बुधवार, मई 12, 2010
अंधड़....
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--ख्यालों की बेलगाम उड़ान...कभी लेख, कभी विचार, कभी वार्तालाप और कभी कविता के माध्यम से......
हाथ में लेकर कलम मैं हालेदिल कहता गया
काव्य का निर्झर उमड़ता आप ही बहता गया.
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दूसरों की गलतियों से सीखें। आप इतने दिन नहीं जी सकते कि आप खुद इतनी गलतियां कर सके।
-अमिताभ बच्चन के ब्लॉग से
और क्या इस से ज्यादा कोई नर्मी बरतूं
दिल के जख्मों को छुआ है तेरे गालों की तरह
-जाँ निसार अख्तर
अधूरे सच का बरगद हूँ, किसी को ज्ञान क्या दूँगा
मगर मुद्दत से इक गौतम मेरे साये में बैठा है
-शायर अज्ञात
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92 टिप्पणियां:
सही बात है विध्वंश के बाद ही नवसृजन होता है.. अंधड़ भी अपने आप में कुछ नया रचने की शक्ति लिए आता है..
एकदम सत्य कहा आपने ,कुछ अच्छा सोचते रहने वालों को चैन कहाँ /
सच है कोई प्रयत्न करके भी अपने निजी गुणों से विमुख नहीं हो सकता !
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!
बहुत सारगर्भित प्रस्तुति ! अति सुन्दर !
फानूस बनके जिसकी हिफ़ाज़त हवा करे,
वो शमा क्या बुझे जिसे रौशन खुदा करे...
जय हिंद...
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!
शायद इसी का नाम जिन्दगी है. घोसलें फिर बन जायेंगे. कब तक हवाएँ बिखेरेंगी. थोड़े और कौशल के साथ जब घोसले बनेंगे पूरी मजबूती के साथ तो हवाएँ भी कतरा कर निकल जायेंगी.
और शायद बिखरने के बाद कुछ नया मिले जैसे यह बेमिसाल रचना
ऐसा हम सभी के जीवन में होता है जब किसी ना किसी दिन कोई अंधड़ से सामना होता है...एक बेहतरीन रचना...भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई
नहीं
नहीं
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना
...वाह! ऐसी कवितों से जीने की उर्जा मिलती है.
..आभार.
....उम्दा रचना,प्रभावशाली!!!
समीर लाल ji namaskar
kai dino se busy hone ke karan blog par nahi aa ska
mafi chahta hoon....
अपने अंधड़ पर
मुखौटा लगाये
पुरबाई का
और तब
वे जो मेरा साथ देने को हुए थे
इन पंक्तियों ने दिल छू लिया... बहुत सुंदर ....रचना....
आपके लेखन ने इसे जानदार और शानदार बना दिया है....
एक गरमा-गरम शेर उतरा है
मुलाहिजा फ़रमाएं।
हवाओं की साजिशों पर नजर लगा रखी है
कहते हैं कि किसी अंधड़ से यारी है उनकी
हर अंधड के बाद नवसृजन होता है और यही चक्र आखिरी पल तक चलता रहता है. शायद यही जीवन की नियति है.
रामराम.
"एक समय जो त्याज्य, दूसरे समय ग्राह्य होता है!
ऊष्मा में हिम के कम्बल का भार कौन ढोता है!!"
आपकी इस कविता में गीता का निष्काम कर्म दिखाई दे रहा है साथ ही नियति और मनुष्य का द्वंद भी है! शुभकामनायें स्वीकारें !
अंधड़ का बेहतरीन अंदाज़. हम राजस्थान वालों का इस से रोज पाला पड़ता है
bilkul sahi sir...hamesha mushkilon me aur shakti ke sath ubhar kar aana chahiye
bilkul sahi sir...hamesha mushkilon me aur shakti ke sath ubhar kar aana chahiye
keep the flow going thoughts need to penned and that you do its upto others to interpret
my interpretation of this poem
the independent thinker and rational mind are on the furore as always
bless you
समीर बाबू, अप त कमाले कर दिए... केतना सहज भाव से समझा दिए अपना अपना धर्म... एकदम से ओही भावना कि देखना है जोर केतना बाजु ए क़ातिल में है...बाकी एक बात… अंधड़ चाहे केतनो तेज हो अऊर समीर चाहे केतनो नरम... जे दिन समीर अपना तेजी पर आ गया, ऊ दिन कोई अंधड़ उसका मोकाबला नहीं कर सकता..बहुत बढिया रचना.
