एक बार भारत यात्रा के दौरान एक कवि सम्मेलन में शिरकत कर रहा था. एक कवि महोदय ने गीत प्रस्तुत किया. उसकी धुन मुझे बहुत पसंद आई और कई दिनों तक जेहन में गुँजती रही. फिर उसी धार पर मिसरा लिया और रचा अपना गीत. बहुत बार तो मंच से सुना चुका लेकिन फिर वही. ब्लॉग पर खोज रहा था तो पता लगा कि आप सबको तो पढ़वाया ही नहीं. तो आज वो ही सही:
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं...
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूँ मैं..
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
तनहा तनहा सर्दीली भीगी रातों में
विरह अगन से बदन मेरा जल जाता है
बरसाती आँधी वो जब जब भी चलती है
महल हमारे सपनों का फिर ढह जाता है
मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूँ मैं..
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
-समीर लाल ’समीर’
107 टिप्पणियां:
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
सुन्दर-भावपूर्ण अभिव्यक्ति । बधाई । शुभ नवरात्रि ।
गुरुदेव,
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं.... प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
....बेहतरीन भावों से सजी है आपकी यह पोस्ट
समीर जी
"ला-जवाब" जबर्दस्त!!
हम तो आपकी भावनाओं को शत-शत नमन करते हैं.
.शब्दों को चुन-चुन कर तराशा है आपने ...प्रशंसनीय रचना।
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं
बहुत खूब समीर जी। ऐसे ही गज़ल, गीत लिखते रहिए यही कामना है।
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
शानदार रचना.
@ मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूँ मैं..
** आपकी इस ब्लॉग यात्रा के साथ जीवन के हर पल का आनंद मिलता रहा है। आज उसका राज़ पता चला है कि आप मधुमास लिए फिरते हैं ताकि हम बार-बार खुशियों को महसूस कर पाएं। सादर नमन!! अभार!!!
बहुत अच्छी प्रस्तुति।
या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।
नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
दुर्नामी लहरें, को याद करते हैं वर्ल्ड डिजास्टर रिडक्शन डे पर , मनोज कुमार, “मनोज” पर!
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
बस यही प्यास और आस कायम रहे
जो निरंतर सृजन को बाध्य करती रहे
आभार
प्यार की यह क्षुधा बनी रहे ......
क्या बात है समीर लाल जी इतना सुंदर गीत छिपा के रखा था बधाई
लाजवाब पंक्तियाँ ! मज़ा आ गया !
उत्तम भाव ,कुछ पीछे चला गया मैं।
Achha geet ban pada hai sameer ji...madhumas le kar ghumne wala gar geet rachega ..badhiya hoga hi..
आह ...आप और आपकी पातियां अक्सर ये बात करते हैं ...और क्या खूब बात करते हैं ..सच में कसम से
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
उत्तम रचना....बेहतरीन भावों से सजी लाजवाब पंक्तियाँ.... समीर जी
गुरुजी,दिल में जब मधु-मास लिए फिरते हो तो विरह की अगन आपका बदन कैसे जला रही है?
उम्मीद करता हूँ की जिसे आप ढूँढ रहे हैं वह जल्द मिलेगा !
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं...
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूँ मैं.
बहुत सुंदर कविता समीर जी
इस कविता के बाद भी कह रहे हैं छंदों का ज्ञान नहीं ??
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
" बेहद सुन्दर और मधुर गीत.."
regards
प्यार की आस ...... और सफ़र
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
वाह
तनहा तनहा सर्दीली भीगी रातों में
विरह अगन से बदन मेरा जल जाता है
बरसाती आँधी वो जब जब भी चलती है
महल हमारे सपनों का फिर ढह जाता है
बहुत सुंदर गीत!
सादर
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
.बहुत खूबसूरत भाव..बधाई.
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं...
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूँ मैं.
बहुत भावमयी गीत ..सुन्दर रचना ..
.
इक दिन हासिल हो शायद :(
4/10
उत्तम
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
Bahut khubsurat hain ye panktiyan..bahut-bahut badhai..
लाजवाब रचना …………भावों को सम्पूर्णता प्रदान की है।
Sameer Ji,
Wah kya baat hai
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
Surinder Ratti
Mumbai
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
वाह...वाह...वाह
कमाल का गीत है...
बहुत पसंद आया समीर लाल जी.
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना 12 -10 - 2010 मंगलवार को ली गयी है ...
कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया
http://charchamanch.blogspot.com/
`प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो....'
.............. बधाई हो... :)
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं
पंक्तियों ने बेहद प्रभावित किया.........सुन्दर एवं भावपूर्ण प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकार करें !!
इसी उम्मीद पर तो दुनिया कायम है. डायलाग मुझसे भी पुरानी है. लेकिन चला लें.
