आज ऐसे ही ऑर्कुट पर टहल रहा था. एकाएक कुछ स्क्रेप्स पर नजर चली गई. कुछ कवितायें टंगी थीं. बचपन की याद दिला गई.
बस सीडी में यह नज़्म लगाई और याद करने लगा:
"ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो,
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी.
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन,
वो कागज की कश्ती, वो बारिश का पानी."
गर्मी की छुट्टियाँ. तपती दुपहरी. घर की खिड़कीयों पर बंधी वो खस की टट्टियाँ. उस पर बार बार सिंचाई और उसके सामने रख कर चलता सिन्नी का काला वाला टेबल फैन. कितनी ठंडा हो जाता था कमरा. मगर बच्चों को कहाँ चैन. इधर माँ दुपहरी का काम निपटा कर कमर सीधी करने जहाँ आँख झपकाये, उधर सारे बच्चे घर के बाहर धूप में लगे खेलने. तब टीवी वगैरह तो होता नहीं था कि कार्टून देखने बैठ जाते.
याद आते हैं, कितनी तरह के खेल खेला करते थे.
कंचे, तरह तरह के रंग बिरंगे. आधे खरीदे और उससे ज्यादा जीते हुए. रोज रात में गिन कर रख कर सोते और सुबह उठकर फिर गिनते. साथ में होते कई सारे सुन्दर सुन्दर बंटे, जिनसे निशाना लगाते थे.
भौरां याने लट्टू-इसमें तो हमारी मास्टरी थी. बढ़ियां नुकीली आर वाला लट्टू बिना जमीन में छुलायें सीधे हाथ पर नचाते हुए गुद्दा खेला करते थे. न जाने कितनों की कितने लट्टू गुद्दा मार मार कर फोड़ने का विश्व रिकार्ड हमारे नाम जाता अगर इस खेल को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता मिली होती.
सतौलिया, सात पत्थर के चिप्स एक के उपर एक जमा कर उसे गेंद से फोड़ना और फिर भाग कर उन्हें जमाना जब तक दूसरी टीम के लोग आपको गेंद से मारने की कोशिश करते रह्ते थे. जैसे ही जम जाये-जोर से चिल्लाना-सतौलिया. हम्म!!
मार गेंद-इसमें एक दूसरे को गेंद से मारा जाता था. रबर की लाल गेंद. कई बार तो ऐसी चिपकती थी कि निशान ही बन जाये.
मेरे काफी बाद उम्र तक प्रिय रहा-टीप रेस याने छुप्पन छुपाई. क्यूँ प्रिय रहा यह नहीं बतायेंगे. पूरे मोहल्ले के लड़के लड़कियाँ खेला करते थे एक साथ.
गुल्ली डंडा-इस खेल में तो सारे दोस्त डरा करते थे हमसे. इसलिये नहीं कि मैं बहुत अच्छा खेलता था. मगर जितना भी सामने वाले को दाम देना पड़ जाये, जिसमें जो दाम देता है वो आपको कंधे पर लाद कर चलता है उतनी दूर जितनी दूर आपने गुल्ली मारी है, उसकी तो दम ही बैठ जाती थी. हमारा यह विस्तार आज का भर थोड़े ही है. हम हमारी उम्र के हिसाब से हमेशा ही मोटे थे और दुबले होने का आजीवन प्रयास इस बात का साक्षी है. जब से होश संभाला, हमारे मोटापे और दुबले होने के प्रयास, दोनों ने बराबरी से आजतक हमारा साथ निभाया है. जैसे कि अपने नेताओं का साथ मक्कारी और भ्रष्टाचार निभाते हैं.
और भी ढ़ेरों खेल होते थे जैसे गुलेल, खुद बनाते थे अमरुद के पेड़ (जबलपुर में हम उसे बीही का झाड़ कहते थे) से केटी काट कर और ट्रक की पुरानी गास्केट से ट्यूब निकालकर. निशाना ऐसा कि जिस काँच पर नाराज बस हो जायें.
फिर विष अमृत, नदी पहाड़ बाकि तो नाम भी याददाश्त से जाते रहे. याद है क्या वो जिसमे लंगड़ी कुद कर सात खाने कुदने होते थे चिप फेकने के बाद उसे लंगड़ी मे पार कराना होता था, मुझे तो नाम ही नहीं याद आ रहा. शायद एक्कड़ दुक्कड़ या अड़ई गुड़ई या जाने क्या..