विचारों से
सोच के घोंसले
उजड़ते नहीं हैं
बस जाते हैं
अंधड़ भी
बनकर विचार
धूम मचाते हैं।
चलिये ये भी ठीक है
हौसला अफ़्ज़ाई करती हुई बहुत सुंदर रचना
आपके इन्ही रचनाओं को पढ़ने के बाद ही तो लगता है कि आपका कोई जवाब ही नहीं ।
जी इस विश्राम से आप को ताज़गी और उनको.........?
मिलना तय है
"जब भी सोचता हूँ मैं
कुछ पल पा जाऊँ
चैन के
और सो सकूँ एक रात "
किंतु केवल यही विकल्प नहीं
शुभकामनायें समीर भाई !
कुशल बुनकर के
बनाए घोसले,
और हुनर के
सजाये हौंसले,
ही टिक पाते है!
समीर जी, हवाओं
आंधियों का क्या
ये अंधड़ तो बस
आते और जाते है !!
अब हवाये करेंगी रोशनी का फ़ैसला
जिस दिये मे जान होगी वही दिया रह जायेगा
क्या लिखा है आपने . और मैने शेर बिन मौसम के उतार दिया सम्झने वाले समझते रहे है
अंधड़ का काम है आना और चले जाना। जिनकी नींव मजबूत और गहरी है वे अपनी जगह जमे रहते हैं। जिनका कोई आधार नहीं है वे तिनके की तरह उड़ जाते हैं। अंधड़ न आये तो पहचान कैसे हो?
और हाँ, आपके विचारों का जो महल खड़ा है उसकी नींव गहरी भी है और मजबूत भी। जमे रहिए जी। बहुत शानदार पोस्ट।
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!
सन्देश देती रचना बहुत अच्छी लगी....
वेहतरीन प्रस्तुति. इसमे समकलीन मनोदशा पर अप्नी बात भी कह दी और सनातन सत्य भी.
इस समय मकान का निर्माण कार्य चल रहा है और विभागीय झंझावाद से झूझना पड़ रहा है . इसीलिए समय पर आपकी रचना पढ़ नहीं पाता हूँ . कृपया क्षमा करेंगे. यह भी सच है की विध्वंस के पश्चात सृजन सुनिश्चित है.
बहुत ही बढ़िया प्रस्तुति..रचना भी बेहतरीन लगी. आभार.
हवा का एक झोंका
जान लेता है
मेरे इरादों को
और आ जाता है
बन कर
अंधड़
मेरी सोच के घोंसले को
उजाड़ने के लिये
waah kya wichaar hain...
kabhi kabhi sochta hoon, kya main bhi itna achha likh paunga...
yun hi likh kar margdarshan karte rahein...
regards
वे जो मेरा साथ देने को हुए थे
तत्पर
गंवाने लगते हैं
अपने अपने घोंसले
ताकते हैं मेरी ओर
मैं उठ कर लड़ूँ
हवा से..
समीर साहब इसी लिए तो हम दीवाने हैं आपके ......गोरखपुर कब आना हो रहा है.
समीर जी!
जीवन के द्वैत को समझाती सुन्दर कविता के लिये बधाई!!
निदा फाज़ली जी का शेर (जिसे सूफी मन अद्वैत भाव से लेता है)याद आ गया..
अपनी मर्ज़ी से कहां सफर मे हम हैं
रुख हवाओं का जिधर है, उधर के हम हैं.
"मेरा काम है घौंसला बनाना
और हवा का उजाडना"
दोनों का अपना-अपना काम हैं।
आपका कोई जवाब हो ही नहीं सकता जी।
लाजवाब कविता के लिये आभार
प्रणाम स्वीकार करें
नहीं
नहीं
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना
और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!
....बहुत खूब..सुन्दर व सार्थक सन्देश. यही तो जिंदगी का लुत्फ़ है. अपना विश्वास न खोएं, आगे बढ़ें...!!
और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!
Kaash yah jigra harek me ho!
मैं इसे विवाद के परिप्रेक्ष्य में नहीं लेता... एक अच्छी रचना...
नई लगन के साथ!!!
आज के लिए ये जरुरी बात याद दिलाई आपने.
जब भी सोचता हूँ मैं
कुछ पल पा जाऊँ
चैन के
और सो सकूँ एक रात
बिना किसी विचार के
बिना किसी इन्तजार के...
अपने में सिमटा मैं...
