वो जो है न!! वो ख्वाबों की रहस्यमयी दुनिया में भटकने वाला, यथार्थ से दूर चाँद तारों में अपनी माशूका को तलाशता, हवाओं मे संगीत लहरी खोजता. उसे बासंती झूलों में प्रेयसी के संग प्रेम गीत गुनगुनाते हुए पैंग मारना पसंद है. उसे सागर की लहरें भाती हैं, फूलों की खुशबू लुभाती है.वो हरियाली को निहारता है- वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो अपने लेखन सृजन से मुदित मुस्कराता है. खुश होता है.
वो जो है न!! वो लिखता है-संभल संभल कर, शब्द चुन चुन कर ताकि लोग उसे पढ़े, पसंद करें. वो अपनी बातों को न जाने कितनी कसौटियों में कसता है, तब कहता है, बिल्कुल बनावटी. हर वक्त एक ही चाह, उसकी वाह वाही हो. वो और लिखे. उसे वो लिखना होता है जो औरों के मन को भाये.
वो जो है न!! वो समाज पर पैनी नजर रखता है. दिन में सोता और रातों को जागता है. उसे रह रह कर अपने गुजरे वक्त की सुनहरी यादें सालती हैं और वो उन्हें सहेज सहेज कर सजाता है कभी कविता के माध्यम से तो कभी लेखों में परोसने के लिये.
मैं एक जिंदा आदमी हूँ और जिन्दा रहने की मशक्कत वो क्या जानेगा.
मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
कोल्हू से उठती यही ध्वनि मेरा संगीत है. मुझे जिन्दगी की आपा धापी में इतना समय ही कहाँ कि मैं उन पलों को सोच भी सकूँ जिनको मैं इतना पीछे छोड़ आया हूँ. उनकी सुहानी यादों में खो जाऊँ. हवाओं के गीत सुनूँ. हरियाली को निहारुँ. लिखने-परोसने का तो प्रश्न ही नहीं. कभी यादें आ भी जाती हैं तो इतनी क्षणिक कि झटक देता हूँ उन्हें. मेरा हर कदम इसी उद्देश्य से उठता है जो मेरे परिवार से जुड़ा है मैं तो बस:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
का संगीत सुन चल चल के दिन भर में थक जाता हूँ. मैं सावन के झूले से गिरने का भय पाले अपने इस कमरे में दुबका बैठा, दिन भर की थकन से टूटा कुछ पल विश्राम के तलाशता.हार कर रात को बिस्तर पर जो गिरा कि सुबह उसी करवट उठता हूँ अगले दिन फिर से उसी कोल्हू में पिर जाने को. मुझे रातों को यादें नहीं घेरतीं, न कोई स्वपन जगाता है.
यह सब उसके साथ ही होता है जो वो है-वो कवि है, शायद गीतकार या सिर्फ एक लेखक.वो मैं नहीं हूँ.
मगर मुझे वो अच्छा लगता है. लगता है कि वो मैं हूँ. वो जिन्दा रहे, यही मेरी चाहत है.
उसे जिन्दा रखने के लिये कुछ देर को और सही, मैं सुन लूँगा:
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
वो मेरा प्रिय है. वो बना रहेगा तो मैं बना रहूँगा.
मगर वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ.
रविवार, अक्तूबर 14, 2007
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40 टिप्पणियां:
भावुक !
मगर मुझे वो अच्छा लगता है. लगता है कि वो मैं हूँ. वो जिन्दा रहे, यही मेरी चाहत है.
यही हमारी भी चाहत है।
लगभग हर चिट्ठाकार ऐसी भावनाओं से होकर कभी ना कभि गुजरता होगा। इन्हें अपने शब्द देने का शुक्रिया !
आपने तो चक्कर मे डाल दिया। गोल-२ घूम रहा हूँ अभी इस पोस्ट के चारों तरफ़ , कुछ अपनी जिन्दगी को भी करीब से देखता हुआ कि हाँ , हम कोल्हू के बैल की ही तरह तो लगे हैं और छोडिये कहाँ आपने मुझे चक्कर मे डाल दिया :)
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
जिंदगी की चकरघिन्नी में हम सब ऐसे ही जुते हैं.....
