सुबह सुबह संदीप का फोन आया. कल रात उसके पिता जी को दिल का दौरा पड़ा है. अभी हालात नियंत्रण में है और दोपहर १२.३० बजे उन्हें बम्बई ले जा रहे हैं. वैसे तो सब इन्तजाम हो गया है मगर यदि २० हजार अलग से खाली हों तो ले आना. क्या पता कितने की जरुरत पड़ जाये? निश्चिंतता हो जायेगी. मैने हामी भर दी और कह दिया कि बस पहुँचता हूँ.
स्टेशन घर से आधे घंटे की दूरी पर है, फिर भी आदात के अनुसार मार्जिन रख कर सवा ग्यारह बजे ही स्कूटर लेकर निकल पड़ा.
चौक पार करने के बाद रेल्वे फाटक आता है. वहाँ गेट बंद मिला. छोटी लाइन की कोई ट्रेन गुजरने वाली है. शायद चार पाँच मिनट बाकी हो आने में. मगर लोग निर्बाध गेट के नीचे से अपने स्कूटर, साईकिल तिरछा करके झुककर निकले जा रहे थे. मानो कोई चार पाँच मिनट भी नहीं रुकना चाहता. फिर गेट बंद करने का तात्पर्य क्या है. अजब लोग हैं. जब घर से निकलते हैं तो कुछ समय तो अलग से क्यूँ नहीं रखते इस तरह की बातों के लिये. क्या पा जायेंगे कहीं पाँच मिनट पहले पहुँच कर?
कुछ तो सिद्धांत होने चाहिये.कुछ तो नियमों का पालन करना चाहिये.
इसी तरह के सिद्धांतवादी विचारों में खोया, मैं स्कूटर के हैंडल पर एक हाथ में अपनी ठुड्डी टिकाये मन ही मन अपने को जल्द निकल पड़ने की शाबाशी दे रहा था. अक्सर होता है ऐसा कि अपना सामान्य कार्य भी दूसरों की बेवकूफियों की वजह से प्रशंसनीय हो जाता है.
बाजू में आकर एक कार खड़ी हो गई. मैने कनखियों से देखा तो किसी संभ्रांत परिवार की कोई कन्या गाड़ी का स्टेरिंग थामे बैठी थी. उसके सन गॉगेल उसके तरतीब से झड़े रेशमी बालों पर आराम से बैठे थे मेरी ही तरह, निश्चिंत. मगर कन्या के चेहरे पर गेट बंद होने की खीझ स्पष्ट दिखाई दे रही थी. बार बार घड़ी की तरफ नजर डालती और फिर खीझाते हुए गेट की तरफ, पटरी पर जहाँ तक नजर जा सके, नजर दौड़ा लेती.
उसके चेहरे को देखकर मैं दावे से कह सकता हूँ कि अगर वो स्कूटर पर होती तो पक्का स्कूटर झुका कर निकल जाती. वो मात्र कार की मजबूरीवश रुकी थी और बाकी स्कूटर, साईकिल वालों को निकलता देख खीज रही थी. उसका सिद्धांतवादी होना मात्र मजबूरीवश है वरना तो कब का निकल गई होती. यह ठीक वैसे ही जैसे कितने ईमानदार सिर्फ इसलिये ईमानदार हैं कि कभी बेईमानी का सही मौका नहीं मिला.
इस बीच ट्रेन की सीटी दूर से सुनाई पड़ी. उसका चेहरा कुछ तनाव मुक्त सा होता दिखाई पड़ा. ट्रेन नजदीक ही होगी.
गेट के दोनों ओर भरपूर भीड़ इकट्ठा हो गई.
कुछ ही पलों में ट्रेन आ गई. एक एक कर डब्बे पार होने लगे. लाल हरे नीले पीले कपड़े पहने यात्रियों से भरी रेल. धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी.
उसकी कार ऑन हो गई. मैने भी बैठे बैठे ही स्कूटर में किक मारा और चलने को तैयार हो गया.
एकाएक आधी पार होने के बाद ट्रेन रुक गई. पाँच सात मिनट तक तो कुछ पता चला नहीं, फिर पता चला कि इंजन में कुछ खराबी हुई है. जल्द ही चल देगी.
