लगभग ३ माह गुजर गये चिट्ठाकारी किये और पता ही नहीं चला. शायद वजह अपनों का सानिध्य और लगातार चिट्ठाकारों से संपर्क एवं मिलन रही हो.
इस बीच भारत के विभिन्न शहरों में घूमा और अनेकों लोगों से मिला. बहुत स्नेह रहा सभी का. आज सभी यात्राओं एवं मधुर मिलनों का लेखा जोखा नहीं, वह धीरे धीरे एक एक करके समय समय पर सुनाऊँगा. आज तो मात्र एक उद्देश्य था कि पुनः वापसी की जाये और कुछ निरंतर लिखा जाये.
ऐसा भी नही रहा कि चिट्ठों से बिल्कुल आँख फेर ली हो इस अवधि में. एक निरन्तर अंतराल पर एग्रीगेटर्स के माध्यम से सभी गतिविधियाँ देखता रहा, सुनता रहा, मुस्कराता रहा तो कभी कुढता रहा. कभी हँसी आई तो कभी किन्हीं पोस्टों पर आँखें नम हो आई. कभी चिट्ठाकार होने का गर्व महसूस किया तो कभी लगा कि यह कैसा दलदल है?
लोगों ने पुरुस्कार जीते. अच्छा लगा देखकर. फोन पर ही बधाईयों का प्रेषण कर दिया, क्योंकि सोचा यह कि यदि एक टिप्पणी की तो फिर उड़न तश्तरी शायद रुक न पाये और छुट्टियों के माध्यम से आवंटित पारिवारिक समय के साथ अन्याय न हो जाये.
दिन मस्ती में गुजर रहे हैं. भारत में रहने का भरपूर आनन्द उठाया जा रहा है. आदतें खराब हो रही हैं. नौकर से मांग का पानी पीना और चाय बनवाना- मैं ही जानता हूँ कितना भारी पड़ेगा लौट कर.
बहुत सी बातें हैं करने को-मगर आज तो बस एक प्रसंग पर ....
इस भारत यात्रा के दौरान जबकि सोच हर तरफ प्रगति खोज और देख रही थी. सोचा था सभी बदलाव जो देखूँगा उन्हें कलमबद्ध करुँगा. एक नज़ारा तो प्रगतिशीलता का खुले आम देखा और वह यह कि हमारे युग का गाँव गाँव और शहर की रेल पटरियों के किनारे हर वक्त दर्शन देता लोटा चलन के बाहर हो गया और उसकी जगह ले ली बिसलरी की बोतलों नें.
जब भी सुबह सुबह ट्रेन द्वारा किसी शहर से प्रवेश किया या प्रस्थान किया. पटरियों के किनारे लोग बिसलरी की बोतलें लिये विराजमान नजर आये. जाने लोटे को किसकी नजर लग गई-बेचारा. न जाने कहाँ किस हालात में होगा?
जब व्यक्ति लोटा लेकर निकला करता था, यह जग जाहिर रहता था कि मैदान ही जा रहा है और आज बोतल लिये तो पता ही नहीं चलता कि मैदान जा रहा या दफ्तर या कि खेलने या स्कूल या यूँ ही तफरीह को. ये मुई बोतन न सिर्फ कन्फ्यूजन फैला रही है बल्कि प्रदूषण भी, उसके बाद भी पश्चिमी होने का फायदा ये कि पापुलर होती जा रही है.
अब तो बस लोटा देखने की चाह लिये भटक रहा हूँ-हे लोटा महाराज, तुम कहाँ हो??
ऐसे ही अनेकों बदलाव दिख रहे हैं. सब पर बात करेंगे.
रविवार, फ़रवरी 03, 2008
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47 टिप्पणियां:
हम भी बिसलरी की बोतल लिए आपका इंतजार रतलाम में करते रहे पर आप सीहोर से निकल लिए...
बहरहाल, हिन्दी ब्लॉगजगत् में वापसी का स्वागत्..
