रविवार, जनवरी 21, 2007

खुलासा-ए-मुहब्बत: आग का दरिया

उस दिन जब फुरसतिया जी ने अपने चिर परिचित अंदाज में अपना लेख “आग का दरिया, बसंती की अम्मा और कुछ हाईकु “ पेश किया और हमसे हमारी इश्क मुहब्बत की ताजा तरीन उधाड़ी गई खबरों पर स्थिती स्पष्ट करने की आशा की, तब यह हमारा नैतिक दायित्व बन गया कि हम स्थितियों को झाड़ पोंछ के, साफ सुथरा करें. इसी श्रृंखला में पहले हमने अपनी फुरसतिया जी के द्वारा उधाड़ी गई दास्तान में गीत का पैबन्द लगाने की कोशिश की. लोग आये, सहानुभूति भी दिखायी. कुछ ने तो राग मे राग मिला कर गाया भी, नये नये शेर गढ़े, एक पर एक शेर जुड़ते गये, हमारे शेर बाहर होते गये और नये शेरों से एक नई गज़ल बनने को तैयार है, मगर सब शायर हमें दर्द में अटका देखकर संवेदनावश बस यही कह रहे हैं:

हमने तो बस शेर लिखे हैं, बाकी गज़ल तुम्हारी है….
इतना भी है क्या घबराना, आनी सबकी बारी है….


एक दिन यह वाला गीत पू्रा सुनाऊँगा, आज तो बस सफाई वाली बात करनी है. वैसे सफाई तो होती रहेगी, एक बात ध्यान देने योग्य है. संजय भाई तरकश जब हमारे दरवाजे आये तो साथ मे बैठ दुख जताया और मैने ध्यान से देखा था कनखियों से, इनकी आँख में आँसूं भी थे और गले में भर्राहट भी, बोले:

कविता के वियोग में बिताई तन्हा रात के लिए हमारी संवेदनाएं. :(

और जब फुरसतिया जी के दरवाजे पहूँचे- तब अति प्रसन्न, पूरे दाँत लगभग बाहर और एक आँख दबी हुई, उनसे कहे:

एक बार फिर समीरलालजी को फँसा देख आनन्द की अनुभूति हो रही है.

सोचे होंगे कि अब तो समीर लाल यहाँ आने से रहे, टिपिया गये हैं, क्या पता चलेगा. लेकिन हम भी कम नहीं हूँ, जब तक किसी की नई पोस्ट न आ जाये, रोज रोज चेक करता हूँ कि कौन क्या कर रहा है. हा हा…कृप्या अन्यथा न लें मगर यदि आप हमारे गाँव में होते, तो आपको

“२००६-२००७ संयुक्त का सर्वश्रेष्ट उदीयमान व्यवहारिक पुरुष”

का खिताब मिलता. तो अब सफाई के लिये झाडू-पौंछा उठाकर चलें:

इश्क में क्या बतायें कि यारों, किस कदर चोट खाये हुये हैं
आज ही हमने बदले हैं कपडे, और आज ही हम नहाये हुये हैं.........


हमारे मित्र फुरसतिया जी, एकदम सही पहचान गये. इनकी सक्षमताओं और काबिलियत को देख मैं कई बार सोचने लगता हूँ कि यह बंदा गलत फंसा है कानपुर में, इन्हें तो बुश की सलाहकार समीति का अध्यक्ष होना चाहिये था. उधर सद्दाम जुकाम से परेशान नांक पोछता और इधर यह बता देते कि उनके यहां कुछ गैस स्त्राव है उन डिब्बों में से जो उसने अमेरिका के सबवे सिस्टम में हमला करवाने के लिये खरीदे हैं. अभी मारो उसको , नहीं तो बड़ा गजब हो जायेगा. और साथ ही बिन लादेन और न जाने एक दो और देशों को भी लपेटवा देते.