क्रिक्रेट, फुटबाल, हॉकी, पतंगबाजी आदि तो आजकल भी बच्चे खेलते दिख जाते हैं मगर वो मेरे खेल कहाँ गये??
मेरे बीते बचपन के साथ ही वो भी दफन हो जायेंगे, अगर यह तभी पता चल जाता तो थोड़ा और खेल लेता. कुछ और गुद्दे मार लेता और कंचे तो आराम से और जीत ही ले आता.
अब पछताने से क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत. मगर इन कविताओं को तो अब भी सहेज सकते हैं. इसीलिये यहाँ पर दर्ज कर देता हूँ कि भले ही रोज नहीं, पर कभी कभी तो मेरे जमाने का कोई इससे अपना बचपन फिर से जी कर देख सके. आज के बच्चों का बचपन तो शायद इन कविताओं से विहीन होगा मगर हमारे समय के सभी हिन्दी भाषी बच्चों ने कभी न कभी इन कविताओं का पढ़कर या सुनकर लुत्फ जरुर उठाया होगा.
पोशम्पा भाई पोशम्पा,
सौ रुपये की घडी चुराई।
अब तो जेल मे जाना पडेगा,
जेल की रोटी खानी पडेगी,
जेल का पानी पीना पडेगा।
थै थैयाप्पा थुशमदारी बाबा खुश।
************
आलू-कचालू बेटा कहाँ गये थे,
बन्दर की झोपडी मे सो रहे थे।
बन्दर ने लात मारी रो रहे थे,
मम्मी ने पैसे दिये हंस रहे थे।
**************
मछली जल की रानी है,
जीवन उसका पानी है।
हाथ लगाओ डर जायेगी
बाहर निकालो मर जायेगी।
************
आज सोमवार है,
चूहे को बुखार है।
चूहा गया डाक्टर के पास,
डाक्टर ने लगायी सुई,
चूहा बोला उईईईईई।
************
झूठ बोलना पाप है,
नदी किनारे सांप है।
काली माई आयेगी,
तुमको उठा ले जायेगी।
************
चन्दा मामा दूर के,
पूए पकाये भूर के।
आप खाएं थाली मे,
मुन्ने को दे प्याली में।
************
तितली उड़ी,
बस मे चढी।
सीट ना मिली,
तो रोने लगी।
ड्राईवर बोला, आजा मेरे पास,
तितली बोली " हट बदमाश "।
************
कविता साभार: आर्कुट-विचरण
चित्र साभार: डिस्कवर इंडिया-स्ट्रीट गेम्स
सोमवार, सितंबर 10, 2007
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
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47 टिप्पणियां:
सच बचपन की याद दिला दी आपने। आप जिसे सतौलिया कहते थे, हम उसे पिट्ठुल कहते थे। फिर आलू कचालू बेटा वाली राइम में बन्दर की जगह कुत्ता याद है मुझे। मगर सच ये सारे खेल खेले हुये हैं हमारे।
बहुत बढिया समीर भाई. आपने जो छोटी छोटी तुकबन्दिया एक जगह इकट्ठी दी है . बडी काम की है. मै अभी इसका प्रिन्ट लेने जा रहा हूं. मेरे बिटिया के साथ मुझे खेलने मे काम आयेगा.
आन मिलो खेलो खालो,
कच्चा धागा रेस मिला लो,
दो पत्ते तोडे, एक पत्ता कच्चा
हिरन का बच्चा
बच्चा गया पानी पीने
नानी ने पकडा
नानी गयी लंदन
लंदन से लाई कंगन
कंगन गया टूट
नानी गयी रूस
नानी को मनायेंगे
रसमलाई खायेंगे
रसमलाई खट्टी
उसमें निकली मच्छी
मच्छी में काँटा
मम्मी ने मारा चाँटा
चाँटा लगा जोर से,
मम्मी ने मंगाये समोसे
समोसे बडे अच्छे
हमारी तुम्हारी नमस्ते !!!
सतौलिया को हम कहते थे गेंदताड़ी..
'करोगे याद तो हर बात याद आएगी'.. अब इस पर लिखिये..
समीर भाई, आपने तो पूरा बाल संसार ही रच डाला। बचपन की यादें ताजा कर दीं और बच्चों का बचपन भी याद दिला डाला।
वाह... समीर जी आप ने तो वाकई एक बालक की तहर अपना बालपन साथ साथ हमारा बचपन की सुनहरी यादो को दोबारा ताजा कर दिया........