सबसे पहले अपने छोटे भाई का प्रणाम स्वीकारें,
फ़िर लोटा गायब हो चुका है तो कहीं न कहीं उड़नतश्तरी का हाथ इसमें जरूर है क्योंकि तीन माह से हमारी(चिटठाकारों) पोस्ट पर टिप्पणी भी इसी तरह से गुमशुदा है, चलिये जल्दी से टिपियाइये नहीं तो कनाडा का पासपोर्ट रद्द करवा कर नौकर के हाथों चाय-पानी पर गुजारे के लायक छोड़ेंगे.
आपका अनुज
कमलेश मदान
लौटा गुम होने गम अपनी जगह, फिलहाल तो महीनों बाद आपके दर्शन की खुशी है. स्वागत समीर जी.
आप घूम रहे हैं और चिट्ठे भी देख रहे हैं हमें पता था, क्योंकि कनाडा से हमें और कौन देखता है. आपको आज लिखते देख अच्छा लगा. उम्मीद हैं अब आप इतना लंबा विराम नहीं लेंगे.
दीपक भारतदीप
आप घूम रहे हैं और चिट्ठे भी देख रहे हैं हमें पता था, क्योंकि कनाडा से हमें और कौन देखता है. आपको आज लिखते देख अच्छा लगा. उम्मीद हैं अब आप इतना लंबा विराम नहीं लेंगे.
दीपक भारतदीप
लौटते ही लोटे की चिंता
वाह वाह
जल्दी जल्दी बहुत सारा लिख दीजिए
बहुत दिनों बाद लौटे हैं
लोटे का तो पता नहीं, परन्तु अब समीरलाल जी को तो लौटना ही चाहिये ! हम तो कब से यह ही लिखने की सोच रहे हैं कि 'जबसे भारत आए समीरलाल, टिप्पणियों का है पड़ा अकाल !' फिर मन को यह कह कर समझा लिया कि भाई, समीरलाल जी को भी नौकर के हाथ की चाय, पानी का मजा उठाने दो. सो स्वार्थी ना होकर चुप रहे । अब आप लौटे हैं तो लोटा लेकर !
घुघूती बासूती
लोटे की खोज में पर्याप्त घूम लिये! पर उस घूमने में जो कुछ मिला उसपर लिखिये।
आपका लोटा हेराया और यहां ढेरों टिप्पणियां।
सुस्वागतम` समीर भाई ...भारत की दूसरी बातें बताइयेगा ...
आखिर लोटे ने लौटाये आपके बीते हुए दिन, जबलईपुर कैसा है??
अपना ब्लॉग शुरू किया तो नियमित रुप से ब्लॉग पढ़ना भी शुरु हुआ। आप के बारे में खूब पढ़ा है। अब आप का लिखा पढ़ने की बारी है। लौटा केवल दिशा मैदान के ही काम नहीं आता था। सफर मे लोटा-डोर जरूरी होता था। जहां प्यास लगी, कुएं में डाला और बुझाई। डोर न होती तो पगड़ी खोलने की नौबत आ जाती थी। अभी इस बहाने खुसरो याद आ रहा है।
'पण्डित प्यासा क्यों? गधा उदासा क्यों?
लोटा न था।'
समीरजी
बहुत बढ़िया वापसी की है आपने। लोटा और लोटना जैसी भारतीय प्रवृत्तियों को पश्चिमी प्रवृत्तियों में बदलाव की सीरीज में उम्मीद करूंगा भारत से बदलते इंडिया के लगभग पूरे दर्शन हो जाएंगे।
आपकी वापसी का इंतज़ार था।
लोटे को वहीं लोटने दो हमें तो खुशी है पड़ोसी पड़ोस में लौट आया।
लोटे के साथ लौटने की अदा भायी। कई लोगों को सीने पर साँप लौट गया होगा आपके लौट आने से और कई खुशी से लोट-पोट हो रहे होंगे।
स्वागतम् स्वागतम्
दुबारकम् दुबारकम्
स्वागत ....है
मुझे तो लगा आपका चिट्ठा अब इतिहास का हिस्सा हो जाएगा. लेकिन यह लोटे के साथ वर्तमान हो गया. लोटा भी कहीं नहीं जाएगा. लौट आयेगा किसी दिन आपकी तरह.