आपकी लिखी एक लाईन भी तो यहाँ से वहाँ होकर देखें और फुरसतिया जी पूरे एक पन्ने का लेख उस लाईन की बखिया उधेड़ने में लगायेंगे, और ऐसी उधेड़ेंगे कि सब के साथ साथ आप खुद भी और साथ में बाकी उधड़े लोग भी, जो साथ में लपेटे गये होंगे, आह वाह करने लगेगो. शतरंज के घोड़े याद आते हैं जो एक बार में ढ़ाई घर चलते हैं. चल तो गये, फिर यहाँ वहाँ ताकते हैं कि हमारी चाल में कौन कौन घायल हुआ और हम कहाँ टिके हैं . कई बार एक घर चल लें तो भी काम हो जायेगा, मगर नहीं साहब, जब चलेंगे तो चलेंगे ढ़ाई घर ही. यही नियम है और ऐसा ही होगा.

हम तो क्या कहें . बिल्कुल चुप रहते मगर लेख में कह गये कि आशा है कि समीरलाल जी जल्द ही इसका खुलासा करेंगे और जो बतायेंगे वह सच से इतनी ही दूर होगा जितना कि भारतीय नौकरशाही से ईमानदारी! अब फुरसतिया जी की शान में गुस्ताखी करना भी हमारे बुते की बात नहीं, तो बताये देते हैं खुलासा वरना हम तो वैसे भी चुप रहने वाले आदमी है, इस बात का पुख्ता सबूत श्रीश भाई, जो कि आजकल खुद ही चुप हैं, दे सकते हैं , वो तो हमारा स्वभाव जानते हैं. लेकिन भाई जी पहचाने सही हैं. उन्होंने न सिर्फ़ शेर पूरा किया:

यह इश्क नहीं आसां , बस इतना समझ लिजिये ,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है.


बल्कि माननीय राकेश जी को उकसाया कि यह दोष उन पर आयेगा और कुछ मेरे और फुरसतिया जी के साझा (कॉमन) दोस्तों, जो कि यूँ भी मौके की तलाश में रहते हैं, को भी चुगली के लिये उकसाया है .

माना कि हम दो जवान बेटों के बाप हैं मगर दोनों को मैं अपना चलता फिरता विज्ञापन (प्रोडक्ट सेंपल) मानता हूँ, याद करता हूँ अपना प्रिय गीत, फिल्म ‘सावन को आने दो’ से जिसे इंदीवर ने लिखा और येशुदास ने सिर्फ़ एक बार गाया था और हम बार बार आज तक हमेशा गाते हैं:

तुझे देख कर जग वाले पर यकीन नहीं क्यूं कर होगा
जिसकी रचना इतनी सुंदर, वो कितना सुंदर होगा.


कितना गहरा गीत है, क्या भाव हैं. लगता है जैसे मेरे ही लिख गये. इसे कहते हैं गीत. मन श्रद्धा से भर उठता है. आजकल के गीत तो क्या बतायें जैसे ”कितने आड़्मा, आड़्मा, आड़्मा----“ मानो कहीं फिट ही नहीं होते. हमें इससे क्या, हमारे लिये तो इंदीवर जी लिख गये, बस!! उन्हें देखकर ही लोगों का दिल उनके रचनाकार को देखने के लिये मचल उठता है.

इसके पहले कि कोई भी उकसे, हम खुद ही बताये देते हैं .

अगर यही बात किसी फिल्म के लिये कहानी/डायलग लिखने जैसी होती तब हम कहते,


"हाँ हाँ, हमें इश्क हो गया है, हम मुहब्बत के भंवर में फंस चुके हैं, अगर प्यार करना गुनाह है तो हम गुनाहगार हैं....सुबुक सुबुक....लेकिन हमने वैसा ही प्यार किया है, जैसा कभी मीरा ने कृष्ण से किया था, हीर ने रांझा से किया था, रेखा ने अमिताभ से किया था..सुबुक सुबुक..हम आज भी पाक (पाकिस्तान वाला नहीं-साफ वाला) और पवित्र एवं स्वच्छ हैं- गंगा की तरह (ऋषिकेश से अप नार्थ वाली-उससे साउथ तो अभी कुंभ के कारण हालत और पतली है)---

सामने सीन में मि. फुरसतिया खड़े हैं, उनकी दोनों आँखों से दो दो बूंद आंसू टपकते हैं और वो कह रहे हैं, “मुझे माफ कर दो, मैने तुम्हें गलत समझा, तुम पर झूठे लांछन लगाये—अभी हम उनके पाश्चातापी भाव से प्रभावित उनके कंधे पर सर टिकाने बढ़े ही थे कि”

कट कट-डायरेक्टर गुस्से में आता है-मि. फुरसतिया, यह क्या है, माना आपकी पहली फिल्म है और आप खुश हैं, मगर इस सीन में आपके चेहरे पर आत्मग्लानि, खेद और पाश्चाताप के भाव होने चाहिये अपने लगाये इन लांछनों की वजह से और आप मुस्करा रहे हैं. यही हाल रहा तो इस पहली फिल्म को ही अपनी आखिरी समझो.

