अगर आपके पास घोड़ा है तो जाहिर सी बात है चाबुक तो होगी ही. अब वो चाबुक हैसियत के मुताबिक बाजार से खरीदी गई हो या पतली सी लकड़ी के सामने सूत की डोरी बाँधकर घर में बनाई गई हो या पेड़ की डंगाल तोड़ कर पत्तियाँ हटाकर यूँ ही बना ली गई हो. भले ही किसी भी तरह से हासिल की गई हो, चाबुक तो चाबुक ही रहेगी जो हर घोड़े के मालिक के पास होती है. याने घोड़ा है तो चाबुक तो पक्का होगी ही. मगर इसके उलट यदि किसी के पास चाबुक है तो घोड़ा भी होगा ही- यह मान लेना ९०% मामलों में गलत ही साबित होगा.
दरअसल यही चाबुक मनुष्य को, जो कि मूलतः स्वभाव से आलसी होता है, घोड़े के समान उर्जावान बनाती है. अधिकतर सरकारी दफ्तर इसी चाबुक के आभाव में पटे पड़े हैं आलसी शूरवीरों से. घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.
चाबुक का कार्य मुख्यत: घोड़ों को घोड़ा बनाये रख उन्हें नियंत्रण में रखने का है. चाबुक यह नहीं जानती कि वो जिस घोड़े पर बरस रही है, वो उच्च नस्ली है या आम नस्ल का घोड़ा- वो सब पर एक सी बरसती है. उसका बरसना मौसम ज्ञानी नहीं, चाबुकधारी निर्धारित करते हैं कि कितना कब कहाँ और कैसे बरसना है.
वैसे ही घोड़े, चाहे नस्ली हों या आम, नहीं जानते कि चाबुक सुनहरी धागे वाली महंगी है या घर पर बनी हुई है या डंगाल से तोड़ कर बनाई गई- वो तो बस उसके बरसने के अंदाज पर निहाल हो दौड़ते, मुड़ते और ठहरते हैं.
मगर चाबुकधारियों का अपना एक अलग जहान है, जहाँ चाबुकधारी की औकात चाबुक की क्वालिटी से आंकी जाने लगी. इसका महात्म ऐसा हो चला कि चाबुकधारी बजरंगी मठाधीष अब अपने चाबुक फैशन डिज़ानर्स से बनवाने लगे. पहले वाली सूत की डोरी लगी चाबुक मठाधीषों को निम्न श्रेणी की नजर आने लगी. हालांकि घोड़े इस बात से अब तक अनभिज्ञ ही हैं कि वो किस चाबुक से हकाले जा रहे हैं. उन्हें तो बस हकाले जाने से मतलब है.
चाबुक का करिश्मा ऐसा कि हकालना रोको और बस देखो घोड़ों को खच्चर और गधों में तबदील होते. आलसी, कामचोर और धूप में सूखी घास को देश के बाहर जमा धन मान कर सूख कर काँटा हो जाने वाले. खुशहाली की दरिया को, हरी घास समझ कर, चर जाने की गलतफहमी पाल मोटे होकर खुश हो जाने वाले गधे.
चाबुक रुकी और बस, हर हरे भरे खेत में मुँह मारना मानो इनका जन्म सिद्ध अधिकार हो. जहाँ से जितना चर पाओ..भरते जाओ. लीद जमा करा दो विदेशों में. कोई जान ही नहीं पायेगा कि क्या चरा और क्या निकाला.
नये घोड़ों की नई नसल भी हरी घास और चने की खुद के लिए आवंटित खुराक छोड़ कर चाबुक के आभाव में यत्र तत्र सर्वत्र मुँह मारने की फिराक में निकल पड़ती है और खा अघा कर गधा बन जाने की होड़ में नित नये कीर्तिमान स्थापित करने में लग गौरवांवित हुई जाती है.
बहुत जरुरी है कि मठाधीष चाहे डिज़ाईनर चाबुक ही लिये रहे, क्या फर्क पड़ता है एक चुटकी नमक किनारे कर देने से, पर इतना ध्यान रखे कि चाबुक लहरती रहे, गरजती रहे और बरसती रहे. चाबुक चलाना भी तो अपने आप में एक कला ही है. कभी डोरी हवा में नचाओ, कभी हड्डे पर मार करके डराओ और कभी सच में शरीर पर बरसाओ. जब जैसा मौका हो, जब कहीं भटकन का अहसास हो, पुनः रास्ते पर लाने का हुनर ज्ञात रहे बस. ज्ञात हुनर अज्ञात अभिलाषाओं की भंवर में डूब न जाये कहीं.
