मेरे कमरे की खिड़की से दिखता
वो ऊँचा पहाड़
बचपन गुजरा सोचते कि
पहाड़ के उस पार होगा
कैसा एक नया संसार...
होंगे जाने कैसे लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
आज इतने बरसों बाद
पहाड़ के इस पार बैठा
सोचता हूँ उस पार को
जिस पार गुज़रा था मेरा बचपन...
कुछ धुँधले चेहरों की स्मृति लिए
याद करने की कोशिश में कि
कैसे थे वो लोग...
क्या तुमसे थे?
क्या मुझसे थे?
तो फिर आज नया ख्याल उग आता है
जहन में मेरे
दूर
क्षितिज को छूते आसमान को देख...
कि आसमान के उस पार
जहाँ जाना है हमें एक रोज
कैसा होगा वो नया संसार...
होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
पहुँच जाऊँगा जब वहाँ...
कौन जाने बता पाऊँगा तब यहाँ..
कुछ ऐसे ही या कि
चलती जायेगी वो तिलस्मि
यूँ ही अनन्त तक
अनन्त को चाह लिए!!
बच रहेंगे अधूरे सपने इस जिन्दगी के
जाने कब तक...जाने कहाँ तक...
तभी अपनी एक गज़ल में
एक शेर कहा था मैने
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
-समीर लाल ’समीर’
51 टिप्पणियां:
उम्दा
बढिया रचना
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
...
तुम देकर मदिरा के प्याले
मेरा मन बहला देती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
और -
इतते सबई जात हैं भार उठाय उठाय,
उतते कोई न आवई जासों पूछौं धाइ.
कबीर से बच्चन तक सभी को यह चिन्ता रही!
बहुत उम्दा प्रस्तुति!
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
बहुत गहरे मोती बिखेरे है
आभार्
इस पार प्रिये, मधु है तुम हो...उस पार न जाने क्या होगा....
बहुत सुन्दर रचना
सादर
अनु
समीर जी .. कुछ सवालों के ज़वाब सिर्फ वक्त के पास ही रह जाते हैं ,,वो भी सिर्फ महसूस करने के लिए ???
शुभकामनायें!
बेहतरीन रचना .... ऊहापोह की स्थिति कि न जाने कैसा होगा ...
हरिवंश राय बच्चन की कविता याद हो आई
इस पार प्रिय तुम हो मधु है
उस पार न जाने क्या होगा
UMDA
क्या गज़ब वाह ..
इस ओर खड़े हम हमेशा उस ओर का सोचते हैं.
Hamesha kee tarah...behad achhee rachana.
सही कहा. वक्त के साथ हर सोच बदल जाती है.
लेकिन अभी से इतनी दूर क्यों देखना है !
बहुत बढ़िया
क्या बात बहुत ही फिलौसोफिकल मूड में हैं
बहुत ही सुन्दर। एक शहर में ऐसे ही एक पहाड़ पर चढ़ने की इच्छा हुई थीऔर कुछ हम उम्र के बच्चों के साथ निकल पड़े थे। वहांखजूर के खोकले तनों के बीच रखे लाशों को देख वापस भाग आये थे और दो दिन तक बुखार बनी रही।
बहुत सुंदर रचना
आखिर क्यों नहीं पहुँचती हमारी पोस्ट गूगल सर्च तक?
ग़ाफ़िल किधर को जाएगा?
एक देश से दूसरे देश पहुंच जाता है आदमी...तब फिर अपना देश याद आता है। पीछे छूट गई गलियां...नुक्कड़ का पेड़ याद आता है....यहां आज नफासत है तो पीछे छूट गाई माटी याद आती है..माटी में मचाई उछलकूद याद आती है.। कितना सही लिखा है आपने।
वक्त के साथ हर सोच बदल जाती है ।
बहुत सही ।
बचपन और वर्तमान के बीच खड़ा है वर्षों का पहाड़..बहुत ही सुन्दर अभिव्यक्ति..
बढिया
मेरो मन अनंत कहाँ सुख पावे
जैसे उड़े जहाज को पंछी ,फिरि जहाज पर आवे।
मैं अंदाजा लगा सकता हूँ की इस समय आपको पुराने मित्र,स्कूल के दिन व कुछ ख़ास लोगों के लिए मन में टीस हो रही है।यही संसार है और यही संसार का नियम।बहुत बेचैन कर देने वाली दशा होती है ये।आपने सुन्दर शब्दों में इस पीड़ा का इजहार किया।
यही शाश्वत प्रश्न है "उस पार क्या है ,कैसा है ?"