दरअसल में चक्कर तो हमारी नियति है क्योंकि पृथ्वी सूरज चांद सितारे सभी की किस्मत में चक्कर ही लिखे हैं । कर्ह बार हम किसी जगह पर पहुचते हैं तो ऐसा लगता है कि अरे यहां तो हम पहले भी आ चुके हैं और फिर पता लगता हे कि हम जीवन थोड़े ही जी रहे हैं हम तो चक्कर काट रहे हैं । चक्कर अपनी ही धुरी के चारों ओर । कोई नहीं जानता कि हमें कब तक चक्कर काटना है और हम कब से चक्कर काट रहे हैं । जीवन को हम जीते ही कब हैं । हम तो केवल चक्कर ही काटते हैं और इन सब में कभी कुछ ऐसे आ जाते है जोकि चक्कर काटने से इंकार कर देते हैं और बाकायदा जीवन जीकर जाते हैं और जब ऐसे कुछ लोग आ जाते हैं जो चक्कर काटने की जगह जीवन को जी के जाते हैं तो उनको ही लोग बुद्ध गांधी या कृष्ण कह देते हैं । हम तो ये तय कर ही चुके हैं कि हमे ना तो गांधी बनना है और ना ही बुद्ध तो फिर चक्कर तो काटना ही है । हालंकि ये चक्कर भी एक आनंद तो देते ही हैं गति को आनंद जो कि हमें भुला देती है कि हम ते वास्तव में चक्कर काट ही रहे हैं कहीं नहीं पहुचने वाले । और वे जो चक्कर काटने से मना कर देते हैं वे कहीं न कहीं तो पहुच ही जाते हैं । मगर हम क्या करें अब हम ब़द्ध की तरह या गांधी की तरह अपने परिवारों को नहीं छोड़ सकते क्योंकि वो भी हमारी जिम्मेदारी हैं ।
आपने इंसान के मुख पर लगे उस मुखौटे को उतार फेंका है,जिसकी वजह से वह सच को सच कहने से बचता है। और अधिकतर सभी चिठ्ठाकार गजल,गीत,और शेरो-शायरी के बीच अपनी जिम्मेदारियों को भूल जाते हैं। किसी ने ठीक ही कहा है "और भी गम हैं,जमाने में मोहब्ब्त के सिवा"।
ज़िंदा रहने की ये मशक्कत भी अच्छी है.
पारिवारिक प्रतिबद्धताओं को निभाने वाले कोल्हू के बैल को आदर भरा नमस्कार.. और भावुक कलाकार को प्यार दुलार पुचकार..
ह्म्म्म... ऐसा क्या!
दो शख्श, मल्टिपल पर्सानिटी, अन्दरूनि संघर्ष, जिजीविषा, लगन, प्रतिभा, लडाई, बोझ, भावुकता, परिवार...
स्थिति गम्भीर है. कोई ईलाज नही है.
लगेगी! लग रही है.
तो ये आप हैं. बड़े भावुक मन से लिखा है.
काश! मैं भी लिख सकता की ये जो टिप्पणी कर रहा है, वो मैं नहीं हूँ. फिर मैं कौन हूँ?
भई वाह वाह आज तो नया रंग है, नया ढंग है।
"मगर वो जो लिखता है न!! वो मैं नहीं हूँ."---- बिल्कुल सच है. लेकिन जो मैं हूँ वो दिखता नहीं है या दिखाना सही नहीं क्योंकि हम इस चक्कर मे चरमर चरमर करते हैं कि कोई इस चक्कर में पड़ कर चोट न खा जाए.
"कभी यादें आ भी जाती हैं तो इतनी क्षणिक कि झटक देता हूँ उन्हें" झटकने की बजाए आनन्द लीजिए फिर कोल्हू का बैल बन जुट जाइए.
पढ़ के हम भी गोल गोल घूम गए [:)] बहुत ही भावुक कर देने वाली रचना है यह
अच्छा लगा इसको पढ़ना ..
एक चक्कर, दो चक्कर
चरमर चमर च्यूँ चमर .......
गुरूदेव आपका नाम तो चिंतामणी होना चाहिये था...अद्भुत लेखन है भावुकता से ओत-प्रोत...मेरी कविता में अशुध्दियाँ बताने के लिये मै आपकी आभारी हूँ
सुनीता(शानू)
वो कौन है...भावुक, अनाडी और जिद्दी...कहीं भी कभी भी...कोई अनुशासन भी नहीं...
इसे काबू में करने के उपाय लिखें।
समीर जी लिख आप रहे हैं, भाव हमारे मन के हैं। कोई टेलीपैथी सीख लिये हैं क्या?
हमें तो पहले बोझ लगता था, पर अब कर्तव्यों के कोल्हू से प्यार हो गया है।
बहुत सुन्दर लिखा है।
"मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:"
आपने सच और सिर्फ़ सच कहा. भावुकता में बहा दिया.
लेकिन इस कोल्हू का बैल बनकर जीने में भी एक रस और अद्भुत आनंद है.और अगर कुछ कमी भी है तो उसका बड़ा भाग आपलोगों के सम्पर्क मे आकर दूर हो गया है.
पर जो लिखता है वह कौन है....यह फोटो किसकी है
सचमुच दिल को छू जाने वाली रचना।
मेरा परिवार मेरी धूरी है, जिसके इर्द गिर्द मैं कोल्हू के बैल की तरह सारा दिन घूमता हूँ. गोल गोल. कोल्हू से उठती आवाज ही मेरा संगीत है और चक्करों की संख्या मेरा लक्ष्य. जितने चक्कर काटूँगा, जितनी देर इन आवाजों को सुनता रहूँगा, उतनी देर अपने कर्तव्यों का पालन करता रहूँगा और परिवार के प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना ही तो मेरा कर्तव्य है:
हम सभी कोल्हू के बैल की तरह अपने-अपने चक्कर काट रहे हैं, अपने अपने कर्तव्य पूरे कर रहे हैं। सभी की यही कथा है।
भाई जी बस यही है अस्तित्ववाद की अन्धी दौड़। हम सभी हमेशा अपने अस्तित्व की रक्षा और उसे सिद्ध करने में ही लगे हुए है।
समीर जी,
बहुत सुन्दर लेख यथार्त से अति निकट.. एक गजल याद आ गई..
