पिछली पॉडकास्ट पर मित्र एवं पथप्रदर्शक माननीय फुरसतिया जी के कथनानुसार श्रृंगार रस का हमारा गीत वीर रस के मार्ग से होता हुआ रोद्र रस के मैदान में टहलता हुआ पाया गया. आज फिर वैसी ही एक कोशिश की है, इच्छा मात्र इतनी है कि टहले-चाहे जिस रस में भी. हम भी अभी टहल कर लौटे हैं ग्रेन्ड कैनियन-एक तस्वीर देखिये:
अब गीत पढ़ें और फिर सुनते हुए पढ़ें:
विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में,
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में.
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.
सोच रहा हूँ आखिर कब तक, तन्हाई को सहना है
मेरी आँखें सब कहती हैं, मुझे नहीं कुछ कहना है,
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है.
फिर मिलते हैं जल्दी ही!!!
आप सबका साथ बहुत सुहाना है..बनाये रखिये.
गुरुवार, सितंबर 04, 2008
विरह अगन सी तपन!!
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
87 टिप्पणियां:
फोटो के बीच में ये दूरी आ गयी है या लायी गयी है क्योंकि कैनियन में चलने वाली हवा कम से कम आपको तो पीछे नही धकेल सकती। ;)
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.
अपने अपनी यात्रा के बाद अच्छी रचना लिखी है....
तस्वीर भी अच्छी है .....
यात्रा से तारो ताजा हो कर लोटे है तो फ्रेश होना लाजमी है.....
बधाई स्वीकारें
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.
.
क्या बात है | बहुत खूब |
जीना कुछ आसान करो, अच्छा लगा |
सादर
विनय के जोशी
लगता है ग्रेन्ड कैनियन का असर खूब हुआ आप पर ..आपकी यह टहलती कविता रस पसंद आया विशेषकर यह पंक्तियाँ
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
कुम्हार के आँवा में से नाद गायब होने की कहावत का मर्म आपकी अनुपस्थिति ने समझा दिया। काफ़ी जगह घेरते हैं आप, जो पिछले दिनों खाली-खाली रही है...
अब अच्छे बच्चे की तरह तैयार हो जाइए, धुँवाधार ब्लॉगरी के लिए... शुरुआत एक मीठे से गीत से करके आपने खुश तो कर ही दिया है।
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
बेहद सुंदर रचना ! और आपकी तस्वीर तो.. माशाल्लाह...
जगह की खूबसूरती का अंदाज करके ही मजा आगया !
कुछ और तस्वीरे और यादे भी हम सबसे सेयर करेंगे , आपकी
इस खुशनुमा यात्रा की ! ऎसी उम्मीद है ! धन्यवाद !
बहुत सुंदर लगी तस्वीर और आपकी कविता !
इन पहाडो पर हमने भी आपको घुमते हुए देखा था ! :)
बहुत अच्छा। ऐसा ही लिखते रहें और पढ़ने का मौका दें।
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.
ये तो आपने तिवारी साहब के दिल की बात कह दी !
बहुत बेहतरीन कविता और सुंदर फोटो ! इस बात
पर तिवारी साहब का सलाम कबूल कीजिये श्रीमान !
aashawan hona hi chahiya,hum bhi aasha karte hai aapse aisi rachanayen padhane ko milti rahegi.
विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में,
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में.
behatreen shubhanalla . vah sab kya kahe apke.
'आप सबका साथ बहुत सुहाना है..' ना भी हो तो हम नहीं छोड़ने वाले :-)
अच्छी लगी रचना और तस्वीर दोनों.
क्या आशावादी पंक्तियॉं हैं-
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है
सोच रहा हूँ आखिर कब तक, तन्हाई को सहना है
मेरी आँखें सब कहती हैं, मुझे नहीं कुछ कहना है,
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है.
" sir jee kmal kr diya, wonderful composition, enjoyed reading it, great thoughts"
Regards
हर सफल ब्लॉगर के आगे एक औरत होती है. :)
achhi rachna.......
