अक्सर ही मैं खोजने लग जाता हूँ अपने भीतर अपने आप को. मैं वो नहीं जो इस जमाने में जीने की जद्दोजहद में वक्त के थपेड़े खाता आज सबके सामने आता हूँ. मैं कभी कुछ और ही था. शायद कल मैं फिर वो न रहूँ जो आज हूँ.
एक बच्चा कहाँ दिल में नफरत या चालबाजी के भाव रखता है? वो तो वक्त, समाज, संगी साथी, समय समय पर खाई चोटें, यह सब सिखला देती हैं.
शायद ऐसा मैं अकेला नहीं जो अपने आपको अक्सर खोजता हो कि अरे, वो वाला मैं कहाँ गया? मैं तो ऐसा नहीं था? सबके साथ ही ऐसा होता होगा.
कहीं पढ़ता था कि उसे अब अपना पुराना शहर वो वाला नहीं दिखता..जिसमें वो रहा करता था. मैं भी अक्सर अपने शहर जाकर उसके अंदर अपना शहर खोजता हूँ. शहर के भीतर शहर..खीजता हूँ भीड़ भाड़ देखकर. सोचता हूँ भीड़ छटे तो ढूंढू. मगर ये भीड़ कब छटी है, यह तो बढ़ती ही जानी है. और उस भीड़ के बीच कहीं खोया मेरा अपना शहर, जाने इतने समय बाद मुझे पहचान भी पायेगा या नहीं.
सोचता हूँ कि अगर नहीं पहचाना तब? कितना बड़ा धक्का लगेगा मुझे. मैं उसे रोज याद करता हूँ और मुझे पहचान भी नहीं पा रहा है. उससे बेहतर तो है कि न मुझे इस भीड़ में खोया वो मेरा शहर मिले और न मुझे कोई धक्का लगे और मैं उन पुरानी यादों के सहारे ही जिन्दगी काट दूँ. खुद को भी गुमा दूँ ऐसी ही किसी बड़ी भीड़ में. अपने कर्तव्यों की भीड़, अपने दायित्वों की भीड़, अपने नाम को बनाये रखने की मशक्कतों की भीड़. भीड़ की भला कब कमी है.
उसी भीड़ में खोये मेरे अपने. उनकी अपनी भीड़ की गठरी है महत्वाकांक्षाओं की, अपने दायित्वों की, अपने और ज्यादा अपनों की परवरिश की. वैसे ही धक्का लगता है, जब मिलते हैं तो पहचान कर भी पहचान नहीं पाते. बस, मुलाकात होती है, बात होती है और उस दौरान हर पल तलाश होती है उस अपने की, जो ऐसा नहीं था जिससे मैं अभी बात कर रहा हूँ, अभी मुलाकात कर रहा हूँ.
ऐसा नहीं कि मैं अकेला ही बस बदला हूँ, वो भी तो उन सब दौरों से गुजरे हैं अपने तरीकों से, वो भी तो बदले हैं..फिर किस उम्मीद में मैं उनसे वो पुराने वो चाहता हूँ , किसको तलाशता हूँ जबकि मैं खुद वो पुराना मैं नहीं.
मुझे लगता है कि जब भी हम कुछ छोड़ते हैं जैसे कि अपना शहर. हम अपने साथ दिल के किसी कोने में उसी शहर की वो ही तस्वीर साथ लिये चले जाते हैं और जब कभी लौट पाते हैं तो उसी तस्वीर से मिलान करने कोशिश करते हैं और मायूस हो जाते हैं कि अब वो बात नहीं रही. वो बात तो खैर कभी भी नहीं रहती. जो आज बात है वो कल कहाँ थी और वो ही कल कहाँ से रहेगी.
न छोड़ा होता अपना शहर, तब भी शहर बदलता. हम भी बदलते मगर आँखों में बसी तस्वीर भी बदलती जाती हर बदलाव के साथ और हम अचंभित न होते. तब जो कुछ भी दिखता रहता, जैसे जैसे बदलता, वही स्वीकार्य होता.
ऐसा ही अपनों के बारे भी सोच लें तो शायद उनका व्यवहार, उनका बदला स्वरुप, उनके बदले तेवर हमें अचंभित न करें. हम अब वो जैसे हैं, वैसे ही स्वीकार करने को तैयार हो जायें तो शायद यह मायूसी न हो कि बहुत बदल गये हैं अब वो.