वाह! समीर जी,बहुत भावपूर्ण गीत है। बहुत गहराई तक दिल में उतर गया।
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं...
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं...
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बेहतरीन रचना....
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं.nice
सुन्दर गीत , जब तब आप इस मधुमास में झांक कर कवितायेँ रचते रहें ...जैसे कोई खजाना हो .
प्यार की आस लिए बढ़िया गीत है.
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
bahut hi badhiya ,man ko chhoo gaye ye saral bhav .
ishq se labalab...na jane kaun kaun doobega.. :) beautiful!
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं..
ये आस जल्द पूरी हो :)
"प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं"
सुन्दर-भावपूर्ण अभिव्यक्ति ।
बहुत ही सुन्दर गीत है ....बेहतरीन तरीके से इसके लफ़्ज़ों को पिरोया है आपने ..बहुत पसंद आया यह ...
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं....
दूर के ढोल सुहावने होते हैं शायद ...:)
प्रेम की खूबसूरत अनुभूति को समेटती सुन्दर कविता....बधाई.
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूँ मैं.
janab khoosurat nazm dil ko chukar pathak uski apni dunya mein chod jati hai .jese muje sahir saab ki nazm ..dharti dharti parbat parbat...yaad aye aur chl pada yaadon ka karvan...mere vichar mein yahi rachyita ki safalta hote hai ki veh apne mein pathk ko bhi samole.shukriya.kisi ki baat hai-jane kis desh mein rehte hain woh moonis woh gamkhar, roz jinki koi baat sunate the sunane wale.mata e dil viran hai kab se .kya hua gam ko sar ankhon pe uthane wale...
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
बहुत ही सुन्दर एवं भावमय प्रस्तुति ।
वाह समीर जी, इतनी अच्छी रचना हमारे सामने अब ला रहे हैं...बहुत ही खुबसूरत..सुन्दर भाव.. यूँ ही लिखते रहें
मेरे ब्लॉग पर इस बार
एक और आईडिया....
... बहुत सुन्दर ... बेहतरीन !
निर्जन में बज रही बॉंसुरी की टेर का आभास करा रही है आपकी ये पंक्तियॉं।
पढ़कर अब चैन नहीं मिलेगा
सुनने की आस लिए बैठा हूँ मैं ।
बहुत सुन्दर रचना और धुन भी उतनी ही मधुर होगी । ऐसा लगता है ।
बेहद उम्दा ...
आभार .
बहुत सुन्दर! आप बहुत सुन्दर लिखते हैं समीर भाई। अच्छा लगा पढ़कर।
पूरा वाक्या याद दिला दिया भाई साहब मज़ेदार
इस गोष्ठी में हम भी तो थे सरकार याद आया सामने वाली कतार में
मैं तो आपके लेखन पर कमेंट करने मे अभी अबोध हूं।बहुत गहराई है आपके विचारों मे और साथ साथ बहु आयामी तरंगे भी हैं उनमें।आप तो बलॉगाचार्य हैं ब्लॉग जगत के।
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं
बहुत बढ़िया रचना हैं . फोटो मेरे ख्याल से विजय तिवारी जी "किसलय" के जन्मदिन के अवसर पर ली गई है .... सुन्दर प्रस्तुति...आभार
समीर भाई,
आज तो आप की रचना पढ़ कर ऐसा लगा कि, शायद ये कल की ही बात हो जब हिंदी साहित्य संगम http://www.hindisahityasangam.blogspot.com/ की काव्य गोष्ठी में आपने ये रचना सुनाकर (सुनाकर नहीं बल्कि तरन्नुम में गाकर ) सबका दिल जीत लिया था. सच वो पल हमारे लिए सदैव अविस्मरनीय रहेंगे.
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
-समीर लाल ’समीर’
- विजय
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
--
बहुत ही सुन्दर और भावप्रणव गीत रचा है आपने!
--
वैसे भी छंदबद्ध रचना करना
सभी के बस की बात नही है!
sabkuchh samjh me aa gaya ..........hamari duaa hai jaldi vapas mile
पढवा तो दिया सुनवायेगा कौन? एक ऑडियो तो बनता है,
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं
क्या बात है..बहुत खूब....बड़ी खूबसूरती से दिल के भावों को शब्दों में ढाला है.
बहुत सुंदर जी धन्यवाद
प्रेम का कोमलतम एहसास।
बहुत ही भावपूर्ण रचना . बधाई
प्रेमकी कोमल भावनाओं को समेटे यह गीत, बसआपकी आवाज़ की कमी खल रही है!!
बहुत सुन्दर गीत है समीर जी.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
एक घर की तलाश है हम सब की जो निरंतर रहती है. सुंदर लेखन. बधाई.
