्टिव स्टडी
करते थे यानि छाँट बीन कर, जैसे इस श्रेणी
वाले आऊट ऑफ सिलेबस के साथ साथ जो पिछले साल आ गया है वो हिस्सा भी छोड़ देते थे
क्यूँकि वो ही चीज कोई बार बार थोड़ी न पूछेगा जबकि
इतना कुछ पूछने को बाकी है, वाले सिद्धांत के
मद्दे नजर. तो जो पिछले साल
पूछा हुआ पढ़ने से छोड़ कर जाते थे, उसमे से अगर कुछ
वापस पूछ लिया जाये तो उसे ’रिपीट आ गया’ कहा जाता था. उस जमाने के लोगों को ’रिपीट आ गया’ इस तरह समझाना नहीं पड़ता था, वो सब समझते थे. ये बच्चे गुड सेकेन्ड क्लास से लगा कर शुरुवाती
प्रथम श्रेणी के बीच टहलते पाये जाते थे. गुड सेकेन्ड क्लास का मतलब ५५ से लिकर ५९.९% तक होता था. ६० से प्रथम
श्रेणी शुरु हो जाती थी.
तीसरी और चौथी
श्रेणी वाले विद्यार्थी धार्मिक प्रवृति के बालक होते थे जिनका की पुस्तकों, सिलेबस, मास्साब आदि से बढ़कर ऊपर वाले में भरोसा होता था कि अगर हनुमान जी की कृपा हो
गई तो कोई माई का लाल पास होने से नहीं रोक सकता. इस श्रेणी के विद्यार्थी परीक्षा देने आने से
पहले मंदिर में माथा टेक कर और तिलक लगा कर और दही शक्कर खाकर परीक्षा देने आया
करते थे और उत्तर पुस्तिका में सबसे ऊपर ’ॐ श्री गणेशाय नम:” लिखने के बाद
प्रश्न पत्र को माथे से छुआ कर पढ़ना शुरु करते थे. ये धार्मिक बालक १० प्रश्नों का गैस पेपर याने
कि ’क्या आ सकता है’ और अमरमाला कुँजी जो हर विषय के लिए अलग अलग
बिका करती थी और उसमें संभावित २० प्रश्न जिसे वो श्यूर शाट बताते थे और जिस कुँजी
में उनके जबाब भी होते थे, को थाम कर परीक्षा के एक रात पहले की तैयारी और भगवान के
आशीर्वाद को आधार बना परीक्षा देकर सेकेण्ड क्लास से पीछे की तरफ से चलते हुए थर्ड
क्लास और ग्रेस मार्क से साथ पास श्रेणी के साथ साथ सप्लिमेन्ट्री और फेल की श्रेणियों
में शुमार रहते थे. यह सब इस बात पर
निर्भर किया करता था कि गैस पेपर और साल्व्ड गाईड से कित्ता फंसा? ये ’फंसा’ भी तब की ही भाषा थी जिसका अर्थ होता था कि जो गैस
पेपर मिला था उसमें से कौन कौन से प्रश्न आये. नकलचियों का शुमार भी इसी भीड में होता था.
कुछ उस जमाने के
हम, इस जमाने के
नौनिहालों को ९९.२% लाता देखकर आवाक
न रह जायें तो क्या करें!!
-समीर लाल ’समीर’
20 टिप्पणियां:
जमाने जमाने का फर्क है। पहले जमीन खोदने पर 10 फुट पर अच्छा पानी निकलता था वहाँ अब 100 फुट तक नदारद है।
बच्चे ही तीरन्दाज़ हों तो क्या कर सकते हैं...ये आउट ऑफ़ सिलेबस भी पढ़ कर जाते हैं...
aaj bohot dino baad blog dekhe.... lagbhag sabhi logo ne saalo se koi post nhi daali ... aise me aapka naya naya post padkar bohot accha gaya.......
सच कहते हैं नई काट के इन परीक्षार्थियों ने परीक्षा कला की महीनताओं पर पानी फेर दिया है... सब धान बाइस पंसेरी हो रहा है...
Aapkaa vishleshan pasand aayaa hai .
जेनरेशन गैप ;)
वैसे इतने नंबर तो तब अपने और एक मित्र के मिलाकर भी नहीं आते थे :P
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, ब्रेकिंग न्यूज़ ... मोदी बीमार हैं - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-05-2015) को "लफ्जों का व्यापार" {चर्चा अंक- 1991} पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-05-2015) को "लफ्जों का व्यापार" {चर्चा अंक- 1991} पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
नदी बह रही है छलछलाती हुई
तैरने वाले को पता है
सतह पर बहुत कुछ है
और बहुत बहुत है
नीचे हवा है उसके
तैरने वाले को
उड़ना आना भी जरूरी है :)
बहुत ख़ूब!
बहुत सुंदर,समीरजी,
मुझे भी याद आ गयीं कुछ यादें,
हालांकि,मै एक प्राईवेट क्षात्र के रूप में
ही रही,हां एक बात कहीं रह गयी अन-कही
कि स्याही की दवात को इस अंदाज में रखा जाता था,
कि वह लुढक जाय और उत्तरपुस्तिका के एक-दो पन्ने खराब
हो जायं---और हमारी सफलता का एक निशान छोड दें अगले पन्नों पर—
बे-शक सब कुछ लिखा—कुछ भी ना हो.
हां,सहमत हूं आपके विचारों से और हैरानियों से भी--.
पहले और अब में काफी अन्तर आगया है .पढ़ाई में भी और परीक्षा में भी . बढ़िया विश्लेषण है परीक्षा और प्राप्तांकों का .
सही कहा
बड़े दिनों बाद आना हुआ आपके ब्लॉग पर। अच्छा लगा देखकर। आप वैसे ही जमे हैं। पहले की तरह।
दिल की बात लिख दी समीर भाई ...
बहुत अंतर है तब और आज में जो सहज ही दिख जाता है आज ... बहुत आउट डेट महसूस होता है कभी कभी ...
आज की पीढी पहले पीढी से होशियार तो ह ही। इंटरनेट नें काफी सुविधा कर दी है। पर 99.2%अद्भुत।
यह देख कर तो हीन भावना हो रही है। राइटिंग में इतने अंक तो हर पेपर में कट जाते थे।
पुराने दिन याद आ गए और एक जोक भी । एक लड़की इस बात पर रो रही थी की उसके केवल 90 परसेंट मार्क्स आये हैं । एक लड़के ने उसे चुप कराते हुए बोला कि "शर्म कर लड़की, इतने मार्क्स में तो दो लड़के पास हो जाते हैं " ।
I still get nightmares about examinations of our old pattern!
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