मित्र के पिता जी नहीं रहे.
यूँ भी एक न एक दिन तो नहीं ही रहना था-काल करे सो आज कर-की तर्ज पर आज ही नहीं रहे. सामने सामने प्यार से सब उन्हें बाबू जी कहते थे.
बहुत ही भले आदमी थे हर स्वर्गवासी की तरह. अंतर बस इतना था कि वो जब तक जिन्दा रहे, दूसरों की तकलीफों के प्रति अति संवेदनशील थे. मरने के बाद का पता नहीं मगर शायद मरते वक्त उन्हें आभास नहीं हो पाया होगा कि वो जा रहे हैं अन्यथा मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी को कोई तकलीफ न हो इसलिये वो खुद ही पाँच मिनट पहले बस से शमशान चले जाते और चिता पर लेट कर ही अंतिम सांस लेते याने कि पर-तकलीफ के प्रति संवेदनशीलता की पराकाष्टा.
अन्य मित्रों की भाँति मैं भी शमशान गया था उनको अंतिम विदाई देने. बिल्कुल गमगीन चेहरा, आँख पर काला चश्मा और मूँह में पान मसाला कि भूले से भी कोई शब्द न फूटे. बस, मौन की आवाज, सामने जलती चिता, हवाओं की सरसराहट, पसीने की चिपचिप और शमशान का सन्नाटा. गम का इससे बेहतर सीन क्या हो सकता है?
पूरा माहौल सेट मगर कुछ नालायक किसम के लोग पास ही खड़े हँसी मजाक भी कर रहे थे और अनाप शनाप राजनिती से लेकर शहर की बिजली, पानी की कभी न हल हो सकने वाली शास्वत समस्या पर कभी न खत्म होने वाली शास्वत बातचीत. मुझे ऐसे लोग पसंद नहीं. अरे भाई, गम का माहौल है, कुछ देर मत हंसों, कुछ देर इन समस्याओं को दर किनार करो. गम में शामिल रहो. ऐसे नहीं चुप रह सकते तो पान दबा लो सुरती वाला मगर चुप रहो. खराब लगता है जिसके घर गमी हुई है उसे. उसकी मजबूरी है वो चाह कर भी हँस नहीं सकता और उसे तो मूँह उतारे खड़े ही रहना है और तुम हो कि मूँह बाये तो ऐसा कि बंद ही नहीं कर रहे हो.
वो तो खुद ही जल्दी में है, आधे घंटे भी उसे भारी लग रहे हैं. क्या तुम उतना भी साथ नहीं दे सकते? कैसे दोस्त हो यार? देखा नहीं, कितनी फटाफट धोती पहनी. चिता के दो चक्कर काट कर लगे पंडित की तरफ देखने और फिर उसके कहने पर दौड़ कर तीसरा चक्कर काटा. फट से दाग दी और जल्दी आग पकड़े इसलिये दनादन धौंख मरवाई. इधर से घी डालो, उधर से घी डालो-ये दूसरे भाई बोल रहे हैं जिन्होंने दाग नहीं दी. वो भी लगे हैं जल्दी आग पकड़े. पांच मिनट पहले से ही कपाल क्रिया के लिये लट्ठ उठाये खड़े पंडित जी की तरफ ताक रहे हैं कि कब वो कहें और ये सर फोड़े. चंदन फैंके और घर निकलें. गर्मी भी तो कितनी है? सर पर सीधे तपता सूरज और सामने चिता का ताप. बाप रे बाप!!
बाबू जी तो निकल लिये और सुना है उपर तो बढ़िया ठंडक रहती है. हवाई जहाज में बाहर का तापमान बताता है एकदम ठंडा हर समय, तब ये तो उससे भी उपर निकले हैं. न धूल, न धक्कड़-पोल्यूशन फ्री-कूल कूल. अब तक तो वो डेस्टीनेशन पर टच कर रहे होंगे-कोई भारतीय रेल से तो गये नहीं हैं कि चले जा रहे हैं-गंतव्य आ ही नहीं रहा या फिर नोयडा से कनॉट प्लेस जा रहे हों कि ट्रेफिक में फंसे के फंसे ही रह गये और सुबह से शाम हो ली.