सच में विरह अगन का जवाब नहीं। देखिए न, फोटो में आप जहां से गुजर रहे हैं, वहाँ की जमीन भी चिटकती जा रही है।
ह-ह-हा।
"एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है."
और हाँ यह उम्मीद जरूर रंग लाएगी, ऐसी आशा है।
विरह अगन में कितना दम होता है, यह तो आपका फोटो भी बता रहा है। देखिए न, जहाँ जहाँ आपने कदम धरे, वहाँ की धरती चटक गयी।
सही पकडा न?
बहुत अच्छी कविता जो ख़ुद नहीं टहलती बल्कि पाठकों के मन में भावों को टहलाती है।
अन्नपूर्णा
घुम-फ़िर आए अब जल्दी टिप्पणी देने के काम में लग जाइये :-) वैसे बात एक है, चलिए कह ही देतें हैं - समीर जी आपकी कमी बहुत खली.
------------------------------------------
एक अपील - प्रकृति से छेड़छाड़ हर हालात में बुरी होती है.इसके दोहन की कीमत हमें चुकानी पड़ेगी,आज जरुरत है वापस उसकी ओर जाने की.
आपकी कपिताये भी आपकी ही तरह की है जो टहलती हुई कहीं से कहीं निकल जाती हैं पर शुक्र है कि आपकी ही तरह शाम को घर आ जाती हैं
विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में,
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में.
kya baat hai...!
सोच रहा हूँ आखिर कब तक, तन्हाई को सहना है
मेरी आँखें सब कहती हैं, मुझे नहीं कुछ कहना है,
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है
bahut khub...bahut hi achchha...bhavpoorna...!
सोच रहा हूँ आखिर कब तक, तन्हाई को सहना है
मेरी आँखें सब कहती हैं, मुझे नहीं कुछ कहना है,
समीर भाई
बहुत सुंदर गीत....राकेश भाई का असर साफ़ दिखाई दे रहा है आप पर....
आप लौट आए समझो ब्लॉग जगत में बहार लौट आयी...पतझड़ के बाद बसंत के आगमन जैसा लग रहा है...ग्रैंड केन्यन जा कर मुझे ऐसा लगा था जैसे ग्रेगरी पेक की आत्मा मेकेनाज गोल्ड फ़िल्म से सीधे मेरे शरीर में प्रवेश कर गयी है...बहुत रोमांच कारी अनुभव रहा था...
नीरज
तो भाई जी घूम कर आ गये. आप के बिना ब्लॉग सूना सूना लग रहा था. वैसे भाभी जी के साथ खड़े होने में ये दूरी कैसे आ गयी. शायद हवाओं का जोर रहा हो. खेर कविता बहुत अच्छी है. टहलम टहली में इतनी अच्छी और टिकाऊ कविता आप ही बना सकते हैं....
kavitaa v dhun dono hi sundar..
अति सुन्दर रचना।
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
बस दिल कहे वाह वाह ।
अच्छा है. बेहतरीन है . बधाई.
हर सफल ब्लॉगर के आगे एक औरत होती है. :)
संजय बेंगानी से साभार!
achchaa lagaa bade dino baad aap ko paa sunkar
लगता है ग्रेन्ड कैनियन का असर खूब हुआ आप पर ............बहुत सुंदर विरह अगन
कविता अच्छी लगी। आपने पढ़ा भी अच्छा है। बधाई स्वीकारें।
हे समीर भाई एकै साधे सब सधै ......लेखनी को तो साधै लिए हैं हम जेकरा मुरीद होई गवा हई अब ई कौनो जरूरी नाही कि ओकरा का आनंद गाई के सुनावै में ख़त्म कई द हो !सुनै म सब मज्वै किरकिरा होई ग .....
आगे केहू और से गवैहै .......
कविता और फ़ोटो दोनो बहुत सुंदर हैं ,
अभी अभी ब्लॉग .....मरीज......लेपटोप......फ़िर ब्लॉग.......से लौटा हूँ....आपको पढ़ना सुखद है.......कल आराम से टिपियागे ..