वो अकेले नहीं बदले, सारी दुनिया बदली है और मैं और आप भी तो उसी दुनिया का हिस्सा हैं. फिर मायूसी कैसी और अचंभा कैसा?
लेकिन दिल ही तो है कि मानता नहीं और खोजता है फिर वही..कुछ खोई खोई सी दास्तां.
शायद हमें ही मायूस होना अच्छा लगता है.
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
-समीर लाल ’समीर’
76 टिप्पणियां:
गुरुदेव,
दस साल बाद एक शख्स अपने शहर वापस आ पाया...छोटा शहर था...उसने स्टेशन से बाहर आते ही रिक्शा वाले से कहा...नील के भैंसे ले चलो...रिक्शेवाले ने कहा...ऐसी कोई जगह नहीं है इस शहर में...हां नील का कटरानाम का मोहल्ला ज़रूर है...वो शख्स ठंडी सांस लेकर बोला...तो क्या कटरा दस साल बाद भी भैंसा नहीं बना...चल भइया...चल नील का कटरा ही ले चल....
जय हिंद...
हम तो जानिये रहे थे कि ....एलियन जभीए ऊ छोटका बाल्टी मैं बैठ के बीयर स्काच उडा रहे थे .......ई अब सब लोगन को सेंटी कर देंगे ...और करिये दिए न ...हम तो कहते हैं कि आपको खूबे याद अए अपने घर का ...इसी बहाने भारत आ जाएंगे .....बचवन को कह दिये हैं कि जल्दीए ...उडनतशतरी का सवारी कराएंगे ...बुलबुल पूछ रही थी ....कि दिल्ली मेट्रो से ज्यादा मजा आएगा .....हम का कहते बताईए तो ..
अजय कुमार झा
कितना भी दुनिया बदल जाये, हम बदल जाये पर कुछ 'मील के पत्थर' होंगे जरूर जो हमें हमारेपन का एहसास दे जाता होगा; जो खोये हुए शहर/गाँव को जिन्दा रखे हुए होगा.
@ शायद हमें ही मायूस होना अच्छा लगता है।
शायद ऐसा ही है। शाम को सूखे पेंड़ तले अकेले में (बिना टेम्पो की घड़ धड़, लोगों की भगदड़, साफ सुथरी बिना गुटका छिलको और पान के पीक वाली जगह, गैया जहाँ गोबर करने आते शर्माती हों - ऐसी जगह) बैठ कर मायूस और उदास होना अच्छा लगता है। आदमी कुछ अकेले में सोच उदास हो थोड़ी मानसिक ऊर्जा पा लेता है और फिर भींड़ में भागता खो जाता है . . .
संसार परिवर्तनशील है और इसके साथ कदम से कदम मिलाकर चलना ही जीवन है।
सब कुछ तो बदल जाता है मगर ईश्वर, जीव और प्रकृति की गति कभी नही बदलती है।
आपकी पोस्ट के बारे में इतना ही कहूँगा कि-"नीरसता में ही सबसे अधिक सरसता छिपी हुई होती है।"
बदलाव दुनिया का नियम है। पर आदमी अपनी ही पहचान खो दे ऐसा बदलाव आसानी से पचता नहीं।
इस बरस फ़िर वहाँ मेला भरेगा...
एक उम्मीद.. हमें भी..
मैं 'ये' वाला तू ''वो वाला''
मैं 'मालव' का तू है लाला,
उदास इतना क्यों होता है?
दिखे है तू तो मतवाला!
न गड़बड़ कुछ न घोटाला,
परेशां हम को कर डाला,
वतन की याद आई है?
उठा गमछा, अरे लाला.
सही है, याँ लगा मेला,
कहीं रुपया, कहीं ढेला,
मिलेगा तेरी किस्मत का,
अकेलापन बहुत झेला!
चले आ! बाँध ले गठरी,
है खुशियाँ चारसूं पसरी,
यहाँ है ''वो'', वही वाला,
है नीली सी वही छतरी.
-मंसूर अली हाशमी
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
समीर भाई ......... इस बात से मैं पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ ........ अक्सर हम जहा से चले जाते हैं वही तस्वीर जेहन में बैठ जाती है और इंसान जब भी वहा लौट कर जाता है उसको ही ढूंढता है ....... जबकि समय के साथ साथ वो जगह, भाषा, दोस्त, हलियाँ सब बदल जाती हैं ........ ऐसे में बस मायूसी ही रह जाती है ........... खुद को लगता है सब बदल गया .......