डायरेक्टर फुरसतिया जी को डांट रहा है, लताड़ रहा है. फुरसतिया जी हाथ जोड़े घिघियाये से खड़े हैं कि कहीं फिल्म से निकाल ही न दे, हम दिल ही दिल में मुस्करा रहे हैं, खुश हो रहे हैं. “



मगर यहाँ कोई फिल्म-विल्म तो बन नहीं रही, यहाँ तो साफ साफ बताना है.

क्या बतायें, ऐसी मुहब्बत हुई है कि सुबह से ही किसी काम में मन नहीं लगता, यह यार इश्क मुश्क का चक्कर है ही बड़ा अजीब. बस उठे, समय बेसमय और खिड़की पर. शायद नजर आ जाये. पता नहीं जो कल लिख कर खिड़की से फेंका था , उसका क्या हुआ. कहीं किसी और के हाथ लगकर जग जाहिर तो नहीं हो गई बात. पता नहीं लोगों ने क्या क्या बात बनायी...फिर भी बस हर वक्त यही, बकौल गालिब:

खत लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक हैं तुम्हारे नाम के.


न खाने में मन लगे, न पीने में . खाना खाते खाते भी दो बार खिड़की में झाँक लेते हैं कि क्या गतिविधियां चल रही हैं. न ऑफिस के काम में दिल लगता है न घर के काम में. पत्नि तो खिड़की को अपनी सौतन मान बैठी है ....हर वक्त हमारी नज़र खिड़की पर ही रहती है और मन भी. उसका क्या दोष , वो तो कोई भी यही सोचेगा. आखिर, जब इतनी दूर से फुरसतिया जी एक लाईन पढ़कर भाँप गये तो वो तो यहीं है, साथ में.रात में कुछ लिख कर खिड़की में से डाल आये और बस अब लो, सपने में भी वही,,,, सुबह उठते ही..खिड़की पर.. क्या हुआ देखें जरा .

यही जिंन्दगी हो गई है..हर वक्त खिड़की और हर वक्त इंतजार ....अब तो इसकी लत हो गई है और कुमार विश्वास की कविता याद आती है:

जब बार बार दोहराने से, सारी यादें चुभ जाती हैं,
जब ऊंच नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती हैं
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है
तब इक पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है


फिर फिल्मी स्टाईल, "मै दीवाना हो गया हूँ, मै पागल हो गया हूँ ...."

"खैर मैं जो भी हो गया हूँ मैं गलत नहीं हूँ...."

आपको बता दूँ यह पागलपन, यह दीवानापन, यह इश्क सब चिट्ठे और चिट्ठाकारी से है, खिड़की बिल्लू की विंडोज और जबाब -टिप्पणियां...वो चिट्ठी जो हम खिड़की से गिराते हैं, वो हमारी पोस्ट...क्या यही हालत आपकी भी नही है..अरे, २०० से ज्यादा लोग इस लफड़े में फंसे हैं.तो फिर हम पर सच बोलने का इतना बड़ा इल्जाम क्यूँ ........ओबेद उल्लाह अलीम साहब को फिर सुनिये:

तेरे प्यार में रुसवा हो कर, जायें कहाँ दीवाने लोग,
जाने क्या क्या पूछ रहे हैं, ये जाने अनजाने लोग.


बस इससे ज्यादा हमें कुछ नहीं कहना, हम तो ज्यादा बोलते ही नही, चाहे तो श्रीश से पूछ लो. श्रीश, इनको बताओ, यार!! वाकई, यह सब बयान सच्चाई से उतना ही करीब है जितना जीतू से कोई भी चिट्ठाकार-बस एक ईमेल की दूरी. अब चला जाये और इसे खिड़की से गिराया जाये.