फोटो बोले तो झकास है.....
का हो अरविंद बाबू
अरे, अभी तो रियाज शुरु किए हैं-८-१० और सुनेंगे तो कान रमा हो जायेंगे.
यहाँ प्रेक्टिस करेंगे तभिये न मंच पर हेंच पायेंगे?? :)
अगले हफ्ते नया सुनायेंगे..तब तक मुलैठी और गरम पानी से गला ठीक कर लें. भागिये मत-वो अलाउड नहीं है..वरना बनारस आ कर सुनायेंगे. कानपुर गये थे फुरसतिया जी के यहाँ इसी काम से. तब से उन्होंने शिकायत करना बंद की.
अब सही फंसे हैं आप-कोई रास्ता नहीं है सिवाय झेलने के!! हा हा...बड़ा सुकुन मिल रहा है मुझे!!!
भविष्य में झेलते रहने के लिए अनेकों शुभकामनाऐं और दूर तलक जाती संवेदनाऐं.
१.अहा, हा,हा, क्या सीन है। क्या समा है। लग रहा है कि कोई विलेन टाइप का कवि किसी हीरोइन के पीछे कट्टा लगा के अपनी कविता सुना रहा हो।
२. समझ में आ रहा है कि क्यों जब आप लोग कानपुर आये थे तो भाभी जी वापस गयीं थीं।उनको पता था कि यहां कवितागीरी होके रहेगी।
३.विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में, से एक बार फ़िर परसाईजी की रचना याद आई- जिन गांवों में वि्रहणियां रहतीं थीं वहां चूल्हे नहीं जलते होंगे। विरहणियां रोटी बेलकर हाथ में रख लेतीं थीं और वह पक जाती थी। आपकी कविता बांच के एक बार फ़िर से लगा कि भारत की ऊर्जा समस्या का हल विरह की आग जलाकर हल किया जा सकता है। हज्जारों विरही जोड़े मारे-मारे घूमते फ़िरते हैं। उनकी आग का उपयोग करके बिजली बना डाली जाये तो न्यूक्लियर डील-फ़्यूक्लि्यर डील का रगड़ा ही मिट जाये। आप पहले इस दिशा में विरह ऊर्जा के वैकल्पिक उपयोग करके कुछ बतायें।
४. कविता सुनने के बाद ऐसा लगा जैसे कोई लोहार भट्टी जलाये विरह की आग में अपनी पोस्ट को लोहे की तरह गरम कर रहा है और आवाज के घन से पीट-पीटकर उसको मनवांछित शक्ल देने में लगा हुआ है।
५. यह सवाल सूचना के अधिकार के तहत पूछा जाना चाहिये कि जब पत्नी साथ में है तो किसके विरह में नायक सुलग रहा है?
अभी फ़िलहाल इत्ता ही। दफ़तर से आयें हैं। चाय पीते हुये टिपिया रहे हैं। मजा आ रहा है। आप भी मजे में रहो और जो हमने कहा उसे गम्भीरता से सोचें। ये भरम टिप्पणियां आपके बहकने का इंतजाम हैं लेकिन हम सच कहेंगे और सच के सिवा बाकी सब आपके कहने के लिये छोड़ दिया।
समीरजी,
घोर आपत्ति, हमारी दशा को ऐसे सार्वजनिक करने की क्या जरूरत थी । जिन्दगी के २६ बरस पूरे किये चन्द दिन पहले और अभी भी विरह ही विरह दिख रही है, उस पर आपकी ये कविता ।
हम तो सोचते थे कि ह्य़ूस्टन की ९५ डिग्री गर्मी और ९०% ह्यूमिडिटी में दौडना ही सबसे कष्टप्रद हो सकता है लेकिन इस विरह की कविता ने और विकल कर दिया है ।
आज की शाम तो बस जाम का सहारा है,
मैं भी गाने जा रहा हूँ....अच्छा गाया आपने , अच्छी रचना है
माल्या साहब प्रणाम ..अच्छी लगी रचना और तस्वीर दोनों.
