रविवार, मई 25, 2008
इक तेरी नजर का
कब से उधार बाकी है, इक तेरी नजर का
अब तक खुमार बाकी है, इक तेरी नजर का.
जिंदा हूँ अब तलक मेरी सांसे भी चल रहीं,
उन्हें इन्तजार बाकी है, इक तेरी नजर का.
उम्दा कलाम मेरा सब शेर सज चुके हैं
केवल शुमार बाकी है, इक तेरी नजर का.
महफिल सजाऊँ किस तरह, अबकी बहार में,
पल खुशगवार बाकी है, इक तेरी नजर का.
दम अटका है जिगर का, कमबख्त नहीं निकले
तिरछा सा वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बिछड़े हैं हम सफर में, कुछ दूर साथ चल ले
दिल तलबगार बाकी है, इक तेरी नजर का.
अब के समीर कह गया बिन गाये ही गज़ल
साजों पे वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
-समीर लाल 'समीर'
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35 टिप्पणियां:
वाह ब्लॉग जगत की हाय हाय से दूर एक सुंदर सी गजल पढी तो मन खुश हो गया |
हमे भी इंतज़ार है बस किसी की एक नजर का :-)
आसमां से उतारा गया
जिन्दगी दे के मारा गया।
मौत से भी जो न मर सका
उसको नजरों से मारा गया।
दम अटका है जिगर का, कमबख्त नहीं निकले
तिरछा सा वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
मुसीबत में साथ देने के लिये हम तैयार हैं। वैसे ये शेर कहता है कि बीमारी लाइलाज है
तिरछी नजर का तीर है, मुश्किल से निकलेगा।
गर दिल से निकलेगा तो दिल के साथ निकलेगा॥
इस बार तो आप बिना किसी भूमिका के ही शुरू हो गए. संकेत खतरनाक हैं.
बढिया है नजर का खेल.
बिछड़े हैं हम सफर में, कुछ दूर साथ चल ले
दिल तलबगार बाकी है, इक तेरी नजर का.
वाह क्या बात है समीर जी ..बहुत ही खूब ..यह अंदाजे बयान भी खूब है आपकी कलम की नज़र का :)
गजब की गजल मारी है । हम तो घायल होकर अश अश कर रहे हैं ।
जिंदा हूँ अब तलक मेरी सांसे भी चल रहीं,
उन्हें इन्तजार बाकी है, इक तेरी नजर का.
उम्दा कलाम मेरा सब शेर सज चुके हैं
केवल शुमार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बहुत सुंदर सराहनीय अभिव्यक्ति है धन्यवाद.
माड़साब ने ग़ज़ल पर अपनी संटी निकाल ली है और कक्षा में आने पर पता चलेगा कि कितनी पड़ती हैं ।
दम अटका है जिगर का, कमबख्त नहीं निकले
तिरछा सा वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
वाह! जिगर और तीर ए नजर की इस केमिसट्री ने हमेशा शायरो को परेशान किया है,गालिब ने तो तंग आकर सारी केमिसट्री नकार दी थीः
"कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर ए नीमकश को,
ये खलिश कहाँ से होती,जो जिगर के पार होता"
यू हीं खलिश बनी रहे , उडन तश्तरी से शेर बरसते रहे।
हमारी पसन्द :
दम अटका है जिगर का, कमबख्त नहीं निकले
तिरछा सा वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बड़ा कातिल है :)
हमे भी आजकल कविताई का जूनून चढा है तो झेलिये एक हम वजन गजल, ये आपकी नकल नही बस आपसे प्रेरित है जी :)
"तेरी उस दिन की काफ़ी,का कब से उधार बाकी है
वो इठला कर मुस्कुराना,अब तक खुमार बाकी है
मई की दुपहरिया मे,सावन कहा से आ पहुचा
मगा रखी की कितनी अंबिया,डलना अचार बाकी है
कनाडा पहुचते ही तुम ये घूरते हो किस किस कॊ
बताने अब तो भाभी को, मेरा आना ही बाकी है"
महफिल सजाऊँ किस तरह, अबकी बहार में,
पल खुशगवार बाकी है, इक तेरी नजर का.'
wah! wah! wah!
har sher bahut khuubsurat hai!