फिर सब लोग वहीं पेड़ के नीचे जमा हुए. भाषण अधिभार हमारा क्षेत्र था सो चबूतरे पर मित्र हमारे बाजू में सर झुकाये खड़े हो लिये और बोले हम, भारी भर्राई आवाज में:
" बाबू जी नहीं रहे. वे व्यक्ति नहीं, एक युग थे. आज एक युग समाप्त हुआ आदि आदि जरुरी व्यवहारिक फैशनारुप नियमित अंतिम क्रिया के बाद की बातें. आदतन बीच में एक पुराना शेर भी ठेल दिया:
जिन्दगी मानिंद बुलबुल शाख की,
दो पल बैठी, चहचहाई और उड़ चली"
कवियों के साथ ये बीमारी है. मंच दिखा, श्रोता दिखे और मन मचल उठता है. सो, मैं बीमार, लोभ संवरण न कर पाया. फिर कब अस्थि संकलन है आदि के बाद दो मिनट के नाम पर ३० सेकेंड का मौन रख फुर्ती से विदाई.
खैर, बाबू जी चले गये ठंडे में और पीछे रह गये उनके पुत्र याने हमारे मित्र गर्मी में-एकदम खड़ी धूप. यही होता है जब गर्मी में सर से साया हट जाये. शायद किसी के बुजुर्ग ऐसी ही गरमी में निकल लिये होंगे और शमशान चिंतन तो जग प्रसिद्ध है, तब उसी चिंतन के क्षणों में उसने यह कहावत रची होगी:
"बुजुर्ग एक वट वृक्ष से साये की तरह होते हैं."
इस बीच एक दो बार और भी उनके घर जाना हुआ. सब रिश्तेदारों का जमावड़ा. कहीं नाश्ता चाय. कहीं मामा गाना अच्छा गाते हैं, तो उनको घेरे रिश्तेदार लोग गाना सुन रहे हैं. कहीं बड़े दिनों बाद मिल रहे कजिन्स ताश जमाये बैठे हैं. कोई अनजान हो, तो समझे घर में शादी है.
बात यूँ निकल पड़ी कि आज उनकी तेहरवीं थी. मित्र ने सर मुंडवा रखा था. बकौल कई दोस्त, उस पर यह स्टाईल बहुत सूट कर रही थी. एकदम कूल ड्यूड. बड़े बेहतरीन बेहतरीन व्यंजन मनुहार कर कर के खिलाये जा रहे थे. हमारे मित्र प्रसन्न मुद्रा में सभी आंगतुकों का स्वागत कर रहे थे. चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान. हँसी ठ्ट्ठे की फुहार हर तरफ.
हमने भी लुत्फ उठाया स्वादिष्ट व्यंजनों का. बकौल हमारे मित्र याने दिवंगत के पुत्र, शहर के सबसे बेहतरीन केटरर ने जो बनाया था, फिर लज़ीज तो होना ही था. वाह!! निकल पड़ा हमारे मूँह से अनायास ही. पता चला चमचम बनारस से बुलवाये हैं. कहिन कि बाबू जी को बहुत पसंद थे. पता नहीं कब पसंद थे, हमारे होश में तो हमने उन्हें मुहल्ले की हलवाई की दुकान पर जाते तक कभी नहीं देखा, फिर बनारस के चमचम पसंद, वो भी ठेठ जबलपुरिया को-जो कभी जबलपुर के बाहर गया ही नहीं. सारे रिश्ते-नातेदार यहीं. उनकी लीला वो जाने, हमें तो चमचम बहुत पसंद आये. दो खा लिये.
चलते चलते वे हमसे पूछ बैठे-"और कब तक हो इंडिया में?"
हमने बताया कि अभी तो अप्रेल के आखिर तक हैं तो बड़े खुश हो लिये और कहने लगे कि चलो, अब आज सब झंझट से फुरसत हुए जा रहा हूँ. तुम तो जानेते ही हो कि कब से यह सब लफड़े लगे थे..पहले तो पिता जी बहुत दिन बीमार रहे फिर ......खैर, बस एकाध दिन में सब रिश्तेदार निकल लें तो बैठते हैं तुम्हारे साथ फिर महफिल जमें. वो जो बोतल कनाडा से लाये हो, वो तो रखी होगी न कि साफ हो गई.
मैं उस दुखी मित्र (अरे भाई, उसके पिता को गुजरे अभी मात्र १३ दिन ही तो हुए हैं) को यह बता कर और दुखी नहीं करना चाहता था कि ४ महिने हो गये हैं हमें आये. अगर न भी साफ करते तो अल्कोहल तो अब तक हवा में ही उड़ लेती, और बोतल मिलती ऐसी ही खाली. इसलिये, हाँ में हाँ मिला कर चल दिया.
सोचता हूँ कि हम सब भी एक न एक दिन किसी न किसी के लिये ऐसे ही लफड़े साबित होंगे और वो भी फुरसत होकर महफिल जमाने की फिराक में लगेंगे. बस, यह शेर याद आ लिया:
देखो भाईया, सब कुछ पारी पारी है...
आज तेरी है तो कल मेरी बारी है....
शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो.
