इधर वर्षांत में दफ्तर का काम भी कुछ बढ़ गया था और फिर चिट्ठाजगत की हलचल और नव वर्ष के स्वागत में आयोजित पार्टियां. इन सब व्यस्तताओं के बीच भी दिल को किसी कोने में किसी वजह एक गीत गुँजता रहा. मैने अक्सर पाया है कि अति व्यस्तताओं के दौर में भी दिल व्यस्त नहीं होता, भले ही दिमाग और शरीर व्यस्त रहें- दिल फिर फिर उड़ कर जाता है अपनों के पास.
वो इक पागल सी चिड़िया
घने घनघोर जंगल में, बहारें खिलखिलाती हैं
लहर की देख चंचलता, नदी भी मुस्कराती है
वहीं कुछ दूर पेड़ों की पनाहों में सिमट करके
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
कभी वो डाल पर बैठे, कभी वो उड़ भी जाती है
जुटा लाई है कुछ तिनके, उन्हीं से घर बनाती है
शाम ढलने को आई है, जरा आराम भी कर ले
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
अभी कुछ रोज बीते हैं, मिला इक और साथी है
नीड़ में अब बहारें हैं, चहकती बात आती है
लाई है चोंच में भरके, उन्हें अब कुछ खिलाने को
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
बड़े नाजों से पाला है, उन्हें उड़ना सिखाती है
बचाना खुद को कैसे है, यही वो गुर बताती है
उड़े आकाश में प्यारे, अकेली आज फिर बैठी
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
--समीर लाल 'समीर'
सोमवार, जनवरी 08, 2007
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16 टिप्पणियां:
agar aap buraa na maanein to main aapki likhi kuchh cheezein hindi mein kitaab banaa kar dena chaahti hoon - yahin National Association for the Blind mein.. unhone mujh se Hindi ki ruchikar kitaabeing maangi hain aur mujher net par kaheen miti nahi.
तुम्हारे गीत चिड़िया क्या हवा भी गुनगुनाती है
सहमते पांव से चलती वो जब जब पास आती है
थिरकती शाख पर पत्ती, जमीं पर दूब हँसती है
घटा जब वादियों को गीत की भाषा सुनाती है
How do we know
जरुर, यह मेरा सौभाग्य होगा. आप को जो भी रुचिकर लगता हो, बिल्कुल ले लें.पधारने के लिये शुक्रिया.
राकेश भाई
हमेशा की तरह बहुत बेहतरीन और बहुत बहुत धन्यवाद.
आपकी रचना में मुझे ऐना दिखाई पड़ती है. पढ़ कर महसूस होता है कि ऐना से आप बहुत गहराई तक जुड़े थे. आपके मन, विचारों और रचनाओं में फुदकती हुयी साफ दिखाई दे रही है.
बहुत अच्छी रचना है.
अनुराग भाई
आपसे मुझे पूरी तसल्ली थी कि आप मेरे मनोभाव में छिपी बात समझ जायेंगे और आपने सिद्ध कर दिया. आभारी हूँ. स्नेह बनाये रखें.
बहुत शुक्रिया...
मुझे भी अनुराग भाई की तरह ये चिडिया आपकी एना ही लग रही है. बहुत पसन्द आई कविता!
बहुत धन्यवाद, रचना जी. कविता पसंद करने के लिये और मनोभाव समझने के लिये. आभारी हूँ.
फिर तेरी कहानी याद आई।
पँख फैलाए यादों के,
विचरण करता मेरा मन,
छुट गया जो कुछ पीछे,
वो अपना घर, मेरा आँगन।
होठों पर हँसी, और मन में रूलाई,
फिर तेरी कहानी याद आई!
- ऐना के लिए
(कई लोग सोचने लगे अब कि आपकी कविताओं की पुस्तक छपवाई जाए.. पर जो भी हो पहली प्रति तो मेरी ही रहेगी!) :)
सुन्दर.
चिड़ीया-सी सरल व सहज.
प्यारी एना के नाम.
बहुत ही अच्छी रचना ।
chidiya ke maadhayam se jo aapne atynt sharal manobhavnao ki udan ko vayakt kiya hai yahi to sundar vaykti ki pehachan hai.
पंकज
आजकल कविता बढ़िया रचने लगे हो. बधाई. आदेशानुसार पहली कॉपी सुरक्षित रखने का नोट बना लिया गया है.
संजय भाई
धन्यवाद, संजय भाई.
प्रभाकर जी
हौसला बढ़ाने और कविता पसंद करने का धन्यवाद.
दिव्याभ जी
बहुत आभारी हूँ आपके बड़प्पन के लिये. बहुत धन्यवाद और आभार, आपने कविता पसंद की.
महावीर जी
आभार आपका. आपने कविता पसंद की.
बड़े नाजों से पाला है, उन्हें उड़ना सिखाती है
बचाना खुद को कैसे है, यही वो गुर बताती है
उड़े आकाश में प्यारे, अकेली आज फिर बैठी
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है
बहुत ही सुंदर भाव है ..आपका लिखा पढ़ना हमेशा एक सुखद एहसास देता है !!
रंजू
समीर जी बहुत ही सुन्दर और दिल को छू लेने वाली रचना है आँखो के सामने सभी दृश्य प्रस्तुत हो रहे हैं।
उड़े आकाश में प्यारे, अकेली आज फिर बैठी
वो इक पागल सी चिड़िया भी, मेरे ही गीत गाती है.
सुंदर....बेहद प्यारी सी कविता है।
मैंने शायद आपकी ये पोस्ट 'मिस' कर दी थी। लिंक देने का शुक्रिया
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