आज अभी जब हमने अपनी कल की गोवा कि पोस्ट पर आपकी टिप्पणी देखी तब बहुत आश्चर्य हुआ पर ये समझते देर नही लगी कि उड़नतश्तरी वापिस आ गयी है। :)
बहुत-बहुत स्वागत है।
अच्छा जी बहुत हुआ लोटा पुराण..
आप कहियेगा की स्वार्थी है पर जब अब आप ही गये हैं तो जल्दी से मेरे बिलौग पर टिपियाइये.. आपके टिप्पणी के बगैर मेरा ब्लौग अकुला रहा है..
आप की टिप्पणी देखी लगा की ये कैसे क्या वापस लौट गये बिना मिले..? फ़िर सो़चा जरा उडन तस्तरी पर ही कुछ छपा हो देख ले..और लौटा देख कर लगा की आप लौट आये पर ये क्या आप्तो लौटने के बजाय लौटा ढूढते फ़िर रहे है..वो जमाने हवा हुये जी जब खलील खा तीतर उडाया करते थे वो भी अब चीनी पलास्टिक वाले तीतर लिये टहलने निकलते है जी..
अरसे बाद लौटे। स्वागत है। लोटे पर नजर गई, इसी से लगता है कि आप बदलाव को कितनी पारखी नजर से देख रहे हैं। वाकई छोटी-छोटी चीजें जीवन में कितने बडे बदलावों का संकेत दे जाती हैं।
आप तो ब्लॉग की इस छोटी सी दुनिया के महानायक बन चुके हैं
लौटे भी तो लौटे के लिए. ऐसा भी क्या लौटना :)
कहाँ कहाँ दिखी विकास की बोतल गाथा, अगली पोस्ट की प्रतिक्षा है. हनिमून खत्म हुआ हो तो लिखना जारी करें :) सुना सुना सा लगता है.
भाई समीर जी
तीन माह के लंबे अंतराल के बाद आपकी पोस्ट देखकर मुझे बहुत खुशी हुई है और आशा ही नही वरन पूर्ण विश्वास है कि आपकी पोस्ट नियमित रूप से हम सभी को पढ़ने को मिलती रहेगी | आज सुबह आपसे दूरभाष पर मुलाकात और शाम को आपकी पोस्ट देखकर बहुत प्रसन्नता हुई है | लोटा युग पढ़कर बहुत अच्छा लगा वैसे कई जगहों मे आज भी कई जन लोटे का उपयोग करते देखे जा सकते है | जबसे बोतल का प्रचलन बढ़ गया है और हर किसी के हाथ मे बोतल दिखती है पानी के साथ किसी अन्य पेय पदार्थ की भी हो सकती है हाँ बोतल के अन्दर क्या है यह बाहरी आदमी को क्या मालूम | यदि आदमी मैदान के किनारे बोतल लेकर जाता है तो क्या मालूम वह दिशादर्शन करने गया है या किनारे जाकर दो घूट सरकाने गया है | भाई बोतल भी बड़ी रहस्यमयी चीज हो गई है | बहुत सुंदर पोस्ट आभार
अच्छा लगा आपको चिट्ठाजगत में वापस आया देखकर.स्वागत!!
लोटा लेकर लौटना अच्छा है.
शुक्र है आप आये तो...
लौटा ना लाये कोई बात नही...:)
आप लौट आये यह क्या कम बात होगी
"आप आए बहार (कमेंट्स/पोस्ट की ) आई.
कभी हम आपको कभी अपने
कमेन्ट विहीन ब्लॉग को देखते है."
आपका तहे दिल से स्वागत है
"आप आए बहार (कमेंट्स/पोस्ट की ) आई.
कभी हम आपको कभी अपने
कमेन्ट विहीन ब्लॉग को देखते है."
आपका तहे दिल से स्वागत है
लौटे की तो लुटिया डूबे कई बरस हो गए बन्धु....
मोबाईल और इंटरनैट के ज़माने में लौटा शोभा भी कहाँ देता है?...अब कम से पर्दा तो रहता है कि बन्दा कहाँ जा रहा है और कहाँ नहीं...लेकिन आपकी पारखी नज़रों ने ये भी ताड ही लिया:-)
रही बात नौकर से पानी मंगवाने और चाय बनवाने की लो लगे हाथ उसी तंख्वाह में उसी के हाथों हमारे चिट्ठों पर भी टिपिया लेते ....