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
बहुत ही सुन्दर बात कही लाल साब।
जीवन की अधूरी इच्छाओं मुनुष्य के अवचेतन मन में जज़्ब होता है , वही कविता करने को भी प्रेरित करता है | आपकी कविता पढ़ी | एक अच्छी कविता के लिए आपको बधाई |
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
दिल को छू लेनेवाली
आसमान के उस पार
जहाँ जाना है हमें एक रोज
कैसा होगा वो नया संसार...
होंगे जाने कैसे वहाँ के लोग...
क्या तुमसे होंगे?
क्या मुझसे होंगे?
पहुँच जाऊँगा जब वहाँ...
कौन जाने बता पाऊँगा तब यहाँ..
कुछ ऐसे ही
या कि चलती जायेगी
वो तिलस्मि यूँ ही अनन्त तक
अनन्त को चाह लिए!!
सबके मन में आ ही जाते हैं ऐसे ख़याल …
’समीर’जी
कविता बहुत भावपूर्ण है …
निःसंदेह !
कमाल की संवेदनशीलता !
लेकिन आपका व्यक्तित्व बहुत प्रेरक है …
ज़िंदादिल हो'कर जीने के आदर्श पतिमान की तरह …
भावुकता आपकी रचनाओं में आने से हमारा भी मन भावुक हो रहा है …
ऐसा न करें …
:)
… … …
शुभकामनाओं सहित…
waaaaah janaab!!!
http://meourmeriaavaaragee.blogspot.in/
आपकी कविता पढकर फिल्म 'वक्त' के गीत की दो पंक्तियॉं याद हो आईं -
आदमी को चाहिए, वक्त से डरक कर रहे।
कौन जाने किस घ्सडी, वक्त का बदले मिजाज।
उस पार होगा कैसा एक नया संसार?....
इसी उत्सुकता में .........
bade dino baad ap yaad aye to socha namste to likh hi du
उस पार न जाने क्या होगा .....
गहन भाव ...
बहुत सुंदर रचना ...
शुभकामनायें ।
वाह बहुत ही बढ़िया ...उस पार वाकई न जाने क्या होगा
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
यही जीवन की दुविधा है, बहुत ही शानदार रचना.
रामराम.
यही जीवन की दुविधा है, बहुत ही शानदार रचना, शुभकामनाएं.
रामराम.
समीर भई ... वक़्त के साथ सोच बदलती है .. जगह बदलती है ... पर क्या एहसास भी ...
गहरी बात कही है ...
आजकल ब्लॉग पे लिखना कम कर दिया है क्या बात है ... कुछ खास ...?
samy ki shila par madhur chitra kitnekisi ne banaye kisi ne bigade," dekha jidhar bhi hamne bs ek skl dikhi,espar bhi vhi aur uspar bhi vahi........allah unhe rakhe usvakht tk salamt......
प्रश्न अच्छे बुरे का नहीं है हर जगह अच्छे बुरे की मात्रा कम ज्यादा रहती ही है मै कभी चिंता नहीं करती लोग कहाँ कैसे होंगे ? मै चिंता करती हूँ मै कैसी हूँ ? मै क्या हूँ इसके साथ ही सारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है जीवन को देखने का , वर्तमान का स्वीकार भाव ....एक अच्छा मनुष्य जहाँ भी जाता है अपने आचरण की खुशबु फैलाता है ! निश्चित ही एक अच्छी रचना है ....आभार !
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
बहुत ही मार्मिक पक्तियां। मेरे पोस्ट पर आकर मेरा हौसला बढ़ाने के लिए आपका आभार।
बहुत भावपूर्ण रचना...
“कैसे जीना है किसी को ये सिखाना कैसा
वक्त के साथ में हर सोच बदल जाती है”
सही बात है...आभार !!
इस पार से उस पार तक मन जाने कहाँ कहाँ तक दौड़ लगाता है, और कल्पना खींच लाती है
जाने क्या क्या हमारी दुनिया में... बहुत अच्छी रचना। बधाई समीर जी।
http://www.parikalpnaa.com/2012/12/1.html
बहुत सुन्दर लेख हैं.आज इन्टरनेट पर हिंदी भाषा में अच्छे लेखन की बहुत मांग है.ऐसा ही एक छोटा सा प्रयास मैंने भी किया है..जानकारी के लिए http://meaningofsuccess1.blogspot.in/ विजिट करें.आशा है आपको पसंद आएगा.
phir kehna padega...aap to aap ho..hats off!
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आगे बढ़ो तो पीछे मुड़ने का मन करता है, और पीछे रह जाओ तो आगे देखो ...:-(
तुमसे मुझसे ही होंगे.....वहाँ के लोग यहाँ जैसे ही होंगे
बहुत बढ़िया रचना
बिलकुल सही ।वक्त के साथ सब कुछ बदल जाती है ।अपनी प्राथमिकताये और उसके साथ साथ अपनी सोच ।
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