दिल की बात लिख दी है आपने मालिक ......... भाभी को मेरा नमश्कार कहियेगा ...
वो अकेले नहीं बदले, सारी दुनिया बदली है और मैं और आप भी तो उसी दुनिया का हिस्सा हैं.
यही कारण है कि इस दुनिया में रहने के लिए हमें बदलना ही पडता है !!
बदलाव के साथ जीना ही पड़ता है, मनुष्य परिस्थितियों का दास जो ठहरा
जो असल मायूसी है वह ओढ़ी नहीं जाती, बल्कि अपने आप छा जाती है। इसकी कोई तैयारी नहीं होती।
सायास मायूस होना तो अभिनय है जो हम अपने साथ करते रहते हैं। समाज को कभी-कभी मायूस आदमी भी क्यूट लगने लगता है। इसके अपने डिविडेन्ड हैं :)
मायूसी के पहले... मायूसी के बाद...
योगेन्द्रमौदगिलडाटब्लागस्पाटडाटकाम
अंतिम पंक्तियाँ पसन्द आयी.
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं...
सब वक्त के साथ भागते रहते हैं ठहरता कुछ भी नहीं, हम भी जब इस आपाधापी से थक जाते हैं तो कुछ पल ठहर कर गुजरे पलों का ध्यान कर लेते हैं और फिर चल पड़ते हैं एक नई ऊर्जा के साथ, बहुत ही अच्छा लिखा है आपने, आभार ।
यह आत्म प्रवंचना ,आत्मालाप क्यूं इन दिनों प्रायः -सब कुछ ठीक ठाक तो हैं ना ?
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.
.
आदरणीय समीर जी,
थोड़े से शब्दों में ही जिन्दगी का कितना बड़ा सत्य समझा दिये हैं आप...
वाकई दुनिया में अगर कुछ एकदम निश्चित है तो वह है 'परिवर्तन'... चाहें या न चाहें... यह तो होता ही रहेगा... हमारे शहर में... आसपास के लोगों में... हमारी सोच में... खुद हम में...
लेकिन दिल ही तो है कि मानता नहीं और खोजता है फिर वही... कुछ खोई खोई सी दास्तां... शायद हमें ही मायूस होना अच्छा लगता है...
क्या करें, ये आदमी की जात इतनी Irrational क्यों होती है... क्यों चाहती है मायूस होना... बार- बार... कभी इस पर भी रोशनी डालियेगा!
और जब नहीं मिलता मेरा वो शहर तभी तो चर्चा होती है पहले के शहर की ऐसा था मेरा शहर जो अब ना रहा!! बहुत सुन्दर लेख मन की व्यथा अपने सुनहरे शहर को ढूँढती है!!
'वक्त, समाज, संगी साथी, समय समय पर खाई चोटें, यह सब सिखला देती हैं'
yahi to hai sab baton ke ek baat.\
--Sach तो यह है की भीड़ में hote hue bhi log aaj kal akele hain.यह lekh bahuton ke dil की baat kah rahaa है.
-- 'कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा'
umeeden na hon to jeevan wahin ruk jayega.
-aaj ka yah lekh bahut sentimental hai.
हम अब वो जैसे हैं, वैसे ही स्वीकार करने को तैयार हो जायें तो शायद यह मायूसी न हो कि बहुत बदल गये हैं अब वो...
बात तो मानने वाली है.
लेकिन यह सब अपना दिल(मतलब कभी न ख़त्म होने वाला अपनापन) करवा रहा है न.
"मुझे लगता है कि जब भी हम कुछ छोड़ते हैं जैसे कि अपना शहर. हम अपने साथ दिल के किसी कोने में उसी शहर की वो ही तस्वीर साथ लिये चले जाते हैं और जब कभी लौट पाते हैं तो उसी तस्वीर से मिलान करने कोशिश करते हैं और मायूस हो जाते हैं कि अब वो बात नहीं रही. वो बात तो खैर कभी भी नहीं रहती. जो आज बात है वो कल कहाँ थी और वो ही कल कहाँ से रहेगी|"
सन २००५ में कोलकत्ता वापस गया था,सन १९९७ में, मैनपुरी आने के बाद पहली बार, आप जो कह रहे है उस एक एक का शब्द अनुभव किया था मैंने | कोलकत्ता छोड़ते समय मेरी घडी शायद रुक गयी थी जिस का अहेसास दोबारा वहाँ जाने पर ही हो सका | आज यह आलम है कि अब फिर जाने की तमन्ना होती भी है और नहीं भी !