पुनश्चः : किसी की भावनाओं को आघात पहुँचाना इस आलेख का उद्देश्य कतई नहीं है. बस जैसा देखा और जैसा मन में आया कि बदलना चाहिये, उस हिसाब से लिख दिया.
सोमवार, अगस्त 04, 2008
कुछ तो बदलना चाहिये!!
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80 टिप्पणियां:
लेख काफी भारी है, आपकी ही तरह :)
आपने अपनी धॉंसू फोटो लगाया है, अभी हमारी कनाडा वाली तस्वीर पहुँची नही है।
उड़न तश्तरी ने करौ, अदभुत आज प्रयोग
करुणा, हास्य विषाद रस , कौ मिश्रित संजोग
मिश्रित रस संजोग, भये पुलकित सब श्रोता
डूब डूब कें ह्रदय, हमारौ खाबै गोता
पांच दिना तक करी लला ने गैर हाजरी
मिटी शिकायत, जब फर्रायी उड़नतश्तरी
सहमत हूँ आपके इस कथ्य से कि "शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो"। बेहद प्रभावी आलेख..
***राजीव रंजन प्रसाद
कमाल है भाई, कहाँ-कहाँ से ढूंढ कर लाते हैं इतने प्रफुल्ल विचार (और ऐसे थर्ड-क्लास दोस्त भी)?
अपनी तो हंसी रुकी ही नहीं. अच्छा हुआ आपके साथ वहां नहीं थे वरना तो गज़ब ही हो जाता!
खैर, बात आपकी सही है और गंभीर भी.
गहरी वेदना छिपी है समीर भाई इस व्यंग्य में.
में सहमत हूँ आपके इस कथ्य से कि "शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो"
पिछली बार नही आ सका। क्षमा चाहता हूँ,
लेकिन सालिड तरीका पसन्द आया था :)
और अबकी बार आपने तेरहवीं की दावत भी दिखा दी।
ऐसे विचार मन में अभी मत लाइये
कि आज तेरी है तो कल मेरी बारी है.
काहे डरा रहे हैं :)
पढ़कर इसे चुरा लिया।
आपके कुछ शब्द चुरा चुरा कर दोस्तों के सामने पेश कर देता हूँ। इसके लिये माफ़ी चाहूंगा लेकिन चोरी बन्द नही करूँगा
:)
:) :):
.
बिल्कुल सटीक लिखा है, समीर भाई,
इन रस्मों को निभाते रस्मी अदाकार ऎसी ऎसी बेहूदगियों के नमूने पेश करते हैं, कि मन खराब हो जाता है । इसका मैं विरोध करता आया था और अपने स्व. पिताजी की अंत्येष्टि मैंने गायत्री परिवार के हवन और वैदिक मंत्रों से करवायी । उनकी इच्छा रहा करती थी कि उनके मृत्यु उपरांत तोंदियल पंडित न जिमाये जायें, सो मैं संतुष्ट था कि किंवा पिताश्री को शांति मिली हो ।
किंतु मेरी अम्मा एवं अन्य संबन्धी जीते जी इतने अशांत हो गये कि मुझे यह तेरह का पहाड़ा पढ़ना ही पड़ा । बिरादरी में आनन फानन नीची हो जाने वाली नाक एक निर्मम सर्ज़री माँगती है ।
एक अच्छा विषय उठाया है, आपने..
जो कि आम लफ़्फ़ाज़ी से अलग ही दिख रही है ।
ये तेरह दिन, लोग एकत्र होते हैं, कुछ भी करते हैं। पर यह भीड़ कहीं न कहीं परिजनों को अवसाद से निकाल कर बाहर लाती है। लेकिन परंपराओं के नाम पर जो भारी खर्चे होते हैं उन्हें तो कम करना ही चाहिए।
जाने माने शायर दुष्यंत का शेर याद आ गया.. "कौन कहता है आकाश में सूराख हो नहीं सकता, एक पत्थर तो तवियत से उछालो यारो"
आपने भी बहुत महीन कोशिश की है, अगर एक दो भी शिकार हो जाएं तो सार्थक होगा।
समय की कमी और भावनाओं से रिक्त होता मन तो हालत यही बनने हैं ..सही व्यंग है यह ..और शेर भी
देखो भाईया, सब कुछ पारी पारी है...
आज तेरी है तो कल मेरी बारी है....