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं
वाह ....बहुत सुंदर गीत
आभार
छा गये जनाब ! जय हो !!
सुन्दर गीत.. सुन्दर कवि... अति सुन्दर भाव...
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
बहुत सुंदर प्रस्तुति समीर जी ... शुभकामनाएं
प्यार हासिल करने और बाँटने की ही वस्तु है |
सुब्दर भाव लिए रचना |बधाई
मेरे ब्लॉग पर आकार प्रोत्साहित करने के लिए आभार
आशा
मुझे यह पोस्ट अच्छी लगी।
हज़ामत पर टिप्पणी के लिए आभार!
मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूँ मैं..
..............लाज़वाब भाव और उतनी ही सुन्दर अभिव्यक्ति...दिल को छू लिया...आभार...
मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूँ मैं..
..............लाज़वाब भाव और उतनी ही सुन्दर अभिव्यक्ति...दिल को छू लिया...आभार...
मज़ा आ गया समीर भाई ....
इतनी लाजवाब चीज़ों को भूला मत करो भाई .... कुछ आनंद हमें भी लेने दिया करो ...
प्रियवर समीर जी
नमस्कार !
कुछ विलंब से आया हूं , लेकिन ऐसा रूमानियत से लबरेज़ गीत पढ़ कर "सॉरी" "अफ़सोस" या और कुछ कहने को मन ही नहीं हो रहा …
गुनगुनाने लगा है मन
मुझको ज्ञान नहीं है तनिक इन छंदों का
बस मन में अपनी राग लिये फिरता हूं मैं …
क्या बात है !
मौसम चाहे जितने रंग आज बदल डाले
दिल में इक मधुमास लिए बस फिरता हूं मैं …
हुज़ूर , आपने जैसे गाया था , उसका रस और आनन्द हमारे हिस्से में भी तो आना चाहिए था … !
आज कल में इसकी ऑडियो क्लिप लगा ही दें साथ ही साथ …
दराल साहब सहित हम सबकी मुराद पूरी हो जाएगी
शुभाकांक्षी
- राजेन्द्र स्वर्णकार
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
लाजवाब पंक्तियाँ अब तक तो आस पूरी हो गयी होगी
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना! उम्दा प्रस्तुती!
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
I will pray for you to get your love.
.
तनहा तनहा सर्दीली भीगी रातों में
विरह अगन से बदन मेरा जल जाता है
वाह दद्दा, आपका एक रंग यह भी........ बढिया....
बहुत सुन्दर ग़ज़ल गुनगुनाते रहे आप.. चलिए देर आये दुरस्त आये... हमने भी अब इस खूबसूरत ग़ज़ल का आनंद लिया ... बहुत खूब...
बहूत ही सुंदर गीत है। एक फिल्मी गाना याद आ गया। बस्ती बस्ती पर्वत पर्वत गाता जाए बंजारा, लेके अपने दिल का इकतारा.....।
आपका सुंदर गीत पढ़ने को मिला.वो भी प्यार की खुशबू लबरेज़. मज़ा आ गया.
आप ने मेरे ब्लॉग पर मेरी ग़ज़ल पढ़ी,सराहना की.धन्यवाद.
उम्मीद है ब्लॉग पर मिलते रहेंगे.
कुँवर कुसुमेश
aadarniy sir
behad hi khoob surat aur dharamai pravah me baha le gai aapki kavita.
aapne sach hi likha ki man me jo bhav aate hai vo kis vidh ka roop lelain ye to rachna purn hone ke baad hi pata chalta hai ki vastav me hamne kya likha ,geet,gazal chhand ya kavita.
bahut hi sundar rachna.
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं
poonam
bhawpurn rachna. bahut sunder.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं....
Hum sabkee kisee na kisee insan kaho, wastu kaho, ya fir koee sapna kaho yahee bhawana hotee hai.
बड़ा प्यारा गीत है।
बेहद खूबसूरत रचना.
आभार.
सादर डोरोथी.
वाह, पढ़ कर अच्छा लगा.
bahut sundar rachana.
bahut sundar rachana.
प्यार तुम्हारा इक दिन हासिल हो शायद
बस्ती बस्ती आस लिए फिरता हूँ मैं..
vaah vaah!!
बहुत ही सुंदर.
बहुत तराशी हुई रचना है, आनंद आगया.
बहुत तराशी हुई रचना है, आनंद आगया.
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
बहुत ही गरिमामयी रचना।
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं.
बहुत ही गरिमामयी रचना।
प्यार की पाती जितनी भी लिख डाली है
यूँ नाम गज़ल दे लोग उसे पढ़ जाते हैं
अपने दिल के भाव जहाँ भी मैं कहता हूँ
गीतों की शक्लों में क्यूँ वो ढ़ल जाते हैं
love you Sameer darling.
bahut gajab
समीर बिटवा बहुते अच्छा लिखते हो हमरी त तबियते मस्त हुई गई ई पढकर। जीयो खूब जीयो।
अऊर बिटवा इन बदनाम गलियों मा काहे जात हो? कऊन है ई मुई मुन्नी बदनाम?