ऐसा ही अपनों के बारे भी सोच लें तो शायद उनका व्यवहार, उनका बदला स्वरुप, उनके बदले तेवर हमें अचंभित न करें. हम अब वो जैसे हैं, वैसे ही स्वीकार करने को तैयार हो जायें तो शायद यह मायूसी न हो कि बहुत बदल गये हैं अब वो.
एकदम सटीक हकीकत है ये. पर जो है सो है. बहुत शुभकामनाएं.
रामराम.
हम अपने साथ दिल के किसी कोने में उसी शहर की वो ही तस्वीर साथ लिये चले जाते हैं..हमेशा की तरह रोचक लेखन बधाई पिछले कई दिनों से आपके लेखन में एक बदलाव आया है कुछ ख़ास बात है क्या?..जो भी हो पर इस परिवर्तन और भाषा शैली के बधाई पुन
अक्सर ही मैं खोजने लग जाता हूँ अपने भीतर अपने आप को. मैं वो नहीं जो इस जमाने में जीने की जद्दोजहद में वक्त के थपेड़े खाता आज सबके सामने आता हूँ. मैं कभी कुछ और ही था. शायद कल मैं फिर वो न रहूँ जो आज हूँ.
sach kah rahe hain aap ....khud ko khojna bahut mushkil hota hai....
हां सच है. हम खुद तो बदल जाते हैं लेकिन अपने शहर से उम्मीद करते हैं कि वो न बदले. उसके बदलने से हमारी तमाम यादगारें जो दफ़्न हो जायेंगी कहीं...
सभी तो बदलता ही है, लड़कपन, मौसम, हालात, समाज यहां तक कि नीयत भी :)
आप ने बहुत सही लिखा,लेकिन अगर जमाने के संग ना बदले तो यह जमाना यह समाज ही ठोकरे इतनी मारता है कि हमे बदलना ही पड्ता है,लेकिन कभी कभी बच्चा भी तो बन सकते है, उन भुली ्विसरी यादो को जी कर
कभी कभी यही आभास हमको भी होता है। लेकिन ये भी सच है की बदलाव में ही जिंदगी है। जिस दिन ठहराव आ जाएगा, उसी दिन सब रुक जाएगा। यदि यही बदलाव न होता तो आज हम, हम नही होते। और यदि हम , हम नही होते, तो फ़िर क्या होते।
और ये खुशदीप कहाँ से हमारे हरियाणा के जुमले उठा लता है!! हा हा हा ।
आज बहुत दिनों के बाद फिर अपने दिल की बात मिली. मायूस और मिस करने वाली बात ! जब टेम्पो, चलाने वाले की गाली और उसमें बजने वाले १०रुपये वाले कैसेट के गाने तक इंसान मिस करता है तो क्या कहूं. वो सब जिसे कभी गाली दिया करते थे आज मिस करते हैं ! बताइए तो.
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
waah
मायूस न भी होना चाहे तब भी हो जाते हैं .बदलाव ज़िन्दगी का एक हिस्सा है ..अच्छा लगा आपका लिखा पढना ...
एक त्रिवेणी मेरी तर्फ़ से भी-
अगले चौराहे से दाहिने हाथ पर तीसरा मकान'
वो बेचारा पूछ रहा था अपना घर
NRI है, कल परदेस से लौटा है....
parivartan to srishti ka niyam hai
aur hr insaan us niyam se bandhaa hai...lekin aapka daarshnik drishtikon sach-much aandolit kartaa hai...svayam ko khojnaa maano ek bhatkaav hi ban`ta jaa rahaa hai...
aapka aalekh padh kar kuchh der aankheiN moond baithne ko jee kr aaya...pataa nahi kayoN..?!?
abhivaadan svikaareiN .
गठरियों के ढेर में अपनी तलाश
ढूंढने चले थे शहर मिला खंडहर|
वो शहर की अब आबो हवा ना रही !
सब कुछ बदल गया मेरे शहर में|
मैं अजनबी बन गया मेरे ही शहर में ! इसलिए अब दर बदर ढूंढता फिरता हूँ कोई "पुराने शहर" के निशां|
झकझोर के रख दिया उड़न तश्तरी के पायलोट समीरजी !!!
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं...