क्या कहु इस लेख के बारे में.. कितनी ही गहरी बाते आप यूही कह गये.. थोडा थोडा डर भी लग रहा है,,
मैं तो अपनी तेरहवीं खुद करके जाऊंगा. पीछे का भरोसा नहीं है।
श्रद्धाजंलि सभा भी खुदै ही आयोजित करवाके जाऊंगा।
बाद का क्या भरोसा। नये टाइम की नयी चाल के हिसाब से चल रहा है।
आपकी अगली भारत की यात्रा पर करवाने की सोच रहा हूं।
kureetiyon ke muh par karare tamaache ke liye badhai,aapne jo likha wo kamobesh har shavyatra ka aankhodekha haal hai.main bhi shaadi byaah se jyaada shavyatraon me jata hun aur mere bahut se dost ye kehte hai isse milna ho to yanhi milta hai.mujhe bhi bahut samay se is par narazgi hai jo main jaahir karte rahta hun lekin aapne jis tarah ek gambhir vishay par behad saadgi se kataksh kiya waise shabd aur shailee mere pas nahi hai.badhai aapko ek baar phir samaj ko jagane ki pehal ke liye
स्वाभाविक हास्य से परिपूर्ण रचना!
"संवेदनशीलता की पराकाष्टा" बहुत ज्यादा पसंद आई!
मैं आपसे सहमत नहीं हूँ। इस तरह हम अपनी परम्पराएँ छोड़ने लगे तो आगे संस्कृति के नाम पर कुछ नहीं बचेगा। इससे बेहतर है हम उन मुट्ठी भर लोगों का आह्वान करें जो परम्पराओं को पूरे सम्मान से बनाए रखना चाहते है।
समय के साथ थोड़ा बदलाव भी आना ही चाहिए।
उडन जी, तश्तरी में सजाई गई िस तरकारी में मिर्च बहुत है। खाने के टाईम कष्ट तो देता है, सोचों तो भी कष्ट देता है और अगले दिन सुबह तक यह कष्ट जारी रहने की संभावना है। भागलपुर दंगे की तरह...
समीर जी,यह क्या लिख दिया...."काल करे सो आज कर"अगर यह मुहावरा पूरा का पूरा ही अमल मे लाया जाए तो.....:)
लेकिन इस पोस्ट में आज की सच्चाई की झलक साफ दिखी।सही बात है आज जिस तरह का व्यवाहर हो रहा है उसे देखते हुए तो बदलाव की बहुत जरूरत है। आप ने सही लिखा-
"शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो"
पढ़ कर २ मिनट से सोंच रही हूँ रोना चाहिए की हसना.ऐसा कभी कभी सआदत हसन मंटो की कहानि पढने के दौरान होता था व्यंग जो दुखद परिस्थितिओं में जन्म लेता है
आपकी पोस्ट ने पुरानी यादें ताज़ा कर दीं..हम हाथ छुड़ाकर रियाद पहुँचे ही थे कि दूसरे दिन खबर आ गई कि डैडी नहीं रहे..तीन दिन में ही सब क्रियाक्रम सम्पन्न कर दिया गया और 15 दिन बाद छोटा भाई मम्मी को अपने साथ अमेरिका ले गया..
धीरे धीरे पुरानी परम्पराएँ छूटती जा रही हैं..
बड़ी ही सफाई से बातों ही बातों में परतें खोल कर सत्य को निर्वस्त्र किया है आपने।
संस्कारों में बदलाव तो आ ही रहे हैं। यह तो कर्मकाण्डी ब्राह्मण लोग हैं जो बहुत धीरे बदलते हैं। मैने देखा है कि विवाह संस्कार भी पापुलर डिमाण्ड पर शॉर्ट एण्ड स्वीट होने लगे हैं।
मसखरी के लिये फिर भी समय है पर गम के लिये कहां है वक्त!:)
एक आप दूजे गुलज़ार लिख सकते है-यूँ --कुछ याद आया उनका …आपको पढ़कर--पोस्ट करूँगी
व्यंग्य की भाषा तो वहीं जन्मी है जहां के आप हैं मैं तो मानता हूं कि हरिशंकर परसाई जी ने हिन्दी व्यंग्य को धार दी है और आप तो उसी पुण्य भूमि जबलपुर के हैं जहां के वे थे तो आपके व्यंग्य में उनके जैसी ही धार क्यों न हो । बधाई
सच बात है एक मह्श्य कह रहे थे की ऐसी भी एजेंसी खुलनी चाहिए जो आपसे पैसे पहले ले ले ..ओर बाद में आपके मरने के बाद सारा मैनेजमेंट संभाल ले....पहले गाँवों में जब परिवार में कोई रोने वाला नही होता था तब रोने के लिए किराये पर औरते बुलाई जाती थी जिस पर एक फ़िल्म भी बनी है....."रुदाली "
आपने पहले तो इस पोस्ट पर laughter, व्यंग्य, हास्य-विनोद जैसे लेबल चिपका दिए और फिर भी सोचा कि कहीं कोई आघात हो सकता है?