स्कूटर बंद. कार बंद.खीज के भाव कन्या के चेहरे पर वापस पूर्ववत.
समय तो जैसे उड़ने लगा. देखते देखते ३० मिनट निकल गये. अब तो झुक कर भी नहीं जाया जा सकता था. एक तो ठसाठस भीड़ और उस पर से बीच में खड़ी ट्रेन. इन्तजार के सिवाय और कोई रास्ता नहीं. पीछॆ मुड़ना भी वाहनों की भीड़ से पटी सड़क पर संभव नहीं.
जिस खीज के भाव का अब तक मैं कन्या के चेहरे पर अध्ययन करके प्रसन्न हो रहा था, वही अब मेरे चेहरे पर आसन्न थे.
क्या सोच रहा होगा संदीप? खैर, अभी भी थोड़ा समय है, पहुँच कर समझा दूँगा.
४०-४५ मिनट बाद ट्रेन बढ़ी. गेट खुला. दोनों तरफ से टूट पड़ी भीड़ से ट्रेफिक जाम. किसी तरह उल्टी तरफ से निकलते हुए जैसे ही मैं स्टेशन पहुँचा, ट्रेन सामने से जा रही थी. आखिरी डिब्बा दिखा बस!!
मैं सोचने लगा कि इससे बेहतर तो मैं गेट के नीचे से ही निकल पड़ता. आखिर, जब मजबूरी में फँसा तब उल्टी ट्रेफिक में घुस कर निकला ही. कौन सा ऐसा तीर मार लिया सिद्धांतों को लाद कर. विषम परिस्थितियों में भी सिद्धांतों का पालन करता तो कोई बात होती. सामान्य समय में तो कोई भी कर सकता है. सिद्धांतवादी होना सरल नहीं है.
बाद में पता चला कि संदीप के पिता जी नहीं रहे. बम्बई में ही उन्होंने दम तोड़ दिया. उनके बड़े भाई का परिवार वहीं रहता था तो अंतिम संस्कार भी वहीं कर दिया गया. संदीप ने मुझसे फिर कभी बात नहीं की. मुझे बतलाने का मौका भी नहीं दिया कि क्या हुआ था.
काश, मैं उस वक्त अपने सिद्धांतों को दर किनार कर गेट से नीचे से भीड़ का हिस्सा बन निकल गया होता, तो संदीप आज भी मेरा दोस्त होता.
सोमवार, नवंबर 05, 2007
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40 टिप्पणियां:
सोचने पर मजबूर कर दिया आपने.
"विषम परिस्थितियों में भी सिद्धांतों का पालन करता तो कोई बात होती. सामान्य समय में तो कोई भी कर सकता है. सिद्धांतवादी होना सरल नहीं है."
बहुत सही कहा है आपने।
"छोटी लाइन की कोई ट्रेन गुजरने वाली है" आपने जबलईपुर की याद दिला दी।
पढ़कर बड़ा दुख हुआ लगता है घटना काफी पुरानी है लेकिन इस बात से महत्व कम नही हो जाता आपकी बातों का। ईमानदारी पर आपने बहुत सही कहा, इसी पर मेरे ये दो सेंट, कम से कम ९० प्रतिशत लोग तो कभी ना कभी चोरी करते हैं लेकिन जो कभी नही पकडे जाते वो ईमानदार होते हैं।
जिंदगी के आगे सारे नियम छोटे होते हैं। मुझे एक बार फिर आपके संस्मरण से इस बात का यकीन हो गया।
सिद्धांतों का इम्तिहान विषम परिस्थियों में ही होता है.लेकिन बिना 'पोलिटिकली करेक्ट' हुए कहा जा सकता है कि ऐसी परिस्थियाँ विषम नहीं होतीं...स्कूटर लेकर तुरंत घर से निकलना भी तो एक सिद्धांत था, जिसका पालन करना था...
इसी विषम परिस्थियों में सिर नीचा करके सिग्नल से न निकलना शायद सिद्धांत नहीं था....
लचीला होना चाहिये आदमी को पर इतना भी नहीं कि थाली का बैंगन हो जाय.. इस स्थिति में आप की बात सही लग रही है.. किसी अन्य स्थिति में शायद न लगे.. तो सिद्धान्त को न लादने को भी एक सिद्धान्त की तरह न देखा जाय..