अच्छी लगी आपकी कविता। बधाई स्वीकारें।
एक फरमाइश
है आप LV Srip पर अपनी करनी या करतूत पर कुछं छंद रचें तो मजा आ जाय।
कई दिनों के बाद आपको पोस्ट और टिप्पणी करते पाया, अच्छा लगा. ज्यादा अन्तराल न किया करिए, मन में विरह की..........
अरविंद जी को दिया आप का जवाब और अनूप जी की टिप्पणी का 5वां सवाल दोनों पंसद आये। अब देखें इस सवाल का जवाब क्या आता है आप की तरफ़ से, हम तो मैच देखने के रसिया है जी जिधर मैज जमा पहुंच जाते हैं देखने
अजी हम तो पुलिस वालो को फ़ोन कर कर के थक गये, लेकिन हमारी उडन तस्तरी अपने आप ही आ गई, ओर साथ मे लाई सुन्दर ओर मीठी कविता, भाई फ़ोटु देख कर, तो मजा ही आगया,धन्यवाद
Ab samajh main aaya badde ke Ottawa main toofaan kin vujutahton (reasons) se aaya. Ek to khud gaye ooper se duniya ki sabse pyaari vali hamari bhabhi saath. Ab bavaal na ho to kya ho aur jordar kavita bakamaal na ho to kya ho.--------hit par hit phil hit.
हर सफल ब्लॉगर के आगे एक औरत होती है :)
संजय बेंगाणी जी और ज्ञान दा से सहमत :)
कविता तो अच्छी है ही।
.
समीर भाई, आपको हौसला देने आये थे,
हमारा हौसला अफ़्ज़ाई भी आपके एप्रूवल के बाद दिखेगा ।
बहुत देर से राह तक लिया, अब चला जाये , कविता कल पढ़ेंगे, सब झूम रहे हैं,सो अच्छी तो होगी ही । पर, सुनेंगे शायद कभी नहीं..
...क्या बात है समीर जी....सुभानल्लाह. और तस्वीर ने रचना की सुंदरता और बढ़ा दी है
अधूरी टिप्पणी जैसे फिसल कर भाग गयी,
कल पूरा हो जायेगा !
.
कहीं 'निराला' या 'नागार्जुन' को तो नहीं पढ लिये...ऐसी कोपलों की कंपकंपी बुढापे में लिखने लगें तो समझ जाइये.....दिन निकट आ गये हैं....नरभसाने के भी और गुनगुनाने के भी।
:D
अच्छी कविता रही।
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है.
खुब..
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो....
बड़ा सुन्दर गीत है...और फोटो भी बढ़िया लग रहा है!
आहा पढ के दिल खूश हो गया।
बहुत अच्छा लगा।
और फोटो मे पीछे पहाड ही पहाड है- ऎसा तो मैने बस फील्म मे ही देखा है।
अब ये गित पाच दस बार पढे बीना रहा नही जाएगा मूझसे।
या तो इस मौसम से कह दो, इतना मत हैरान करो,
या कि तुम खुद ही आ जाओ, इस दिल पर अहसान करो,
बहूत खूब
आप जबलपुर शिफ्ट कर रहें हैं ?
फ़िर खूब मज़ा आएगा वेलकम बैक तो जबलपुर
ऐसे गीत आप रच देंगें, तो हमतो भुट्टे भूनेंगे
शब्द हमारे घर आने का सचमुच तब रस्ता भूलेंगे
विरह और श्रंगार छोड़िये आप हमारी केवल खातिर
अपनी एक विधा से केवल आप नये अम्बर छू लेंगे
इस फुरसतिया टिप्पणी के आगे नहीं चल सकती, सौ सुनार की एक लुहार की।
वाह क्या बात है। ग्रैंड कैनियन का फोटू और मस्त सा गीत! :) गीत पढ़ने में मज़ा नहीं आया लेकिन सुनने में पसंद आया। :)
आपकी वापसी का इन्तज़ार था।
आपकी आवाज़ दूसरी बार सुन रहा हूँ।
पहली बार सुनी थी तरकश हॉटलाईन पर खुशी बेंगाणी के साथ चर्चा करते हुए।
यह पिकल प्लेयर क्या चीज़ है?