लोटा के साथ गगरी भी तो प्लास्टिक की हो गयी... अब पनघट पे नंदलाल को मटकी फोड़ने को नहीं मिलती... वैसे ये सब भगवान् की लीला है... आप भी मेरी तरह कल्कि अवतार का इंतज़ार कीजिये :-) और भगवान् की लीला में रूचि हो तो यहाँ टिपण्णी कर दीजिये. http://ojha-uwaach.blogspot.com/2008/01/blog-post_31.html
जे हुई ना उड़नतश्तरी की "कम बैक" वाली पोस्ट!!
लोटे की महिमा अपरंपार है जी,पर अब अपरंपार वाली चीजे सिर्फ़ बातों में ही रह गई हैं।
अऊर ऊ सब तो ठीकै हौ गुरुजी पन जे बताओ कि इत्ते दिन के कमेंट्स को कैसे निपटाओगे ;)
'बोतल' के असर से कभी-कभी पूरा घर गायब हो जाता है. यहाँ तो केवल लोटा गायब हुआ है...........:-) आप आ गए हैं तो लोटा ससुरा भी वापस आ जायेगा.
देर हुई आने में तुमको, शुक्र है लेकिन आये तो
आस ने दिल का साथ न छोड़ा, वैसे हम घबराये तो.
समीर जी
लोटा पुराण पढ़ के हम लौट पोट हो गए...देखा की आप की एक पोस्ट पर इतनी टिप्पणियां आयीं हैं जिनती सारे ब्लोगरों की पोस्ट पे मिल कर नहीं आतीं बिचारे लोग कितने प्यासे थे आप की पोस्ट के लिए. अभी कनाडा पहुँच गए हैं या भारत में ही हैं. मुम्बई में समय अभाव ने जी भर के मिलने नहीं दिया...ये कमी कभी कस के पूरी करने की चाह है...
नीरज
समीर जी,
कई बार आपके ब्लाग पर आया ...कुछ नया ना पाकर मालूम हो गया की अभी भारत से वापसी नहीं हुई है...बहुत दिनों से कलम मानो रूकी सी हुई है....अब शायद देखो फ़िर से चल पड़े...स्वागत है आपका ...बधाई
sameerji
paani lote se peete the to lota hi haath lagaa ab jis bartan (bottle) se paani piyaa use hi saath rakhenge naa. Bottle hi lottle hai.
mahendrasinh
lota paschimikaran ki aandhi mein ludhak gaya. Be paindi ka tha na.
kai baar apke blog par aayi,kuch naya nahin dikha,pahli baar mahsoos hua ki jaise kisi se baat karne ki aadat hoti hai usi tarah ek antral par log padhna bhi aadat hoti hai ,soona soona sa lagta hai.
lote ka vivran padhkar maza aya,waise lote ke gayab hone ka ek bada kaaran maidano ka gayab hona bhi hai.
आपका वापसी पर स्वागत । आपकी टिप्पणी के बिना ब्लॉग लेखन अधूरा सा था । आप को लोटा मिले न मिले चिठ्टाकारों को आप की जरूरत है ।
bhai sahab
mulaakat kab sambhav hai
are kehan hai aap, lota mila ki nahi abhi tak
आज परिकल्पना पर आपकी सुखद उपस्थिति देखकर प्रसन्नता की अनुभूति हुई . किसी ने बताया कि आप उत्तरप्रदेश में भी विभिन्न शहरों की यात्रा पर थे , मगर लखनाऊ आए कि नही यह ज्ञात नही हो सका . खैर ब्लॉग पर आपके पुन: आगमन का स्वागत है !
समीर जी ,आभासी दुनिया में फिर से आपका हार्दिक स्वागत है। लोटे या बोतल किसी में भी भारत की मधुकरी का इन्तज़ार है।
आपका फिर से स्वागत है.. भाई साहब।
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Bahut khub ! badhai
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