भई बढ़िया है।
बचपन की याद को आपने ताज़ा कर दिया । पलकों के किनारों पर कुछ नमी सी महसूस हूई छूकर देखा तो आंसू का एक कतरा बेसाख्ता वहां आ गया था ।
मेरे दिल के किसी कोने में इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देख कर दुनिया बड़ा होने से डरता है
एक ग़लती आपने की है उसको सुधार लें ये दौलत भी ले लो को आपने ग़ज़ल कहा है जबकि वो नज़्म है नज़्म हिंदी के गीत की तरह होती है उसकी विशेषता ये होती है कि उसमें शे'र न होकर छंद होते हैं और पूरी की पूरी किसी एक ही विषय पर चलती है जैसे ये बचपन पर है
कभी रेत के ऊंचे टीलों पे जाना
घरोंदे बनाना बना कर मिटाना
वो मासूम चाहत की तस्वीर अपनी
वो ख्वाबों खिलोनों की जागीर अपनी
न दुनिया का गम था न रिश्तों के बंधन
बड़ी खूबसूरत थी वो जिंदगानी
अब ये हुआ छंद शे'र नहीं है उसलिये इसे नज़्म कहेंगें ग़ज़ल नहीं। शे'र तो वही होता है दो मिसरों वाला । मिसरा उला और मिसरा सानी वाला । इसलिये ग़ज़ल और नज़्म का फ़र्क समझ में आना चाहिये ।
ठीक है जब आओगे तब खेले लेगे ..मै गुल्ली डंडा मगवाकर रखता हू..खॊ खो से लेकर आईस पाईस तक,लगंडी से लेकर छल कबड्डी आला ताला ,सब दोहरालेगे..?
कुछ के पास बच्चे हैं - सो बच्चे बन जायेंगे. हम जैसे तो इस तरह की पोस्ट पढ़ कर ही आनन्द ले सकते हैं. और लिखें ऐसा.
:)))
जबर्दस्त समीर भाई
समीर भाई खूब याद दिलाया ।
गेंद से मारने वाला खेल भोपाल में हुल गदागद कहलाता था ।
और दूसरा वाला टीपू ।
फिर हमने भी भौंरे और कंचे काफी चलाये हैं ।
और गिल्लीयां काफी तोड़ी हैं ।
बचपन में ले गये आप तो ।
आईये मुंबई में हुल गदागद खेला जाए ।
यह पढ कर तो
याद मुझे आते वो खेल
थका नही जिन्हे खेल-खेल
चोर-पुलिस कंचे का खेल
और अंताक्षरी में सही मेल।
शुक्रीया समीर जी
मस्त!!
नाम अलग अलग हैं पर बचपन के खेल सब वही हैं।
लंगड़ी कूद कर साथ खाने वाले खेल को यहां बिल्लस कहते हैं।
अपन को सब समझ में आ गया गुरुदेव कि आपको रेस-टीप अर्थात छुप्पन-छुपाई वाला खेल सबसे ज्यादा पसंद क्यों था। मोहल्ले के सब लड़के-"लड़कियां" जो साथ में खेला करते थे ।
आज आप का लेख पढ कर बचपन याद आ गया । समीर जी बचपन कहाँ भूलता है....जब भी अपने आस-पास किसी बच्चें को कंचे खेलते देखता हूँ ...तो कई बार खुद भी उन्हीं के साथ शुरू हो जात हूँ।अच्छी याद दिलाई आपने बचपन की।
आज नैहर बडा याद आया और साथ ही बचपन की सहेलियां भी । ्समीर जी आपकी रचना से अपना आँगन याद आ गया । बहुत सुंदर्……।
जिस तरह अब बचपन याद आ रहा है वैसे ही आज के दिन कल याद आयेंगे इसलिये हर पल का मजा लीजिये जितना हो सके उतना ज्यादा। ज्यादा इसलिये कह रहा हूँ कि आप सदा मजे मे रहते है। हम आप से सीख रहे है जिन्दादिली।
बड़ा अच्छा बचपना है।
समीर जी बहुत अच्छी याद दिलाई आपने बचपन की
कुछ ओर भी खेल हुआ करते थे नाम कुछ याद नहीं पर कुछ इस तरह से-
कुछ लाईनें खींचते थे गेट के पीछे या पत्थर के नीचे ओर दूसरे बच्चे उनको ढूँढते थे जो नहीं मिलती थी उनको हम गिनते थै ओर जिसकी ज्यादा होती थी वो जीत जाता था..