पहली बार आजमाया इसे।
Sound quality अच्छी थी और बिना कोई "बफ़्फ़रिंग" के, लगातार सुनने को मिला ।
कविता की आखरी पंक्ति देखिए।
आपने लिखा है "एक दिवस पत्थर पिघलेगा.."
पढ़ते वक्त आप कह रहे हैं "एक दिन पत्थर पिघलेगा"
"Nit Picking" इरादा नहीं है।
कविता अच्छी है।
अगली साल उम्मीद हैं हम भी ग्रैंड कैन्यन देख सकेंगे।
अगला पोस्ट का इन्तज़ार रहेगा
शुभकामनाएं
गोपालकृष्ण विश्वनाथ
bahut hi acha likha hai..
or us par yeh photo char chand laga rahi hai...
jari rahe
उड़न तश्तरी के आँगन में ५७वीं टिप्पणी.. समीर जी इस नाचीज की टिप्पणी को पढिएगा ज़रूर। जिस ग्रैंड कैनियन को देखकर आप प्रफुल्लचित्त हैं.. उसे हम भूलोग की किताबों में पढा करते रहे.. । मुआ कैनियन अमेरिका में क्यों हैं.. भारत में होता तो दो-चार सरकारी अफसरों को धक्का देकर स्वर्ग में ठेलने के काम आता।
आदरणीय समीर जी,
शब्दों की लयकारी कमाल की है, आनंद आ गया.
आदरणीय समीर जी,
शब्दों की लयकारी कमाल की है, आनंद आ गया.
आपकी रचनाएँ एकदम रेफ्रेशियेटिंग हैं.
सोच रहा हूँ आखिर कब तक, तन्हाई को सहना है
मेरी आँखें सब कहती हैं, मुझे नहीं कुछ कहना है,
साँस मेरी है चलती जाती, केवल इक इस आशा में,
एक दिवस पत्थर पिघलेगा, मुझको जिन्दा रहना है.
बहुत भाव पूर्ण....आभार.
==================
ये शे'र याद आया...
ज़ज्बे की कड़ी धूप हो तो क्या नहीं मुमकिन
ये किसने कहा संग पिघलता ही नहीं है.
डॉ. चन्द्रकुमार जैन
बहुत प्यारी कविता है.
वाह क्या मस्त जगह आप हो आये … इधर तो तमन्ना है जग घूम लेने की लेकिन लोगो को कहते सुना है कि मैं अभी घर के चारों तरफ गये नही दुनिया के चार चक्कर कैसे लगाओगे।
खैर शायद हम भी पहुँच जाये कभी जो पहले "किसिययेंगे" फिर फोटू भी खिचयेंगे।
कविता बहुत अच्छी लगी
दुख के मारो को सुनाने के लिये और खुद के लिये भी डाउनलोड भी कर लिया।
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में ....शब्दों का तालमेल बेहतरीन है । अति सुन्दर...
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में.शब्दों का तालमेल बेहतरीन है । अति सुन्दर है...
geet bahut achcha laga...shringar aur virah se ot-prot. Is rachna ke liye badhai.
Keval ek shanka rahi...ye pehli line me aapne 'aago' ka prayog kiya hai...ye prayog kuch akhar raha hai.
समीर जी आपकी टिप्पणी से आपकी पांच दिनी यात्रा के बारे पता चला। फिर दूसरों के ब्लाग पर टिप्पणी देने सम्बन्धी टिप्पणी भी पढ़ी। बात बिलकुल सही है। आपके ब्लाग पर आपके परिवार को भी देखा और नया गीत भी पढ़ा-सुना! सब कुछ अच्छा लगा। आप विदेश में रहकर भी कई-कई सूत्र भारत से जोड़े हुए हैं। जबलपुर के रहनेवाले हैं क्या? मैं पिपरिया का हूं पर अब उत्तराखंड में बस गया हूं। पिछले जाड़े में जबलपुर गया था।
ग्रैंड कैनियन की गहराई कविता में उतर गई ......शानदार
समीर जी, पढ़ा भी और सुना भी, बहुत अच्छा लगा । कुछ और पोस्ट्स पढे, उन्मुक्त भाव से लिखे गये हैं और आनंद देते हैं । बधाई बड़े भाई (पता चला कि आप जबलपुर के हैं)
apki aik kavita aur itni saaaaari pratikriya dekh kar ab kuch kehne ko baqi kahan hai, khooob fan club banaya hua hai, mubarak ho, aur tadaad badhe inki yehi shubhkamna hai hamari
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.