--समीर लाल ‘समीर’ Indli - Hindi News, Blogs, Links

11 टिप्‍पणियां:

पंकज बेंगाणी ने कहा…

प्यार हुआ भी किससे
इकरार हुआ भी किससे

अपने ख्याल और अपनी कलम
हर कहीं बस अपने किस्से,
देस की याद, परदेश का साथ,
कुछ तुम कहो कुछ अपने हिस्से.

आंसुओं की स्याही और यादों की कलम,
प्यार का वर्क, और दुनिया से यारी,
लिखते लिखते मिटती दुरीयाँ,
लगे रहो लालाजी, चलती रहे चिट्ठाकारी!!

बेनामी ने कहा…

हा हा हा...
हँसी रोक कर बीचमें नतमस्तक होता हूँ, आपने हमें 'व्यवहारीक पुरूष' की उपाधी से नवाजा तथा हमारे अनुरोध को स्वीकार कर हास्य में अपने मन की बात कही.
इसमें कोई शक नहीं आप इश्क में फस गए हैं. तभी यह नहीं देख पाए की आपको फसा देख पहले खुश हुए बादमें आपकी दास्तान सुन दुखी हुई. पर इसमें आपका क्या कसूर इश्क मुई चीज ही ऐसी है. भ्रमित कर देती है.
मजा आया पर मामले का खुलाशा नहीं हुआ. खिड़की के उस पार है कौन?
अन्यथा न लेते हुए चाहे जितनी स्माईली लगा लें. :)

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

बहुत खूब लिखा है समीर जी क्या बात हैः)

बेनामी ने कहा…

वाह जी वाह, बहुत खूब।
यह इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे
इक ब्लाग बनाना है और लिखते चले जाना है।

अब इस शेर की इतनी बुरी हालत किये जाने का इल्जाम हम पर न आये, क्योंकि जो आपने लिखा है हमने वही अभिव्यक्त किया है ;)

बेनामी ने कहा…

फुरसतिया जी, आपके शेर बहुत खुबसूरत लगे. इन्हें पढ़कर एसा लगा काश हम भी शायर होते तो एक शेर अपना भी सुनाकर वाह वाही बटोर लेते...

ePandit ने कहा…

हमारी चुप्पी तुड़वा कर ही मानेंगे शायद आप। दरअसल पंडित जी आजकल नए घर में शिफ्ट करने में लगे हैं, इसी काम में उन्होंने हमको भी उलझा रखा है। चिंता ना कीजिए, कुछ दिनों में धमाकेदार वापसी करते हैं।

बेनामी ने कहा…

लगता है ये रि-एक्शन बहुत सारे एक्शनों का नतीजा है, ये लेख पढके लगता है समीर जी पे वार करते रहना चाहिये। क्यों? मजेदार जो पढने को मिलेगा। जिसकी रचना इतनी सुन्दर के बारे में आपके हमारे विचार बहुत मिलते हैं। बस फर्क इतना है कि रचियता का पता देने के लिये आपके पास दो रचना हैं हमारे पास सिर्फ एक।

बेनामी ने कहा…

जिसकी रचना इतनी सुंदर .....

क्या बात है !हंसते हंसते बुरा हालहो गया !

अनूप शुक्ल ने कहा…

आपकी ये बहानेबाजी ध्यान से पढ़ी गयी! हमें खुशी है आपने वायदे और आशा के अनुसार सच से पर्याप्त दूरी बनाये रखी। इस सारी बहानेबाजी पर प्रतिक्रिया सुरक्षित है!

राकेश खंडेलवाल ने कहा…

भाई साहब. हम तो आपको अपना शुभचिन्तक माने बैठे थे और आप यहाँ फ़ुरसतिया जी को वाशिंगटन बुला कर हमारी छुट्टी कर देने पर उतारू हो रहे हैं. अब तो यही कहना पड़ेगा,
इश्क तुमको दुश्मनी सिखला गया
दोस्त थे वरना बड़े तुम काम के:-)))))

Amita - Spider demon ने कहा…

Hey uncle!
it's really cool that u blog in hindi and have done it for so long!
keep up the good work!
ttyl
Amita