तब जाने कैसे
हवा का एक झोंका
जान लेता है
मेरे इरादों को
और आ जाता है
बन कर
अंधड़
मेरी सोच के घोंसले को
उजाड़ने के लिये
और
बिखर कर रह जाता हूँ मैं.
...बस यहीं ठहर जाने का मन है.
आपका यह सत्य मेरा भी है । शब्द भिन्न हैं, अर्थ एक है ।
कर लो प्रारम्भ महाभारत, निष्कर्ष बताने बैठा हूँ,
तुम रोज उजाड़ो घर मेरा, मैं रोज बनाने बैठा हूँ ।
आवारापन मन का मेरा, कुछ और जमीनें पायेगा,
मर्यादा की अब टूट रही दीवार हटाने बैठा हूँ ।
मैंने सम्बन्धों के हर क्षण उन्मादयुक्त निर्बाध जिये,
अपनेपन की आहुतियों पर अस्तित्व लगाने बैठा हूँ ।
बढ़िया
इस लोक का यह वैशिष्ट्य है । अति प्रशंसनीय ।
जीवन की आंधी में डूबा इंसान पर कब टूटा इंसान ...
हिंदी ब्लॉग जगत के आज के माहौल पर भी सटीक वार करती है आप की कविता !!
वैसे बहुत ही उम्दा रचना !! बधाइयाँ और शुभकामनाएं !!
आपका बनाया घोंसला कौन सी हवा उजाड़ेगी..........????
अब हवाएं ही करेंगी रोशनी का फैसला,
जिस दिए में तेल होगा बस वही रह जाएगा.
===============================
फिर नये अण्दाज़ में
यहाँ अंदाज़ कर लीजियेगा.........
बड़ों को गलती बताने की क्षमा सहित...........
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
ईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।
वेद:
समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः
मैं तुम सबको समान मन्त्र से अभिमन्त्रित करता हूं ।
ऋग्वेद , 10-191-3
कुरआन:
तुम कहो कि हे पूर्व ग्रन्थ वालों ! हमारे और तुम्हारे बीच जो समान मन्त्र हैं , उसकी ओर आओ ।
पवित्र कुरआन , 3-64 - शांति पैग़ाम , पृष्ठ 2, अनुवादकगण : स्वर्गीय आचार्य विष्णुदेव पंडित , अहमदाबाद , आचार्य डा. राजेन्द प्रसाद मिश्र , राजस्थान , सैयद अब्दुल्लाह तारिक़ , रामपुर
एक ब्रह्मवाक्य भी जीवन को दिशा देने और सच्ची मंज़िल तक पहुंचाने के लिए काफ़ी है ।
जो भी आदमी धर्म में विश्वास रखता है , वह यक़ीनी तौर पर ईश्वर पर भी विश्वास रखता है । वह किसी न किसी ईश्वरीय व्यवस्था में भी विश्वास रखता है । ईश्वरीय व्यवस्था में विश्वास रखने के बावजूद उसे भुलाकर जीवन गुज़ारने को आस्तिकता नहीं कहा जा सकता है । ईश्वर पूर्ण समर्पण चाहता है । कौन व्यक्ति उसके प्रति किस दर्जे समर्पित है , यह तय होगा उसके ‘कर्म‘ से , कि उसका कर्म ईश्वरीय व्यवस्था के कितना अनुकूल है ?
इस धरती और आकाश का और सारी चीज़ों का मालिक वही पालनहार है ।
हम उसी के राज्य के निवासी हैं । सच्चा राजा वही है । सारी प्रकृति उसी के अधीन है और उसके नियमों का पालन करती है । मनुष्य को भी अपने विवेक का सही इस्तेमाल करना चाहिये और उस सर्वशक्तिमान के नियमों का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ताकि हम उसके दण्डनीय न हों । वास्तव में तो ईश्वर एक ही है और उसका धर्म भी , लेकिन अलग अलग काल में अलग अलग भाषाओं में प्रकाशित ईशवाणी के नवीन और प्राचीन संस्करणों में विश्वास रखने वाले सभी लोगों को चाहिये कि अपने और सबके कल्याण के लिए उन बातों आचरण में लाने पर बल दिया जाए जो समान हैं । ईशवाणी हमारे कल्याण के लिए अवतरित की गई है , यदि इस पर ध्यानपूर्वक चिंतन और व्यवहार किया जाए तो यह नफ़रत और तबाही के हरेक कारण को मिटाने में सक्षम है ।
आज की पोस्ट भाई अमित की इच्छा का आदर और उनसे किये गये अपने वादे को पूरा करने के उद्देश्य से लिखी गई है । उन्होंने मुझसे आग्रह किया था कि मैं वेद और कुरआन में समानता पर लेख लिखूं । मैंने अपना वादा पूरा किया । उम्मीद है कि लेख उन्हें और सभी प्रबुद्ध पाठकों को पसन्द आएगा
http://vedquran.blogspot.com/2010/05/blog-post.html
वाह्……………॥क्या बात कही है…………हौसला बढाती जीने का अन्दाज़ सिखाती बहुत ही बढिया रचना।
विचारों की आंधियां यूँ ही चलती रहेंगी, ओढ़कर इन आधियों की चादर को सोना होगा!