समीरभाई
जिस घटना के साथ सिद्धांत का जिक्र आपने किया है वहां सचमुच सिद्धांत का पालन संकट में डाल देता है। लेकिन, वो सिद्धांत झूठे हैं। ये कहकर आप खुद को और सिद्धांतों के रास्ते पर चलने वाले दूसरे लोगों को भी सिद्धांत से नमस्ते करने को कह रहे हैं जो, बिल्कुल सही नहीं है।
बहुत ही दुखद संस्मरण बताया आपने. सोचनीय भी है. किंतु रघुराज जी की बात सही जान पड़ती है. जिंदगी के आगे सभी नियम,सभी सिद्धांत छोटे होते है. किंतु इस बात को सत्य ना समझे और ना ही दिल भारी करें की आपके समय पर ना पहुँचने के कारण ही आपके मित्र के पिताजी चल बसे.
आप बच्चों को उलटी राह डाल रहे हो :)
काश ,संदीप आप की परिस्थिति से अवगत होने के बाद दोस्ती को बरकरार रख पाते ।
टची!!
वाकई मुश्किल वाले हालात, उलझन हो जाती है ऐसे हालात में पर शायद ऐसे समय मे सिद्धांतों की बलि दे देना ही ठीक रहता है!!
आपात परिस्थितियों में नियम कायदे सिद्धांत सब दरकिनार हो जाते हैं शायद!!
काकेश जी की तरह मैं भी सोच मे हूँ.... आप कहते तो सरल बात है लेकिन अर्थ बहुत गहरा होता है. चिंतन में डाल दिया आपने.
मानव सोच का अच्छा चित्रण किया।
बन्धु सामान्य दिनों में तो उसूलों की बातें कोई भी कर लेता है। विषम परिस्थितियाँ ही वो छ्लनी है जहाँ सच और झूठ अलग हो जाता है।
संजय गुलाटी मुसाफिर
सिद्धान्तवादी होने का दावा करना आसान है, पर सिद्धान्तों को निभाना बडा कठिन है। कभी-कभी समय के साथ या विपरीत परिस्थितियों में समझौता कर लेना चाहिये अब लग रहा है।
excellent piece of wirting sameer and i would have done "मैं उस वक्त अपने सिद्धांतों को दर किनार कर गेट से नीचे से भीड़ का हिस्सा बन निकल गया होता "
koi bhi sidhant samay se badda nahin hota hae
रेलवे फाटक बनाए ही
इसलिए जाते हैं कि
कोई उन्हें
वक्त-बेवक्त पार करे।
नियम बनाए ही
इसलिए जाते हैं
तोड़ने की तसल्ली
तो हासिल हो।
भावनाओं को शब्दों में पिरोने की आपकी कला सराहनीय है। यदि आपका ये संस्मरण संदीपजी पढ़ लेंगे, तो आपको दिवाली गिफ्ट के रूप में दुबारा दोस्ती नसीब हो सकेगी, यही मंगलकामना है मंगलम् की।
सिद्धांतों की राह आसान नहीँ... काफी हद तक व्यक्तिगत व सांसारिक समबन्धों पर असर होता है। दोनों बातें कभी पूरी नहीँ होंगी। यह लगभग अव्यक्त नियम जैसा ही है। यदि सम्बन्ध प्राथमिक हैं तो सिद्धांतों को ठेस पहुँचेगी ही व इसका विपरीत भी सत्य है। राजा हरिश्चन्द्र की कथा तो इसकी चरम सीमा का उदाहरण है ही।
कहना तो नही चाहिए पर मुझे लगता है की हम सभी की जिन्दगी में लोग तो आते ही हैं जाने के लिए. अगर हम जाने वालो का ही शोक करते रहेंगे तो उनका मुस्कुरा कर स्वागत कैसे करेंगे जो हमारी जिन्दगी में आने वाले हैं? दुःख तो होता है किसी के जाने पर, लेकिन अगर आप को लगता है की आप सही हैं तो कम से कम आप की नजर तो नहीं झुकेंगी.