ना जी ना, आपने जो कहा, बिल्कुल सही है | ऐसे दृश्य आजकल देखने को मिल जाते हैं |
लिखते वक्त आपके दिल से आह निकली है कई जगह। तभी कटाक्ष में कूल ड्यूड जैसे शब्द भी डाल दिए आपने इस वेदना में। पढ़कर अच्छा लगा।
(सोचता हूँ कि हम सब भी एक न एक दिन किसी न किसी के लिये ऐसे ही लफड़े साबित होंगे और वो भी फुरसत होकर महफिल जमाने की फिराक में लगेंगे. बस, यह शेर याद आ लिया:
देखो भाईया, सब कुछ पारी पारी है...
आज तेरी है तो कल मेरी बारी है....)
बहुत कुछ कह गए आप इन लाइनों में आप। असलियत से रूबरू करा दिया।
काल करे सो आज कर.. आज करे सो अब..
चलिये इसलिये टिपिया देते हैं अभी के अभी.. :)
गुरुदेव आपने व्यंग के साथ साथ वेदना
रूपी सिक्सर भी जबरदस्त लगाया है !
इसीलिए आप गुरुदेव हैं ! प्रणाम !
प्रणाम स्वीकारें, क्या लेखनी सॉरी की-बोर्ड पाया है!
परम्पराए फ़िर तो मिटने के लिए ही होती हैं....!!!??? ऐसा व्यंग...गहरी चोट... क्या करे हम लोग प्रगतिशील होना चाहते हैं... करना पड़ेगा यही सब जो आपने कहा...
क्या खूब लिखा है, शमशान और तेहरवीं का वर्णन ......
बेहतरीन व्यंजन .........
बनारस के चमचम.........
मज़ेदार पोस्ट रही
समीर जी आप ने अपने इस लेख मे हमेशा की तरह से व्यंग्य के साथ साथ बहुत कुछ कुछ कह दिया हे,कई बाते तो मेने खुड महसुस भी की हे जिन मां बाप ने हमारे लिये जिन्दगी लगा दी आज वो झाण्झट हो गये हे, बहुत खुब,मुझे तो आप के मजाक के वाव्जुद रोना ही आया.धन्यवाद
अंतिम संस्कार की ये परंपराएं शायद इसलिए बनायी गयी होंगी कि प्रियजन के देहावसान के गम को उनके परिजन भुला सकें। लेकिन न तो अब पहले वाली संयुक्त परिवार की प्रथा रही, न ही लोगों के पास समय है। ऐसी स्थिति में अब लोग इन परपंराओं को बोझ समझने लगे हैं।
समीर भाई....बहुत सच्ची बात लिखी है...एक दम सही...हाँ अंदाज़ आप का अपना पुराना है...बेमिसाल वाला...लीजिये इसी बात पर कभी हमारी लिखी ये लाईने सुनिए:
किसको निस्बत रही ज़माने में
झूठे सब यार रिश्ते नाते हैं
लोग चलते हुए जनाजे में
आजकल चुटकुले सुनाते हैं
नीरज
सोचता हूँ कि हम सब भी एक न एक दिन किसी न किसी के लिये ऐसे ही लफड़े साबित होंगे...........paristhitijanya yah lekh bahut achha likha hai, aur kuch kahna mere vash me nahi
यह भी एक तगडा संस्मरण रहा -वो बुलबुल वाला शेर तो बस गजबे है .मैं तो बनारस में ही हूँ मोक्ष के द्वार पर ...मणिकर्णिका और हरिस्चंद्र घाट पर आए दिन इन विषम स्थितिओं से जूझना पड़ता है -भूल से जाते हैं कि वही गति उनकी भी एक दिन होनी है -युधिस्ठिर ने इसे भी यक्ष के सामने एक आश्चर्य बताया था ......
parmparaon se takrate hue aapne adhkan rason ka pryog kiya hai. is pryogdarmita ke liye bahut bahut dhanyvad.
समीर साहब,
बात-बात में कितनी बड़ी बात
कह जाते हैं आप.
आदमी के दोहरेपन की नब्ज़
टटोलने की ये महारत मुश्किल से
हासिल होती है....गहन अवलोकन से ही
ये सब मुमकिन हो पाता है..... है न ?
================================
शुक्रिया
डा.चन्द्रकुमार जैन
आपके शब्द आपके दिल के दर्द को बयां कर रहे है।
(सोचता हूँ कि हम सब भी एक न एक दिन किसी न किसी के लिये ऐसे ही लफड़े साबित होंगे और वो भी फुरसत होकर महफिल जमाने की फिराक में लगेंगे. बस, यह शेर याद आ लिया:
देखो भाईया, सब कुछ पारी पारी है...