ओर भी
कोडा छपाट छाई
आगे पीछे मार छाई
इसमें बच्चे एक राउन्ड बनाकर बैठ जाते थे एक बच्चा घूमता हुआ रूमाल लेकर और किसी एक के पीछे रख देते था अगर वो देख लेता था तो वो रूमाल लेकर भागता था और फिर वो किसी के पीछे रखता था वरना वही बच्चा आकर उसे उठा लेता था और उसकी पिटाई करता था कुछ इसी तरह से याद है ...
समीर जी बहुत अच्छी याद दिलाई आपने बचपन की
कुछ ओर भी खेल हुआ करते थे नाम कुछ याद नहीं पर कुछ इस तरह से-
कुछ लाईनें खींचते थे गेट के पीछे या पत्थर के नीचे ओर दूसरे बच्चे उनको ढूँढते थे जो नहीं मिलती थी उनको हम गिनते थै ओर जिसकी ज्यादा होती थी वो जीत जाता था..
ओर भी
कोडा छपाट छाई
आगे पीछे मार छाई
इसमें बच्चे एक राउन्ड बनाकर बैठ जाते थे एक बच्चा घूमता हुआ रूमाल लेकर और किसी एक के पीछे रख देते था अगर वो देख लेता था तो वो रूमाल लेकर भागता था और फिर वो किसी के पीछे रखता था वरना वही बच्चा आकर उसे उठा लेता था और उसकी पिटाई करता था कुछ इसी तरह से याद है ...
वाह समीर जी , आपने तो बचपन की याद करा दी । आपके द्वारा उपयुक्त शब्द बहुत जाने पहचाने लग रहे थे फिर जब पढ़ा कि आप भी मध्य प्रदेस में बड़े हुए तो समझ आया । मैंने भी बचपन के तीन वर्ष ग्वालियर के पास गुजारे । खूब सितौलिया खेला । आप जिसे मार गैंद कह रहे हैं उसे हम शायद गैंद ताड़ी बोलते थे । विष अमृत, नदी पहाड़ भी खेले और लंगड़ी कूद को शायद स्टापू भी बोलते थे ।
हमारे घर में भी खस की टटिया लगतीं थी । हम भी पूर दोपहर बाहर या छत पर खेलते रहते थे । वे भी क्या दिन थे !
आपकी दी हुई कविताओं में से कुछ मैंने भी गाईं हैं । इन्हें देने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद । इनका प्रिन्ट आउट लेकर अपने स्कूल के बच्चों को दूँगी ।
घुघूती बासूती
समीर जी बहुत अच्छी याद दिलाई आपने बचपन की
कुछ ओर भी खेल हुआ करते थे नाम कुछ याद नहीं पर कुछ इस तरह से-
कुछ लाईनें खींचते थे गेट के पीछे या पत्थर के नीचे ओर दूसरे बच्चे उनको ढूँढते थे जो नहीं मिलती थी उनको हम गिनते थै ओर जिसकी ज्यादा होती थी वो जीत जाता था..
ओर भी
कोडा छपाट छाई
आगे पीछे मार छाई
इसमें बच्चे एक राउन्ड बनाकर बैठ जाते थे एक बच्चा घूमता हुआ रूमाल लेकर और किसी एक के पीछे रख देते था अगर वो देख लेता था तो वो रूमाल लेकर भागता था और फिर वो किसी के पीछे रखता था वरना वही बच्चा आकर उसे उठा लेता था और उसकी पिटाई करता था कुछ इसी तरह से याद है ...
आइला, एतनी टिप्पणीयां । हमें भी बच्पन याद आ रहा है ।पहला गीत मे एक लाइन छोड दी है
पोशम्पा भई पोशम्पा
लालकिले में क्या हुआ
सौ रुपए की घडी चुराई
अब तो जेल मे जाना पडॆगा....
एक और भी है
अक्कड बक्कड बम्बे बो
अस्सी नब्बे पूरे सौ
सौ मे लगा ताला चोर निकल के भागा था ....
और वो वाला खेल---
एक लडकी बाग मे बैठी रो रही थी
उसका साथी कोई नही था......