मार्मिक. धर्मसंकट वाला प्रश्न तो है ही. पर शायद आपकी जगह मैं रहता तब मेरी भी यही हालत होती आपको पढकर एक अज़ीब सी सच्चाई से सामना होने लगता है.
मार्मिक, आप घणे फिलोसोफर होते जा रहे हैं, अच्छा है। इस उम्र में यही शोभा देता है।
यह दृष्टांत बड़ा कठिन है समझाना स्वयम को। ऐसे 'काश' वाले बहुत से पहलू हैं जीवन के। मैं अगर बीएमान होता और पैसे होते मेरे पास तो मेरे बाबा कष्त वाली मौत न मरते - मेरे अपने हाथों में। पर वही मुझे ईमानदारी सिखाने वाले व्यक्ति थे।
लेवल क्रासिंग पर भीषण दुर्घटनायें होती देखी हैं नियमों की अवहेलना करने से। एक बार स्कूटर नीचे से निकालने से वर्जना टूट जाती है। फिर आप जीवन में कौन सा नियम कहाँ तोड़ते हैं - आप स्वयम कल्पना नहीं कर सकते।
हर एक व्यक्ति को अपनी नियम रेखा स्वयम बनानी पड़ती है।
यह तो मेरे कर्मक्षेत्र की पोस्ट थी और मैं आज नेट के न चलने से सवेरे देख नहीं पाया - क्या संयोग है1
सोचना पड़ेगा !
बहुत सुंदर प्रस्तुति समीर भाई ,ईमानदारी पर आपने बहुत सही कहा. आपकी बातों को बांचते -बांचते जसपाल भट्टी का वह व्यंग्य याद आ गया अचानक ,जिसमें उसने कहा है की - आज के समय में ईमानदार वही है जिसे या तो मौका नही मिला या फ़िरवह कभी पकडा नही गया !क्या बात है पढ़कर मजा आ गया .
बहुत सुंदर आपकी रचना ओर उसमे लगी फ़ोटो ने छोटी लाइन फाटक जबलपुर की याद जीवित कर दी है इस प्रकार का माहौल यहाँ हमेशा देखने को आसानी से मिल जाता है | मुझे इस बात की ख़ुशी है की आप दूर रहकर भी बहुत पास है |
समीर जी, दोस्ती इस तरह से खतम नहीं होती, आज भी मौका है।
वैसे इस उहापोह का एक ही उपाय सूझता है, परिस्थितियों के हिसाब से नियम का पालन करना चाहिये क्योंकि न जाने इस नियम के चलते कितने ही संदीप एक याद बन जाएँ।
ह्रदयस्पर्शी घटना लिखी आपने।
इसीलिये अब ओवरब्रिज बनने लगे। कैसा दोस्त है जो बात नहीं समझा!
कभी-कभी ऐसे दुख:द पल आते हैं जिन्हें आदमी भूल नहीं पाता है.
दीपक भारतदीप
समीर जी,बात तो वाकय ही सोचने को मजबूर कर देती है कि हमारा रास्ता सही है या गलत...लेकिन यदि हमारी आत्मा जानती है की हम सही रास्ते पर हैं तो हम अपनी नजर में गिरने से तो बच जाते हैं।हाँ ...यह बात अलग है की इस की कीमत भी चुकानी पड़ जाती है..कभी-कभी...जैसा की आप के लेख से पता चलता है।
भाई साहब - आपसे किसने कह दिया कि सिधान्तो का पालन करना आसन है. बड़े त्याग कि जरूरत पड़ती है इस काम में, जो हम आम आदमी के बस कि बात नहीं है.
जहाँ तक रही इस घटना कि बात, तो यह तो जाहिर है कि हम अपने ही बनाये हुए नियमों का शिकार हो जातें हैं. ऐसा लगता है कि यह घटना तब कि है जब आप कि उम्र काफ़ी कम होगी, वरना समय के साथ इस बात का अंदाजा सबको लग जाता है कि कब किस चीज को कितनी मेहेत्वापूर्णता देनी चाहिए.
हैरानी कि बात यह है कि आपने अपने मित्र से फ़िर कभी बात करने कि कोशिश नहीं कि. मैं आपकी जगह होता तो स्टेशन से गाड़ी के छूटने के बाद, शायद अपने मित्र के घर एक बार जरूर जाता यह देखने के लिए कि उनको भी ट्रेन मिली या नहीं और यह देखने के लिए कि कहीं कोई और तरीका तो नहीं अपने मित्र से सम्पर्क करने का.