वाह-वाह।
इरशाद।
हमें अब भी इंतज़ार है एक तेरी नज़र का,
क्या करें आपकी लाइने पढ़ कर हमें भी तुकबंदी करने का मन होने लगा, पर हम बहुत बुरे हैं इसमें :-)
वाह ही वाह है जी
वाह, जिसकी तिरछी नजर यह लिखवा रही है - उनको धन्यवाद, आपको यह उम्दा रचना लिखने को प्रेरित करने को!
दम अटका है जिगर का, कमबख्त नहीं निकले
तिरछा सा वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बहुत खूबसूरती से आप ने एक महबूब की मुहब्बत का ज़िक्र किया है, ऐसी मुहब्बतें बाकी तो हैं लेकिन बहुत कम...इसलिए ये शेर बताते हैं की मुहब्बत की अजमत क्या है...
बिछड़े हैं हम सफर में, कुछ दूर साथ चल ले
दिल तलबगार बाकी है, इक तेरी नजर का.
अब के समीर कह गया बिन गाये ही गज़ल
साजों पे वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बहुत प्यारी....बस एक शिकायत है,, ये पूरी तरह एक ग़ज़ल है,,उर्दू ग़ज़ल,, और लिंक में आपने हिन्दी कविता लिख कर बाकी लोगों की तरह उर्दू के साथ एक और नाइंसाफी कर दी....लेकिन क्यों?
ये भाषा भी आपकी है, हिन्दुस्तानी है ..इसके साथ ये ज़ुल्म क्यों?
ज़रा बताइए ...क्या इतनी खूबसूरत ग़ज़ल आप हिन्दी में कहने की कल्पना भी कर सकते हैं?
नही ना...फिर जो जुबां ख़ुद में इतनी खूबसूरती समेटे हुए आपकी अपनी है , उस के साथ ऐसा behave क्यों?
मैं गिर पड़ा हूँ....आपका ये रूप देखकर हैरान हुन्न्न्न्न जरा होश मे आता हूँ फ़िर टिपियाता हूँ ....
क्या बात है गुरु जी, ये सब काम चेलों को करने दो न ;)
वाह! वाह!
सरजी आपका जवाब नहीं.
बहुत ही शानदार गजल है.
वाह! वाह!
सरजी आपका जवाब नहीं.
बहुत ही शानदार गजल है.
शानदार गजल..बहुत बढ़िया.
guru ji kaele me santi nahi marenge ham logo ke saamne hi marenge...ham abhi se kyo badai kare,,? pahale tali to baja le
बिछड़े हैं हम सफर में, कुछ दूर साथ चल ले
दिल तलबगार बाकी है, इक तेरी नजर का.
बढ़िया गजल.
नज़र-ए-इनायतों का ये हाल है गज़ब ही
तेइस का आंकड़ा है,कोमेंट की डगर का
hamesha ki tarah behtareen...
अब के समीर कह गया बिन गाये ही गज़ल
साजों पे वार बाकी है, इक तेरी नजर का.
वाह-वाह ...क्या बात है ...अच्छी लगी गज़ल
बधाई ...रीतेश गुप्ता
bahut khub!
वाह वा, समीर लाल जी, क्या खूब है कही-
सीधा दीदार बाकी है, इक तेरी नजर का.
आभार, थैंक्यू, शुक्रिया, हे उड़नतश्तरी,
अब इंतजार बाकी है, इक तेरी नजर का.
लगा कि सारे साज़ बोल पड़े समीर साहब !
नज़र पर आपके इस नज़राने को
नज़र न लगे किसी की.... यही दुआ करता हूँ .
इतनी खूबसूरत ग़ज़ल कहते है आप !
आज दिल बाग-बाग हो गया...सच !
और चित्र क्या चुना है आपने !
...खुद एक ग़ज़ल है !!
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आभार
डा.चंद्रकुमार जैन
अपन तो होश खो बैठे हैं जी. अब तिरछी नज़र ज़रा सीधी कर लीजिये वरना हम 'टन्न गणेश' हो जायेंगे!
वाह! क्या बात है!
उम्दा कलाम मेरा सब शेर सज चुके हैं
केवल शुमार बाकी है, इक तेरी नजर का.
हाय...
अब तक खुमार बाकी है इस ग़ज़ल का ....
बहुत खूब समीर भाई , बहुत खूब
गले मिलकर दुआएं दे रहा हूं आपको
kabhi apki ye ek najar hamari taraf bhi inayat kar de to bada sukun milega
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