कितनी अच्छी और सार्थक बात कही है समीर जी आपने ..बस यही नियति है और यही जीवन का मूल मन्त्र..
बहुत अच्छा लगा आप का आज का अंधड धन्यवाद
इन्हीं अंधड़ गलियों में ही जीवन के रहस्य छिपे हैं ।यूं ही हम घोंसले बनाते रहेगे और यूं ही आन्धियां आती रहेंगी
जब जब भी
कोई ध्येय लेकर
निकलेंगे हम
रोकने को बाधाएँ
आएँगी, वे अपना काम करें,
मैं अपना काम करूंगा
हवा का तो काम ही है बहना कभी शीतल मंद पुरवाई के रुप में तो कभी अंधड़ के रुप में
इसलिए " नीड़ का निर्माण फिर-फिर "
सुंदर भाव।
अपील तो मैने पहले ही कर ली है अपनी
:)
अंधड़-फंधड़ से परेशान नहीं होने का भाईसाहब।
आपकी कविता अपने को सही ढंग से समझ में आ गई है।
मैं सिर्फ इतना ही कह सकता हूं-
आंधियों में जो जलता हुआ मिल जाएगा
उस दिए से पूछ लेना मेरा पता मिल जाएगा
मैं आपके साथ हूं। खुलेआम घोषणा करता हूं।
aapki maulikta adbhut hai!
'मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना '
बहुत सही लिखा है..
मुश्किलों में हार न मानने की सलाह और निडर आगे बढते रहने की प्रेरणा देती सारगर्भित कविता.
समीर जी वैसे मै नई कविता पसंद नहीं करती पर आपका लेखन वाकई जानदार भी है और शानदार भी........
वाह!क्या बात है?
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!! yahi jeevan ka dhyey he aour yahi niyati bhi.
chain bhalaa kise kab milaa he? koi hawaa aa hi jaati he..
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!
सही है , कर्म करना ही हमारा फ़र्ज़ है।
वाह समीर भाई ... सच कहा ... अपना अपना काम तो करना ही है ... और करते जाना चाहिए ... फिर बनाना या उजाड़ना ... सब अपने हाथ में कहाँ है .... बहुत लाजवाब तरीके से समय को पकड़ा है ...
MAN KI KASHMOKASH KO EK FLOW ME KEH JANA ASAAN TO NAHI AUR VO BHI JO AAP,HAM, SAB KE BEECH HO KAR GUZARTA HO...LEKIN UN BHAVO KO SHABDO ME DHAALNE KI AAPKI KALA KAABILE TAREEF. HAI. BADHAYI.
"तब जाने कैसे
हवा का एक झोंका
जान लेता है
मेरे इरादों को
और आ जाता है
बन कर"
सोच अपरमित है - सार्थक सन्देश के साथ रचना की जबरदस्त समाप्ति
बढ़िया है.....कुछ अलग सा!
दोनों कि लगन को सलाम |
कविता पड़ कर आचानक मधुशाला की यह पंक्तियाँ याद आ गई!
मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला, किस पथ से जाऊँ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।
flawless ...and smoothly flowing work of poetry...Sameer bhai bahut badhiya
वाह क्या कर्म भाव है
P.S. अनूप जी की नयी पोस्ट पढियेगा.. उन्होने बहुत प्यार से लिखी है..
"पिटूं इस दुख की घड़ी में मैं तुम्हारे साथ हूं। तुम भी हमारे साथ ही आ जाओ। दोनों मिलकर इस दुख की घड़ी को पार करें। पिंटू बबुआ –आई लव यू!" :)
जावो पिंटू जावो, फ़ुरसतिया ने अब तो दूत भी भेज दिया बुलाने को.