लाजवाब ।सब कुछ चाहे जितना भी बदल जाये यादों मे नहीं बदलता साथ साथ लिये चलती रहती हैं बहुत सुन्दर रचना है बधाई
सही है
परिवर्तन को स्वीकार कर
वर्तमान में जीना ही
बुद्धिमानी है।
नहीं जी बिलकुल नहीं लगता, पर क्या बीते दिनों को याद भी न किया जाए???
लाल साहब, आज दिल आप ही की तरह मायूस रहा। फिर आपकी यह पोस्ट। ७ दिसम्बर को नयागाँव में गाने वाले का बुलौवा था। हमने मना कर दिया। आपकी याद आती बस इसलिए। दिल को एकदम छूती हुई पोस्ट लिखी आपाने। आभार।
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
क्या बात है समीर सर , आपके भाव छा गये जैसे ।
जानदार लेखनी. एक असर छोड़ गई और साथ में ही एक अजब छटपहाट.
सत्य वचन गुरूदेव्।मै भी अपने मे वो वाले अनिल को ढूंढता रह्ता हूं॥
वो अकेले नहीं बदले, सारी दुनिया बदली है और मैं और आप भी तो उसी दुनिया का हिस्सा हैं. फिर मायूसी कैसी और अचंभा कैसा?
एकदम खरी बात कही आपने....अगर कहीं ऊपर वाले नें आखों को ऎसा बनाया होता कि वो अन्दर भी झाँक पाती तो शायद हम देख सकते कि खुद में कितना बदलाव आ चुका है !!!
हृदयस्पर्शी संवाद. आपके लेखन को नमन.
कितना सच सच कहा है. अंति पंक्तियां बहुत बढ़िया है.
dil dhoondhta hai
phir wahi
fursat ke raat din.
samir ji geet yaad aa gaya, aapka lekh padhkar. bahut khoob
sachmuch badi bheed hai umeedo ki aakankshaon ki iichhaon ki apekshaon ki
"उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं.... कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा.."
बेहद खूबसूरत । धन्यवाद ।
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
क्या कहें बस सोच में पड़ गये है........ये मायूसी भी क्यों अच्छी लगती है....
regards
आपने बिल्कुल सही लिखा है! जीवन की सच्चाई को बखूबी प्रस्तुत किया है आपने ! बदलाव तो हर किसीके ज़िन्दगी में आता है पर इंसान को मौसम के जैसा बदलना नहीं चाहिए! मेरा तो ये मानना है कि सुख और दुःख दोनों ही हमारे जीवन का हिस्सा है पर हमें सदा मुस्कुराते हुए रहना चाहिए नाकि मायूस होकर ज़िन्दगी बिताना चाहिए! भगवान हमेशा हमारे साथ हैं जो कभी नहीं बदलता, प्रकृति को देखकर हम खुशियों से भरपूर रहते हैं पर मौसम ज़रूर बदलता है और नए नए रंग भर जाता है सबके दिलों में! बहुत सुंदर लगा आपके ये पोस्ट!
likhnaa chaa tha aapne lekh
kavita ban gayi
raat ko rakhaa tha dhodh freez me
subah kulfi jam gayi
chaaha bade ehtiyaat se jis baat ko
lagtaa hai sabke gale utar gayi
हाँ, कभी कभी तो अच्छा ही लगता है।
------------------
क्या है कोई पहेली को बूझने वाला?
पढ़े-लिखे भी होते हैं अंधविश्वास का शिकार।
Shubh Kamnayen...
Shubh Kamnayen...
समीरजी
आपकी प्रत्येक पोस्ट दिल को छूने वाली होती है। जिन्दगी प्रतिपल बदलती है, कल हम जहाँ खड़े थे, बड़े हुए थे आज वहाँ कोई और इमारत आ खड़ी हुई है। दुनिया में सब कुछ बदल जाता है बस नहीं बदलता है तो ये शब्द। आपकी प्रत्येक पोस्ट कल इतिहास बनेगी।
समीर भाई .. स्व. शरद बिल्लोरे(1955-1980) की यह कविता उनके संग्रह "तय तो यही हुआ था " से --
विदा के समय
सब आये छोड़ने
दरवाज़े तक माँ
मोटर तक भाई
जंक्शन पर
बड़ी गाड़ी पकड़ने तक दोस्त
शहर आया अंत तक साथ
और लौटा नहीं
समय के साथ परिवर्तन होते रहते है सब कुछ एक जैसा नहीं होता है .... मै में मुझको खोजना खुद का अन्वेषण करना व्यक्ति को भविष्य के लिए एक नई राह दिशा प्रदान करता है . समीर जी आप अपनी हर पोस्ट में कुछ ऐसा लिख जाते है की दिमाग बार बार सोचने को मजबूर कर देता है ...... बिंदास पोस्ट के लिए आभार.