आज तेरी है तो कल मेरी बारी है....)
आपका लेख अच्छा लगा।
हुर्रे......तेरही की कडक्की पूडी का इंतजाम हो गया.....बगल वाले काका निकल लिए, जाते जाते भी कुछ नहीं तो कोंहडे वाली तरकारी खिला गये........तेरही में उडन तश्तरी भी आए थे....तश्तरी भर के ले गये, जाते जाते कह गये फिर आउंगा...ईसी तरह :) :D
अच्छा, बेहद उम्दा।
लम्बी बीमारी या हस्पताल रहने के बाद जब किसी अपने की मृत्यु हो तो परिवार वालों का थक जाना और मृत्यु के लिए कुछ सीमा तक तैयार हो जाना तो स्वाभाविक है, परन्तु यह कुछ अधिक ही है। यदि ऐसी संभावना हो या न हो तब भी हमें अपने मरने के बाद कुछ भी विशेष करने से परिवार को मना कर देना चाहिए। क्या ही अच्छा न हो यदि हम पुण्य कमाने के लिए नेत्र दान, अंग दान या शरीर दान का रास्ता अपनाएँ? यहाँ तक कि त्वचा दान करने से भी बहुत से जले हुए मरीजों की जीते रहने की संभावना बढ़ जाती है।
मैंने अपनी बेटियों को मेरा नेत्र दान व जो भी अन्य दान हो पाए करने व बिजली से शरीर जलाने को कहा है। कोई भी पूजा आदि करने को मना किया है।
घुघूती बासूती
यहाँ ( in USA )
शोक सभाएँ ,
मँदिरोँ से लगे सभागार मेँ,
शाम के सादा भोजन के साथ
परोसने का चलन
एक बदलाव ही है
निष्कासित
भारतीय समाज बदला तो है
पर एक नहीँ बदली है तो मौत !
वो ध्रुव सत्य है
- लावण्या
आप हिन्दी में लिखते हैं. आप हिन्दी पढ़ते हैं. अच्छा लगता है. मेरी शुभकामनाऐं आपके साथ हैं, इस निवेदन के साथ कि नये लोगों को जोड़ें, पुरानों को प्रोत्साहित करें-यही हिन्दी चिट्ठाजगत की सच्ची सेवा है. एक नया हिन्दी चिट्ठा किसी नये व्यक्ति से भी शुरु करवायें और हिन्दी चिट्ठों की संख्या बढ़ाने और विविधता प्रदान करने में योगदान करें.
शुभकामनाऐं.
समीर लाल
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बढ़िया लिखते हैं काफ़ी सारे अवार्ड मिले हैं देख रहा हूँ। बस यही कहूँगा कि जब लिखें तो एक बार पढ़ लिया करें और फ़िर भी यदि समझ में नहीं आए तो किसी से पढ़वा लें,वैसे बहुत से लोग हैं जिनको आप वाली बीमारी है सही तो लिख ही नहीं सकते। बुरा मत मानिएगा सही लिखना एक संस्कारगत बात है तो मैं आपकी समस्याएँ समझ सकता हूँ। वैसे आपकी लेखनी की स्याही हमेशा ब्लू रहे मतलब बरक़रार रहे,और हाँ टिप्पणी को मौडरेशन का शिकार मत बनाइएगा।
शुभकामना
टिप्पणी मॉडरेशन सक्षम किया हुआ है. सभी टिप्पणियाँ ब्लॉग लेखक के द्वारा अनुमोदित की जानी चाहिए.
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बहुत नाइंसाफ़ी है ठाकुर। ई कलमवा हमका देई दे ठाकुर।
जीवन का यह भी एक कटु सत्य है। देखिए हम सब कितनी जल्दी सब कुछ भूल कर स्वयं को अमर मान लेते हैं। अति सुन्दर लिखा है। विचार करने को विषय मिला है।
क्या कहूं।
पर इस बात से तो सहमत हूं कि बहुत सी परंपराओं को आसान (बंद) ही हो जाना चाहिए!
बॉस! फोटो तो सब एक्दमैच्च धांसू लग रई है।
मृणाल
आपके मन में यह विचार क्यूँ आया कि आपकी टिप्पणी माडरेशन का शिकार हो जायेगी जो आपको निवेदन करना पड़ा. क्या आपके खुद के नजरिये से आप कुछ ऐसी बात कह रहे थे, जो आपमें कुछ हीन भावना को जनम दे रही हो?