जो दूर हुए मुझसे वो मेरे अपने थे
फिर पाऊँगा प्यार, वो मेरे सपने थे
ऐसा नहीं कि रिश्ते कोई बन्धन हैं,
जाने फिर क्या तोड़ चला मेरा मन है.
सारे रिश्ते तोड़ के अपने अपनों से
बेगानों संग प्रीत किए बैठा हूँ मैं
ati suder sameer jee.
ओह रे ताल मिले नदी के जल से,
नदी मिले सागर से, सागर मिले कौन से जल में.
कोई जाने न...
जय हिंद...
appki kavita "udan tashtari" padhkar dil khush ho gaya.. :)
Keep the good work going !!
GOD BLESS
n wish u a very happy diwali :))
bade bhai pranaam.
is geet ke rachiyata ko naam se yad kar lete to unhe bhi achcha lagegaa. dinesh raghuvanshi ji manch ke bahut lokpriya kavi hain aur unki sabse badee visheshta ye hai ki vo man ke bheetar se kavita nikaalte hain. kabhi talkhi bhi hai kabhi nirasha bhi. mere achche dost hai aur priya kavi bhi.
गीत तुम्हारे तुमको सौंप सकूँ शायद
बस्ती-बस्ती गीत लिए फिरता हूँ मैं
प्यार की उन नन्हीं-नन्हीं सी राहों ने
पर्वत जैसी ऊँचाई दे डाली है
लेकिन सच्चाई ये किसको बतलाऊँ
शिखरों पर आकर मन कितना ख़ाली है
खुद से हार गया पर सब की नज़रों में
हर बाज़ी में जीत लिए फिरता हूँ मैं
तुम्हें देखकर सूरज रोज़ निकलता था
तुमको पाकर कलियाँ भी मुस्कुराती थीं
तुमसे मिलकर फूल महकते उपवन के
तुमको छूकर गीत हवाएँ गाती थीं
बरसों बीत तुमने छुआ था पर अब तक
साँसों में संगीत लिए फिरत हूँ मैं
उजियारों की चाहत में जो पाए हैं
अँधकार हैं, मेरे मीत सँभालो तुम
स्म्बन्धों के बोझ नहीं उठते मुझसे
आकर अब तो अपने गीत सँभालो तुम
जो भी दर्द भी मिला दुनिया में रिश्तों से
गीतों में, मनमीत! लिए फिरता हूँ मैं
कब तक, आखिर कब तक इक बंजारे-सा
बतलाओ तो मुझको जीवन जीना है
कब तक आख़िर कब तक यूँ हँसकर निश-दिन
अमरित की चाहत में यह विष पीना है
चेहरे पर चेहरे वालों की दुनिया में
दिल में सच्ची प्रीत लिए फिरता हूँ मैं
प्रिय मित्र शर्मा जी
शायद आपने गीत के पूर्व की भूमिका नहीं पढ़ी, जो मैं कहीं भी इस गीत को सुनाने के पूर्व अवश्य सुनाता हूँ और जब से रघुवंशी जी का नाम और गीत सुनिता शानु जी ने याद दिलाया, तब से उनका नाम भी भूमिका में कहने लगा हूँ.
मेरा सौभाग्य था कि रघुवंशी जी, डॉ कुंवर बेचैन एवं राकेश खण्डॆलवाल जी के साथ एक ही मंच पर सन २००७ में पढ़ा था जिसका निमंत्रण एवं आयोजन सुनीता शानु जी ने किया था. वही एक मुलाकात रही रघुवंशी जी से और वहाँ उन्होंने यही गीत जो आपने लिखा है, सुनाया था गाकर.
धुन कानों में बस गई. मुखड़े का एक मिसरा भी लेकिन बाकी न तो बोल याद रहे, न रघुवंशी जी का नाम. इसे मेरी कमजोर याददाश्त कहें या जो भी उचित समझें, मान लें.
बाकी मिसरे उसी धुन पर हैं मगर जुदा है और शायद इंगीत भी अलग ढंग से किये गये हैं.
एक धुन, एक ख्याल, मुखड़े का पुनरुपयोग तो सदा से होता आया है किन्तु फिर भी यह गीत दिमाग में कैसे आया, मैने भूमिका में लिख ही दिया था.
आशा है आपके मन का संशय दूर हुआ होगा. यदि अभी भी कुछ संशय हो तो अवश्य सूचित करें.
सादर शुभकामनाएँ...
समीर लाल
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