अंत में उद्देश्य तो यही है अगर विकास का मार्ग चुना है तो हर घोड़े जो हांके जायें वो इसी विकास मार्ग पर बने रहें. हर भटकन पर चाबुक बरसती रहे और बजरंगी मठाधीष घोड़े संभालने में यही न भूल बैठे कि उनका मुख्य कार्य विकास का मार्ग प्रश्सत करना है न कि घोड़ों को संभालने की कला में दक्षता हासिल करना. थोड़ा सा विवेचन जरुरी है वरना घोड़ा संभाल सीना फुलाये घुमते रहने से कुछ हासिल नहीं होगा मात्र मति भ्रम के.
यूँ तो अभी चिन्ता का विषय यह है नहीं क्यूँकि सबसे बड़े अस्तबल के मठाधीष अभी यही सीखने की कोशिश में जुटे हैं कि चाबुक डोरी की तरफ से पकड़ कर चलाते हैं या लकड़ी की तरफ से. सीख भी जायेंगे तो ऐसे न जाने कितने ही प्रश्न उनकी राह में खुद मुँह बाये नजर आयेंगे. ये बात न तो वो जानते है और न ही उनकी जननी और न ही उनके सलाहकार!! खुदा उन पर रहम करे भी तो क्या? और हम दुआ करें भी तो क्या?
पुराने छुटपुट क्षेत्रिय अस्तबल के घोड़े जो पूर्णतः गधे हो चुके थे, पुनः मात्र विरोध के उद्देशय से एकजुट हो घोड़ा बनने की लम्बी तैयारी में है. अभी तो चार साल हैं. गधे और खच्चर बन चुके घोड़ों को च्यवनप्रास खिलाया जा रहा है. फिर से उन्हें घोड़ा बनाये जाने की पुरजोर तैयारी की जा रही है. उनके तथाकथित मठाधीषों के चाबुक भी डिजानर भले न भी हों तो भी फैशनेबल तो है ही..और फिर पहले ही बता दिया है कि चाबुक तो चाबुक होता है- घोड़े इसमें फरक नहीं करते. मगर उनकी समस्या यह है घोड़े से गधे बने को तो आप फिर से चचच- चाबुक, चना और च्यवनप्राश के भरोसे घोड़ा बना सकते हैं मगर जो शुरु से गधा रहा हो और मात्र हरी घास और चने के जुगाड़ में आया हो, उसको कैसे बदलोगे? उनका कहना है कि कोशिश करने में क्या बुराई है अतः उन्हें शुभकामनायें तो दी ही जा सकती हैं.
पर फिर भी- जब इत्ते सारे एकजुट मुट्ठी बाँधेगे तो खुले पंजे से तो मजबूत हो ही जायेगे अतः चेताया. ये मुझ भारतीय मूल का, भारत के प्रति प्रेम प्रदर्शित करने का एक छोटा सा प्रयास ही मान लिजिये.
बस, घोड़े सरपट भागें. दिशा निर्धारित रहे- और चाबुक तनी तो क्या बाधा है जो विकास मार्ग पर कोई गतिरोध बनें.
तानो अपनी सुनहरी चाबुक हे महारथी- घर वापसी का नहीं विकास प्राप्ति का मार्ग प्रस्शत रखो!! घर वापसी स्वतः इसी राजमार्ग से हो जायेगी. मेरा विश्वास कीजिये.
हे महारथी- बरसाओ चाबुक!!
सट्टाक!!
28 टिप्पणियां:
Bahut khub likha hai aapne bahut-bahut badhai...
कोल इण्डिया हड़ताल पर है।
गजब चाबुक चला है गधे और घोड़ों पर। अनोखे प्रतीक बनाए हैं। विकास के मार्ग से भटकते गधे-घोड़े। और विपक्ष के दीर्घकालिक मठाधीष जो अभी गधे नज़र आ रहे हैं। च्यवनप्राश।
आखरी में मूल का चक्कर..
ये विडंबना है कि साठ सालों में हमें चाबुक से ही चलाया जा रहा है। यही नियती है। बजरंगी बटुक घोड़ों की आंखों पर अंखटिकी लगी है। इधर उधर देखते नहीं। केवल घरवापसी की चिल्लपों मचाए है।
मस्त।
नीरज भाई, एक बार फिर भारत राजपथ पर चल पड़ा है, आपकी भी घर वापसी होगी.
शेष हमें कुछ नहीं कहना, कुछ गधे चाबुक खाने को उतावले दिख रहे हैं, कह रहे हैं हमें भी हाँको, चाबुक खाने को तैयार हैं. घर वापसी करवा दो.