आप तो अपना पता भी छुपा गये. अब आप बतायें कि ये ठाकुर आपको कलम कहाँ भिजवाये? :)
आप कहते हैं “कुछ तो बदलना चाहिए!!” और चर्चा इस बात की हो रही है कि काफी कुछ बदल गया है। ...मसला मौत का है, शोक मनाने का है, और पढ़ते-पढ़ते लोग मुस्करा देते हैं। ...पाठ ‘परंपराओं’ का है, लेकिन ‘परिवर्तन’ का संदेश देता है।
शायद इसीलिए फिराक़ साहब कहते थे: मौत का भी इलाज हो शायद,ज़िन्दगी का कोई इलाज नहीं।
हमेशा की तरह बाँध कर रखने वाली पोस्ट।
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ऎ समीर भाई. काहे परेसान हो ? मृणाल को आप मानसिक रूप से अपनी कलम देने को राज़ी हुये से दिखते हो, तभी पता पूछते हुये भटक रहे हो !
अरे. कौन मुस्किल बात है,यह संकल्पित कलम अब दूसरे की अमानत है । जब तक पता नहीं मिलता
ई कलमवा हमरे पास जमा करा देयो, इस कलमिया से हम भी कुछ दिन हिंदी की सेवा करलें ! थोड़ा जाँच भी लेंगे कि इसमें संवेदना व व्यंग किस कारखाने में ठूँसी गयी है ? फिर तो .. हमारे नाती-पोते भी इसी से लिखा करेंगे, वह भी निख़ालिश हिंदी !
मेरा पता आपके पास है, बहाना न बना देना !
itne din se hasate hasate aaj to dara diya bhaiya aapne ......sach? aisa hota hai ?
"बुजुर्ग एक वट वृक्ष से साये की तरह होते हैं" से सहमत हूँ.गहरी वेदना छिपी है .गंभीर प्रभावी रचना.
पूरी तरह सहमत हूँ आप से, बहुत ही ज़बरदस्त टॉपिक उठाया है आपने, वो सारी रवायतें जो बोझ लगने लगें, उन्हें बदलना ही चाहिए...बहुत ज़बरदस्त लेख
इंसान परंपराओं के लिए नही होता बल्कि परम्पराएँ इंसान के लिए होती हैं. और परम्पाएँ समय के साथ परिवर्तित नही होती तो बोझ बन जाया करती हैं. फिर होता यह है की हम बिना जाने बिना समझे उसे ढोते रहते हैं. कभी मुँह से ग़लती से शिकायत निकल गयी तो कुफ्र मान लिया जाता है. तमाम तरह के तमगे चस्पा कर दिए जाते हैं. हमने काई प्रकार के संस्कारों, जन्म से लेकर मृत्यु तक को देखा और यही पाया है कि हर संस्कार अगर व्यक्तिगत सामर्थ्य, ज़रूरत और सुविधा को ध्यान मे रख कर किया जाय और समाज उसपे नाक भौं सिकोड़ने कि जगह सहयोग दे तो शायद हमारा समाज अधिक सुखी रह पाए
ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे।
सुख के सब साथी..
दुख के आप साथी...
वारे न्यारे तो होंगे ही... जाने वाले के भी.. आने वाले के भी.
बाबू जी नहीं रहे...
ठीक ही हुआ. रहते भी कैसे?
aap to chhote me nipat gaye,
main to dang rah gayaa bhoj paddhti per tisre din uthaavne men jaane ke pahle bhojan banwayaa gayaa teen mithaaiiyon ke saath,
athve per panch mithaaiyan thi.
11 ve aur 13 ve ki aap khud soch le.
ye khanaa khane ke liye nimantran kaa bulaava bhi thaa phone se.
main to aaj tak chakit hun .
aap bhi chakit rah jaayen meri panktiyon per to jaroor bataayen.
वह समीर साहब क्या लिखा है, मज़ा आ गया। वाकई चीजों में जटिलता बहुत है और आज आदमी के पास समय कम है। इससे पहले की फजीहत हो बदल जाना चाहिए। क्योंकि अब परिवारी जानो के लिए तो आज मरे कल दूसरा दिन।
वह समीर साहब क्या लिखा है, मज़ा आ गया। वाकई चीजों में जटिलता बहुत है और आज आदमी के पास समय कम है। इससे पहले की फजीहत हो बदल जाना चाहिए। क्योंकि अब परिवारी जानो के लिए तो आज मरे कल दूसरा दिन।
behtareen aalekh.
शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो
poori terah sahmat hoon aapse .
बहुत बढ़िया।
"कुछ तो बदलना चाहिये!!"
अरे कुछ क्यों बहुत कुछ बदलना चाहिए. ये जो सब 'बेहतरीन लेख' कहे जा रहे हैं और यहाँ टिपण्णीयों का अम्बार लगा जा रहा है. ये भी तो बदलना चाहिए...?