भई, पढ़ते ही हम तो बचपन के टाइम-ज़ोन में पहुंच गए। इन खेलों के साथ हमें एक और खेल का ध्यान आगया, जो खेला करते थे।। अजीब सा नाम है - 'लपक झपक के बांकड़ा, दाल कच्ची कि पक्की'। कमर टूट जाती थी पर मजाल है पप्पन मियां की टोली हमारी टोली से जीत जाए!
बस दुष्यंत कुमार के शब्दों में थोड़ा फ़ेर बदल ही कर सकताअ हूँ
कभी जब यादगारों की अंधेरी कोठरी खोलें
बहुत कुछ है जो अपना और पहचाना हुआ होगा
Sammer bhai va anya saathi,
Bambai mei saat paththar wali game ko hum log Naargoliyo ...kehte the ..aur,
Chupa chupike khel mei, ek meri saheli Meena ke
bade bhai the Arun , we , hum Ladkiyon ki Frock maang ke pehen lete the ;-) aur jaan bujh ker thodee dikhla dete the ..aur jo dhoondh raha ho use dhokha ho jata tha ki ye Meena ya Lavni hai ...
aur Arun bhai Hanuman ji ki tarah kood ke bahar nikal ke khoob hanste the ...ki kaisa ullu banaya !!
Ha ...Ha ...Ha ...
Kya yaadein hain Bachpan ki ...
chaliye mja aa gaya ...
Ek main bhee post likhti hoon ...
Sare gane badhiya hain ...Angrezi mei post karne ke liye So sorry ...:-(
I'm away from my PC ...
Aapki post , humesha ki tarah , ekdam firs class lagee ....
Sa sneh,
Lavanya
समीर जी आपने अच्छी याद दिलाई बचपन की।
अच्छी पोस्ट है।बधाई।
"आप भी ना समीर जी क्यूँ दुखती रग पे हाथ रखते हैँ?"
"अच्छे भले भूले बैठे थे...फिर से याद दिला के कर दिया ना कबाडा"
"जब छोटे थे तो बडे होने के चक्कर में रहते थे ...तब लगता था कि कब हम बडे होंगे और कब ये गीत गुनगुनाएँगे,
"दुख भरे दिन बीते रे भैय्या...अब सुख आयो रे"
"लेकिन जब वो तथाकथित सुख भरे दिन आ गये तो गीत कुछ यूँ गुनगुनाना पड रहा है,
"सुख भरे दिन बीते रे भैया अब दुख आयो रे"
"काश कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन"...
समीर भाई
हँसते हुये यह कहाँ बचपन में ले गये..मैं आप से इसीलिये साथ बैठने में घबराता हूँ..आप बात कहाँ से शुरु करते हैं कि अंदाज ही नहीं लगता कि कहाँ खत्म होगी. आपसे अब डर लगने लगा है कि कब रुला दोगे! :)
वैसे लिख तो गजब रहे हैं, बस यही तो हमारी कामना थी.
-खालिद-सादिया
आया है मुझे फ़िर याद वो जालिम गुजरा ज़माना बचपन का :)
पढ़ के दिल कर रहा है की फ़िर से वापस वही चले जाए और खेले
फ़िर से वही आँख मिचोली ,बनाये फ़िर से एक छोटा सा घर प्यारा प्यारा
और रचाये फ़िर से गुड्डे गुडिया की शादी और वही हर पल शरारत करती एक टोली :)
आपने हमें दुबारा बच्चा बना दिया थोडी देर के लिए सही
वाह! बहुत दिनों बाद ब्लॉग जगत में आया...और बड़ी मज़ेदार पोस्ट पढ़ने को मिली!
मेरे बचपन के इतने गाये यहां दिखे कि एकदम से कुछ क्षण के लिए मैं खो गया. काश वे दिन कभी वापस आ सकते !!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
हे प्रभु, मुझे अपने दिव्य ज्ञान से भर दीजिये
जिससे मेरा हर कदम दूसरों के लिये अनुग्रह का कारण हो,
हर शब्द दुखी को सांत्वना एवं रचनाकर्मी को प्रेरणा दे,
हर पल मुझे यह लगे की मैं आपके और अधिक निकट
होता जा रहा हूं.
aap kitani masti karate the uncle mujhe to mom khelane hi nahee deti hai.waise mai harry pottar padhataa hoon .ha ha ha
akshay
इस सर्जनात्मक संस्मरण के लिए वाह! बधाई!