पर कम उम्र में हमसे ऐसी कई गलतियाँ हो जाती हैं ... अब भी आप शायद अपने मित्र से सम्पर्क कर सकते हैं ... यदि आपको यह बात अभी भी सता रही है तो यही एक तरीका है
समीर जी बड़ी दुखद घटना है ये तो समझ नहीं आता क्या लिखा जाये बस इतना ही कहना चाहूँगी कि काश ! आपके दोस्त के सर पर उनके पिता का साया बना रहता और आपकी दोस्ती भी अब सिद्धान्त शायद ऐसी परिस्थिति में ताक पर ही रखने पड़ते हैं गलत है या सही पता नहीं ...
namaskaar ji
aapki pratrikriyaa padhkar achchha laga
dhanyawaad
Samir ji...mere pass ab shabd nahi bache hain hai,.....lekin aap sahi the....
पता नही कैसे मै इस पोस्ट से चूक गया। अभी गूगल मे घूम रहा था तब अचानक दिखी। माफ करे देरी के लिये।
मर्मस्पर्शी घटना लिखी आपने पर यह भी जानिये कि जो होता है अच्छा होता है। यदि आपके दोस्त ने आपकी मजबूरी नही समझनी चाही तो ऐसा दोस्त किस माने का। आपने तो व्यक्त कर प्रायश्चित कर लिया अब दिमागी हार्ड डिस्क से इसे हटा दे।
सच में बडी खीज उठती थी पहले रेल पर ऐसे मौकों पे...अब नहीं
अब खुद ही डेली पैसैंजर हूँ भारतीय रेल का ...
अब इसका उल्ट है...
कई बार इस रोज़मर्रा की आपा-धापी में फाटक खराब होने की वजह से ग्रीन सिग्नल नहीं मिलता और ट्रेन को आउटर पर रोक दिया जाता है...
तब यात्रियों को इन फाटक पार करने वालों को सौ-सौ गालियाँ देते हुए देखता हूँ तो वही पुराने दिन अनायस ही याद आ जाते हैँ
खैर...गल्तफहमी की वजह से जो आपके साथ हुआ..गल्त हुआ....कुछ चीज़ें अपने हाथ नहीं होती
"तो संदीप आज भी मेरा दोस्त होता"
सच है, लेकिन कई बार निर्णय लेना बहुत कठिन कार्य होता है.
उम्मीद है कि दोएक दिन में आप मप्र में होंगे. मैं वापस अपने घरू-द्फ्तर में पहुंच गया हूँ -- शास्त्री
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है.
इस काम के लिये मेरा और आपका योगदान कितना है?
very thought provoking sir! beautiful!
अति सम्वेदंनशील हो गये है आप समीर भाई. आप ऐसी ही बने रहें यही कामना है.
बहुत सही आपने- कितने ईमानदार सिर्फ इसलिये ईमानदार हैं कि कभी बेईमानी का सही मौका नहीं मिला.
आपने जिंदगी की गांठों को एक प्रसंग के बहाने जिस सरलता से खोल कर विवेचित किया है, वह काबिले तारीफ है। बधाई स्वीकारें।
बहुत दिनों बाद इधर आने का मौका मिला...
संदीप आज आपका दोस्त नहीं, ये इस रिश्ते का अंतिम सच नहीं। आप अपने रिश्ते के प्रति निष्ठावान रहे... इस रिश्ते के प्रति ये आपका योगदान था। पिता की मौत के अवसाद से उपजा संदीप का निर्णय समय का योगदान था... यकीन मानिये रिश्तों के प्रति आपकी सहजता और संवेदनशीलता का योगदान अभी इस रिश्ते में बाकी है। ... संदीप किसी न किसी किसी मोड़ पर आपको एक सहज दोस्त के रूप में मिले, यही मेरी शुभकामना है।
विषयांतर
... अच्छा, ये बताइये... मुम्बई आने के लिए कनाडा से आप स्कूटर से निकले हैं क्या ? सवारी अभी तक पहुंची नहीं!!!
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