विचित्र! आप मेरी मनोदशा का वर्णन कर रहे हैं।
कम से कम आप विश्लेशण कर पा रहे हैं। मुझे वह भी समझ नहीं आता।
एक फसाड सा लिये चल रहा हूं। :(
जी बिल्कुल सही फ़रमाया आपने नोस्टालजिया चाहे अपने पुराने शहर का हो या कॉलेज, या मकान का उसमें डूब कर मायूस हो जाना हमारी भावनात्नक जरूरत का अहम हिस्सा है।
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
बहुत खूब.....!!
पर ये भरेगा..शब्द कहीं लगेगा तो नहीं था...??
ये ज्ञानदत्त जी की तस्वीर आज कुछ बदली बदली सी लगी ....कहीं आपकी बाटली का असर तो नहीं ...???
@ हरकीतर जी
ये मेले भी न...जब से शहर आ गये तो लगने लगे...हमारे गांव में तो हमेशा भरते ही थे. :)
क्या बात है सर जी..आप भी दिनो-दिन अंतर्मुखी-टाइप हुए जाते हो...
..और उस पर यह
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
कुछ तो बात होगी...
jeevan ke us chhor tak pahuchane ke liye, badalte rahana padtaa hai....kyaa keejiyega,mazbooree
hai.
कितना सही कहा ...
किसको तलाशता हूँ जबकि मैं खुद वो पुराना मैं नहीं.
वाह!
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं....
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
उदासी दफन कर दी है, उस जमीं के नीचे,
जहाँ आकर यादें रोज, खुशियाँ मनाती हैं...
कहते हैं इस बरस वहाँ फिर मेला भरेगा..
Khusiyunbhari saugaat phir layega.
Bahut achha laga aapke blog par der se dekha lekin bahut achha lekhate hai aap!
Shubhkamnayen.
".......अब मत लिखना
बस आपसे इतनी विनती है " :-)
kya kaha jaye...kbhi-kbhi to achha lahta hi hai...
sameer ji,
sachmuch jab pichhli yaaden aati hain to saanse tham sii jati hain.Tabhi to kisii geetkaar ne sahi kaha -koi lauta de mere beete hue din. baat bahut gambhir hai magar pyari bhi.badhai!!
बहुत सोचने को मजबूर कर दिया आपने.
एक बच्चा कहाँ दिल में नफरत या चालबाजी के भाव रखता है? वो तो वक्त, समाज, संगी साथी, समय समय पर खाई चोटें, यह सब सिखला देती हैं. - शायद इसी को जिंदगी कहते हैं .. आपका यूं ही संवाद.. बड़ा ही विचारणीय लेख बना पड़ा है.
सुबह तो आज भी होता पर पंछी नही डगर पर
शाम तो हुई पर सूरज टंगा रहा अम्बर पर !
सपने भये है बैरी बलम जी ! !
kehte wahan is baras phir mela bharega...
dil ko chhoo gai post..
bahut khoob sameer ji..!!!
gaon sheher humse chhot jayen par zindagi ke mele youn hi bharte rahen yahi kamna hai...
bahut sundar antim pankti ne rula diya..sameer ji...
sundar post ke liye dhanywad...
gaon sheher humse chhot jayen pa zindagi ke mele bharte rahen..yahi kamna hai..
antim panktiyon ne aankh bhigo di sameer ji..sundar post ke liye dhanywad.
bahut dinon se aap..Dankiye ki taraf nahin guzre..kuchh nai chitthiyan hain jhole mein..
gaon sheher humse chhot jayen pa zindagi ke mele bharte rahen..yahi kamna hai..
antim panktiyon ne aankh bhigo di sameer ji..sundar post ke liye dhanywad.
bahut dinon se aap..Dankiye ki taraf nahin guzre..kuchh nai chitthiyan hain jhole mein..
gaon sheher humse chhot jayen pa zindagi ke mele bharte rahen..yahi kamna hai..
antim panktiyon ne aankh bhigo di sameer ji..sundar post ke liye dhanywad.
bahut dinon se aap..Dankiye ki taraf nahin guzre..kuchh nai chitthiyan hain jhole mein..
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