किसी रंजिश को हवा दो..कि मैं जिन्दा हूं अभी
मुझको एहसास दिला दो..कि मैं जिन्दा हूं अभी
शायद आदमी कवि, उपन्यासकार या कुछ और जो वो अपनी निजी जिन्दगी के अतिरिक्त है.. इसी लिये है कि वो क्या है ये भूलना चाहता है... पाऊडर लगा कर चेहरा चमकाने वाली कह लें या छुपाने वाली कह लें
स्पर्शी!!
निकलो , बाहर निकलो, ऐसे चिंतन भावुकता के सागर मे डूबा देते हैं!!
kafi gahari soch ha jo hakikat ke darvaje par dastak de rahi ha..sadhuvad..
बहुत जोरदार लिखा है. बधाई
दीपक भारतदीप
बहुत जोरदार लिखा है. बधाई
दीपक भारतदीप
समीर भाई, अद्भुत अभिव्यक्ति है। वैसे आपने एक नया विषय दे दिया जिस पर आगे कभी लिखूंगा कि बंधनों में ही मुक्ति है, उससे बाहर तो बस यंत्रणा ही यंत्रणा है।
अगर अपने ब्लोग पर " कापी राइट सुरक्षित " लिखेगे तो आप उन ब्लोग लिखने वालो को आगाह करेगे जो केवल शोकिया या अज्ञानता से कापी कर रहें हैं ।
लिखा तो बहुत संजीदा है - पर किसने?
एक बात और भी अब समझ में आ गयी। हम तो पहले ही कहते थे कि समीर भाई कोई साफ्टवेयर प्रयोग करते हैं स्वचालित रूप से टिप्पणी भेजने के लिये, वे स्वयं नहीँ लिखते। अब यह भी कह दीजिये न कि वह जो टिप्पणी करता है वह भी मैं नहीँ हूँ ;) कोल्हू वाला भी नहीँ, मैं भी नहीँ... कोई और ही!
दो ही है ना या तीन है? वो कौन है जो ट्रेन से जाता है और लोगो के मेकअप को बहते देखता है, या फिर वो कौन है जो बरसते मौसम मे कार मे झूमता है? आप समीर 'लाल' की जगह समीर 'सतरंगी' लिखा करे तभी आपके विविध रंगो को दुनिया जान पायेगी।
बहुत सुंदर और सारगर्भीत है आपका यह पोस्ट, नि:संदेह प्रसन्श्नीय है......!
कहने को मैं गीतकार हूँ लेकिन कलम हाथ में मेरे
देकर कोई और छंदमय रचनायें करवाता रहता
वह वंशी का वादक है या फिर जिसने सुर को झंकारा
कवियों में कवि, जो चिति में चिति, जो शब्दों का एक नियंता.
कभी उस कोल्हु के बैल से पूछेगे कि भैया ये चक्कर काट्ते काट्ते तू गिनती याद रखता है या अपने अंदर किसी कल्पना लोक में खो जाता है,पावं चलते हैं पर मन कहीं और कल्पना लोक में विचरण कर रहा होता है। अति सुन्दर रचना है समीर जी।
वो मैं नहीं हूँ. सच है ये शाश्वत प्रशन है बंधु आपने बहुत सही उठाया है. हम से जो करवाता है वो कोई और ही है हम ख़ुद नहीं हैं . बेहद खूबसूरत रचना.
नीरज
वो मैं नहीं हूँ. सच है ये शाश्वत प्रशन है बंधु आपने बहुत सही उठाया है. हम से जो करवाता है वो कोई और ही है हम ख़ुद नहीं हैं . बेहद खूबसूरत रचना.
नीरज
वो जो भी है, बहुत ही स्वार्थी, झूठा और धूर्त है। वह विचार, भाव और पीड़ा आपसे लेता है और अपने शब्द मात्र देकर वाहवाही लूटता है। उसका एक-एक शब्द झूठ होता है, और आपका एक-एक संघर्ष सच है। फिर भी आपको जानने के लिए हमें उसका सहारा चाहिए क्योंकि हमारे सामने तो वह ही है ना। - आनंद
एक भजन कि पंक्तियां हैं………:मन की तरंग मार दे,तो हो गया भजन" मगर मेरा मनना है की अगर तरंग ही न रही तो ना तो "ये" रहेगा ना ही "वो"। समीर जी …रचना मन को छू गयी……आभार
bahut khoob padhkar maja aa gaya,aapki lekhni me ek khasa vyang hai.
likhte rahe,comment bhale hi na kare ,padhte rahege.
bahut achha likha aapne.
एक गंभीर चिंतन सहज शब्दों में ...
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