अक्सर ऎसा होता है कि हम अंधडो की तैयारी मे लगे होते है और अंधड़ सिर्फ़ हवा के मामूली झोके होते है और जलती गर्मी मे ऐसे झोके भी सही..
"मेरी कमिया निकालने वाले, तू है कोई निगेहबान मेरा.."
I would like to say sorry with folded hands, if any of the used alphabet is conveying any wrong meaning...
आपकी कविता से भावुकता झलक रही है... लेकिन बडे होने के नाते आपसे बहुत उम्मीदे है.. और ये उम्मीदे भी की आप हमारे जैसे क्षुद्र ब्लोगरो के लिये एक मिसाल देगे.. आपके नये कमेन्ट्स मुझे अच्छे नही लग रहे :( :(
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!
बहुत सही लिखा है... नई लगन के साथ अपने काम में जुट जाते हैं..
"हवायें लाख जोर लगायें आंधियां बनकर,
बादल जो बरसने आता है, बस छा ही जाता है।"
कविता बहुत अच्छी लगी।
आभार स्वीकार करें।
हर संवेदनशीलमन ब्लोग्गर के साथ कभी न कभी यहां इस अंधड का सामना करना ही पडेगा । आप बरगद के दरख्त हैं तो जाहिर है कि अंधड का रुख आपकी तरफ़ अक्सर हुआ करेगा । मगर इतना ध्यान रखिएगा कि इन दरख्तों पर बहुतों ने अब अपने घोंसले बना लिए हैं कम से कम उनके लिए ही सही बरगद को स्थिर रहना ही होगा ।
मैं भी वही कहना चाह रहा था जो पंकज ऊपर कह गए हैं.
सुंदर कविता । सबको अपना अपना काम करते रहना चाहिए । और किया भी क्या जा सकता है ।
samir ji !आपकी इस पोस्ट ने बड़ी हिम्मत दी !
शायद जीवन इसी का नाम है.....
लगभग अद्भुत....
आलोक साहिल
वाह वाह महारज जी, किस अंदाज़ में कह गए, कोई जवाब नहीं आपका। बात एकदम वाजिब कही है और बड़ी ही सहजता से।
'शातिर हवा
फिर नये अण्दाज़ में
आ जाती है
अपने अंधड़ पर
मुखौटा लगाये
पुरबाई का
और तब
वे जो मेरा साथ देने को हुए थे
तत्पर
गंवाने लगते हैं
अपने अपने घोंसले
ताकते हैं मेरी ओर
मैं उठ कर लड़ूँ
हवा से..
को नहीं
नहीं
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!! '
सर! दादा तो हैं ही.अक्सर अपने ही लोंगों कहती हूँ (और कहती ही नही ये मेरे जीवन का,मेरी सोच का केन्द्र बिंदु भी है इसे आत्म श्लाघा ना समझें)कि मेरे लिए कोई क्या कहता है,इसकी कभी परवाह करती ही नही .क्यों सब मुझे महान,बहुत अच्छा समझे? अरे भई ! तुम्हारी सोच जहाँ तक जाये, सोचो. जिस लेवल की बात करनी आती है,करो. मैं क्या हूँ वो लोग बताएंगे,सर्टिफिकट देंगे तभी मुझे मालूम होगा क्या?
हर स्तर की लेंग्वेज आने के बाद भी सामने वाले के स्तर तक नही उतरती.
यहाँ तो दो बुद्धिजीवियों की बात हो रही है,बाकि भी सभी बुद्धिजीवी ही हैं फिर..........
'शातिर हवा' 'पुरवाई का मुखोटा' शब्दों को पढ़ कर मुझे दुःख हुआ.
फूलों में लपेट कर पत्थर ही मारा है आपने, अच्छा नही किया. आपके व्यक्तित्व की गरिमा के अनुकूल नही.
मेरा दादा 'आम' आदमी हो ही नही सकता. वो कईयों का रोल मोडल है.
लोंगों ने खुल कर गाली गलोच की, आपने? आप जैसे लोंगों की चुप्पी ही एक जबर्दस्त विरोध प्रकट करने के लिए काफी है,उस चुप्पी में से भी एक 'ग्रेस' झलकता है आपका.
कविता अच्छी है किन्तु.......... उन पंक्तियों को पढ़ कर मुझे अफ़सोस हो रहा है.