सब साथ साथ चलने वाली प्रक्रियाएं है. विकास भी और घर वापसी भी. दस साल बाद राम मन्दिर भी देख लेंगे. ध्यान केवल इतना रखना है का6ग़्रेस को ऑक्सिजन मास्क न मिल जाए.
घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.क्या खूब लिखा है आपने! घोड़े तो वही हैं, बस चाबुक चलाने वाले बदल गए हैं।
कल 07/जनवरी/2015 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
धन्यवाद !
घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.....वाह! एकदम सही ...
अगर विकास का मार्ग चुना है तो हर घोड़े जो हांके जायें वो इसी विकास मार्ग पर बने रहें.
..हर हाल में विकास बाकी सब बाद में ...
बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़ने को मिली ..
नए साल की आपको सपरिवार हार्दिक मंगलकामनाएं!
घोड़े अगर आलस्य की चादर ओढ़ लें तो गधों की श्रेणी में आ जाते हैं.....वाह! एकदम सही ...
अगर विकास का मार्ग चुना है तो हर घोड़े जो हांके जायें वो इसी विकास मार्ग पर बने रहें.
..हर हाल में विकास बाकी सब बाद में ...
बहुत दिनों बाद आपकी पोस्ट पढ़ने को मिली ..
नए साल की आपको सपरिवार हार्दिक मंगलकामनाएं!
चाबुक चलाना भूल गए हैं उसी का तो यह नतिज़ा हैं
हाल बूरा हैं,चाल से
चाल बूरी हैं,हाल से
नेता लड़डू खा गए
गरीब के थाल से।।
रंग-ए-जिंदगानी
http://savanxxx.blogspot.in
आज ही पढ़ रहे थे कि पहले मास्साब लोग शहतूत की डगाल को चाबुक बनाकर उपयोग करते थे, और पुराने लोग कहते थे कि मास्साब माँस आपका हड्डे हमारे
आपने दुखती रग पर हाथ धरा है - सबसे बड़ी व्याधि यही है कि घोड़त्व ,गधत्व में बदल जाता है और आज से नहीं यह क्रम कब से चला आ रहा है .जाग जाए स्वाभिमान तो क्या बात है !
wah sahab behatrin kataksh hai
pyara!!!
Babu Gulab Roy ki yaad aa gai Prose padh kr.
:) :) :)
पुराने गधे जनता का चाबुक खा कर बाहर जा चुके हैं,हालाँकि अब तक खूब मलाई,मक्खन व च्यवनप्राश खा चुके थे ,अब नयी सरकार बाकी लोगों को भी राह दिखा देगी विकास का मुद्दा ही इसे ठिकाने लगाने में मदद करेगा
लाज़वाब...
वाह समीर भाई ... इतने दिनों बाद लिखा है कुछ ब्लॉग और धमाकेदार ... नया साल बहुत बहुत मुबारक ...
देश के लिये स्वतंत्रता सेनानियों ने कितने ही कोड़े खाए हैं...अब देश के विकास के लिए खाइये...घुड़सवार की नीयत और दिशा सही है तो देश के लिए...ये भी सही...
Nice article sir. Thanks a lot for sharing with us. I am a regular visitor of your blog.Online GK Test
Very good and encouraging
chabuk- naam se he kafi kuch clear hai. CHA- CHAHAT (WHAT WE WANT) AND BOOK - KITAAB (WHAT WE READ)
bahut accha lekh hai
बहुत सराहनीय प्रयास कृपया मुझे भी पढ़े | :-)
join me facebook also ;ravikantyadava@facebook.com
घोडों और गधों पर ही लिखते रहोगे या फिर समाज उतपन्न हो रही, भृष्टाचार, सरकारी दफ्तरों में होने वाली घोटाले और धांधले बाजी पर लिखोगे
wah hamesha ki tarah bahut sunder aabhaar
एक बहुत अच्छी रचना। धन्यवाद।
Came to your blog after a very long time but I am very happy that aap ki lekhni ki Chabuk aaj bhi Dumdar hai has off to you Ratna from ratna ki rasoi
वाह भाई साहब क्या लिखा है आपने! अगर मन में लगन हो और इच्छा शक्ति मजबूत भी मुस्किल मनुष्य को अपने मार्ग से भटका नहींसकती है. Soch Aapki
सटीक और तुलनात्मक लेख बेहतरीन नज़रिया है आपका..किंतु सरकारी घोड़ों पर चाबुक का प्रयोग ना हो इसके लिये गधों ने यूनियन बना ली हैं और आलसी घोड़ों को बचा लेती हैं चाबुक से......
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