बचपन की यादें ताजा कर दीं।
बहुत सुंदर है. . .
समीर जी!
फिर से वो दिन याद दिला दिये आपने. ये लगभग सभी खेल हमने भी खेले हैं और यही गीत गाकर बड़े हुये हैं. आपने कुछ कविताओं का ज़िक्र किया तो एक और याद आयी:
एक, दो, तीन
बुड्ढे की मशीन
बुड्ढा गया जेल में
हम गये रेल में
रेल करे कुट-कुट
हमने खाये बिस्कुट
बिस्कुट निकले खराब
हमने पी शराब
शराब निकली अच्छी
(वैसे तब तक हममें से किसी ने चखी भी नहीं थी)
हमने खायी मच्छी
मच्छी में था काँटा
मम्मी ने मारा चाँटा
धन्यवाद, उन हसीन पलों को याद कराने के लिये.
उठो लाल अब आँखे खोलो
पानी लाई हूँ मुँह धो लो.
बीती रात कमल दल फूले..
____________________
काली काली कू कू करती
जो है डाली डाली फिरती.
हरे छुपे पत्तों में बैठी....
___________________
लाठी ले कर भालू आया
छम छम छम.
ढोल बजाता मेंढक आया...
__________________
मामा मामा भूख लगी
खालो बेटा मूँगफली.
मूँगफली में दाना नहीं....
बीते हुये पल बहुत याद आते है पर अब
किश्तियों के वो कागज़
अपना दम तोड देते है
स्कूल के बस्तो मे...
किश्तियों के वो कागज़
http://ankahisi.blogspot.com/2007/08/blog-post.html
आपने बचपन के बहाने बहुत सी यादों को ताजा कर दिया है। सचमुच मजा आ गया। आशा है आगे भी ऐसी मनभावन पोस्ट पढने को मिलती रहेंगी।
कमाल कर दिया आप ने! आज रात की तफरीह सार्थक हो गई ! इस पोस्ट पेर कुछ कमेंट नही करुंगा बस इतना कह सकता हूँ मुझे अपने सबसे पसंदीदा लेखक " मुंशी जी " की याद आ गई और कुछ अजीब सा हुआ होटों पर मुस्कान, दिल में तेज़ धड़कन और आंख के किनारे पर नमी बरबस आ गई ...
:))
ab aur kuch nahi kahenge hum
bachpan ke din jiyenge hum
wo barish ki boondein, wo naalon mein pani
ab, phir kuch sapne bunenge hum
शायद और्कुट पर वो बचपन वाला राइम देखकर ही आपने ये पोस्ट किया था, आपको शायद आश्चर्य होगा की मैंने भी ऐसा ही कुछ पोस्ट अपने ब्लौग पर भी किया था और वो भी और्कुट की ही मेहरबानी थी.. उसे पढने के लिये यहां चटखा दबायें..
वैसे मेरे बचपन की याद आपकी तरह समृद्ध तो नहीं थी पर ये सारे खेल मैंने भी खेले हैं और वो भी घर वालों की नज़रों से छुपकर...
कभी समय मिला तो आपको और्कुट पर जरूर खोजुंगा, अगर आपको कोई एतराज ना हो तो.. :)
समीरजी आप का बहुत बहुत धन्यवाद
जवानी में रुलाने के लिये, यकीन मानिये मन हल्का हो गया, बहुत दिनों के बाद बचपन और बचपना याद आया है।
एक बार फ़िर आप का बहुत बहुत धन्यवाद।
ऐसे ही अपने अनुभव बाँटते रहिये।
आपका रमेश कुमार मिश्र (बनारस)
ye baate bachpan ko yaad dilaati hai. bahut achha laga ye sab padhkar. aisa lagat hai ishwar ke kitna karib hota hai bachpan. "mai to bekar hi insaan ban gaya, lobh, savarth, moh, shanka, baimani,jhoth, dhokha dena, "haan kitna kuch seekh liya maine bade hokar." kash mai bada na hota.
ap itna door hokar bhi india ke bachpan ko bhut sundar rup diya... i would like to tell u one more i think u missed it...
akkad bakkad bambe boo, assi nabbe pure soo, soo me lga dhaga chor nikal ke bhaga, mem layi biskut, sahab bola very good.
do u know???
from Mr. Amit's Wife Mrs. Nishu Sharma
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