आप एक विश्व प्रसिद्ध ब्लोगर हैं,विद्वान है.मेरे श्रद्धेय है.मगर दादा! आप ये भी जानते हैं चाटुकारों ने बड़े बड़े साम्राज्य नष्ट कर दिए बुद्धिमान सम्राट जान ही नही पाए कि शुभचिंतक,प्रसंशक और चाटुकार कौन कौन है उनके ईर्द गिर्द.प्रसिद्धि,ताकत,सम्पन्नता का मूल्य चुकाना पड़ जाता है कभी कभी.
आप चाहें तो इस टिप्पणी को पब्लिश ना करें.
'नहीं
नहीं
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!'
ये है वो समीर लाल जी, उडन तश्तरीजी,मेरा दादा जिसे हजारों लाखों को लोग प्यार करते है ,सम्मान देते हैं.
दादा! माफ कर दीजिए,पर. ....
पूज्य दादा
एक क्षण भी नही लगाया और आपने मेरे व्यूज़ छाप दिए ?
आप जैसा व्यक्ति ही ऐसा करऩे का साहस कर सकता है .
मेरे मन में आपका दर्जा और ऊंचा हो गया है दादा !
मैं जानती हूँ आपको मेरी बात ऩे कहीं न कहीं आहत तो किया ही होगा.
माफ़ कर दीजिये .
किन्तु हम जिन्हें चाहते हैं ,प्यार करते हैं,सम्मान देते हैं उसके सामने सत्य ना बोल कर बहुत अच्छा नही कर रहे ,
बल्कि उसका बुरा ही कर रहे होते हैं.
आप जैसे व्यक्तित्व के लिए ये सब लिख कर मैंने आपके परिजनों को नाराज कर दिया है और बिजली मुझ पर गिरेगी ये भी जानती हूँ किन्तु .......
इन सबकी बहुत ज्यादा परवाह भी मैं नही करती .
ये मेरी एक बहुत बड़ी कमी या विशेषता ??????? भी है
हा हा हा
क्या करूं ऐसीच हूँ मैं
'छुटकी '
समीर जी!
प्रणाम। आपको नमस्ते लिखता था, आज पहली बार (शायद) याद के दयार में प्रणाम कर रहा हूँ।
मैंने अपने अनुभव दर्ज करने में ही साफ़ कर दिया था कि आप किस स्थान पर हैं मेरी नज़र में, उस समय।
हालात ऐसे बने कि मन उखड़ा, तो मैंने बहुत क़ाबू किया, करते-करते भी कुछ-न-कुछ कहीं-न-कहीं टीप ही गया। फिर भी, कहीं उल्लंघन न हो मर्यादा का इसलिए, आज तक टाला और अब आया, जब आज अपनी सोच ज़ाहिर कर सका, संयत होकर मगर खुलकर, अपनी आज की पोस्ट में।
यहाँ आकर रहा-सहा मूड भी सुधर गया - आप की पंक्तियों से -
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना
और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!
एक अर्थ में अच्छा भी रहा, आप तो वहीं हैं जहाँ थे; बहुतों की मूर्धन्यता और परिपक्वता की कलई खुली इसी बहाने। हमारे जैसे नए-पुरानों का चक्षून्मीलन हुआ।
जाते-जाते दो शे'र अर्ज़ किए जाता हूँ, कृष्ण बिहारी 'नूर' साहब के-
अब ये आलम है कि हाथों से छुपाए हूँ लहू
मैंने जो पत्थर उछाला था-उसी ने सर छुआ
और
मैं तो छोटा हूँ, झुका दूँगा कभी भी अपना सर
सब बड़े ये तय तो कर लें कौन है सबसे बड़ा!
शुभकामनाओं सहित,
सुंदर.
नहीं
नहीं
मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना
और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!...
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति.
और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ
sahi hame apna kaam karna chahiye,chahe koi bhi hawa kitne bhi rode dale,apna ghosla bante rehna chahiye.
bahut aache se likha hai aap ne title bhi aacha hai.
आपके परिजन? नहीं जी प्रियजन लिखना था .
आपके प्रियजनों,प्रशंसकों को नाराजं किया है मैंने.
अपने दादा मुक्तिबोध कह गये हैं ... बिना विचार के न हम सो सकते हैं न जी सकते हैं ।
"मेरा काम है घोंसला बनाना
और
हवा का उजाड़ना
और फिर हम
अपने अपने काम में जुट जाते हैं
नई लगन के साथ!!!"
bahut hi behtreen.............bahut khoob!
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