हा हा.... बस आपके ही अंदाज में आज लिख गया... आजकल थोडी व्यस्तता है इसलिए इस बार देरी हो गई.
वैसे कहने की जरुरत ही क्या है... सत्य तो सत्य ही है... बेहतरीन लेख !
देखो भाईया, सब कुछ पारी पारी है...
आज तेरी है तो कल मेरी बारी है....
यही देखने को मिलता है.. सब खुद को शायद अमर समझते है
बहुत अच्छा लेख है..एक तीखा पर सच्चा व्यंग.
सादर
सतपाल ख्याल.
समीर जी कृपया पथ प्रदर्शन करें ।
आप ने लिखा है वर्ड वेरिफिकेशन को हटाने के लिए
उपाय तो बताएं ?
समीर जी कृपया पथ प्रदर्शन करें ।
आप ने लिखा है वर्ड वेरिफिकेशन को हटाने के लिए
उपाय तो बताएं ?
kya kahen ise, zamane kii baliharii hai.
main daad deti hoon aapko....kitni achchi baat aapne halke fulke tareeke se kah di! padhne wala bas padhta chala gaya!yahi baat log bhaashan dekar kahte to koi nahi sunta....hats off to u.
mritu ke bad ki bat uthayi hai aapne marane se pehale bhi agar insan ko achcha vyavhar mil jaye to bahut hai baki to shshtachar ki bate hain jo ab ati durlabh hai.
शायद वक्त आ गया है कि पुरातन परंम्पराओं को कुछ आसान किया जाये इसके पहले कि हमारी खुद की फजीहत हो.
बात तो सही दिखे है पर परंपराओं को सिमप्लीफाई करके भी ऐसा न होगा यह किसे पता। कुछ समय पहले सुना था कि अब तो बिजली वाले शमशान घर भी हैं जहाँ न लकड़ी लगती है न घी और न ही इतनी देर प्रतीक्षा करनी पड़ती है, बस मुर्दे को मशीन में डाला, बटन दबाया और हो गया दाह संस्कार कुछ ही पलों में!! :(
aap bilkul sahi kah rhe.
लालाजी,
कमाल लिखा है...आपकी लेखनी पर माँ सरस्वती विराजमान हैं..सुंदर
लेख अच्छा है...
पर मुझे नहीं लगता कि इस तरह कि रस्म में कोई ग़लत बात है. जो चाहता है और कर सकता है वो रस्मो का पालन करे तो कोई बुराई नहीं....
रही बात माहौल कि तो ग़मगीन माहौल में मन ही साथ नहीं देता. बल्कि कहिये कि आपका दोस्त एक तरह से खुशमिजाज इंसान है. पिताजी को सम्मान दे रहा है और साथ ही यह संदेश भी कि जाने वाले को हंसते हंसते विदा करो.
खैर हो सकता है मेरी बात बुरी लगे, पर कुछ रस्में होती है जो आसानी से नहीं छूटती. जरूरी नहीं कि यह कुरीतियाँ ही हों. या तो गम या खुशी दो ही मौके होते हैं लोग मिलते हैं, एक दूसरे का साथ देते हैं. अब अगर यह साथ हसते हुए दिया जाए तो क्या बुरे है?? ऐसा तो जरूरी नहीं न कि मुंह बना के ही गम का इज़हार होता हो??
janb bad aachcha likha hai
apke blog main nayapan ye laga jo apne photogallery peste kee hai usse ek naya noor aa gya hai apke blog kee shaan main
dhanyavad
scam24inhindi
कमाल का व्यंगय और उससे अधिक समाजिक रीतियों पर कटाक्ष!
Hum Badlenge yug badlega. Magar ye saare changes meri terahveen ke baad amal main layiyega.
जिन्दगी मानिंद बुलबुल शाख की,
दो पल बैठी, चहचहाई और उड़ चली"
सुंदर पंक्तियाँ बधाई
कृपया पधारे manoria.blogspot.com or kanjiswami.blog.co.in
समीर जी आपके सब लेख पढे । सबसे ज्यादा लड्की बनने की चाहत वाली पोस्ट अच्छी ल़गी ।
sameer ji aapki vyangya shaili bahut hi khoobsurat hai. aap jabalpur ke hain harishankar parsai ji ki parampara ko aage bada rahe hai badhai. mujhe khushi is baat ki hai ki aap bhi mere hi kshetra ke hain main bhi aapke paas "Pipariya" ka hi rahne wala hoon, aur mere pitaji bhi jane-maane vyangyakar hain. bahut hi accha laga aapke lekhon ko padh ke.
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