बहुत सुंदर गीत है !इतनी टिप्पणियों के लिए और गीतों के लिए कैसे समय निकाल लेते हैं आप ?
वीर, हास्य, श्रृंगार इन किसी भी रस का कोई महत्व नहीं है। आपकी कविता बेहद कर्णप्रिय। पढ़ने और सुनने दोनों में मजा आया।
अच्छी कविता ......
==========================
आपके निवेदन का मैं ध्यान रखूँगा
पिछले कुछ दिनो से मुझे समय नही पाया,
आपने देखा होगा की मैं अगस्त मे 3 या 4 पोस्ट ही कर पाया हूँ,
समीर भाई, बढिया पोस्ट के लिये बधाई।
प्रिय साथी बुरा न माने आप बडे कंजूस है, खुद का ब्लाग लिखते है दूसरो से टिप्पणीया दिये जाने का आग्रह भी रखते है, आप सभी ब्लागो पर 'एक लाईनी' टिप्पणीकार के रूप में पाये जाते है, पर इन टिप्पणीयों को जरा एक दो लाईनो से आगे बढाईये, बहस में खुलकर पडिये।
खैर आपकी एक लाईन की टिप्पणीया भी बहुत हौसला देती है हमारी शुभकामनाये आपके साथ हैं।
धैर्य रखिए समीर जी,
दिल पर एहसान भी होगा। पत्थर भी पिघलेगा।
दुष्यंत के एक शेर का दुरूपयोग कर रहीं हूं-
कौन कहता है आकाश में सूराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो
समीर जी
अब तक मैने जीवन काटा, निविड़ मावसी रातों सा,
मेरी राहें रोशन कर दो, जीना कुछ आसान करो.
कमाल की पोस्ट. एक अच्छी रचना .रचना के साथ फोटो भी काफी प्रभावी है. आपकी लेखनी को धन्यवाद.
टिप्पणीकला के सुर्य को मेरा सलाम पहुचे. कुछ महीनों की छुट्टी के बाद अपना टिप्पणीझोला लेकर मैं भी आप की रह पर पुन: निकल पडा हूँ !!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- हिन्दी चिट्ठाकारी के विकास के लिये जरूरी है कि हम सब अपनी टिप्पणियों से एक दूसरे को प्रोत्साहित करें
अब समझ में आया आप की जिंदादिली का राज!
बहुत बढ़िया, बोफ़्फ़ाईन!!
यात्रा की ढेर सारी तस्वीरों की उम्मीद है!
kavita to pyari hai hee adaygi behtareen lagi pichli baar se..practice zari rahe.
bahut badhiya...
sir ji aapne to kamal kar diya...bahut khub.
sir ji aapne to kamal kar diya...bahut khub.
विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में,
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
bahut sundar
विरह अगन सी तपन कहाँ है, दुनिया भर की आगों में,
पिरो लिए कंचन से मोती, प्यार के पक्के धागों में,
भीग रही है धरती सारी, छलक रही इन बूँदों से,
तुम कहती हो आँख के आंसू, सूख गये सब यादों में.
बहुत सुन्दर गीत लिखा है। बधाई।
ब्लॉग्स को लेकर आपके जूनून और खासकर मेरे ब्लॉग को लगातार पढ़ते रहने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद...और सबसे ज्यादा धन्यवाद हिन्दी के प्रति आपके लगाव के लिए...जय हिंद
एक टिप्पणी भेजें